Ek Ruh ki Aatmkatha - 48 in Hindi Human Science by Ranjana Jaiswal books and stories PDF | एक रूह की आत्मकथा - 48

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एक रूह की आत्मकथा - 48

जया ने उमा को बताया कि उसके पति स्वतंत्र अक्सर किसी न किसी बहाने जया के घर पहुँचने लगे थे |जब भी वे आते घर-गृहस्थी का कोई न कोई सामान अवश्य लाते |टोकने पर कहते –"क्या मेरा इतना भी हक नहीं ?तुम क्या जानो ,मेरे मन में तुम्हारे लिए कैसी भावनाएँ हैं ?"
जया सोचती कि हो सकता है वे सहानुभूति -वश ये सब कर रहे हों पर पुरूष ज्यादा देर अपने ऊपर आवरण चढ़ाए नहीं रह सकता |वह प्रकृति से ही स्वतंत्र होता है ,इसलिए कुछ ही मुलाकातों के बाद उसकी नीयत साफ दिख जाती है |एक दिन स्वतंत्र अपने असली रंग पर आ ही गए |उस दिन जया का जन्मदिन था |सुबह-सुबह वह अपने किचन में कुछ काम कर रही थी कि दरवाजे की घंटी बज उठी |उसने दरवाजा खोला तो चौंक पड़ी-‘आप ...इस समय .|’
-"अंदर आने को नहीं कहोगी ...|"
‘आइए ...आ जाइए ‘-उसने रास्ता दे दिया |
-"हैप्पी बर्थ डे...|" वे चहकते हुए बोले |
‘अरे ,आपको कैसे पता चला ?’
-"बस चल गया ...ये लो अपना गिफ्ट ....|"उन्होंने उसकी तरफ एक पैकेट बढ़ाया |
‘अरे इसकी क्या जरूरत थी ?’वह संकोच में थी |
-"जरूरत क्यों नहीं थी ...तुम पराई थोड़े हो ...मैं तुम्हें बहुत अधिक मानता हूँ |तुम्हारे मन को समझता हूँ ....तुम गिफ्ट खोलो...मेरी भावना को समझ जाओगी|"
उन्होंने आगे बढ़कर खुद ही गिफ्ट का पैकेट खोल दिया | पैकेट में लाल रंग की रेशमी साड़ी ,सिंदूर की डिबिया और कंडोम के कुछ पैकेट्स थे |
-"तुम अभी यह साड़ी पहनो फिर मैं तुम्हारी मांग भर दूँगा और फिर हम.....|"उन्होंने पैकेट जबरन उसे थमा दिया था |
जया क्रोध से काँपने लगी |उसने सारी चीजों को जमीन पर पटक दिया और चीख पड़ी –‘निकलो !....निकलो!!मेरे घर से अभी ...तुरंत !’
-"अरे क्या हुआ ...मैं तुम्हें पत्नी का दर्जा देना चाहता हूँ ...तुमसे प्यार करता हूँ ...|"
वे सहज थे |
‘अच्छा ,तो अभी चलो मेरे साथ और अपनी पत्नी के सामने यह बात कहो ..|’वह गुस्से में थी |
-"अरे,नहीं ...नहीं .,उसे कुछ मत बताना" –वे बौखला उठे थे |
‘क्यों ,जब रिश्ता प्रेम का है तो बताने में कैसा डर?’
-"पागल हो क्या ,ऐसे रिश्ते किसी को बताए जाते हैं भला |"
‘पर बनाए जाते हैं ,क्यों ...|वह व्यंग्य से बोली थी ‘उठाइए यह सारा सामान और दफा हो जाइए यहाँ से |’
वे अपना सामान समेटने लगे पर जाते-जाते एक प्रयास और किया |
-"तुम मेरे प्यार की कद्र नहीं कर रही हो ,पछताओगी |मेरे लिए लड़कियों की कमी नहीं है |इस शहर में तो पचास-पचास रूपए में कमसीन लड़कियां मिल जाती हैं |मैं तो तुम पर तरस खाकर ...तुम कौन- सी कुंआरी और सोलह बरिस की हो ....|"
‘आप अपनी हद पार कर रहे हैं |मेरी सहेली के पति नहीं होते तो[उसने अपने पैरों की तरफ देखा ]आप जैसा नीच व्यक्ति ही रोटी के लिए बिकती बच्चियों की देह खरीद सकता है |अब आप यहाँ से चले जाइए और फिर कभी इधर आने की भी मत सोचिएगा |’
वे अपमानित होकर लौट गए थे और जया देर तक रोती रही थी |अपनी स्थिति पर ही नहीं ,उन बच्चियों की तकदीर पर भी,जिनकी मजबूरी खरीदकर टुच्चे मर्द अपनी मर्दानगी पर इतराते हैं |
सारी बातें सुनकर उमा ने जया के कंधे पर बहनापे से हाथ रखा |वह उन स्त्रियों में नहीं थी कि यह जानकर कि उसका पति जिस स्त्री पर आसक्त है ,उस स्त्री को ही दोष दे |अपना सोना खोटा होता है तभी पारखी उसे खोटा कहता है |अब तक वह जान गयी थी कि शुरू में जया ने जिस ‘विजय’ का उल्लेख किया था ,वह और कोई नहीं उसके ही पति थे |जया परित्यक्ता थी ...बोल्ड थी ...पुरूष की चाहत भी थी उसे ,पर भूख लगने पर भी वह गंदा खाने के पक्ष में नहीं थी |प्रेम को प्रेम की तरह जीने में उसका विश्वास था |हर किसी से वह न तो रिश्ता बना सकती थी ,न ही प्रेम कर सकती थी |रिश्ते में विश्वासघात करना भी उसे मंजूर नहीं था |
जया के घर से अपने पति के घर लौटते हुए उमा सोच रही थी –काश,वह भी जया- सी होती |उसके जैसी ही सक्षम...साहसी...स्वतंत्र और आत्मनिर्भर ....तो आज सब कुछ जानते हुए भी उसे उसी आदमी के पास नहीं लौटना पड़ता |उसका दुर्भाग्य है कि वह उन लाखों स्त्रियों में से एक है ,जो अपने भरणपोषण की मोहताजी में, झूठी सामाजिक प्रतिष्ठा में ,अच्छी स्त्री कहलाने के लोभ में, दोनों कुल की लाज निभाने के भ्रम में और अपने बच्चों के भविष्य की चिंता में ’कुछ भी’ सहती हैं |काश,उसने भी अपने कैरियर की कद्र की होती |उसे बचपन से ही लिखने का शौक था।अपने कॉलेज में वह मिस कवयित्री के नाम से प्रसिद्ध थी।कई पत्र- पत्रिकाओं में उसकी कविताएँ छप चुकी थीं।आकाशवाणी और दूरदर्शन से भी उसकी कविताएं प्रसारित होती रही थीं।उसका सपना था कि वह एक बड़ी कवयित्री बनें, पर घर वालों को उसकी शादी की जल्दी थी।कामिनी को देखकर उसे लगा कि शादी के बाद भी वह अपने लेखन को आगे बढ़ा सकेगी,पर स्वतंत्र को उसका लिखना -पढ़ना फूटी आँख भी नहीं सुहाता था।धीरे -धीरे गृहस्थी के झमेलों और बच्चियों की परवरिश में वह इस तरह उलझ गई कि डायरी के सिवा कुछ नहीं लिख पाती है।हाँ,डायरी में वह कविताएं भी लिखती है।उसके पास इतनी कविताएं हो गई हैं कि उसका एक संग्रह आ जाए,पर किताब छपाना इतना आसान नहीं ।वह भी हिंदी कविताओं की किताब।आजकल कहानी और उपन्यास यानी गद्य विधा की पुस्तकें तो प्रकाशक खूब छापते हैं पर कविताओं की बहुत ही कम छापते हैं।वे कहते हैं कि कविता की किताब कोई खरीदता ही नहीं ।हालांकि बड़े कवियों की कविताएं वे छापते हैं।शायद उनके नाम से वे पुस्तकें बिक जाती हैं।सरकारी अधिकारियों की किताबें भी वे छापते हैं क्योंकि अधिकारियों के अधीनस्त किताबों को बेचने का जिम्मा ले लेते हैं ।उसने सोचा था कि वह कामिनी से इस बारे में बात करेगी पर संकोचवश ऐसा नहीं कर पाई।उसे पता चला था कि हिंदी के प्रकाशक नए कवियों से पैसा लेकर पुस्तक छाप रहे हैं ,पर उसके पास इतना पैसा था ही नहीं और न स्वतंत्र उसके इस बेकार की शगल के लिए पैसा देने वाले थे।
वह मन मारकर रह गई थी।
उमा सोच रही थी कि जया ने अपने पति को छोड़ा ,जड़ परम्पराओं व रूढ़ियों को तोड़ा तो कोई अपराध नहीं किया ,पर वह अपराधिनी हूँ –अपने स्त्रीत्व ...अपने अस्तित्व ...अपने मानुषी होने के प्रति अपराधिनी |