Awdhut Gaurishankar baba ke kisse - 11 - last part in Hindi Spiritual Stories by ramgopal bhavuk books and stories PDF | अवधूत गौरी शंकर बाबा के किस्से - 11 - अंतिम भाग'

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अवधूत गौरी शंकर बाबा के किस्से - 11 - अंतिम भाग'

अवधूत गौरी शंकर बाबा के किस्से 11

रामगोपाल भावुक

सम्पर्क- कमलेश्वर कोलोनी (डबरा) भवभूतिनगर

जि0 ग्वालियर ;म0 प्र0 475110

मो0 9425715707, , 8770554097

ई. मेल. tiwariramgopal5@gmail.com

हम सन्1962 ई0 में डबरा आकर रहने लगे थे। बाबा की जाने क्या कृपा हुई कि वे मेरे पास आकर रहने लगे। एक माह में मुझे बाबा की तीन अवस्थायें देखने को मिलीं हैं।

पहली अवस्था-शौच जाने के बाद दोनें समय स्नान करते, विधिवत पूजा पाठ करते एवं सफेद चन्दन लगाते थे। बाबा योगी थे। वे कृष्ण भक्त थे। इन दिनों सूर्य नारायण को जल चढ़ाना न भूलते। गीता का पाठ करना उनके दैनिक जीवन में सम्मिलित था।

दूसरी अवस्था- आठ-दस दिन बाद शुरू हो जाती थी। जिसमें वे रातभर बैठे रहते थे। कभी कसकर कान बाँध लेते थे। कभी एक उगुली कसकर बाँध लेते। दिनभर इधर-उधर घूमते रहते। पहले आठ-दस दिन खाना नियमित रहता ,दूसरे आठ -दस दिन खान-पान का कोई नियम नहीं था।

तीसरी अवस्था- इन दोनें अवस्थाओं के बाद यह शुरू होती थी। इन दिनों खटिया पर पड़े सोते रहते थे। यदि हम उन्हें उठा देते तो उठ जाते और कुछ खिला दिया तो खा लेते और फिर सोजाते थे। इन दिनों न दिशा-मैदान जाते और न स्नान करते यानी कुछ नहीं करना । खटिया पर लेटे-लेटे, उसी पर पेशाब करते रहते। लेकिन बदबू का नाम नहीं होता था। इन दिनों नेत्र बन्द किये लेटे रहना। कभी स्वास ज्यादा लेते और कभी स्वास इतनी धीमी होती कि स्वास न चलने का सन्देह हो जाता था। उन्हें बोलना नहीं होता तो कोई कुछ पूछता रहे ,वे नहीं बोलते थे बल्कि शून्य भाव से उसे ताकते रहे थे। यह उनकी समाधि की अवस्था होती थी। इस स्थिति में किसी को भी मार-पीट दिया करते थे। किन्तु बिना बात के किसी को नहीं मारते-पीटते थे। उनकी यह अवस्था दिन-प्रति दिन बढ़ती चली जारही थी। मेरे एक परिचित एस0ए0एफ0 में सिपाही थे। उनकी ड्यूटी शीतला के जंगलों में लगी थी। बाबा उन्हीं के साथ शीतला के जंगल में चले गये। वहीं से वे अदृश्य हो गये। जब उनकी ड्यटी वहाँ से हटी तो वे बाबा को खेजते हुये मेरे पास आये। उन्हीं ने मुझे यह सूचना दी थी । प्रभूदयाल तिवारी जी ने अन्तमें एक यह बात कही- जब तक बाबा हमारे यहाँ रहे, हम रोज शाम को बाबा की आरती उतारते थे। बाबा हमसे आरती में ‘‘‘ऊू जय जगदीश हरे’’ की आरती कहलवाते रहे।

इन दिनों जगराम बाबा का नाम गौरी शकर बाबा के निकट लोगों में सुनाई पड़ने लगा। मैं उन्हें तलाशते हुये उनके घर पहूँचा। जब इन्हें यह पता चला तो ये एक ओझा की तरह मुझ से मिले। मुझे इनका व्यवहार अच्छा नहीं लगा। किन्तु बाबा की तलाश में मैं सब कुछ सहने को तैयार था। कल आने की बात कह कर इन्होंने मुझे कई वार बुलाया। तव कहीं इन महासय ने बाबा के बारे में अपने पत्ते खोले-‘‘ ये सिलाई का कार्य करते थे। बाबा इनकी दुकान पर आने लगे थे। कभी घर आकर रूखी-सूखी रोटी खाते समय ऐसा व्यक्त करते कि मानों मोहन भोग खा रहे हों। ये बाबा को अघोरी मानते रहे। ये बाबा के साथ आठ -दस घन्टे तक बैठे हैं।

इनने और किसन सिन्धी ने बाबा के साथ यात्रायें की हैं। बाबा ने इनका मुन्डन करा दिया था। किसन सिन्धी और ये बैरागी के रूप में बाबा के साथ रेल से यात्रा कर रहे थे। ये दोनों बाबा के कारण पकड़े जाने से बचे। लम्बे समय तक सफर करते रहे। बाबा की होड़ में इनने भी न कुछ खाया न पिया। इससे जगराम को बेहोशी आने लगी थी। ये इलाहाबाद पहुँच गये । जगराम बाबा से कहकर गंगास्नान के लिये उतर गया। किन्तु जब यह डबरा लौट कर आया बाबा इससे पहले यहाँ आ चुके थे।

गमियों के दिन थे। बाबा जगराम से बोले -‘‘मेरी दाद खुजला रही है,जाकर गुड़खुड़ी ले आ।’’ गमियों में गुड़खुड़ी कहाँ मिलती । मैं उसे खेजने गया तो वह मिल गई। मैं उसे ले आया और बाबा को देदी।

यों बाबा के इतने साथ रहते हुये भी मैं बाबा को समझ नहीं पाया और कोरा का कोरा रह गया।

इस क्षेत् में बाबा के ऐसे ही एक भक्त किसन सिन्धी रहे हैं। जब मैं इनसे मिला तो इन्होंने बतलाया-‘‘मैं बाबा के सानिध्य में तीस वर्ष रहा हूँ। एकबार मैंने बाबा से प्रार्थना की कि बाबा मुझे गुरुनानक देव के दर्शन कराओ। ’’ मुझे लगातार कई दिनों तक गुरुनानक देव के दर्शन होते रहे। एकबार मेरी दुकान ठप्प होगई।मैंने बाबा से निवेदन किया तो बाबा मेरी दुकान पर आकर बैठ गये। उस दिन से दुकान सही चलना शुरू होगई है,आज आनन्द है।बाबा की कृपा से ही मेरे दो लड़के हुये हैं।

एकवार मैं बाबा से मिलने शहर से थोड़ी दूर वनखन्ड़ेश्वर महादेव के दर्शन करने गया था। रास्ते में एक साँप ने फुफकार मारी। मैं डरते हुये बाबा के पास पहुँच गया। बाबा बोले-‘‘सोजा।’ मैं आज्ञा पाकर सोगया। स्पप्न में मुझे साँपिन के दर्शन होते रहे। मैं जाग गया तो देखा, वनखन्ड़ेश्वर महादेव की पिन्डी से साँप लिपटा हुआ था । यह हम सबने देखा था। बाबा उस से बोले-‘‘जाता है कि नहीं।’’ बाबा का आदेश पाकर वह साँप चला गया।

किसन सिन्धी ने बतलाया-‘‘ मैं बाबा के पास धन के चक्कर में जाता था। एक दिन बाबा के सामने बैठ-बैठे विचार आया- मैं बाबा की इतनी खुशामद करता हूँ फिर भी धन नहीं मिल रहा है। इसी समय बाबा के शब्द कानों में सुन पड़े-‘‘उठ,उठ जा यहाँसे नाली में मुंह धेते जाना।’’उस दिन तो बाबा की यह बात समझ में नहीं आई थी किन्तु आज समझ में आती है। संत भी प्रारब्ध को मेंटना नहीं चाहते।

एकबार किसन सिन्धी और जगराम ने बाबा से मजाक में कह दिया-‘‘ बाबा सिनेमा देखने चलो।’’ बाबा हमारे भाव को पहचान गये। बाबा तो परमहंस थे। वे मुस्कराकर बोले-‘‘ सिनेमा देखना है क्यों?’’ मैंरे मुँह से निकल गया-‘‘ कभी देखा नहीं है यदि आप दिखादें तो देख लेते हैं। ’’

वे बोले-‘‘चलो तुम्हारा यह प्रारब्ध भी मिटाये देता हूँ।’’बाबा आगे -आगे हम पीछे-पीछे सिनेमा पहुँच गये।

वे जिस भाव में बाहर साधना में रहते हैं। उसी भाव में वे पूरे समय सिनेमा में बैठे रहे। सिनेमा से जब लौट रहे थे तो मैंने बाबा से पूछा-‘‘बाबा सिनेमा में क्या देखा?’’

बाबा ने उत्तर दिया-‘‘देखता क्या? जो हर घडी देखता रहता हूँ वही।उन झूठी तस्वीरों में भी यही संसार बसा है।बता, इसमें और उसमें क्या अन्तर है?’’

मुझे कहना पड़ा-‘‘ सिनेमा की तरह यह संसार भी सत्य सा भाषित होता है किन्तु है सब असत्य ही।’’

बाबाके अदृश्य होने के बाद उनकी तलाश में बम्बई आया हूँ किन्तु उनका कहीं पता नहीं चला है। अब तो बाबा के दर्शन स्वप्न में होते रहते हैं,लगता है वे कहीं आसपास ही हैं।

बाबा की सिनेमा वाली बात, संसार को सिनेमा की तरह देखने की स्मृति दिलाती रहती है।

ऐसे ही इस नगर के बद्रीप्रसाद ठेकेदार ने कहा-‘‘मैं अपनी बल्लियों की दुकान पर बैठा था कि बाबा का वहाँ से निकलना हुँआ। मैं दौड़कर उनके पास चला गया,मैंने उनकी परीक्षा लेने की दृष्टि से प्रश्न किया-‘‘ बाबा आज हमारी बिक्री कितनी होगी?’’ बाबा बोले -‘‘सब माल बिक जायेगा। संध्या के समय टेकनपुर वी0 एस0 एफ0 से एक ट्रक आया और मुँह मांगे दामों पर सारा माल खरीद ले गया। उस दिन से बाबा पर मेरी अगाध श्रद्धा है।

‘आस्था के चरण’ के प्रकाशन के सम्बन्ध में मैं सतीश गुप्ता से मिला। वे बाबा के बारे में अपना किस्सा सुनाने लगे-‘‘मैं अपने कक्षा 5 का परीक्षा परिणाम दिखाने दुकान पर गया था। वहाँ दुकान पर बाबा बैठे थे। पिताजी के कहने से मैंने उनके चरण छुये और उन्हें अपना परीक्षा परिणाम का कार्ड दिखाया तो बाबा ने सिर पर हाथ रखकर आर्शीवाद दिया। आज मैं जिस काम में हाथ डालता हूँ वह सफल होकर रहता है। एक वार बाबा ने मुझे टोपी दी थी ,आज भी वह मेरे पास है।

एकवार बाबा डबरा के प्रमुख चौराहे पर खड़े थे। उनके चारों ओर भीड़ लगी थी। भीड़ का आनन्द लेने शिक्षक राजाराम कुशवाह भी जाकर खड़ हो गये। बाबा उनकी ओर मुड़े और उन्हें पकड़कर बोले-‘‘तू भूखा है ,चल तुझे भेाजन कराऊू।’’ बाबा ने उन्हें लेजाकर एक दुकान पर भोजन कराया और एक चबन्नी देते हुये कहा-‘‘ इसे अपने पास रख ले। चिन्ता नहीं करना तेरे सब काम होजायेंगे।’’ इसके बाद वे सारे कामों से मुक्त होते चले गये। आज हरपल बाबा की याद करते रहते हैं।

बात 1970 ई0 की है। जब इस नगर के आदर्श शिक्षक वी0 एम0 केलकर किसी कार्य से तहसील पहुँचे। बाबा उस समय ट्रेजरी के गार्ड के पास बैठे थे। जैसे ही बाबा की दृष्टि इन पर पड़ी। बाबा ने इन्हें पास बुलाया और अपनी ओगढ़ भाषा में इन्हें आर्शीवाद दिया। इस घटना के एक वर्ष बाद बाबा ने इन्हें रसीद देदी और कहा-‘‘भला करेगा,भला करेगा । इसे सम्हाल कर रखले। जब मैं मांगू वापस कर देना।’’ इन्होंने उसे सम्हालकर सूटकेश में रख लिया। दो वर्ष बाद बाबा ने उनसे वह रसीद वापस मांगी-‘‘बहुँत होगया,बहुँत होगया। उसे वापसकर।’’ ये जाकर उसे बाबा को वापसकर आये।उस दिन से मि0 केलकर गरीबों के साहूँकार के रुप में इस नगर में प्रसिद्ध हैं।

बाबा के अदृश्य होने पर-

मैं जिस मकान में रहता हूँ ,उसके गृह प्रवेश के समय बाबा ने कहा था-मैं वहाँ बैठा तो हूँ। उस दिन से यह लगता है बाबा यहाँ मौजूद हैं। इस घर में हमें कभी एकाकीपन महसूस नहीं होता।

सोमवती अमावस्या के दिन शाम के लगभग 6वजे नरेन्द्र उत्सुक जी को मस्तराम बाबा ने दिन ढले सड़क पर दर्शन दिये थे। उस दिन से वे बाबा के अनन्य भक्त बन गये थे।

मेरे पड़ोसी देवीराम भिलवारे हैं। वे अक्सर कहते रहते हैं-‘‘ बाबा की मुझ पर अपार कृपा रही है। बाबा मेरे फल के ठेले से फल उठा लेते थे। उस दिन सारे फल बिक जाते थे। दिनांक 5-3-1995 को मैं ग्वालियर के रेल्वे स्टेशन पर बैठा था कि एक फास्ट रेल स्टेशन पर आकर रुकी। बाबा उसमें से उतरते दिखे। जब वे मेरे पास से निकलकर आगे बढ़ गये तो मैंने उनका पीछा करना चाहा। वे उसी समय अदृश्य होगये।

वर्ष1996ई0 में तीर्थ यात्रा की योजना बनी। गंगोत्री से गोमुख जाकर गंगाजल भरकर लाने की धुन सबार होगई। बाबा के भरोसे अकेला ही निकल पड़ा। साथ में पत्नी की बड़ी बहिन रामदेवी साथ होलीं। दिन के एक बजे गोमुख पहुँच गया। गोमुख पर स्नान के बाद बाबा से जल भरने की प्रार्थना की। यों गंगाजल का पात्र बाबा के नाम से भरकर रात्री आठ बजे तक गंगोत्री मैया की आरती में आकर सम्मिलित होगया। अड़तीस किलो मीटर की कठिन यात्रा के बाद अपने को हल्का-फुल्का महसूस कर रहा था।

बाबा की कृपा से वर्ष के अन्दर ही गंगाजल चढाने रामेश्वर धाम पहुँच गया। गंगाजल चढाने के लिये जाने लगे। पत्नी रामश्री ने सोचा- गंगाजल भरने मैं गोमुख जा नहीं पाई। इसीलिये गंगाजल का पात्र उन्होंने उठा लिया।मैंने सोचा कैसी है, बाबा से प्रार्थना किये बिना गंगाजल का पात्र हाथ में ले लिया। उन्होंने ठीक उसी समय गंगाजल का पात्र लौटाकर रख दिया। मैंने पूछा-‘‘क्यों?’’

वे बोली-‘‘ध्यान नहीं रहा ,बाबा छमाकरें। बाबा से गंगाजल लेकर चलने का निवेदन करना चाहिये था कि नहीं?

इसके बाद बाबा से गंगाजल लेकर चलने की प्रार्थना की। पत्नी रामश्री ने श्रद्धा-भक्ति से गंगाजल का पात्र उठा लिया। गंगाजल चढाने वाली लाइन में लग गये। वहाँ दो तरह की लाइनें थी। एक खड़े-खड़े गंगाजल चढ़ते हुये देखने वाली सस्ती दर वाली लाइन। दूसरी मन्दिर के समक्ष बैठकर गंगाजल चढ़ते हुये देखने वाली कुछ महगी दर की लाइन। हम भूल से खड़े-खड़े गंगाजल चढ़ने वाली लाइन में लग गये। पुजारी जी के पास पहुँचकर पता चला कि हम गलत लाइन में लगे है। हमने उनसे अपनी भूल की बात कही। वे बोले-‘‘ जाकर दूसरी लाइन की तरफ से आओ।’’

हम उधर के लिये चल पड़े। गंगाजल का छोटा सा पात्र इतना भारी होगया कि पत्नी से चला नहीं जारहा था। वे बोलीं-‘‘ गंगाजल का पात्र इतना भारी होगया है कि मुझ से चला नहीं जारहा है इसे संभालो ।’’

उनकी बात सुनकर मैं समझ गया-बाबा अपनी उपस्थिति दर्शा रहे हैं। मुझे उनके कार्य में डिस्टर्व नहीं करना चाहिये। यह सोचकर मैंने कहा-‘‘बाबा का गंगाजल है वे अपने आप सहारा देंगे।’’ कुछ ही क्षणों में हम मुख्य द्वार पर पहुँच गये। बाबा के नाम से जल चढ़ने के लिये दे दिया। पिताजी-माताजी ने भी अपना गंगाजल अपने नाम से चढ़ने के लिये पुजारीजी को सोंप दिया। हमारी आँखें के समक्ष गंगाजल रामेश्वर भगवान पर चढ़ गया। हम खुशी-खुशी होटल में लौट आये।

होटल में आकर सोचने लगा-बाबा ने गंगाजल का पात्र भारी करके बोध करा दिया कि बाबा का गंगाजल चढ़ गया है।मेरे कर्तापन का भाव तिरोहित होगया है। घर में नों-दस माह तक गोमुख का गंगाजल रहा। मैं उसे लेआता तो मेरे नाम से भी गंगाजल चढ़ जाता। बाबा मुझे गोमुख तक ले गये। गंगाजल भी चढ़ गया किन्तु मैं कोरा का कोरा रह गया। इतने दिनों तक यह बात याद भी नहीं आई। गंगाजल चढ़ने के बाद अब भूल समझ में आरही हैं। काश !यह भूल पहले समझ में आती। आज भी उस दिन से यह सोचता रहता हूँ, बाबा की यही इच्छा रही होगी ।

एक दिन पुत्रवधू आशा बोली-‘‘ पापा आप ही मुझे देखने आये थे। आपकी स्वीकृति से मैं इस घर में आई हूँ।’’

मैंने इस बात का उत्तर दिया-‘‘बेटी ,मैं तो देखने का नाटक करने गया था। स्वीकार तो तुम्हें बाबा ने किया है।’’बात कहकर मैं चला आया था। तीन-चार दिन बाद जब मैं वहाँ पुनः पहुँचा तो आशा बोली-‘‘पापा, उस दिन आपकी बात का मुझे बहुँत बुरा लगा। अपनी स्वीकृति के बिना, फिर मुझे स्वीकार करने में ऐसी आपकी क्या मजबूरी थी कुछ समझ नहीं आया। इस बात में मुझे मेरा अपमान लगा। रात बेचैन होकर विस्तरे पर पड़ी रही। औजगी सी सोई।सुवह की रात झपकी लगी,सपने में बाबा आकर कहने लगे-‘‘तुझे इसी घर में आना था,इसमें वह क्या कर सकता था?’’यह कहकर बाबा अदृश्य होगये। मैं सोच रही थी, मेरी सुन्दरता के कारण आपने मुझे अपने घर की पुत्रवधू बनाया है।...किन्तु आज मेरी समझ में सब कुछ आ गया है। मैंने सोचा था कि आप का लड़का इन्जीनियर है इसलिये आप ऐसा कह रहे हैं। पापा जी, छमा करें। मैं बाबा की कृपा से ही अपने इस घर में आई हूँ।

कभी-कभी तरह-तरह की सुगन्ध मेरे साधना कक्ष में भी आतीं रहती हैं। इससे मथुरा प्रसाद शर्मा जी की बात याद हो आती हैं। उनके कक्ष में भी हमने ऐसी ही सुगन्ध महसूस की थी।

वर्ष2004-5 दिसम्बर,जनवरी की बात है,मेरे सबसे छोटे भ्राता रामेश्वर तिवारी जनपद पंचायत का चुनाव लड़ रहे थे। हर चुनाव सहज नहीं होता। मैं बाबा से प्रार्थना कर रहा था- ‘‘बाबा चुनाव जिता दो।’’

बाबा की ओर से उत्तर मिल रहा था-‘‘वतो जीतो जिताओ है।’’यों बाबा की कृपा से बहुत अच्छे मतों से सदस्य का चुनाव जीत गया। उसके बाद जनपद अध्यक्ष पद के लिये खड़ा होगया। पच्चीस सदस्यों में से सत्रह उसके साथ होगये। अन्त में वोट गिरने का दिन आगया। मैं रोज की तरह साधना में बैठा था। साधना से उठते-उठते बाबा बोले-‘‘ठीक है चंदा लगायें देतों।’’ मै ध्यान से उठ गया और सोचने लगा-चलो अब उसकी जीत में सन्देह नहीं रहा।

चुनाव होने लगा। अकस्मात विपक्ष के प्रत्यासी ने अपना फार्म खीच लिया। और रामेश्वर र्नििर्वरोध जनपद अध्यक्ष घोषित होगया। तव बाबा के द्वारा चंदा लगाने का अर्थ मेरी समझ में आया। यों बाबा ने हमारी साख समाज में कई गुना बढ़ा दी और रामेश्वर के माथे पर र्नििर्वरोध जनपद अध्यक्ष का हमेंशा- हमेंशा के लिये चंदा बाबा ने लगा दिया।

जब मेरा बडा पौत्र प्रलेख छोटा ही था मुझ से लड़ियाते हुये बोला-‘‘बाबाजी आज मुझे कोइ कहानी सुनाओ।’’ मैं सोचने लगा, इसे कौनसी कहानी सुनाऊ? न हो तो इसे बाबा की कहानी सुना देता हूँ। मुझे सोचते देख वह बोला-‘‘आप मस्तराम बाबा की कहानी ही क्यों नहीं सुना देते।’’ मैं समझ गया यह विचार संक्रमण बाबा की इच्छा से ही हुँआ है। मुझे उसे बाबा की कहानी सुनाना पड़ी।

एक दिन पत्नी श्रीमती रामश्री किसी सोच में बैठीं थी। मैंने पूछा-‘‘क्या सोच रही हो?’ वे बोलीं-‘‘ मुझे बाबा की याद आरही है।’’

मैंने पूछा-‘‘कैसी याद?’’

वे बोलीं -‘‘ मैंने उनसे पूछा था, बाबा आप नहायेंगे।

वे बोले-‘‘ हाँ नहायेंगे।’’उस दिन मैंने उन्हें खूब मलमलकर नहलाया था। आज पूजा करते समय मुझे उस दिन की याद आ जाती है और उन्हें बैसे ही स्नान कराती हूँ।

इ0अनिल शर्मा पुत्र राजेन्द्र के नजदीकी मित्रों में से हैं। ये घर में पुत्रवत रहे हैं। इनकी मेरे कार्य कलापों पर दृष्टि रही है। इसी कारण ये बाबा के बारे में अच्छी तरह जान गये हैं। ये डबरा में पी0डव्ल्लू0 डी0 में मस्टर पर सेवाकरते रहे। इनकेा बाबा की कृपा से पुत्र की प्राप्ति पहले ही हो चुकी थी। जब इनके स्थाई होने का समय आया तो ये भोपाल में एक बड़े अधिकारी से मिले। उसने इन्हें डॉटकर आफिस से भगा दिया। ये आफिस के बाहर आकर बैठ गये। बाबा से प्रार्थना करने लगे। थोड़ी देर बाद साहब का चपरासी बाहर आया और बोला-‘‘चलो तुम्हें साहब बुला रहे हैं।’’ ये अन्दर चले गये। उस दिन इन्हें नौकरी का स्थाई आदेश मिल गया। आज जब भी ये डबरा आते हैं, बाबा को ढोक लगाये विना लौटते नहीं हैं। मैं पूछता हूँ-‘क्या हाल-चाल हैं।’’ अनिल का कहना है -‘‘बाबा की कृपा से सब आनन्द हैं। जब भी कोई समस्या आती है बाबा की याद करने से हल हो जाती है।’’ मुझे इसके आस्था और विश्वास पर गर्व है।

गुरुदेव हरिओम तीर्थ जी की मुझ पर कृपा हुई । उन दिनें गुरुदेव जम्मू में थे। उनका मुझे आदेश मिला कि सुवह चार बजे साधना में बैठ जाना है। मैं आदेश के मुताविक साधना में बैठ गया। मुझे शक्तिपात दीक्षा हुई। मैं साधना में लग गया। कुछ दिनों में गुरुदेव डबरा लौट आये। यहाँ आने पर मैंने गुरुदेव का विधिवत पूजन किया। उस दिन सोमवार का दिन था। घर में नियमित सोमवार के दिन सत्संग चलता ही है। सत्संग में हम वे ही चार लोग बैठे थे।जैसे ही ध्यान का क्रम समाप्त हुआ भवानी सैन जी बाबा की कुर्सी के सामने पसर गये । हम सब ने इस का कारण पूछा? वे बोले-‘‘बाबा सामने बैठे थे,उनकी बड़ी कृपा है ,वे दर्शन दे गये।’’ हम सब को दर्शन नहीं हुये। इन्हें बाबा ने दर्शन दे दिये। जो हो हमारी दृष्टि नहीं रही होगी।

उस दिन से लगता है,बाबा सत्संग में उपस्थित रहते हैं।

यों बाबा अदृश्य होने के बाद भी स्वप्न में अथवा ध्यान में जो कह जाते हैं वे सभी बातें पूरी हो रहीं हैं।

बाबा का सन्देश

यह जो कुछ लिखा गया,सब बाबा की ही कृपा से लिखा गया है। इस के लेखन के लिये बाबा ने मुझ पर कृपा की है।यह मेरा सौभग्य है। बस ऐसी ही कृपा बाबा जन्म-जन्मान्तर तक मुझ पर बनाये रखें।

बाबा अदृश्य होने से पहले अपने बिलौआ ग्राम में गये थे। पं0प्रहलाद शर्मा उस दिन उनके पास जाकर बैठ गये। संयोगवस कौआ एक चिड़िया पर झपटा और चिड़िया को मार दिया। वह फड़फड़ाते हुये बाबा के सामने गिरी। बाबा ने उठकर उसे उठाली और बोले-‘‘आत्मा आत्मा में विलीन होगई। नाशवान शरीर पड़ा हुआ है।

बाबा ने सत्यप्रकाश पटसारिया से किसी प्रसंग में कहा था-‘चीन भारत का मित्र बनेगा। भारत विश्व का गुरु बनेगा।

यहाँ आकर एक प्रश्न झकझोर रहा है। इस समय बाबा कहाँ हैं? वे योगिनी लल,परमानन्द तीर्थ , त्रिलोकी बाबा एवं मुकुन्द तीर्थ जी की तरह अजर-अमर हैं। वे घर छोड़ने के बाद सबसे पहले सीधे बद्रीनाथ धाम गये थे। इससे संभावना यह बनती है इस समय भी बाबा बद्रीनाथ धाम की किसी गुफा में साधना में लीन होंगे। मेरे चित्त में यह बात रह-रह आती रहती है। यह मेरी कल्पना ही है। वे सर्वव्यापक हैं। उनको सीमाओं में बाँधना उचित नहीं। हम व्यग्र होकर जब भी याद करते हैं, बाबा अपनी झलक महसूस करा जाते हैं।

बाबा ने लोगों के कष्ट दूर करने के लिये, अपने बड़े भइया श्रीलाल शर्मा जी को मृत्युन्जय मन्त्र का जाप बतला गये हैं।यह मंत्र बाबा के बड़े भइया श्रीलाल शर्मा जी के प्रकरण में दिया है। हम उसी का सहारा लेकर संसार के कष्टों से मुक्ती पा सकते हैं।समझदारों को परमहंस जी का यह संकेत ही पर्याप्त है।

बाबा परमानन्द भागया से कहते थे-‘‘चलो ,दुनियाँ से निकल चलो। यह दुनियाँ तो एक नौका में मिलन के समान है।’’

बाबा ने किसन सिन्धी से कहा था-

‘‘ एक नारी सदा ब्रह्मचारी।

एक अहारी सदा व्रत धारी।।’’

मुझे बाबा के एक छायाचित्र की आँखें बहुत आर्कषक लगती हैं। उन दिनों मैं बाबा की आँखों से आँखें मिलाकर त्राटक करने लगा था। एक दिन ध्यान में आकर बाबा मुझे डाटते हुये बोले-‘‘ आँखें मत मिला, दोनें भ्रकुटियों के मध्य देख।’’ यों बाबा ने मुझे दृष्टा भाव की विधि बतला दी ।साधक को साक्षी बनकर दृश्य देखते रहना है। जब तक दृश्य हैं तभी तक साक्षीभाव है। जैसे ही दृश्य गायव साक्षीभाव भी छू हो जाता है। साक्षीभाव साधना में सीढी का कार्य करता है। लक्ष्य प्राप्ति के बाद साक्षीभाव गायव हो जाता है। आगे का रास्ता बाबा स्वयम् बतलाते जायेंगे, आप तो चले चलें।

एक दिन बाबा आकर मुझे डाटते हुये कहने लगे-‘‘ पवन और पास आ।’’ यह सुनकर मैं उनके थेाड़ा सा पास खिसका। वे फिर बोले-‘‘ पवन और पास आ।’’ मैं फिर और पास खिसका। वे तीसरी और अन्तिम वार मुझे डाटते हुये बोले-‘‘ पवन और पास आ।’’

इसका अर्थ है बाबा सम्पूर्ण समर्पण चाहते हैं ।...और मैं हूँ कि इधर-उधर भटक रहा हूँ। बाबा ने मुझे पवन नाम से बुलाया। मुझे लगता है-पिछले जन्म में मेरा यह नाम रहा होगा।

एक वार मुझे शमशान वैराग्य की तरह वैराग्य हुआ। मैंने व्यग्र होकर बाबा से प्रश्न किया-‘‘बाबा आपसे साक्षत् मिलन कब होगा?’’

इस प्रश्न का उत्तर देने बाबा आगये और बोले-‘‘ ज्योति से ज्योति के मिलन के लिये जब व्याकुलता होगी तभी मिलन होगा।’’

इस बात को सुनकर तो मुझे लगा है -मिलन के लिये व्याकुलता होना आदमी के बस की बात नहीं है। यह तो उन्हीं की कृपा से सम्भव है। इसीलिये मैं बाबा से उसी दिन से प्रर्थना करने लगा हूँ-‘बाबा ज्योति से ज्योति के मिलन के लिये व्याकुलता दीजिये।’’

बाबा कम ही बोलते थे। किन्तु जो बोलते थे वह बहुत महत्वपूर्ण होता। उनसे कोई प्रणाम करता ,उसके जवाब में उनके मुँह से शब्द निकलते ‘जय सियाराम ’’ और कभी-कभी कहते ‘सियाराम मय सब जग जानी’ ।

अर्थात् संसार के प्राणियो, सियाराम मय ही सारे चर और अचर,जड़ और चेतन को समझो। सिया और राम का भाव रखकर संसार को देखो। यदि यह दृष्टि हम सब की हो जाये, फिर संसार में कोई समस्या ही नहीं रह जायगी। उनका एक यह संदेश ही युग की काया पलटकर देगा। बस इस एक संदेश को हम अपने चित्त में बसा लें,मनुष्य जीवन का उदेश्य पूर्ण हो जायेगा। मैं अपने मन-मस्तिष्क को बाबा का यही संदेश समझाते हुये, सबसे ‘‘जय सियाराम ’’कहकर लेखन से यहीं विराम लेता हूँ।

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