रंग बदलता आदमी,बदनाम गिरगिट 5
काव्य संकलन-
समर्पण-
देश की सुरक्षा के,
सजग पहरेदारों के,
कर कमलों में-
समर्पित है काव्य संकलन।
‘रंग बदलता आदमी,बदनाम गिरगिट’
वेदराम प्रजापति
मनमस्त
मो.9981284867
दो शब्द-
आज के परिवेश की,धरती की आकुलता और व्यवस्था को लेकर आ रहा है एक नवीन काव्य संकलन ‘रंग बदलता आदमी- बदनाम गिरगिट’-अपने दर्दीले ह्रदय उद्वेलनों की मर्मान्तक पीड़ा को,आपके चिंतन आँगन में परोसते हुए सुभाषीशों का आभारी बनना चाहता है।
आशा है आप अवश्य ही आर्शीवाद प्रदान करैंगे- सादर।
वेदराम प्रजापति
मनमस्त
गुप्ता पुरा डबरा
ग्वा.-(म.प्र)
सोचते ही क्यों रहे,तुम पुकारो तो मुझे,
लौट आता हूँ फलक से,मैं तुम्हारे पास में।
किन्तु तुम तो आज भी,जान कर,अजान हो,
मैं तुम्हारा ही रहूँगा,हर समय विश्वास में।।201।।
जब टटोलोगे मुझे,विश्वास लें,तो पास हूँ,
जानकारों को दवा हूँ,नहीं केवल घास हूँ।
मैं मिला कई बार तुमसे,भूल तुम ही तो गए,
खोजना तुमको पड़ेगा,मैं तुम्हारे पास हूँ।।202।।
बदलती हर चीज है,इंसान के इंसाफ से,
इंसाफ ही इंसान है,वही तो भगवान है।
अयस भी,स्पर्श कर,कंचन बना मुझसे,
है नहीं पत्थर,वो पारस,सच खरा इंसान है।।203।।
तुम भी बना सकते हो सोना,खून को तासीर दो,
देख कर भी नहीं संभलते,वो कहानी अलग है।
मेरे खून से,बनता तो है सोना जरुर,
पर वे तौर तरीके,बहुत कुछ अलग-अलग है।।204।।
मनाते हो तुम उसी की,जश्न रंजित होलियाँ,
क्या कभी सोचा सपन में,क्या किया उसके लिए।
तुम खरे इंसान पर भी,कर रहे हो शक-सुबा,
चुक गया उसका सभी कुछ,आज भी जिसके लिए।।205।।
तौल होती है उसी की,जो कोई ना चीज हैं,
आसमाँ जिससे टिका है,बात गहरी है कोई।
क्यों करो शक,दोस्तों,ईमान तो ईमान है,
क्या तराजू है कहींॽ,और तौल सकता है कोई।।206।।
हैं गवाही आज भी,पृष्ठ वे इतिहास के,
धन,धरा,परिवार,तन भी,त्याग अ-मृत हो गए।
और अब तक इस तरह से,सोचते तुम ही रहे,
आज भी जग जाओ प्यारे,जागकर क्यों सो गए।।207।।
हैं कोई विश्वास ऐसा,लाए जो नजदीकियाँ,
साख पर तौलो खुदी को,तुम बिकाऊ तो नहीं।
हो गए है आज तक,समझौते कितने,
पर किसी भी बात पर,तुम तो टिकाऊ हो नहीं।।208।।
जानता सारा जहाँ है,सब तुम्हारीं हरकतें,
अब नहीं रुकते रुकेंगे,तुम बाज आने से रहे।
है खतम,तुम जान लो,विश्वास की तारीख यह,
मान लो समझाइस कुछ तो,बुरे दिन ही दिख रहे।।209।।
ये जिंदगी बहुत नाजुक है,इसे रुलाना मत,
बहारों सी खुशी दो,बरना ये कही की नहीं।
यह सारा दारो-मदार तुम पर ही तो है,
बरना जमाना कहेगा,बात सारी,अनकही।।210।।
वैसे रोते-रोते भी,कट जाती है यह जिंदगी,
यदि जीना है सही तो,हँसते-हँसते ही रहो।
बरना यह जिंदगी,जिंदगी नहीं,कटघरा है,
तुम समझो न समझो,और कहो न कहो।।211।।
न जाने कितने आए और चले गए यौंही,
तुम कौन से खेत की मूली,ढह जाओगे बुदबुदा से।
तुम खुदा तो नहीं,जो मैं भी तुम से डरु,
तुम्हारे जैसे सैकड़ो देखे,डरता हूँ तो बस,खुदा से।।212।।
क्यों फूलें हो फूल से,आसमां की धूल हो,
सागर समझे हो,कही बुदबुदा तो नहीं।
इसे तुम ले नहीं सकते,अमानत खुदा की है,
फिर डरना क्यों,तुम खुदा तो नहीं।।213।।
तुम्हारे जुल्म अपने आप ढह जाएगें,
जुल्म,जुल्म होते है,गवाही की जरुरत नहीं।
क्योंकि सत्य की औकाद होती है,अपने आप में,
सत्य के होते है पाँव,झूठ के पाँव होते नहीं।।214।।
हैं तबाही दौर का मंजर यहाँ,
भूख से मरने लगें है आदमी।
काफिले तो और बड़ते जा रहे,
खाने लगा है,आदमी को आदमी।।215।।
तुम तो नीचे देखकर,चलना न सीखे आज तक,
लोभ की दुर्दर निगाहें,आसमां पर है लगीं।
लोग गिरते जा रहे,होश से चलना जरा,
अंधे नहीं वे लोग,उनके चार आँखें भी लगीं।।216।।
सोचते है बदलने की,उग रहे वे वाँस से,
बैंत के वे पेड़ अब तो,लग गए फूलन-फलन।
आज से ही तो नहीं,मुद्दते बीती-मगर,
नहीं बदल पाए हैं अब तक,इस जमाने के चलन।।217।।
ये अंधेरे,हो गए काफूर क्षण में,
चाँद नहाएगा उछलकर,उफनती सी समां में।
रोशन अपने आप ही,हो जाएगी ये समां भी,
जरा चाँद को तो उगने दो,फैले हुए आसमां में।।218।।
मंजिलें तो पार होती हैं सदां,साहसो के बल,
पौरुषी जन्नत जगाओ,सारी दुनियां हिलेगी।
तुम चलने से पहले ही,इस कदर काँपते हो,
क्या भरोसा है,तुम्हें मंजिले भी मिलेगी।।219।।
इस तरह बैठकर रहना,तुम्हे शोभा नहीं देता,
तुम मानव हो,कुछ कर्तव्य करो,मानवी के।
अपने आप ही दूर हो जाएगा,ये अंधेरा,
तुम उठाओ तो जरा,मकाँ रोशनी के।।220।।
तुम्हारे इन कदमों का,पूजन ही होगा,
चलो तो जरा,ये कार्य है, मर्द के।
इन नशों में खो रहें क्यों,वख्त अपना,
पीते हो तो पिओ,जाम भरकर,दर्द के।।221।।
तुम पिओ,तो औरों के दर्दो को पिओ,
गैरो को उवारो तो,बूढ़े कभी भी नहीं।
दर्द से बढ़कर नशा,है नहीं कोई जिगर,
जो मजा उसमें मिलेगा,वो कहीं ढूँढे नहीं।।222।।
तुम खुद समझदार हो,बताने की जरुरत नहीं,
हम-आज भी अपनी जगह,आप हैं बाकिफ।
स्वाभिमान ही तो हमें,जिंदा रखे है आजतक,
बरना हम कभी के होते,जमाने के मुताबिक।।223।।
कोई माने न माने,हम अपनी हद पर है,
चले है अपने कदमों से,और के सहारे नहीं।
हम खुद्दारी में मरकर भी,जिंदा है आजतक,
क्या समझे,ये सभी के बूते की बात नहीं।।224।।
कौन सा गम सामने है,जो तुम्हें सोने न देता,
याद करले जख्म अपने,जो छिपाए है हिए।
चाँद तारों को ही गिनते,रात जब गुजरी तेरी,
बात पुख्ता तो नहीं,है रात सोने के लिए।।225।।
जागना ही है तुम्हें तो,इस तरह से मत जगो,
भोर का सूरज निकालो,झेलते हो क्यों तबाही।
पेट की सरगम लिए,तुम रात में सोए नहीं,
बात है सच्ची कि जिसकी,दे रहे तारे गवाही।।226।।
राह मेरी है अलग,उस राह से मैं भी अलग,
नहीं हुआ समझौता,बात कुछ ऐसी रही।
इस लिए नहीं मानते है,वे मुझे अपना कभी,
मैं नहीं समझौतावादी,बात है मेरी यही।।227।।
धार के ही साथ अबतक नाव मेरी नहीं बही,
धार ही काटी है मैंने,नाव का नाविक रहा।
अपना नही बना सके,हालात भी तो ये मुझे,
क्योंकि,मैं तो शुरु से,हालात पर भारी रहा।।228।।
ओ बड़े दिल वालों,जरा इनकी ओर तो देखो,
तुल नहीं सकते कभी भी,इनका भारी वेट है।
तुम्हारा दिल,पेट से बड़ा तो हो नहीं सकता,
क्योंकि,तबाही का दौर भी तो,यही पेट है।।229।।
नहीं भर पाई इसे,सारी दुनियाँ की दौलत,
लोगों ने खूब की कोशिश,मगर खाली ही है अभी।
लोग भाग रहे है,एक मुद्दत से यहाँ,
क्योंकि,अदमी का पेट,भरता नहीं है भी कभी।।230।।
सच मानो तो,हालातों को मैंने ही बदला है,
रखता हूँ आज भी हौसला,बदलने का हालातें।
हालातों ने बदलने को किया बहुत मजबूर भी,
मगर-मैं था जो,कुछ कर नहीं सकीं मेरा हालातें।।231।।
ये दुनियाँ हमारी हैं,न कि हम दुनियाँ के,
कौन जीत सकता है हौसलो के,सिपहसालार को।
जब हम कुछ होगे,तो जमाना भी हमारा होगा,
कोई भी हिला नहीं सकता,मेरे किरदार को।।232।।
वे बिचारे कुछ समय को,बदलते है रंग अपना,
हर समय ही,बदल लेता,क्या कहें इस आदमी से।
गिरगिटों को इसतरह से व्यर्थ ही बदनाम करते,
रंग बदलना ही तो सीखा,इन सभी ने,आदमी से।।233।।
कर सका है कौन अबतक,होड़ इसकी,
बहुत ज्यादा ये फसा है,दलदलों में।
बर्ष में एक बार गिरगिट रंग बदलते,
आदमी तो बदलता है,पल-पलों में।।234।।
मैं कभी से कह रहा हूँ,इस तरह ही हर कहानी,
लोग समझे या न समझे,समझाने के तरीके है।
तुम इन्हें,ख्वावे-शेर, और जो कुछ भी समझो,
चुनाँचे,ये मेरी अपनी कहन के,तरीके है।।235।।
तुम्हारी नई कश्ती है,नया उन्माद है तुम में,
मगर यहाँ डूबतीं देखीं,अनेको ऐसी पतबारें।
मैं जो कुछ भी कह रहा हूँ,अल्फाज नहीं,
गुजरकर आई है कश्ती,अनेकों काटकर धारें।।236।।
इस तरह क्यों डुबोते हो,सच्चाई की ये कश्ती को,
तुम्हें जीने नहीं दूँगा,अनेको बार मरकर भी।
सच्ची कहन जो मेरी,तुम्हें क्यों कर बुराई है,
क्या मैं कह नहीं सकता,अनेको जुर्म सहकर भी।।237।।
तुम कैसे हो जिंदा,यही अफसोस होता है,
जिओ तो आदमी की तरह,तुम्हारा हक यही बनता।
तुम अभी भी,सच को सच कहना नहीं सीखे,
फिर तो तुम्हें जीने का, हक भी नहीं बनता।।238।।
भाई आदमी होकर जिओ,आदमी की तरह,
जनाजा कह रहा सब कुछ,मगर फिर भी शर्म नहीं।
हमने कौन से पत्थर फैंके है,तुम्हारे घर पर,
अरे जुल्म को तो जुल्म कहो,न कहना क्या जुर्म नहीं।।239।।
वह वजनदार हो नहीं सकता,जो कभी झुका नहीं,
अब भी,जरा चलो झुक कर,अनेको बार समझाया।
जो लदा होता है,फलों भार से,सदाँ झुकता है,
अरण्डों को कभी,झुकने का सलीका भी नहीं आया।।240।।
लोग पहिचानेगे जरुर,तेरे ऐसे बजूद को,
आने वाली पीढ़ीयाँ,तेरे ही गीत गाऐगीं।
क्यों इतराता है इतना,जरा झुककर तो देख,
सारी दुनियाँ,तुझे झुकते ही नजर आऐगीं।।241।।
सभी कहते रहे अब तक,हकीकत इस कहानी की,
झुका है जो जमाने संग,खड़ा है आजतक समझो।
सीख ले,एक पेंच झुकने का यहाँ अनूठा,
जो झुका हो खुद में,खुदा भी झुक गया उसको।।242।।
गोंदरा-धार में देखो खड़ा ही रह सका झुककर.
वो गहरी जड़ो के दरखत,ओधे मुँह गिरे देखे।
जिन्होंने आसमां थूँका,गिरा है लौटकर मुँह पर,
अभी भी सीख लो झुकना,अनेको लेख है,लेखे।।243।।
हो जाऐगा एहसास तुम्हें,आदमी होने का,
आदमी होना बड़ी बात है,आदमी हो जाओगे।
तुम अपनी समझ को,कुछ और निखार कर देखो,
ये हकीकतें है सारी,अपने आप,समझ जाओगे।।244।।
खुदा की आयतें समझो,उतर जो फलक से आई,
इन्हें लिखने,लिखाने की,समझ लो-क्या जरुरत है।
इन्हें बस मानते जाओ,अपना शिर टिकाकर के,
खुदा की ये इबादत है,जीवन की धरोहर है।।245।।
जबतक नहीं समझे हो,तुम्हारी ये बगावत है,
समझ लोगे जिसी क्षण में,समझदार कहाओगे।
नहीं मानोगे तब,किसी की कोई भी बातें,
सुनोगे नहीं किसी की भी,सिर्फ अपनी ही गाओगे।।246।।
जब तुम सब कुछ समझ जाओगे जनाव,
बिल्कुल चुप होकर,सिर्फ ही शिर हिलाओगे।
वो इल्म,जब तुम्हारी जहन में आजाऐगा,
तुम खुदा को,खुद-व-खुद,समझ ही जाओगे।।247।।
ये दौलत कौन की होती,कितने दिन,कहाँ रहना,
जरा-धरती पर आ जाओ,रहोगे इस तरह कब तक।
तुम्हारे ऐब के पहलू,उजागर हो गए,लेकिन-
दबे हैं सिर्फ तब तक ही,पैसा हाथ में जब तक।।248।।
जरा कुछ सोचकर चल लो,पैसा है नहीं सब कुछ,
ये सपने की तिजोरी है,खाली हाथ ही चलना।
चक्कर खूब ही खाए,ये माया का सिकंजा है,
कहाँ तारीफ है इसकी,इसे सब कह रहे-छलना।।249।।
समझता हूँ सभी रहवर,तसल्ली दे रहे मुझको,
पुरानी नाव है जर-जर,किनारे पहुँच पाऐगींॽ
तुम्हारी इस तसल्ली से,मेरा साहस उछलता है,
भलाँ-मजधार में डूबू,तुम्हारी याद आऐगी।।250।।