दृश्य 1
उस क्षेत्र में लोग शांतिपूर्वक रहते थे, लोग क्या, पशु पक्षी भी वहाँ अपना अभयराज समझते थे। छोटे छोटे बालक और शावक वहाँ प्रसन्नचित होकर निर्द्वन्द्व विचरण करते। ऐसा नहीं कि युद्ध नहीं होता था, पर युद्ध बड़े लोगों के बीच होता था, बालकों, महिलाओं, पशु पक्षियों को अभय रहता था। युद्ध के कारण मूलतः राजनीतिक होते हैं। व्यक्तिगत द्वेष, घृणा, विभत्सतापूर्ण युद्धोन्माद किसे कहते हैं, किसी को पता नहीं था।
उन्हीं दिनों पश्चिम से एक कबीलाई लुटेरों के समूह ने दूर कहीं आक्रमण किया था और वे जहाँ जहाँ से गुजरे, वहाँ से क्रूरता की अविश्वसनीय कहानियाँ सुनने को मिली। उस कबीलाई काफिले के साथ उनकी औरतों का समूह भी था। वे कहीं भी अपनी अस्थायी झोपड़ी बनाते या स्थानीय लोगों की झोपड़ियों और घरों पर कब्जा कर लेते। उनके घर की चीजें लूटते, खाते, शाकाहारियों के पवित्र बरतनों में जंगल से पकड़े पशु पक्षियों का मांस पकाते, स्त्रियों, बच्चों को यातनाएं देते, या अपहरण कर लेते, पुरुषों को अपनी फौज में शामिल होने कहते और मना करने पर मार डालते।
एक दिन उन्होंने एक विधवा स्त्री के दरवाजे पर दस्तक दिया। स्त्री बाहर आई तो उसके पल्लू से लगकर उंगलियां चूसता उसका पोता भी निकला। उनलोगों ने उसे कहा कि झोपड़ी खाली करे, उन्हें आराम करना है। विधवा स्त्री ने उन्हें यह कहते हुए मना कर दिया कि झोपड़ी में एक ही कमरा है, जिसमें वह, उसकी पुत्रवधू और यह पोता रहता है। उनके पास रहने को कोई और जगह नहीं। घर में कोई पुरुष नहीं हैं, बेटा कमाने परदेश चला गया है। बहू को लेकर वह झोपड़ी से बाहर कहाँ जाएगी।
इस बात पर वे लोग नाराज हो गए और दादी का आँचल मुँह में दबाकर खड़े उस छोटे से बच्चे को खींच लिया। स्त्री कातर स्वर में चीख उठी। दूर दूर बनी झोपड़ियों और घरों के लोग बाहर आ गए, लेकिन कोई उन क्रूर लोगों का विरोध करने का साहस नहीं कर सका। वे लोग लंबी चौड़ी कदकाठी और बड़ी बड़ी दाढ़ी में असुर लग रहे थे। खबर गाँव के इस छोर से उस छोर तक पहुंच चुकी थी। एक स्त्री पानी लेने गयी थी, जो अपना घड़ा बीच राह में ही पटककर भागती चली आई थी। वह उस विधवा की बहू और उस अबोध बच्चे की अभागी माँ थी। घूँघट की ओट से उसने देखा कि उसके बच्चे को झकझोरते हुए एक जोड़े काले क्रूर हाथों ने बगल के शिलाखंड की ओर धकेल दिया था और बच्चा एक चीख के साथ शांत हो गया था। वह महिला दौड़ती हुई आगे बढ़ने को हुई तो गाँव के लोगों ने उसे पकड़कर रोक लिया। शायद एक युवती के आगे बढ़ने का नतीजा कुछ और बुरा हो सकता था, इसलिए उसे उनके सामने जाने से रोक लिया गया था।
वृद्धा स्त्री बच्चे के शव को छाती से लगाकर रो रही थी, कभी उस शिले पर अपना सर पटक रही थी, कभी बच्चे के मस्तक से बहता खून पोछ रही थी। कोई मदद को आगे नहीं आया और वह बच्चे को आँचल में समेटकर उठाकर वैद्य के घर आई, लेकिन वैद्य ने पहले ही दरवाजा बंद कर लिया था। किसी ने उसकी मदद नहीं की और अब तक गोद के बच्चे का शरीर हिमखंड की तरह ठंडा और कड़ा हो चुका था। शाम का धुंधलका देख बच्चे की माँ को जिस घर के लोगों ने अपने यहाँ छिपा रखा था, उनके यहाँ से वह बाहर आई और दोनों सास बहू वहाँ से बिना किसी को बताए दूर चले गए।
अब उस झोपड़ी के आसपास कई और झोपड़ियाँ बन गई थी और रातों रात वहाँ की बहुत सी झोपड़ियाँ अचानक खाली भी हो गई थी। सबलोग इन नये लोगों के डर से पलायन कर गये थे।
दृश्य 2
बीहड़ वन में सूखी लकड़ियों का अलाव जलाती एक वृद्धा और अलाव की लकड़ियों से भी ज्यादा कृशकाय एक स्त्री, जो वृद्धा के द्वारा बारबार टोके जाने पर भी कोई जवाब नहीं देती। उसे देखकर लगता है कि वह भी जल रही है, वही दहकती हुई लौ उसकी आँखों में दिखाई देती है, जैसी उसके सामने जल रही है। वह उठकर जाती है और एक फूटे हुए मिट्टी के बरतन में खाना पकने के लिए चढाकर अलाव से आग लेकर चूल्हा फूँकती है। दूसरी तरफ वृद्धा अलाव में पकने के लिए कुछ कंद रख रही है।
खाना खाने के बाद वृद्धा सोने चली गई और उसके जाते है उस कृषकाय स्त्री ने अपने भोजन की थाली खिसकाई और झोपड़ी के बाहर आकर टहलने लगी। वह थोड़ी थोड़ी देर में झोपड़ी में जाती और फिर बाहर निकल आती। ऐसा लग रहा था कि कोई बात है, जो उसे सोने नहीं दे रही थी। कुछ देर बाद अचानक वह झोपड़ी के पीछे गयी और वहाँ से एक पोटली ले आई। पोटली के भीतर बारबार कुछ हिल रहा था। महिला पोटली को झोपड़ी के बाहर ही छोड़कर फिर से झोपड़ी के भीतर गई और अपने खाने की थाल ले आई। अब उसने पोटली को खोला। उसमें एक छोटे बच्चे का हाथ पाँव बाँधकर रखा गया था और उसके मुँह में कपड़ा ठूँसा हुआ था। मुँह का कपड़ा जल्दी जल्दी निकालकर वह उसे कौर में भर-भरकर खाना खिलाने लगी। बच्चे ने भी रोना भूलकर न जाने भूख से या किस प्रेरणा से खाना शुरू कर दिया था।
तब तक पीछे पीछे आकर वृद्धा भी झोपड़ी के द्वार पर खड़ी हो गई थी। उससे अब नहीं रहा गया तो उसने पूछा कि बच्चा कौन है। इस पर सिसकते हुए स्त्री ने बताया - वह कंदमूल बेचने के बहाने अक्सर अपनी पुरानी बस्ती जाया करती थी, क्योंकि उसने उन लोगों से बदला लेने की शपथ ली थी। यह उन्हीं लोगों का बच्चा है, जो अभी उनकी झोपड़ी पर कब्जा कर उसमें रह रहे हैं। शायद ये स्त्री के दिवंगत पुत्र के कातिल का बच्चा है। वह उसे कंदमूल दिखाकर घर के पास से फुसला लाई थी और नदी में धकेलने की सोचकर ले गयी थी। लेकिन उसे किसी की हत्या करने का साहस नहीं हुआ। उसे लगा कि वह उन बड़े बड़े दुष्ट लोगों को तो मौका मिलता तो जरूर मार डालती, लेकिन बच्चे की कातर आँखों ने उसे हरा दिया। उसने सोचा कि वह अपने हाथ से मार डाले, इसकी भले उसे हिम्मत न हो, लेकिन वह उसे चुपचाप मरने छोड़ तो जरूर सकती है। वह उसे देखेगी ही नहीं कि दया लगे, यह सोचकर उसने बच्चे के हाथ पाँव बाँधकर और मुँह में कपड़ा ठूँसकर, उसे एक पोटली में बंदकर झोपड़ी के पीछे झाड़ी में छिपा दिया।
अलाव सेंकने के समय तक वह यही सोच रही थी कि आज उसका प्रतिशोध पूरा हो जाएगा। दया न आए, इसलिए आज पुरानी बातों को याद कर वह हृदय को अधिक कठोर किए बैठी थी। लेकिन जब खाना का पहला कौर मुँह में लिया तो निगला नहीं गया। याद आ गया कि इसने दोपहर से कुछ नहीं खाया पीया है। इसमें उसे अपना मुन्ना दिखाई देने लगा। उतना ही गोरा, उतनी ही चंचल आँखें, उसी तरह उसकी गोद में चिपका है। वह कहाँ तो इसे मारने चली थी, कहाँ लग रहा कि उसका लाल ही रूप बदलकर आ गया है। आखिर इस बच्चे का क्या दोष, वह इस बच्चे से बदला नहीं ले सकती, प्रतिशोध में इसकी आहुति नहीं दे सकती। अब ये उसी के पास रहेगा। आखिर इसके घर के बड़े लोगों को सजा देनी थी, वह तो ऐसे भाग दी जा सकती है।