Ek Ruh ki Aatmkatha - 4 in Hindi Human Science by Ranjana Jaiswal books and stories PDF | एक रूह की आत्मकथा - 4

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एक रूह की आत्मकथा - 4

एक महीने मैं कोमा में रही।समर और मेरे घर वाले लगातार मेरी सेवा में लगे रहे।हॉस्पिटल का पूरा खर्च समर ने ही उठाया। मैं भीतर से सब कुछ महसूस करती थी पर मेरा शरीर निष्क्रिय था।पूरे शरीर में नलियां ही नलियां।वे नलियां ही मुझे मरने नहीं दे रही थीं।समर घण्टों मेरे सिरहाने के पास वाली कुर्सी पर बैठा मुझसे बातें करते रहता।उसे विश्वास था कि मैं सब सुन रही हूँ।वह मुझे बेहतरीन भविष्य के सपने दिखाता।सुनहरे अतीत की याद दिलाता और वर्तमान में लौट आने को कहता,पर मुझमें वर्तमान का सामना करने की न तो ताकत थी न हिम्मत ।रौनक अपने साथ मेरी ये दोनों चीजें लेते गया था।साथ ही मेरी हँसी- खुशी भी उसके साथ चली गई थी। मैं उस पर इतनी डिपेंड थी कि अकेले जीने की कल्पना ही मुझे डरा रही थीं। उसके न रहने पर मैं क्या करूँगी कैसे करूंगी ,कुछ समझ नही पा रही थी?
यह सच था कि समर रौनक नहीं था और न उसकी जगह ले सकता था।मैं उसके बारे में जानती ही कितना थी।मुझे बस इतना पता था कि वह ग्लैमर की दुनिया में काम करता है।उसकी अपनी पत्नी है परिवार है।वह मेरे साथ कुछ कदम तो चल सकता है पूरे जीवन साथ- साथ नहीं चल सकता।मैं उसके दोस्त की विधवा हूँ शायद इसीलिए मेरे लिए इतना कुछ कर रहा है,पर मैं इतना जान रही थी कि वह मेरे ससुराल वालों के साथ ही समाज के दूसरे लोगों को भी खटकने लगा है।हालांकि उसे इस बात की कोई परवाह नहीं है,पर मैं तो एक साधारण स्त्री हूँ और समाज तथा अपनों की बहुत परवाह करती हूँ।यह सच है कि समाज और अपनों को मेरी कोई चिंता नहीं है।मैं पति के वियोग में मर जाऊं तो शायद मुझे सती समझ लें पर मेरा जिंदा रहना उनकी नजर में अपराध से कम नहीं है।मेरा जिंदा रहना,अकेले जीना और फिर से ग्लैमर की दुनिया में काम करना अब आसान नहीं होगा।पति की छत्र-छाया में मैं सुरक्षित थी,चिंता मुक्त थी।रौनक सब -कुछ खुद पर झेलकर मुझे सुरक्षित रखता था।मेरी ओर फेंके गए हर वार को अपने ऊपर ले लेता था।हर उठने वाले प्रश्न का उत्तर उसके पास था।सबका सामना करने की उसके पास ताकत थी।मैं उसके कंधे के सहारे कामयाबी की सीढ़ियां चढ़ रही थी।अब मेरा वह सहारा ही टूट गया था और मैं भहरकर नीचे जमीन पर आ पड़ी थी।मुझे उठाने के लिए समर ने अपने हाथ बढ़ाए थे पर उसका हाथ थामकर उठना इतना आसान नहीं था।समर मेरे अपने दिल -दिमाग ही नहीं दुनिया -समाज सबके लिए एक पराया पुरूष था,जो सामाजिक मान्यता के अनुसार बिना किसी स्वार्थ के किसी स्त्री की मदद नहीं कर सकता ।
मैं कमउम्र थी... युवा थी और सुंदर भी बहुत थी और अब तो अकेली भी थी,अब मेरी हर गतिविधि पर समाज की नजरें होंगी।अजीब है ये समाज ,खुद आगे बढ़कर गिरी हुई किसी स्त्री को उठाता नहीं और कोई उठाए तो उसे जीने नहीं देता।स्त्री एक लता की तरह होती है ।उसे आगे बढ़ने के लिए किसी न किसी का सम्बल तो लेना ही पड़ता है।जिन स्त्रियों ने अकेले संघर्ष करके ऊंचा मुकाम हासिल किया है ,उसके जीवन में भी किसी न किसी रूप में किसी न किसी पुरूष का सहारा जरूर रहा है।जरूरी नहीं कि वह पुरूष उसका प्रेमी या पति ही रहा हो ।पुरूष पिता,पति,भाई,पुत्र,मित्र कोई भी हो सकता है,पर वह सफल,समर्थ और मानसिक रूप से मजबूत जरूर होना चाहिए।कमज़ोर पुरूष स्त्री की मदद नहीं कर सकता।भले ही वह कमजोरी आर्थिक व शारीरिक न होकर मानसिक या बौद्धिक हो।
समर किसी भी दृष्टि से कमज़ोर नहीं था ।रौनक के बाद वही एक ऐसा पुरूष था, जो मुझे मझधार से निकालकर मेरी मंजिल तक पहुंचा सकता था।
तो क्या मुझे उसका हाथ पकड़ लेना चाहिए?दुनिया का क्या!वह न तो खुद कुछ करेगी ,न किसी और को करने देगी ,बस अपनी जहरीली जिह्वा से जहर उगलती रहेगी।ऐसे समाज की परवाह ही क्यों करना!
मैं कशमकश में थी ।स्थितियाँ/परिस्थितियाँ ऐसी बनती जा रही थीं कि मुझे कोई ऐसा कदम उठाना था ,जो मुझे एक खराब स्त्री के कटघरे में खड़ा करने वाला था।
मेरे सामने दो रास्ते थे-पहला रौनक की विधवा बनकर ससुराल के किसी कोने में एक नौकरानी की हैसियत से जीना । दूसरा संघर्ष -मार्ग पर चलकर अपने पति के सपने को साकार करना ।
मैं कोमा से बाहर आ चुकी थी और तेजी से स्वास्थ्य-लाभ कर रही थी।हॉस्पिटल से मैं माँ के घर जाऊँगी कि ससुराल-यह निश्चय मुझे ही करना था।अभी मैं समर के साथ नहीं जा सकती।अपना घर बनाना अभी शेष था।
पर सास ने स्पष्ट कहलवा भेजा कि अब उनके घर न आऊँ।माँ अस्थायी सहारा बनने को तैयार थी,पर उस दिन वह जाने क्यों हॉस्पिटल नहीं आई थी।
समर मेरे पास था।मुझे चिंतित देखकर उसने मुझे याद दिलाया कि रौनक ने मेरे नाम से एक बंगला और फार्महाउस खरीदा था और बैंक में दोनों का साझा खाता भी मौजूद है,जिसमें करोड़ों रूपए हैं।मैं अपने बंगले में रह सकती हूँ किसी अभाव ...किसी परेशानी की कोई गुंजाइश ही नहीं है।
अब मुझे सब याद आ गया।रौनक को मेरी कितनी चिंता थी।क्या वह जानता था कि वह ज्यादा वक्त मेरे साथ नहीं जी पाएगा।उसने मेरे भविष्य को सुरक्षित रखने के लिए सारे उपाय कर दिए थे।आह,रौनक!तुम मुझे छोड़कर क्यों चले गए?ये दौलतें भी क्या मुझे वह खुशी दे पाएंगी जो तुमसे मिलती थी?तुम्हारी कमी कौन पूरी कर सकता है?
मेरी आंखों से आँसू बह रहे थे।समर खामोशी से मुझे देख रहा था उसकी आँखें भी नम थीं।
मैं हॉस्पिटल से अपने बंगले में ही गई।समर ने बंगले की साफ-सफाई से लेकर मेरी सुख -सुविधा को ध्यान में रखकर सारी व्यवस्था करा दी थी।दो- तीन नौकर-नौकरानी भी थे।कहीं कोई कमी नहीं थी पर रौनक की कमी तो थी ही।कई बार मेरा जी चाहता कि खुद को ख़त्म कर लूं।ऐसी जिंदगी का क्या करना,जिसमें रौनक ही नहीं ।
बंगले में अकेले दो -चार दिन में ही मैं बीमार हो गई।समर को पता चला तो वह दौड़ा हुआ आया और मुझे फिर से हॉस्पिटल ले गया।डॉक्टर ने मेरा पूरा चेकअप किया।
उसने मेरी बीमारी के बारे में जब मुझे बताया तो मैं खुशी से उछल पड़ी।ऐसा लगा कि जैसे मुझे जीने की वजह मिल गई हो...जैसे मुझे मेरा रौनक वापस मिल गया हो....जैसे अब मैं वही पुरानी वाली कामिनी बन गई हूँ।
बिल्कुल सही समझे आप,मेरे रौनक की आखिरी ख्वाहिश पूरी हुई थी।मेरा प्यारा रौनक नन्हा रौनक बनकर मेरे गर्भ में आ गया था।
मैं बहुत खुश थी।अपनी खुशी में मैंने ध्यान नहीं दिया कि मेरी इस नई बीमारी ने समर को चिंतित कर दिया है ।उसके चेहरे पर एक अजीब -सी उदासी छा गई है।वह बुझ -सा गया है।