UJALE KI OR in Hindi Motivational Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | उजाले की ओर - संस्मरण

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उजाले की ओर - संस्मरण

उजाले की ओर ---संस्मरण

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स्नेही मित्रो !

सस्नेह नमस्कार

बेतरतीब सी ज़िंदगी को तरतीब में लाने के लिए न जाने कितने -कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं ,फिर उन्हें सुखाने पड़ते हैं और फिर सेकने या फिर तलने !तभी तो स्वादिष्ट पापड़ का स्वाद लिया जा सकता है |

न--न --दोस्तों मैं आपसे सचमुच इतनी कसरत करने के लिए नहीं कह रही हूँ लेकिन आप सब ही इस बात से भली-भाँति परिचित हैं कि बिना हाथ-पैर,दिमाग हिलाए कुछ नहीं मिलता | यह जीवन का अंदाज़ है यानि शैली !कोई भी मनुष्य --अरे ! मनुष्य ही क्या जानवर ,पशु-पक्षी कहाँ खाली बैठकर कुछ पाते हैं ?उन्हें भी अपने भोजन की ,रहने की व्यवस्था के लिए श्रम करना पड़ता है |और हम मनुष्यों की ज़िम्मेदारी तो और भी बढ़ जाती है क्योंकि हमें तो एक अद्भुत वरदान से अभिसिंचित किया गया है |

हमें मस्तिष्क की ,चिंतन की और उससे भी अधिक अपने आपको प्रस्तुत करने की ऐसी क्षमता प्राप्त हुई है कि हम उसके उपयोग से न जाने क्या-क्या आविष्कार कर चुके हैं ,कर रहे हैं और करते रहेंगे | जीवन चलने का नाम है और जब वह चलता है तभी तक ज़िंदा है अन्यथा जीवन का ठिठक जाना यानि---

इस बात पर मुझे एक मज़ेदार घटना याद आती है | आप सब इसे महसूस करते हें कि हमारी ज़िंदगी में न जाने कितनी बातें ऐसी होती हैं जिन्हें हम भूल ही नहीं सकते |वास्तव में भूलने से जीवन रूखा सा लगने लगता है | सो,क्यों भूला जाए ? और संस्मरण के रूप में उन्हें याद करके मित्रों से साझा करना ,अपने आपको प्रस्तुत करना और इस पीढ़ी को यह बताना कि कभी ऐसा भी होता था |

मेरे पास स्मृतियों का पिटारा है ,सच तो यह है कि सभी के पास होता है ,अब वह बात अलग है कि कोई उसे खोलना चाहता है और कोई नहीं !कभी शब्द कम पड़ जाते हैं तो कभी समय ! और सबसे बड़ी बात कि कभी कोई सुनने वाला भी नहीं मिलता !

बात कर रही हूँ लगभग 55/60 वर्ष पूर्व की | उस समय आप में से तो काफ़ी लोग जन्मे भी नहीं होंगे | जन्मे भी होंगे तो नन्हे-मुन्ने रहे होंगे |

इस उम्र में पुरानी बातों के पिटारे खोलने में अपना ही आनंद है ,यह तो तभी महसूस किया जा सकता है जब हम उन अनुभवों के बीच से गुज़र चुके हों |

उ.प्रदेश के एक छोटे शहर में जब नया-नया 'को-एजुकेशन' कॉलेज खुला था ,बहुत कम लड़कियों को उसमें प्रवेश दिलवाया गया था |

लोग मुख पर हाथ रखकर कहते ;

"हाय ,दिमाग खराब हो गया ,अब लौंडियाँ ,लौंडों के साथ पढ़ेंगी |" अन्य जाति-बिरादरी के साथ किसान जाटों की भरमार थी उस शहर में !

कारण ? शहर चारों ओर से ऐसे गावों से घिरा था जहाँ कृषक वर्ग अधिक था ,वो भी जाटों का !जिनमें तब तक शिक्षा के बारे में अधिक चेतना नहीं थी |

बच्चे गाँवों के स्कूलों में बारहवीं तक शिक्षा लेकर अपने घर में बैठे रहते |

हाँ ,जी ठीक कह रही हूँ | बहुत कम घर ही ऐसे होते थे जिनमें बेटे युवा होने पर अपने दादा व पिता का सहारा बनते |

दादा,पिता के जीवित रहने तक न तो उन्हें हाथ-पैर हिलाने के लिए कहा जाता ,न ही वे अपने आप इस बात पर ध्यान देते कि जब उनके बड़े इतना श्रम कर रहे हैं तो उनका भी कुछ कर्तव्य बनता है कि वे परिवार में योगदान दें | थोड़ा बड़ा होने पर शादी और करा दी जाती उनकी और परिवार बढ़ते जाते |

शहर में कॉलेज खुलने के बहुत चर्चे हुए और खेती-बाड़ी करने वाले अधिकांश माता-पिता ने सोचा कि वे तो शिक्षित हैं नहीं ,उनके बेटे ही बी.ए पढ़ लें तो उनका नाम रोशन हो जाएगा |उस समय बी.ए होना ,यानि बहुत पढ़ा-लिखा होना ! सो,उन्हें शहर के कॉलेज में प्रवेश दिलवा दिया गया |गाँवों से जत्थे में लड़के साइकिलों से आते और शहर की लड़कियों को देखकर ,उनसे दोस्ती बढ़ाने की तरकीबें निकालते रहते | यानि पढ़ाई तो नाम भर के लिए थी |

मज़े की बात यह कि बेचारे हिन्दी माध्यम से गाँव में पढ़ने वाले लड़कों को बी.ए में अंग्रेज़ी लेनी थी यानि बेसिक से तैयारी करनी थी और बी.ए में तो शेक्सपीयर और इलियट पढ़ाए जाने लगे थे | बारहवीं में भी एक विषय अंग्रेज़ी होता था उनके पास भी लेकिन ठीक से पढ़ना,लिखना तो दूर वे प्रोफेसर की बात समझ भी न पाते | और उन दिनों कोई टैस्ट या परीक्षा ली नहीं जाती थी प्रवेश से पहले! तो प्रवेश तो सबको मिल गया लेकिन इन लड़कों का ग्रुप आता और अटेंडेंस के बाद में प्रोफ़ेसर साहब की सुनने के स्थान पर ये बैठे लड़कियों को घूरते रहते |

प्रोफ़ेसर व क्लास सभी परेशान !

"आप लोग कोशिश तो करिए --पुस्तक में ध्यान लगाइए जब पढ़ाया जाता है --" बहुत बार समझाने पर भी उन लोगों के दिमाग में कुछ न घुसता |

प्रिंसिपल से बात की गई ,सोचा इन्हें अँग्रेज़ी नहीं देनी चाहिए थी | अब भी वे दूसरे विषयों को ले सकते हैं | लेकिन नहीं ,डट ही तो गए ,अँग्रेज़ी की क्लास में ही बैठना,वहीं उनको सुंदर चेहरे देखने को मिलते !

"अंग्रेजी ही पढ़ने वास्ते आए हैं जी "---वही ,ढाक के तीन पात !

"तो बिना कोशिश के कैसे शिक्षा तुम्हारे पास आएगी ?" प्रिंसिपल साहब ने परेशान होकर पूछा |

"अजी ,वैसेई --जैसे हमने खेत्तों में कभी काम न किया और रोट्टी हमें रोज ही मिले थी |" उनमें से ग्रुप के हीरो ने अकड़कर कहा |

उसका नाम चंदन था और उसके साथ प्रतिदिन कोई न कोई बात ऐसी हो जाती थी कि हम उन्हें ताउम्र नहीं भुला सके |

आख़िर तीन साल एक कक्षा में बैठकर उसे बी.ए के पहले वर्ष से ही 'बाय' कहकर वापिस जाना पड़ा |

अब तक सभी लोग बी. ए पूरा कर चुके थे |

अगले संस्मरण में एक नई मजेदार घटना के साथ मिलूंगी ,तब तक के लिए ---

नमस्कार , स्नेह

आपकी मित्र

डॉ. प्रणव भारती