The Author Miss Chhoti Follow Current Read सत्य ना प्रयोगों - भाग 7 By Miss Chhoti Hindi Spiritual Stories Share Facebook Twitter Whatsapp Featured Books શ્રીમદ્ ભગવદ્ ગીતા - સંપૂર્ણ ૐ ઊંધ્ટ્ટ થ્ૠધ્ધ્અૠધ્ઌશ્વ ઌૠધ્ઃ ગરુડ પુરાણ અનુક્રમણિકા ૧. પ્રથમ અધ્યાય निलावंती ग्रंथ - एक श्रापित ग्रंथ... - 1 निलावंती एक श्रापित ग्रंथ की पूरी कहानी।निलावंती ग्रंथ અંતરિક્ષની આરપાર - એપિસોડ 2 "અંતરિક્ષની આરપાર" - એપિસોડ - 2 સૌરાષ્ટ્ર વિસ્તારનું એક દર... ખજાનો - 89 "અરે નહીં દોસ્તીમાં નો સોરી....નો થેન્ક્યુ...!" આટલું કહેતા... શ્યામ રંગ....લગ્ન ભંગ....6 લગભગ આઠેક દિવસ થઇ ગયા ,અનંત અને આરાધના વચ્ચે કોઈ જ વાતચીત... ભાગવત રહસ્ય - 122 ભાગવત રહસ્ય-૧૨૨ રાજા ઉત્તાનપાદે –અણમાનીતી રાણી સુનીતિનો ત્... ચતુર आकारसदृशप्रज्ञः प्रज्ञयासदृशागमः | आगमैः सदृशारम्भ आरम्भसदृश... Categories Short Stories Spiritual Stories Fiction Stories Motivational Stories Classic Stories Children Stories Comedy stories Magazine Poems Travel stories Women Focused Drama Love Stories Detective stories Moral Stories Adventure Stories Human Science Philosophy Health Biography Cooking Recipe Letter Horror Stories Film Reviews Mythological Stories Book Reviews Thriller Science-Fiction Business Sports Animals Astrology Science Anything Crime Stories Novel by Miss Chhoti in Hindi Spiritual Stories Total Episodes : 13 Share सत्य ना प्रयोगों - भाग 7 (6) 1.7k 3.5k 1 आगे की कहानी पिताजी की मृत्यू....उस समय मैं सोलह वर्ष का था। हम ऊपर देख चुके हैं कि पिताजी भगंदर की बीमारी के कारण बिलकुल शय्यावश थे। उनकी सेवा में अधिकतर माताजी, घर का एक पुराना नौकर और मैं रहते थे। मेरे जिम्मे 'नर्स' का काम था। उनके घाव धोना, उसमें दवा डालना, मरहम लगाने के समय मरहम लगाना, उन्हें दवा पिलाना और जब घर पर दवा तैयार करनी हो तो तैयार करना, यह मेरा खास काम था। रात हमेशा उनके पैर दबाना और इजाजत देने पर सोना, यह मेरा नियम था। मुझे यह सेवा बहुत प्रिय थी। मुझे स्मरण नहीं है कि मैं इसमें किसी भी दिन चूका होऊँ। ये दिन हाईस्कूल के तो थे ही। इसलिए खाने-पीने के बाद का मेरा समय स्कूल में या पिताजी की सेवा में ही बीतता था। जिस दिन उनकी आज्ञा मिलती और उनकी तबीयत ठीक रहती, उस दिन शाम को टहलने जाता था।इसी साल पत्नी गर्भवती हुई। मैं आज देख सकता हूँ कि इसमें दोहरी शरम थी। पहली शरम तो इस बात की कि विद्याध्ययन का समय होते हुए भी मैं संयम से न रह सका और दूसरी यह कि यद्यपि स्कूल की पढ़ाई को मैं अपना धर्म समझता था, और उससे भी अधिक माता-पिता की भक्ति को धर्म समझता था - और सो भी इस हद तक कि बचपन से ही श्रवण को मैंने अपना आदर्श माना था - फिर भी विषय-वासना मुझ पर सवारी कर सकी थी। मतलब यह कि यद्यपि रोज रात को मैं पिताजी के पैर तो दबाता था, लेकिन मेरा मन शयन-कक्ष की ओर भटकता रहता और सो भी ऐसे समय जब स्त्री का संग धर्मशास्त्र के अनुसार त्याज्य था। जब मुझे सेवा के काम से छुट्टी मिलती, तो मैं खुश होता और पिताजी के पैर छूकर सीधा शयन-कक्ष में पहुँच जाता।पिताजी की बीमारी बढ़ती जाती थी। वैद्यों ने अपने लेप आजमाए, हकीमों ने मरहम-पट्टियाँ आजमाई, साधारण हज्जाम वगैरा की घरेलू दवाएँ भी की; अंग्रेज डाक्टर ने भी अपनी अक्ल आजमा कर देखी। अंग्रेज डाक्टर ने सुझाया कि शल्य-क्रिया ही रोग का एकमात्र उपाय है। परिवार के एक मित्र वैद्य बीच में पड़े और उन्होंने पिताजी की उत्तरावस्था में ऐसी शल्य-क्रिया को नापसंद किया।तरह-तरह दवाओं की जो बोतलें खरीदी थीं वे व्यर्थ गईं और शल्य-क्रिया नहीं हुई। वैद्यराज प्रवीण और प्रसिद्ध थे। मेरा खयाल है कि अगर वे शल्य-क्रिया होने देते, तो घाव भरने में दिक्कत न होती। शल्य-क्रिया उस समय के बंबई के प्रसिद्ध सर्जन के द्वारा होने को थी। पर अंतकाल समीप था, इसलिए उचित उपाय कैसे हो पाता? पिताजी शल्य-क्रिया कराए बिना ही बंबई से वापस आए। साथ में इस निमित्त से खरीदा हुआ सामान भी लेते आए। वे अधिक जीने की आशा छोड़ चुके थे। कमजोरी बढ़ती गई और ऐसी स्थिति आ पहुँची कि प्रत्येक क्रिया बिस्तर पर ही करना जरूरी हो गया। लेकिन उन्होंने आखिरी घड़ी तक इसका विरोध ही किया और परिश्रम सहने का आग्रह रखा। वैष्णव धर्म का यह कठोर शासन है। बाह्य शुद्धि अत्यंत आवश्यक है। पर पाश्चत्य वैद्यक-शास्त्र ने हमें सिखाया कि मल-मूत्र-विसर्जन की और स्नानादि की सह क्रियाएँ बिस्तर पर लेटे-लेटे संपूर्ण स्वच्छता के साथ की जा सकती हैं और रोगी को कष्ट उठाने की जरूरत नहीं पड़ती; जब देखो तब उसका बिछौना स्वच्छ ही रहता है। इस तरब साधी गई स्वच्छता को मैं तो वैष्णव धर्म का ही नाम दूँगा। पर उस समय स्नानादि के लिए बिछौना छोड़ने का पिताजी का आग्रह देखकर मैं अश्चर्यचकित ही होता था और मन में उनकी स्तुति किया करता था। अवसान की घोर रात्रि समीप आई। उन दिनों मेरे चाचाजी राजकोट में थे। मेरा कुछ ऐसा खयाल है कि पिताजी की बढ़ती हुई बीमारी के समाचार पाकर ही वे आए थे। दोनों भाइयों के बीच अटूट प्रेम था। चाचाजी दिन भर पिताजी के बिस्तर के पास ही बैठे रहते और हम सबको सोने की इजाजत देकर खुद पिताजी के बिस्तर के पास सोते। किसी को खयाल नहीं था कि यह रात आखिरी सिद्ध होगी। वैसे डर तो बराबर बना ही रहता था। रात के साढ़े दस या ग्यारह बजे होगें। मैं पैर दबा रहा था। चाचाजी ने मुझसे कहा : 'जा, अब मैं बैठूँगा।' मैं खुश हुआ और सीधा शयन-कक्ष में पहुँचा। पत्नी तो बेचारी गहरी नींद में थी। पर मैं सोने कैसे देता? मैंने उसे जगाया। पाँच-सात मिनट ही बीते होंगे, इतने में जिस नौकर की मैं ऊपर चर्चा कर चुका हूँ, उसने आकर किवाड़ खटखटाया। मुझे धक्का सा लगा। मैं चौका। नौकर ने कहा : 'उठो, बापू बहुत बीमार हैं।' मैं जानता था वे बहुत बीमार तो थे ही, इसलिए यहाँ 'बहुत बीमार' का विशेष अर्थ समझ गया। एकदम बिस्तर से कूद गया।'कह तो सही, बात क्या है?''बापू गुजर गए!'मेरा पछताना किस काम आता? मैं बहुत शरमाया। बहुत दुखी हुआ। दौड़कर पिताजी के कमरे में पहुँचा। बात समझ में आई कि अगर मैं विषयांध न होता तो इस अंतिम घड़ी में यह वियोग मुझे नसीब न होता और मैं अंत समय तक पिताजी के पैर दबाता रहता। अब तो मुझे चाचाजी के मुँह से सुनना पड़ा : 'बापू हमें छोड़कर चले गए!' अपने बड़े भाई के परम भक्त चाचाजी अंतिम सेवा का गौरव पा गए। पिताजी को अपने अवसान का अंदाजा हो चुका था। उन्होंने इशारा करके लिखने का सामान मँगाया और कागज में लिखा : 'तैयारी करो।' इतना लिखकर उन्होंने हाथ पर बँधा तावीज तोड़कर फेंक दिया, सोने की कंठी भी तोड़कर फेंक दी और एक क्षण में आत्मा उड़ गई। _सत्य ना प्रयोगों ‹ Previous Chapterसत्य ना प्रयोगों - भाग 6 › Next Chapter सत्य ना प्रयोगों - भाग 8 Download Our App