Towards the Light - Memoirs in Hindi Moral Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | उजाले की ओर –संस्मरण

Featured Books
  • एक अनोखा डर

    एक अनोखा डर लेखक: विजय शर्मा एरीशब्द संख्या: लगभग १५००रात के...

  • Haunted Road

    उस सड़क के बारे में गांव के बुजुर्ग कहते थे कि सूरज ढलने के...

  • वो इश्क जो अधूरा था - भाग 18

    अपूर्व की ऑंखें अन्वेषा के जवाब का इन्तजार कर रही थी। "मतलब...

  • अनकही मोहब्बत - 7

    ‎‎ Part 7 -‎‎Simmi के पास अब बस कुछ ही दिन बचे थे शादी के।‎घ...

  • डायरी

    आज फिर एक बाऱ हाथों में पेन और और डायरी है, ऐसा नहीं की पहली...

Categories
Share

उजाले की ओर –संस्मरण

============

मित्रों!

स्नेहिल नमस्कार

कुछ ही दिनों की बात तो है कुछ मित्रों के बीच अपनी श्रेष्ठता को लेकर क्या ज़ोर शोर से बहस छिड़ी हुई देखकर मन दिग्भ्रमित हो उठा।

अक्सर हम सभी मित्र बहस में पड़ जाते हैं, यदि कहा जाए कि हर मनुष्य स्वयं को 'द बैस्ट' साबित करने में लगा रहता है तो ग़लत नहीं है | विषय चाहे कोई भी क्यों न हो ,हम चाहे अपनी विद्वता के झंडे गाडें, या अमीरी शान के अथवा किसी और बात के, मन के कोने में यही कसमसाहट रहती है कि कोई हमें छोटा, गया-गुज़रा या 'ऐंवे' ही न समझ ले।

हमारा शरीर जो न जाने कितने यंत्रों का कारखाना है, हमें हर पल यह अहसास कराता है कि हे पाँच तत्वों से बने पुतले! तू किस बात पर घमंड करता है? अपनी हथेली की रेखाओं तक पर तो तेरा नियंत्रण है नहीं!

इंसानी शरीर की उँगलियों में लकीरें तब बनने लगती हैं जब वह माँ के गर्भ में 4 माह का होने लगता है।

ये लकीरें एक रेडियो+एक्टिव लहर की सूरत में माँस पर बननी शुरू होती हैं। इन लहरों को भी आकार DNA (आनुवंशिक) देता है।

आश्चर्य की बात है न कि ये लकीरें किसी भी प्रकार से पूर्वजों और धरती पर रहने वाले अन्य इंसानों से बिलकुल भी मेल नहीं खातीं ।

यानी लकीरें बनाने वाला इस तरह से समायोजन रखता है कि वह अनगिनत इंसानों की तादाद में, जो इस दुनियाँ में हैं और जो दुनियाँ में नहीं भी रहे उनकी उँगलियों में मौजूद लकीरों की शेप और उनके एक एक डिजाइन से कभी नहीं मिलतीं।

वह हर इंसान के हाथों में हर बार एक नए अंदाज का डिजाइन बनाकर साबित करता है कि...

है कोई मुझ जैसा निर्माता ?

है कोई मुझ जैसा कारीगर ?

कोई है मुझ जैसा आर्टिस्ट ?

कोई है मुझ जैसा कलाकार ?

आश्चर्य की सोच इस बात पर खत्म हो जाती है कि यदि जलने से जख्म लगने या किसी अन्य कारण से ये फिंगरप्रिंट मिट जाए तो दुबारा हूबहू वही लकीरें जिनमें एक कोशिका की कमी नहीं होती उभर आती हैं।

ऐसे न जाने कितने उदाहरण हैं जो हमें चेतावनी देते रहते हैं कि भैया! अपने ऊपर नख़रे न करें। संयम और विवेक से सोचें और शुक्रिया अदा करें हमें इस ख़ूबसूरत धरती पर भेजने के लिए उसका और सोचें कोई तो है जो हमें चला रहा है। फिर हमारी महानता क्या हुई?

 

मित्रों को यह सोच सही लगी होगी, ऐसा विश्वास है।

सस्नेह

आपकी मित्र

डॉ. प्रणव भारती