’’करवट बदलता भारत’’ 3
काव्य संकलन-
वेदराम प्रजापति
‘’मनमस्त’’
समर्पण—
श्री सिद्ध गुरूदेव महाराज, जिनके आशीर्वाद से ही
कमजोर करों को ताकत मिली,
उन्हीं के श्री चरणों में
शत्-शत् नमन के साथ-सादर
वेदराम प्रजापति
‘’मनमस्त’’
काव्य यात्रा--
कविता कहानी या उपन्यास को चाहिए एक संवेदनशील चिंतन, जिसमें अभिव्यक्ति की अपनी निजता, जो जन-जीवन के बिल्कुल नजदीक हो, तथा देश, काल की परिधि को अपने में समाहित करते हुए जिन्दगी के आस-पास बिखरी परिस्थितियों एवं विसंगतियों को उजागर करते हुए, अपनी एक नई धारा प्रवाहित करें- इन्हीं साधना स्वरों को अपने अंक में लिए, प्रस्तुत है काव्य संकलन- ‘’करवट बदलता भारत ‘’ – जिसमें मानव जीवन मूल्यों की सृजन दृष्टि देने का प्रयास भर है जिसे उन्मुक्त कविता के केनवास पर उतारते हुए आपकी सहानुभूति की ओर सादर प्रस्तुत है।।
वेदराम प्रजापति
‘’मनमस्त‘’
अपनी हदों में--
अपनी हदों में, रहोगे जो प्यारे।
दुनिया में होओगे, सबके दुलारे।।
कभी भी करो नहिं, ऐतबार उन पर।
जमाने की मंजिल में जो हो गए खारे।।
करना कभी नहीं, इंतजार उनका-
रातें गुजारें जो गिन-गिन के तारे।।
सताना कभी नहिं, हारे-थके को-
बनना है उनके, अनूठे सहारे।।।
प्यासे को पानी पिलाना है मुमकिन-
भूंखों को जीवन की रोटी खिलारे।।
जी भर करो काम अच्छाईयों के-
निहत्थे पै लाठी कभी ना चलारे।।
कभी ना चलो तुम झूठी-सी राहों -
मनमस्त सच्चाई, गीतों को गारे।।
जिंदगी रेत की दीवार--
जिंदगी तो रेत की दीवार, कहते पर नहीं माने।
ऊंचे किले की, उच्च-सी, प्राचीर ही जानो।।
लोग कहते मिले हैं, सिर्फ में ख्वाबों सफर इसको।
भूल है यह बड़ी उनकी, स्वर्ग मानिंद ही मानो।।
सोच उनकी का जनाजा उठ गया लगता-
खुशी की है यही दुनिया जीवन सुधा ही जानो।।
चांदनी है नहीं, बीमार, लगता खोट नजरों का।
मौसम बहारों से भरा, गाओ मधुरतम गानो।।
तम को हटाने केवल दीपक एक ही काफी -
सूरज तो उगेगा ही, निश्चय यह सभी जानो।।
गमों को भूलकर, अब भी, खुशी की दास्तां कह दो-
ये जीवन भार नहिं होगा यही सबको है समझानो।।
देखकर इस तरह अनदेखा करते रहोगे कब तक।
अपनी जिद्द को ज्यादा कहीं, मनमस्त मत तानो।।
गर्दिशें—
गर्दिशें, जीवन बहार देती हैं।
गर्दिशें, जीवन निखार देती हैं।।
माकूल दिनों में हंसना आसान ही होता है।
दर्दे दिलों को गुदगुदाने की सरगमें देती हैं।।
चलते रहने से, राहें आसान होती हैं-
ठहर जाने से, जिंदगी बेजार होती है।।
शिकायत आह सिसकी और गम जीवन धरोहर है-
इनके साथ जीना है ये ही जीवन चहेती है।।
बदनाम कितना कर दिया, इन शाजिसों के दौर ने-
इन दरिन्दों की यही तो आशियानी खेती है।।
इस तरह के दौर से तो, चमन ही जल जाएगा।
आग इतनी बढ़ गई, मनमस्त लपटें देती हैं।।
बड़ा है किस्मती गोई, जो इससे बच गया
लहरों की, ऐसी खिलवाड़ें नाव डुबा देती हैं।।
रात को चलना--
रात को चलना, नहीं माकूल है।
गर, चले तो बहुत भारी भूल है।।
समय को सार्थक बनाने, जिंदगी की बात कर-
दुखों की बीरानगी में नागफनी क्या फूल है।।
अपना-पराया सोचना, कितना भला।
इस सफर में, जिंदगी ही भूल है।।
खोल कर आंखें, तुम्हें चलना यहां-
फूल की बस्ती नहीं, शूल ही बस शूल है।।
गैर के ही वास्ते, जो सदां से जीता रहा-
बात उसकी भी समझ, सभी के अनुकूल है।।
ख्वाब कोरे, मत करो उस फलक के वास्ते।
बेतुकी सी बात मत करना यही बड़ी सी भूल है।।
दुश्मनों से सदां मित्रवत व्यवहार कर,
आदमी बन जा, नहीं तो जंगली बबूल है।।
षटरितु--
मुझे यूं लग रहा कि तुम, मौसम की कहानी हो।
जहां में जान्हवीह जैसी पावन सी निशानी है।।
तुम्हें मधुमास जो कह दूं, लगो सरसों, पलासों सी-
गुंजन मन-भंवर करता, सभी गुण, रूप खानी हो।।
अगर ग्रीष्म कहूं, तुमको, तपन में तेज ज्वाला सी-
अन्दर प्यार का सागर के घुमड़न, की रवानी हो।।
तुम्ही हो पावसी मौसम, उमड़ती गंध अवनी की-
तुम्हीं झंकार दादुर की, झिल्लियों ठान ठानी हो।।
शरद के आगमन सी, प्यार की तन्हाईयां जिसमें-
मिलन में ताप जो देतीं, मृदुल मधुरिम जवानी हो।।
हिना सा रंग भर देती, हिमश हेमन्त सी अवनी-
मनोरम, मोहिनी, रंजनी, तुम्ही तो मधुर वाणी हो।।
शिशिर-सी साज सैया की, जहां रवि भी शशी हो।
तुम्ही मनमस्त सी अवनी, सभी अर्पण की, दानी हो।।
पावस--
पाबस, आ गई लगता, हरित-चूनर धरा धारी।
घटाएं घुमड़ती उमड़ी, गहरीं बहुत ही कारी।।
यादें हो गईं ताजी किसी विरहिन सुहागिल सीं-
दृष्टि दूर दर्शन को खड़ी है माननी प्यारी।।
सप्त रंगों से रंगा, जब भी, कोई इंद्रधुन निकले-
किसी की याद के, भुजपाश का उन्माद हो भारी।।
खिला हो फूल-सा जैसे, किसी उपवन की क्यारी का-
लगा हो गेशु गुम्फन में, यही हो आज की त्यारी।।
प्रणय नैवेध का उपक्रम लगै करती धरित्री हो-
ऋचाएं गीत की सरगम, पुरूरवा-उर्वसी हारी।।
उतरकर स्वर्ग से जैसे, नंदन आ गया अगना।
श्यामल-शलिल घन उतरें, काजल कोर ले कारी।।
उतर कर आ गई यादें सुनहरा स्वप्न सी पावन।
मदन मनमस्त सी सरगम, बजतीं चतुर्दिक सारीं।।
भोला-बालपन--
कभी आलू पराठों को, मचलता जब कहीं छोरा।
मां की नाक दम करता, नचता नाच ज्यौं मोरा।।
कितना बालपन भोला, हठीला, प्यार सा पागल
कभी ताई के पग पड़ता, कभी दादी को झकझोरा।।
तब तक मानता नहीं था, जब तक नहीं बनैं मनके-
बहना गोद नहीं रूकता, लगै ज्यौं शीश निज फोरा।।
काजल बात नहिं सुनता, छाया-छांव नहिं छूता।
ईशा-माधुरी विन, रह नहीं सकता, क्षणिक छोरा।।
सुबह जब देर से उठता, मां से शंख बज जाता-
हो गया ढीट इतना था, कि पिटता बहुत, नहिं थोरा।।
इतना बहुत कुछ होना शिकायत नहीं कोई शिकवा-
करता प्यार का झगड़ा, भइया को चिढ़ा कोरा।।
दादा का दुलारा है, पापा पींठ चढ़ जाता-
कभी मनमस्त की ओली जैसे हो बड़ा भोरा।।
प्रेमहाला—
जिसने पीयी हो जी भर, अगर वह प्रेम की हाला।
बना वो मीर, तुलसी सा, मीरा का जिगर प्याला।।
पियो तो पियो जी भर के, नयन के चश्क में भरकर-
चढ़ गई, तो नहीं उतरे, कोशिश लाख कर लाला।।
पिलाने और पीने का मजा, सबको नहीं मिलता-
वो होगा कोई विरला ही, जिसको चढ़े यह हाला।।
नहीं शक और शंका है, इसके मार्ग में कोई-
वो आएगा तेरे दर पर, निश्चय चाहने वाला।।
कभी नहिं शाम होती है, उजालों से सदां रोशन-
खुला दरबार इसका है लगे नहिं कभी भी ताला।।
मजा भी भिन्न होता है, मयकशी अलग है इसकी।
लौटा कोई नहीं अब तक, इसमें डूबने वाला।।
मजा इसका अनूठा है, मजा का समन्दर गहरा--
वही डूबे यहां गहरा, मोती चाहने वाला।।
यही है आज के दौरे, खुली मनमस्त की चाहत-
कभी-भी चढ़ नहीं सकती, उसको जहां की हाला।।
समय बड़ा—
समय से जुड़े हैं रिश्ते, समय से टूटते रिश्ते।
समय ताकत बड़ी होती, समय की चाहतें रिश्ते।।
जहां को भूल मत प्यारे, जहां तो इश्क शाला है-
करलो प्रेम का सौदा, यहां के चलन हैं रिश्ते।।
कभी रिश्तों-तरानों में, कोई भूले भी जो पहुंचा-
बेड़ा पार है उसका, जिसके जुड़ गए रिश्ते।।
उससे दूर होने का, बहाना तुम करो बेशक।
दूरी हो नहीं सकती, इस के तार हैं रिश्ते।।
यहीं वो घड़ी आती है जहां पर मिलन होता है।
वो रिश्ते हो नहीं सकते, जहां रिश्ते रहे रिसते।।।
पता चाहो अगर करना, ठिकाना है यही इसका-
समय की यही चाहत है समय को अधिक नहिं घिसते।।
यही जीवन कहानी है, यही दौलत खजाना है-
कभी नहिं टूट सकते हैं, जुड़े मनमस्त के रिश्ते।।