Hanuman Prasad Poddar ji - 16 in Hindi Biography by Shrishti Kelkar books and stories PDF | हनुमान प्रसाद पोद्दार जी (श्रीभाई जी) - 16

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हनुमान प्रसाद पोद्दार जी (श्रीभाई जी) - 16

गोरखपुरमें पुनः भगवान्के साक्षात् दर्शनों की
विलक्षण घटनाएँ

गोरखपुरमें कान्तीबाबूके बगीचेमें, जहाँ भाईजी उस समय निवास करते थे, नित्यप्रति सत्संग प्रारम्भ हो गया। प्रेमीजनोंने भाईजीसे जसीडीह की घटना जानने के लिये अनेक प्रश्न किये, जिसका उत्तर भाईजी बड़े संकोच से देते। इन दिनोंकी बातोंका वर्णन पू० भाईजीने श्रीसेठजी को पत्रोंमें पूरा भेजा है। विशेष जानकारीके लिये इसी पुस्तकमें दिये पत्रोंको देखना चाहिये। जो घटनाएँ श्रीभाईजीने अपनी डायरीमें नोट की. उनकी नकल नीचे दी जा रही है।

पहली घटना
सं० 1984 वि० आश्विन शुक्ल 6, रविवार ता० 2–10-1927 ई०
स्थान-- कान्ति बाबूका बगीचा (गोरखपुर शहरके बाहर) दक्षिण तरफके कमरेके पासवाला बीचका बड़ा कमरा ।
समय -- प्रातःकाल करीब साढ़े सात बजे सत्संगके समय कई लोग थे, उनमें से कुछके नाम ये हैं।
उपस्थिति –– श्रीचेतरामजी, बद्रीप्रसादजी, रामेश्वरजी, घनश्यामदासजी, शंकरलालजी।
ध्यानकी बात हो रही थी, ध्यान भी हो रहा था। अकस्मात् परम प्रकाश हो गया, भगवान् श्रीविष्णु प्रकट हुए। आकाशमें खड़े हुए थे। करीब 5-6 मिनटोंतक दर्शन होते रहे। मुझसे कुछ भी बोला न गया। उनके मुखारविन्द और नेत्रोंसे कृपा झलक रही थी। जैसे पिता अपने पुत्रको और मित्र अपने मित्रको स्नेह और प्रेमकी दृष्टिसे देखता है ऐसा भाव प्रत्यक्ष प्रतीत होता था। यह भी अनुभव हो रहा था कि भगवान् कुछ कहना चाहते हैं और फिर भी उनकी या मेरी जब कभी इच्छा हो पधारकर दर्शन देनेके लिये प्रस्तुत हैं। कुछ समय बाद अकस्मात् अन्तर्धान हो गये। दिनभर उपरामता रही।

दूसरी घटना
सं० 1984 वि० मिति आश्विन शुक्ल 12 शनिवार, ता० 8–10–1927 ई०
स्थान– कान्तीबाबूका बागीचा, दरवाजेके सामनेवाली दक्षिणाभिमुखी कोठरी, जिसमें आफिस था ।
“दिनके करीब 12 बजे उपरामताने जोर पकड़ा। मैं बाहर बैठा हुआ था। घरमें चूना पोतनेवाले मजदूरोंका काम देखनेकी चेष्टा कर रहा था कि अचानक किसीके द्वारा खिंचा-सा जाकर कोठरीके अन्दर चला गया और किवाड़ बन्द कर लिया। उत्तर की खिड़कीके पास कुर्सी पर बैठ गया और उनकी भावना अनुसार किसीके बैठने के लिये सामने एक कुर्सी और रख दी। अकस्मात प्रकाश हो गया। महान् शान्ति-सी प्रतीत होने लगी। मेरी उस समय की अवस्था का मैं वर्णन नहीं कर सकता हूँ। तत्काल ही भगवान का आविर्भाव हो गया। मेरे सामने की कुर्सी पर एक बार उनका चरण स्पर्श हुआ। फिर आकाश में ही उनकी स्थिति रही। मैं मंत्रमुग्ध-सा हो रहा था। मेरे आनन्द का पार नहीं था। प्रभु मेरे सामने स्थित हुए करुणा और प्रेम के साथ महान आनन्द की वर्षा कर रहे थे। मैं कुछ बोल नहीं सका,
न स्तुति कर सका, चरण स्पर्श मैने उसी समय कर लिये। मन-ही-मन भगवान की इस अयाचित कृपा को देखकर परम आहलादित हो रहा था। बहुत देर तक यह स्थिति रही। फिर भगवान् बोले मानो आनन्द का समुद्र उमड़ा। तेरी कुछ इच्छा बाकी? बड़ी हिम्मत से एक-दो वाक्य मेरे मुँह से निकले— “कुछ नहीं, केवल आप.....।”
इस समय भगवान् की मधुर मुस्कान अनोखी ही थी। भगवान्ने हँसकर मेरा समर्थन किया। फिर धीरे-धीरे बीच-बीच में रुककर इतनी बातें कही—
1.— दर्शनों की बातें गुप्त रखने में ही लाभ है।
2.— धर्म के नाम पर लड़ने वाले मेरा प्रभाव नहीं जानते।
3.— पूरी गोरक्षा मै अभी विलम्ब है।
4.— मेरे अवतार का समय अभी बहुत दूर है।
5.— जगत् का कुछ भला करना हो तो भेद छोड़कर नाम का प्रचार कर लोगों से कह दे कि इस काल में नाम से ही सब कुछ हो जायेगा।
मेरे अवतार में भी नाम ही हेतु होगा।
6.— जो लोग नाम का सहारा लेकर पाप को आश्रय देते हैं, उनको सावधानकर कि उनकी शुद्धि यमराज भी नहीं कर सकता।
7.— पाप का नाश तथा भोगों की प्राप्ति के लिये नाम का प्रयोग करना सूर्खता है। पाप का नाश तो फलभोग और प्रायश्चित से भी हो जाता है। क्षणिक भोगों की तो परवाह नहीं करनी चाहिये। भोगों के आने-जानेमें तो हानि ही क्या है ?
8.— नाम तो प्रिय से भी प्रियतम वस्तु है। इसका प्रयोग तो इसी के लिये करना चाहिये।
9.— दंभ बहुत बढ़ गया है। दंभ मेरी प्राप्ति में सबसे बड़ा बाधक है। दंभीयो से सावधान रह और उनको भी सावधान कर दें कि उनकी बुरी गति होगी। काम-क्रोध से भी दंभ बुरा है।
10.— किसी को मेरे दर्शनों का पक्का आश्वासन मत दे।
11.— जसीडीह के सिवा इन बातों का मेरे नाम से प्रचार न
कर।
12.— अब इस तरह नहीं आऊँगा। तेरे बिना बुलाये दो बार आ गया। मुझे ये बातें कहनी थीं। इसलिये जब चाहे स्मरण कर बुला सकता है, परन्तु भूल मत करना।
इसके बाद भगवान् चुप हो गये। मैं बड़े हर्षके साथ उनकी ओर
ताकता रहा उस समय जगत में उनके सिवा मानो मुझे और कुछ नहीं भासता था। किसीकी स्फुरणा तक भी नहीं थी। अकस्मात् श्रीभगवान अंतर्धान हो गये। मेरी स्थिर दृष्टि विचलित हो गयी। मैं देखता हूँ कि पूर्वओरकी खिड़कीसे श्रीरामेश्वरजी ताकके देख रहे हैं। मैंने सामनेकी कुर्सी अलग हटाकर किवाड़ खोल दिये। उस समय घड़ीमें करीब सवा दो बजे
थे। इसके बाद करीब चालीस घंटेतक उपरामता बनी रही।