Hanuman Prasad Poddar ji - 15 in Hindi Biography by Shrishti Kelkar books and stories PDF | हनुमान प्रसाद पोद्दार जी (श्रीभाई जी) - 15

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हनुमान प्रसाद पोद्दार जी (श्रीभाई जी) - 15

दूसरी घटना

तिथि— आश्विन कृष्णा 9 वि०सं० 1984 सोमवार (19 सितम्बर, 1927)
स्थान— जसीडीह, महेन्द्र सरकारकी कोठीके पूर्व-दक्षिण भागमें
(मारवाड़ी) आरोग्य भवनके पुस्तकालय में दिन के दो बजे लोग एकत्रित हुए। श्रीसेठजीने हरदत्तरायजी गोयन्दकाके कहनेपर भाईजीसे कहा कि हरदत्त कहता है, इसलिये उस दिनकी तरह आँखें खोले हुए प्रत्यक्ष भगवान्के दर्शन हों, इस बातके लिये चेष्टा करनी चाहिये। उसके बाद थोड़ी देर तो भाईजी चुप रहे। पीछे श्रीसेठजीने कहा— कुछ स्तुतिके श्लोक और 'अजोऽपि इत्यादि श्लोक बोलकर आरम्भ करना चाहिये । इसके बाद स्वयं ही 'त्वमेव माता च पिता त्वमेव' उच्चारण करके चुप हो गये। इसके कुछ मिनट बाद भाईजीने 'शान्ताकारम्' बोलकर 'अजोऽपि', 'यदा यदा' 'परित्राणाय -- ये तीन श्लोक बोलकर उपस्थित लोगोंसे एक साथ मिलकर एक ध्वनिसे भगवान्‌के आह्वानके लिये व्याकुल होकर मनसे प्रार्थना करनेके लिये कहा और यह भी कहा कि किसीको किसी प्रकारका शब्द नहीं करना चाहिये। यदि कोई शब्द हो तो उसकी तरफ ध्यान नहीं देना चाहिये। यहाँतक मनको भगवान्‌में लगाना चाहिये कि यदि वज्रपात हो तो भी उसकी तरफ ध्यान न जाय। उसके बाद भाईजी भगवान से प्रार्थना करने लगे।
उन्होंने कहा— हे प्रभो ! हे दीनानाथ !! मेरे तो कोई प्रेम नहीं,
मेरा तो कोई बल नहीं, मेरी तो कोई योग्यता नहीं, कोई शक्ति नहीं, जिसके प्रेम और बलके वशीभूत होकर उस दिन आप साक्षात् प्रकट हुए थे, उसीके प्रेम और बलसे आज भी हमलोगोंमें आविर्भूत होनेकी दया करिये। हे नाथ !
मैं तो कोई प्रार्थनाकी योग्यता नहीं रखता, उसीकी प्रेरणासे आपसे प्रार्थना की जा रही है। प्रार्थना करनेमें भाईजी बीच-बीचमें रुक रहे थे। कुछ समयतक चुप रहनेके बाद उन्होंने कहा- हे प्रभो ! आज आप प्रकट क्यों नहीं होते ? आज क्या बात है ? थोड़ी देर बाद भाईजीने श्रीसेठजीसे कहा- आज चेष्टा करनेपर भी कोई फल नहीं होता। साधारण आँख खोले हुए ध्यान किया करता हूँ, वो भी नहीं हो रहा है। आज क्या बात है ? आप
अब मुझको फिर एक बार आज्ञा करें, जिससे मुझको वैसा दर्शन हो सके।
इसके बाद भाईजी बोले— अब थोड़ा ध्यान होने लग गया। इसपर श्रीसेठजीने कहा— मेरे यह स्फुरणा हो रही है कि इसके लिये पहाड़ी ठीक है। यह जगह राजसी है, वह जगह सात्विकी है और वह प्राकृत है। इसपर भाईजीने कहा— अच्छा, वहाँ चलना चाहिये। सब लोग तैयार हो गये।
श्रीसेठजी भी उठ खड़े हुए और आगे-आगे चलने लगे। पहाड़ीके रास्ते में एक स्थानको देखकर यह बात कही -- यह स्थान भी अच्छा है, परन्तु आज तो उसी जगह चलना चाहिये। आखिर सब लोग पहाड़ीके उस स्थानपर
पहुँच गये, जिस स्थानपर पहले भगवान्के दर्शन हुए थे। वहाँ पहुँचनेपर श्रीसेठजीने भाईजीसे कहा— हाथ-पैर धो लिया कि नहीं? भाईजी बोले — हाथ-पैर धो लिया । मोहनलालजी जल ले गये थे, उन्होंने हाथ-पैर धुलाया था। श्रीसेठजी और भाईजी पहले जिस जगह बैठे थे, उसी जगह बैठ गये । और सब लोग पहले शुक्रवारके दिन जिस जगह बैठे थे, उसी तरह बैठ गये। बैठनेके बाद भाईजी 'त्वमेव माता', 'यदा - यदा हि 'परित्राणाय' ये तीन श्लोक बोलते-बोलते बीचमे अटके। थोड़ी देर चुप रहनेके बाद बोले -- देखिये, सब भाई सावधान हो जायें। मन एकाग्र करके भगवान्‌का दर्शन करना चाहिये। आँख खोले जिसका मन दूसरी तरफ जाये, उसको आँख बंद कर लेनी चाहिये । इसपर श्रीसेठजी बोले -- दोनों ही बात ठीक है। या तो आँख बंद कर ली जाय या नासिकाके अग्रभागपर दृष्टि रखी जाय । भाईजी बोले—पूर्वकालमें मैं हनुमान गोयन्दकाको ध्यानकी बातका वर्णन किया करता था, उसी प्रकार भगवान्‌का ध्यान करना चाहिये। हनुमान भी ध्यान लगानेकी चेष्टा किया करता था, उस प्रकार भगवान्के स्वरूपकी भावना सभीको करनी चाहिये। फिर थोड़ी देर चुप रहनेके बाद भाईजी बोले— उस दिनकी तरह श्रीभगवान् उस स्थानपर प्रकट हो गये हैं। आज आनन्दकी अधिक विलक्षणता है। वही कमलका विशाल आसन है। कमलका रंग नीचेमें सफेद, बीचमें लालिमा, ऊपर नीलिमा । उसपर उसी प्रकारसे भगवान् दाहिने चरणारविन्दको नीचेकी तरफ करके विराजमान हैं। मेरी वृत्तियाँ रुक रही हैं। जितना भगवान्‌के रूपका वर्णन कर सकता हूँ, उतना करता हूँ। आपलोगोंको उसी प्रकार भगवान्‌के रूपका ध्यान
करना चाहिये। इसके बाद भाईजी बोले-- भगवान्के चरण-कमलके नखकी ज्योतिमें कितना प्रकाश हो रहा है। उनके गहनोंके नाम मैं नहीं जानता हूँ। इसके बाद भाईजीका बोलना रुक गया। इसके बाद सेठजी बोले— तुमने
बोलना बन्द क्यों कर दिया ? भगवान्के स्वरूपका स्पष्ट वर्णन करो । श्रीसेठजीने दो बार कहा, पर भाईजी बोले नहीं। थोड़ी देर बाद भाईजी बेहोश होकर गिर पड़े। रामजीदासजी बाजोरिया (भागलपुर) की गोदमें भाईजीका सिर गिर गया। रामजीदासजीसे श्रीसेठजीने कहा— इसे बैठाओ।
उन्होंने चेष्टा की और बोले कि मेरी उठानेकी सामर्थ्य नहीं है। श्रीसेठजी बोले हनुमान, सावधान होकर ध्यान करो। फिर श्रीसेठजीने कीर्तन शुरू किया— श्री कृष्ण गोविन्द हरे मुरारे, हे नाथ नारायण वासुदेव।
कुछ देर बाद रामजीदासजीने सहारा देकर भाईजीको बैठाया, तब श्रीसेठजी बोले— तुम बोलते क्यों नहीं ? तब भाईजीने कहा— मैंने बोलनेकी चेष्टा की, पर मेरेसे नहीं बोला गया । तब श्रीसेठजी बोले— तुम्हारे द्वारा स्वरूपका वर्णन किये बिना दूसरेको क्या लाभ होगा। इतने व्यक्तियोंको संग क्यों लाये थे ? नहीं बोलना था तो अकेले क्यों नहीं आये ? इतना
कहनेके साथ भाईजी बोलने लगे-- मैंने पहले बहुत चेष्टा की थी, पर मेरेसे बोला नहीं गया।
इसके बाद भाईजी भगवानके स्वरूपका वर्णन करने लगे। स्वरूपका वर्णन करनेके बाद श्रीसेठजीने पूछा- तुम पड़े थे, तब क्या व्यवस्था हुई ? तब भाईजी बोले— मैं क्या बताऊँ, आपको क्या मालूम नहीं ? आप क्या सुन नहीं रहे थे ? अब सुनिये, अब क्या कह रहे हैं। इतना कहकर फिर बेहोश हो गये। फिर श्रीसेठजीने कीर्तन शुरू किया---
‘जै रघुनन्दन जै सियाराम जानकीबल्लभ सीताराम।"
फिर थोड़ी देरके पश्चात् आँख खुलनेके बाद भाईजी बोले- मेरी इतनी सुनवाई नहीं हो सकती है। आपके कहनेसे सबको दर्शन हो सकता है। तब श्रीसेठजीने कहा- मैं क्यों कहूँ ? भगवान् जैसा उचित समझें, वैसे ही करें। तब भाईजी बोले— दर्शनकी सबको इच्छा नहीं है।
तब श्रीसेठजी बोले- जिन जिनकी इच्छा हो, उन-उनको होना चाहिये। तब भाईजी बोले— आप कहें, उन-उनको दर्शन हो सकता है। तब श्रीसेठजी बोले-- यदि वे पूछे तो मैं नाम बता सकता हूँ। तब भाईजी बोले—आप कहें, वैसे करनेके लिये वे राजी हैं। तब श्रीसेठजी बोले--सामने आकर क्यों नहीं कहते ? सब लोग सुनें। यदि सामने आकर प्रकट नहीं
होते तो जैसे पहले आकाशवाणी होती थी, उसी प्रकार कहनेसे सभी सुन सकते हैं। तब भाईजी बोले— यह कानून नहीं है, आपको क्या मालूम
नहीं है ? इसके बाद फिर भाईजीकी आँखें बंद हो गयीं और बेहोश हो गये। थोड़ी देर बाद भाईजी फिर आँखें खोलकर बोले- आप कहें तो दर्शन हो सकता है। तब श्रीसेठजी बोले—मैं क्यों कहूँ ? फिर आँखें बन्द हो गयीं। फिर थोड़े देर बाद आँखें खुलनेसे भाईजी बोले— भगवान् कहते हैं कि तुम (श्रीसेठजी) बोलो तो तुम्हारे (श्रीसेठजीके) कहनेसे दर्शन हो सकते हैं। तब आप (श्रीसेठजी) बोले-- तुम्हें तो दर्शन हो रहे हैं। तब भाईजी बोले- मेरी बात नहीं। आपके कहनेसे सबको दर्शन हो सकते हैं। इसपर आप (श्रीसेठजी) बोले— अगलेको गरज हो तो दर्शन दो, मुझे तो गरज नहीं है। हम तो खुशामदिया नहीं। अगलेको गरज होवे तो दर्शन दो, नहीं तो अगलेकी मरजी। हम तो अगलेकी राजीमें राजी हैं। फिर आँखें बंद हो गयीं। फिर आँखें खुलने के बाद भाईजी बोले— श्रीभगवान्‌को गरज है, तब ही तो आपकी बात मानते हैं। तब आप (श्रीसेठजी) बोले- हम तो हमारा काम नुकसान करकर आयें हैं। इसपर भी खुशामद चाहते हैं तो अगलेके नामका कीर्तन कर सकते हैं और खड़े होकर नाच सकते हैं। इसके बाद भाईजी बोले— आप सिर्फ कह दें। इसपर श्रीसेठजी बोले- हम तो इस प्रकार कहते नहीं। इसके बाद बहुत गम्भीरताके साथ भाईजी सबसे यह बात कही -- इनके (श्रीसेठजी) कहे अनुसार चलनेसे दर्शन हो सकते हैं। इसके थोड़ी देर बाद फिर भाईजी जोरसे बोलें— सुनो, भगवान् क्या कह रहे है। —
१. इनकी आज्ञा पालनसे ही मेरी आज्ञा पालन है।
२. इनकी प्रसन्नतासे ही मेरी प्रसन्नता है।
३. इनकी इच्छामें ही, मेरी इच्छा है।
४. इनके रूपमें ही मेरा रूप है।
इसके बाद भाईजी बोले— भगवान् अन्तर्धान हो गये। भाईजी आश्विन कृष्ण 9 सं० 1984 (19 सितम्बर, 1927) को ही गोरखपुर रवाना होनेवाले थे, पर उस दिन प्रत्यक्ष दर्शनोंकी जो विलक्षण घटना हुई, उसीमें रात्रि हो गयी। अतः दूसरे दिन श्रीसेठजी और भाईजी अन्य प्रेमीजनोंके साथ बनारस रवाना हुए। रास्तेमें भाईजीने श्रीसेठजीसे प्रश्न किया — इसबार जसीडीहमें सबके सामने इस प्रकारका अपूर्व प्रभाव दिखाया गया। जो कार्य एकान्तमें होता है, वह इतने लोगोंके समक्ष क्यों हुआ? इसका क्या हेतु है ? श्रीसेठजी बोले- इससे जगत्को लाभ ही होगा। यह काम समझकर ही हुआ है, परन्तु ऐसी घटना जीवनकालमें प्रकाशमें न आवे तो अच्छा है।
भाईजी बोले — इससे मेरे प्रश्नका पूरा उत्तर नहीं हुआ। मैं तो
पूछता हूँ कि इतना प्रत्यक्ष प्रभाव सब लोगोंके सामने होनेमें क्या हेतु है ?
श्रीसेठजी बोले- जिसके द्वारा भगवद्भक्तिके प्रचारकी अधिक सम्भावना होती है, उसीको भगवान् इस प्रकार दर्शन देते हैं। दर्शन तो औरोंको भी देते हैं, परन्तु यों सबके सामने नहीं देते।
इस वार्तालापका पूर्ण विवरण श्रीभाईजीके हस्ताक्षरों में प्रस्तुत किया जा रहा है

यह बात आगे चलकर प्रत्यक्ष हो गयी कि जैसा भक्तिका प्रचार भाईजीके द्वारा हुआ, वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। जसीडीह में भगवान के दर्शनों की बात उपस्थित लोगोंने अपने स्वजनों, मित्रोंको लिखी, जिससे यह बात अनेक स्थानों में शीघ्र ही फैल गयी। लोगोंके पत्र श्रीसेठजी एवं भाईजीके पास आने लगे।