Towards the Light – Memoirs in Hindi Motivational Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | उजाले की ओर –संस्मरण

Featured Books
  • तुझी माझी रेशीमगाठ..... भाग 2

    रुद्र अणि श्रेयाचच लग्न झालं होत.... लग्नाला आलेल्या सर्व पा...

  • नियती - भाग 34

    भाग 34बाबाराव....."हे आईचं मंगळसूत्र आहे... तिची फार पूर्वीप...

  • एक अनोखी भेट

     नात्यात भेट होण गरजेच आहे हे मला त्या वेळी समजल.भेटुन बोलता...

  • बांडगूळ

    बांडगूळ                गडमठ पंचक्रोशी शिक्षण प्रसारण मंडळाची...

  • जर ती असती - 2

    स्वरा समारला खूप संजवण्याचं प्रयत्न करत होती, पण समर ला काही...

Categories
Share

उजाले की ओर –संस्मरण

==========

स्नेही मित्रो

सुप्रभात

हम स्वीकारते हैं कि कण-कण में प्रभु का वास है, कोई भी काम चाहे कितने ही पर्दों के पीछे कर लो, प्रभु की दृष्टि से कभी नहीं छिप सकता फिर भी हम आँख-मिचौनी खेलने से बाज़ नहीं आते | अपने साथ के लोगों से तो हम आँख-मिचौनी खेलते ही हैं, ईश्वर को भी धोखा देने से बाज़ नहीं आते | आरती करते हुए सेठ जी घंटियाँ बजा-बजाकर आरती तो करते हैं किन्तु क्रूर दृष्टि से उस गरीब को घूरना नहीं भूलते जिसे अभी-अभी उनका आदमी घसीटकर लाया है जो कई माह से सेठ से लिए गए पैसों का ब्याज़ नहीं चुका सका है | 

ज़िंदगी है तो माता लक्ष्मी के बिना कुछ काम होना भी संभव नहीं है, हम इस सत्य को भी झुठला नहीं सकते, हम सब इसे स्वीकारते हैं | कुछ भी करने जाएंगे तो सबसे पहले लक्ष्मी जी की आवश्यकता पड़ेगी किन्तु भाई सेठ जी ! माँ की आरती कर रहे हैं तो पहले कर ही लीजिए न ! वह गरीब तो बलि का बकरा है, कहाँ जाएगा ? घूम-फिरकर आपके पास ही आना है उसे, अब भी घसीटकर तो लाया गया है, आपने कौनसा उसे बख्श दिया या बख्श देंगे ?

इस दुनिया में गरीब होना भी बहुत बड़ा अभिशाप है | जैसा ऊपर लिखा गया है, आप सब मित्र भी इससे अवश्य सहमत होंगे कि माँ लक्ष्मी के बिना एक पग भी नहीं चला जा सकता, न सही कार, या टैक्सी में अगर बस में भी जाना हो तब भी हमारी जेब में कम से कम इतने पैसे तो होने ज़रूरी हैं कि बस का टिकिट खरीदा जा सके वरना खदेड़कर बस से उतार दिया जाएगा | धन जीवन में बहुत महत्वपूर्ण है, इसे कोई अस्वीकार नहीं कर सकता किन्तु यह भी अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि जिस प्रभु ने हम सबको बनाया है, उसीने हमें सोचने -समझने की बुद्धि भी दी है, उसने ही हमें यह विचारशीलता तथा करुणा भी दी है कि हम अपने से कमज़ोर की स्थिति समझ सकें और उसकी जितनी हो सके, उतनी सहायता तो कर सकें -----और हाँ, कम से कम प्रभु की सेवा-पूजा यदि करना ही चाहते हैं तो भीतर से करें, उसके लिए बाहर घंटियाँ बजाएँ या न बजाएँ, कम से कम अपने पीछे घिघियाते उस बेचारे गरीब को तो न घूरें जो पहले ही आपके बोझ तले अधमरा हुआ काँप रहा है | सेठ गरीब को अपने भगवान के सामने नतमस्तक भी नहीं होने देता क्योंकि वह उसका भगवान है !पता नहीं क्यों और कैसे हम ईश्वर पर भी एकाधिकार रखना चाहते हैं? नि:संदेह सेठ जी मन में यही सोच रहे होंगे कि जाने कब आरती खत्म होगी और इस कर्ज़दार को आड़े हाथ ले सकूंगा | 

वैसे यह प्रसंग उपरोक्त बात से काफ़ी अलग है परन्तु मनुष्य की प्रवृत्तियों से जुड़ा हुआ है | प्रत्येक मनुष्य को अपने अपने अनुसार ईश्वर की भक्ति करने का अधिकार है, ईश्वर किसी बंधन में तो बंधा हुआ नहीं है जो सेठ जी का ही हो, उन्हें ही मालामाल करे और उन्हें ही मोक्ष प्राप्त कराए !सेठ जी नहीं जानते न जाने किस घडी में समय बदल जाए और वे गरीब के स्थान पर हों और गरीब सेठ के स्थान पर !

वास्तव में प्रत्येक मनुष्य को उसके हिस्से के सुख-दुःख, उसके हिस्से की धन-दौलत, उसके हिस्से के खुशी, ग़म मिलते हैं | सेठ को इतना धन मिला कि उसने गरीबों को ब्याज़ पर धन देकर अपना व्यवसाय खड़ा कर लिया किन्तु प्रभु को धन्यवाद देने में वह कोताही कर रहा था | धन्यवाद कोई दिखावा तो है नहीं, यह एक गहन संवेदना है जिसकी कोई तस्वीर नहीं बन सकती, जो मन की अन्तरग तरंगों पर ही झूम सकता है | आरती करते हुए भी सेठ जी का मन-बुद्धि गरीब की ओर ही पड़ी रही, वह कहाँ और किस प्रकार ईश्वर को धन्यवाद अर्पण कर पा रहा था ? यह एक चिंतनीय प्रश्न है कि नहीं ?हम देखेंगे कि हमारे सबके साथ कमोबेश यह घटित होता रहता है, कहने को हम पूजा-अर्चना करते हैं, घंटियाँ बजाते हैं, भगवान के सामने अपनी नाक रगड़ते हैं किन्तु हमारा मन न जाने किस-किस अहंकार के सागर में डूबता-उतरता रहता है | 

उल्टी-सीधी आरती करके सेठ जी गरीब के कान ऐंठने तो आ गए किन्तु गरीब ने जब कहा कि पैसा आते ही वह सबसे पहले सेठ को देगा और भगवान के मन्दिर की ओर इशारा करके भगवान की सौगंध खाई तो सेठ जी को बहुत नागवार गुज़री | गरीब के द्वारा उनके भगवान की सौगंध खाने पर सेठ उस पर चीख़ पड़े ;

"खबरदार ! अगर मेरे भगवान की कसम खाई तो, हाथ -पैर तुडवा दूंगा ---" सेठ जी के चिंघाड़ने से गरीब और भी भयभीत हो उठा | 

गरीब बेचारा सोचने लगा ;सेठ ने तो भगवान को भी बाँट रखा है, ये तेरा, वो मेरा !ये इस जाति का, वो उस जाति का !ये गरीब का, वो अमीर का !उसकी आँखें बेचारगी से भर उठीं | 

अब भगवान भी बेचारे पशोपेश में पड़ गए होंगे कि आखिर वे क्या करें, उन्होंने तो बिना किसी भेदभाव के मनुष्य को धरती पर भेजा था | उसे इतना सुन्दर बनाकर, एक मस्तिष्क भी उसके शरीर में बनाया था जिसका उपयोग करके मनुष्य अपने मनुष्य होने का धर्म निभा सके| मनुष्य के अतिरिक्त और किसी प्राणी के पास मस्तिष्क यदि है भी तो भी वह उसकी संवेदना को शब्दों के माध्यम से प्रस्तुत नहीं कर सकता | 

भगवान, ईश्वर, अल्ला, यीशु, वाहे गुरु सभी तो सबके हैं, क्या केवल नाम बदलने से वे किसी एक अथवा दूसरे के हो जाएंगे ?इससे जुड़ी हुई एक छोटी सी घटना याद आ रही है जो मैंने कहीं पढ़ी थी ;

एक बार स्वामी विवेकानन्द भारत भ्रमण करते हुए खेतरी के राजा के पास पहुंचे | राजा स्वामी विवेकानन्द से बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने स्वामी जी का भव्य स्वागत किया | राजा ने उनके सम्मान में एक नर्तकी को भी बुलवाया | यह देखकर स्वामी विवेकानन्द बहुत उद्विग्न हो उठे और उन्होंने वहाँ से उठने की इच्छा प्रगट की | राजा ने उन्हें आग्रहपूर्वक बिठलाया और नर्तकी को भजन गाने का आदेश दिया | नर्तकी की आवाज़ बहुत सुरीली थी, उसने तन्मय होकर भजन गाया; ;

प्रभु जी मेरे अवगुण चित्त न धरो

नर्तकी ने इतने करुणापूर्ण स्वरों में भजन गाया था कि विवेकानन्द जी की आंखों से अश्रुधारा प्रवाहित होने लगी | 

यह वास्तविक पूजा का प्रभाव होता है | भगवान को न तो कोई सेठ अपने पास कैद करके रख सकता है और न ही कोई राजा | वह तो पाँच तत्वों से बने हम सबके शरीर में विद्यमान है | हमें केवल अपने ज्ञान-चक्षु से उसको देखना व महसूस करना है | 

मित्रो ! आइये हम सब मिलकर उस परमपिता से प्रार्थना करें ;

हे ईश जगदीश !सृष्टि के दाता

निर्मल करो मन को जग के विधाता

आँखों में बस के हमें रोशनी दो

प्राणों में बसके हमें शक्ति दे दो

पाएं निकट ही तुम्हें अपने हम सब

तुम्ही प्राण सबके, तुम्ही हो विधाता | 

 

आप सबकी मित्र

डॉ.प्रणव भारती