रंग बदलता आदमी,बदनाम गिरगिट 8
काव्य संकलन-
समर्पण-
देश की सुरक्षा के,
सजग पहरेदारों के,
कर कमलों में-
समर्पित है काव्य संकलन।
‘रंग बदलता आदमी,बदनाम गिरगिट’
वेदराम प्रजापति
मनमस्त
मो.9981284867
दो शब्द-
आज के परिवेश की,धरती की आकुलता और व्यवस्था को लेकर आ रहा है एक नवीन काव्य संकलन ‘रंग बदलता आदमी- बदनाम गिरगिट’-अपने दर्दीले ह्रदय उद्वेलनों की मर्मान्तक पीड़ा को,आपके चिंतन आँगन में परोसते हुए सुभाषीशों का आभारी बनना चाहता है।
आशा है आप अवश्य ही आर्शीवाद प्रदान करैंगे- सादर।
वेदराम प्रजापति
मनमस्त
गुप्ता पुरा डबरा
ग्वा.-(म.प्र)
झूठ के बाजार अब लगने लगे है,
रह गया ईमान तो,कौने धरा।
नकली सोने के मिलेंगे यहाँ सरोवर,
ढूँढे मिलेगा नहीं सोना,जो है खरा।।351।।
आजतक तुमने बुझाई,फूँक से ये मोमबत्ती,
भूल मत जाना कभी,इस आतिशे-कुहसार को।
यह किसी के भी भुझाए,नहीं बुझा है,
बदलना तुमको पड़ेगा,अपने इस व्यवहार को।।352।।
यदि बना सकते,बना दो,खुशनुमा सी जिंदगी,
तो सही बे मान लेगे,आप ही भगवान है।
मिल सको उनसे मिलो जो,जिए लुटकर,
लूटकर जीना किसी को,बहुत ही आसान है।।353।।
कायरो सी भावना है,जो छिपी अंदर तुम्हारे,
हौसलों के सामने वह,आप ही मिट जाएगी।
चल पड़ो एक बार,उम्मीद के पुल बाँधकर,
मंजिले भी हारकर,आसन सी हो जाऐगी।।354।।
क्या झुका है ये फलक,भुलकर मत सोचना,
है नहीं हम वो पथिक,अंजाम के परिणाम से,।
ये कदम मुड़ना न सीखे,राह छोटी हो गई,
हौसले होते नहीं कम,रोज के संग्राम से।। 355।।
धूप,बरसा,शीत के आघात को जिनने सहा,
पा लिए परिणाम अच्छे,जिंदगी कलियाँ खिली।
जिंदगी भर जो तपा,वो बेश कीमत हो गया,
बिन तपे,किसको कहीं भी,भूलकर जन्नत मिली।।356।।
चक्र चलता है समय का,भूलना मत दोस्तों,
नियति के सिद्धांत से ही,ये सितारे घूमते।
झड़ गए वो फूल,मिल गए खाक में,
एक दिन वो ही समां में,शिर उठाए झूमते।।357।।
जिंदगी को यहाँ जीना,हो गया दुर्भर अधिक,
बिपल्वी परिछाईयाँ ही,आ गई जैसे कहीं।
जुर्म की औकाद,कितनी हो गई जर-जर यहाँ,
ये धरा फटती नहीं,और आसमां गिरता नहीं।।358।।
जिंदगी की यह दसा तो,आपने यौं कर दई,
संभल जाओ आज भी,नहीं तैयारियाँ है शाप की।
हाथ फैलाए खड़े और,हड्डियाँ पंजर लिए,
सहम कर संसार की,साँस थमीं है आप ही।।359।।
हम तुम्हारे,तुम हमारे,जानते अंजाम सब,
जब तुम्हारी सह मिली,कर दिए सब काम तक।
फिर बताओ आज हम,क्यों,एक दूजे की कहे,
जानता सारा जहाँ है,एक दूजे नाम तक।।360।।
हो गए सब ही,पसीने तर-व-तर,
वे सफा भी,सुन तुम्हें,हासिये से मुड़ गए।
कमाल भारी है,तुम्हारे तर्जे वया का,
सामने वाले के सुनकर,सब पखेरु उड़ गए।।361।।
काम करना ही पड़ेगा,सुबह से और शाम तक,
ये धरा गुल्जार होगी,सोचना है आज फिर।
इस तरह से व्यर्थ का,आराम करना छोड़ दो,
तो लगेगा बहुत सुंदर,जिंदगी का हर सफर।।362।।
औरतें-अबला नहीं,भूलो पुरानी बात ये,
आजतक,हर जिंदगी-संग्राम में अब्बल रहीं।
देखना,तुमको मिलेंगी,विश्व के इतिहास में,
हारकर लौटी नहीं है,विजय ही वर ती रही।।363।।
औरतें पीछे नहीं है,आज भी हर बात में,
शौर्य उनके से लखों तुम,इतिहास के पन्ने भरे।
वे सती है,वे जती है,कालिका महाकालिका भी,
वीरता उनकी के आगे,महावली शंकर डरे।।364।।
होश में आजा,तूँ तो इंसान ठहरा,
वास्ते किस कर लई,इस तरह हालत खराब।
पगले-तेरा यह हाल क्या,सीरी-फराद सा,
ता उम्र पीता रहेगाॽ,जिंदगी भर ऐ शराब।।365।।
अश्क का इतिहास गहरा समध सा,
इस तरह पीता रहेगा,क्या सदा।
होएगा खाली नहीं यह कभी भी,
नारियाँ भरती रही है,इसको ही सदा।।366।।
औरतें है-औरतें,औरता जो-सो करै,
इनको निभाना है कठिन,संग्राम का संग्राम है।
हो गई जब महरबाँ,आ गई जन्नत वहाँ,
सर्व सुख का आगमन है,कल्प वृक्षी धाम है।।367।।
इक जरा सा काम तो,संभला नहीं है ठीक से,
सल्तनत का बोझ ये,कैसे उठा सकते भलां।
हाथ बौने बहुत इनके,साहसी दिल है नहीं,
किस कदर विश्वास कर लें,चाहे जो सोचे,भलां।।368।।
इतने बिगड़ते तो नहीं,गर खूँन होता,खूँन सा,
धरती दरकती सी लगी,शर्मा रहा है आसमां।
किन्तु इनकी चाल-ढालें,आज भी बदली नहीं,
शब्द से बाकिफ नहीं जब,क्या पढ़ोगे फातिमा।।369।।
इंसान हो,इंसानित पर,जिंदगी को होम दो,
इस तरह डरना तुम्हारा,तो लगा अच्छा नहीं।
कौन सी चटसाल में,इल्म से बाकिफ हुए,
आऐगी तहजीब अब कब,आज तुम बच्चा नहीं।।370।।
काफिले के काफिले,बनते नजर ही आ रहे,
अजब चाले चल रहे हो,नहीं समझे राज भी।
जब खूँन यह,कातिल बना,अपने ही खूँन का,
इसलिए होता नहीं,इनपे भरोसा आज भी।।371।।
जब से तुम्हारी चाल यह,हद से बेहद हो गई,
चल रहे है लोग सब,तुमसे किनारा ही किए।
और तुम यह समझकर भी,समझे नहीं कुछ आजतक,
अब भी संभलकर चल पड़ो,ऐसे जिए तो क्या जिए।।372।।
तुम भलां,अपना न समझो,है नहीं कोई गिला,
साथ देना झूठ का तो,हक हमारा नहीं होता।
आजतक हम,सच का दामन थामते आए,
आज भी थामते,गर तुम्हारा सच,सच सा होता।।373।।
बात इतनी सी समझ लो,ध्यान का सब खेल है,
राग सब,वे राग होगा,ध्यान के व्यवधान में।
नाचना तो है तुम्हें,पर ध्यान की कर साधना,
छूट नहीं पाए कभी भी,लक्ष्य का संधान ये।।374।।
पैर की थिरकन अलग,संग कटि का मटकना भी,
नृत्यिका के ध्यान वस,वो शीश की गागरि रही।
लक्ष्य है उसका गगरि पर,भीड़ को नहीं देखती,
पैर की गति है सहायक,श्रवण के संग नहीं रही।।375।।
बात का अबलम्ब ले,वो ध्यान में मनमस्त हो,
चल रहीं कब की कहाँ से,नहीं बँधी इस ज्ञान से।
गुफ्त गूँ में हो मगन,तब भार भी नहीं भार है,
हो डगर कितनी भी लम्बी,निकलती आसान से।।376।।
बढ़-बढ़ के बाते कर वहाँ,जहाँ जानता कौई नहीं,
पीढ़ियों से जानते है,हम तुम्हें और तुम हमें।
कौन सी वह बात है,जो छुपी है आजतक,
भेद सारा खोलना है,इस तरह का अब हमें।।377।।
इस घने संवाद में,बुद्धी की फरियाद यह,
लग रहा वेचार्ज हो गई,ध्यान की वह म्याद भी।
आज के माहौल में,व्यस्तता इतनी बड़ी,
याद नहीं रहते है वादे,याद करके,याद भी।।378।।
तदवीर-तकदीर से भी,कहीं बड़ी होती जनाव,
कभी-कभी निशाने लग जाते है,खाली हाथ से भी।
इसी लिए,तदवीर-तकदीर का,साथ गहरा,
बन जाते है बिगड़े काम भी,दोनो के साथ से भी।379।।।
बनी राहों पर चलना,कोई कमाल नहीं होता,
राहें अपनी बनाकर चलो,तो चलना है,चलना।
जिन्होंने अभी तक,अपनी राहें ही नहीं बनाई,
उनका चलना भी,कब माना जाता है,चलना।।380।।
जब-जब भटके कोई,अजनवी राही,
हर कदम पर,वो तुम सबको संबल ही देगी।
गर तुमने औरो के लिए,कुछ राहे बना दी,
वो राहे तुम्हें,कभी भी मरने भी नहीं देगी।।381।।
वो अगरबत्ती भी जलकर,खुशबू देती है,
क्या उसका जलना,जलना है,अमर होना नहीं।
इस तरह जिन्होंने भी,अपनी कुर्बानियाँ दी है,
उन्हें याद करेगा जमाना,कभी भी भुलाएगा नहीं।।382।।
आज भी लोग,उन फूलों को,याद किया करते है,
झड़-झड़ कर भी,जिन्होंने महकाय है चमन।
उनकी वे आहुति,आज भी अंबर को थामे है,
और धरती पर,बरसाती है,सब ही तरफ अमन।।383।।
जब तुम्हें मालूम ही है,हमारी सारी बातें,
फिर जोतिषी बनने का दावा,क्यों-भला।
क्या यहीं,गुमराह करना होता नहीं है,
जादू तुम्हारा इस तरह का,यहां नहीं चला।।384।।
तुम्हारे ख्वावों की दुनियाँ,अभी उजड़ी नहीं है,
वो बहारो की बहर,अपने गीत ही गाएगी।
यह आसमां भी तो,भरोसे पर ही टिका है,
जरा सब्र करो,वो जन्नत भी,यहाँ आएगी।।385।।
मानो न मानो,पर किसी की बात,सुनो तो जरा,
इस तरह की हुज्जत से,कभी कोई बात नहीं बनती।
इससे बात बिगड़ने का अँदेसा ही रहता है,
इसलिए कभी भी,इस तरह से उलटी नहीं गिनों गिनती।।386।।
जब तुम्हें भगवान ने,आँख कान,बुद्धि दी है,
तब असफल होने की तो,कोई बात नहीं।
सिर्फ हिम्मत हौसले ही,बुलंद रखना है,
सारी कहानी ज्ञात है,कोई अज्ञात नहीं।।387।।
हैं कौन सी मजबूरियाँ,जो डराती है तुम्हें,
उन्हें अंदर से निकाल दो,बस यही कहते।
तुम अंधे,गूँगे और कानों से बहरे नहीं,
फिर अपनी बात,ब-खूबी क्यों नहीं कहते।।388।।
रुके रहना भी,क्या जीवन की नियति हैॽ,
निरंतर चलना ही तो,सच्चा जीवन है।
और तुम,जो हारकर,ऐसे बैठ गए,
ना समझ मत बनो,यही तो टीभन है।।389।।
सफर तय होगा तभी,चलती रहें ये कस्तियाँ,
हर भंबर के मोड़ का,साहिल ठिकाना तो नहीं।
पर तुम्हें आस्वस्त करती है,हवा की लहर ये,
दूरगामी सोच का,परिणाम अच्छा कब नहीं।।390।।
यदि नहीं की गौर मुझ पर,जानते क्या होऐगा,
लौटना तुमको पड़ेगा,सोच लेना फिर इधर।
हूँ खड़ा चौराहे पर,मारग दिखाता आप को,
ऐ तुम्हारी मौज है,आपको जाना किधर।।391।।
लाल,पीली,हरी बत्ती,तीन रंगो बर्तिका,
आप समझो या न समझो,मार्ग का संकेत है।
है समझना तुम्हें इनको,इसारा बस दे रहीं,
इन इसारो की कहानी का,यही संवेत है।।392।।
हो गई पहिचान तुमसे,वेश की-परिवेश की,
मैं खड़ा अपने पगों पर,उनका सहारा कब कहाँ।
बाकिफ नहीं था अभी तक,मैं निजी पहिचान से,
आपका आना हुआ क्या,आइना बनकर यहाँ।393।।
जानकर भी आपको,आजतक आन्जान था,
माँफ करना भूल मेरी,सहस्त्र वंदन आपको।
आज तक जाना नहीं मैं,जा रही कस्ती किधर,
हर भंवर के मौड़ पर,साहिल बने है आप तो।।394।।
समय के बदलाव ने,करवट लई यह जान लो,
और आगे होऐगा क्याॽ,आपके ही सामने।
महज,जहाँ स्यारों का,बोलना ही सिर्फ था,
टावरों का ये शहर,आकर खड़ा है सामने।।395।।
चहल कदमी के सफर,फौलाद के अंबार ये,
रोशनी की गोद में,संसार लगता खो गया।
था किसे मालूम कि,बीरान भी आवाद होगा,
उल्लुओं के बसर का,क्या नजारा हो गया।।396।।
तजुर्बें तो खूब है हमको,मगर कुछ समझे नहीं,
है कठिन उस राह चलना,इस कदर है जिंदगी।
और वे नहीं बाज आए,आजतक भी देख लो,
आज भी फैला रहे है,किस तरह की गंदगी।।397।।
घर का भेदी-लंका ढावे,जानते है खूब सब,
सभी ने मिलकर यहीं तो,जोरो से बात कहीं थी,
अपनो से ही हार रहे है,हम तो बरसों से,
औरों की क्या बात कहें,औकाद नहीं थी।।398।।
इनने इतना रंग रुप बदला है,इस घर का,
नहीं जान पाए थे अब तक,ये शूल रहे है।
पगडंडी पर भी,नहीं भटके भाई,लेकिन,
अपने ही मौजे में आकर,हम तो ऐसे भूल रहे है।।399।।
हलका मत समझ,इंसान का हैवान होना,
यही को टूटकर आसमां से,अंगार बनता है।
कुदरत भी हैरानी में,पड़ जाती है मियां,
जब कहीं वो इंसान भी,हैवान बन जाता है।।400।।