UJALE KI OR - SMRAN in Hindi Motivational Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | उजाले की ओर - संस्मरण

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उजाले की ओर - संस्मरण

उजाले की ओर--संस्मरण

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कुछ बातें ऐसी कि साझा करनी ज़रूरी लगती हैं नहीं तो कहते हैं न कि असहज हो जाता है मनुष्य ! अरे ! मित्रों ,आप भी महसूस करते हैं न कि अनमना हो उठता है आदमी | सीधे से कहूँ तो नानी के शब्दों में जब तक मन की बात साझा न करो 'पेट में दर्द' होता रहता है | ख़ैर ,यह तो रही मज़ाक की बात जो मुझे अपनी नानी की याद आने से अचानक स्मृति का द्वार खोल घुसपैठ कर बैठी थी | लेकिन सच यह है कि कुछ बातें साझा करनी इसलिए भी ज़रूरी हैं कि हम सभी एक-दूसरे के अनुभवों से कुछ न कुछ सीखते हैं |

बात कई वर्षों पुरानी है ,कम से कम 35 वर्ष पुरानी ! अहमदाबाद,गुजरात ,स्वराष्ट्र ,दिल्ली,अगरतल्ला बहुत स्थानों पर जाना होता रहा | कवि-सम्मेलनों में मेरी काफ़ी शिरकत रही | बड़े स्नेह से आमंत्रण मिलते और मंच पर मेरा काव्य-पाठ सराहा जाता | यह एक उम्र होती है जिसमें उत्साह छलकता रहता है ,सबसे मिलने की ख़्वाहिश ,अपनी वाहवाही पर झूम उठना ,बड़ी स्वाभाविक सी बातें हैं |मैं कोई बड़ी महान कवयित्री तो थी नहीं लेकिन मुझे माँ शारदे की अनुकंपा से खूब स्नेह व सम्मान मिला|

स्वाभाविक था राष्ट्रीय कवि सम्मेलनों में अन्य राज्यों से पधारे सम्मानित कवियों से मिलना होता ,परिचय होता ,थोड़ी -बहुत मित्रता भी हो जाती | मित्रता का होना स्वभाव के लक्षणों के मिलने पर आधारित होता | ख़ैर ---ऐसे ही एक बार एक बड़े संस्थान के द्वारा आयोजित किए गए राष्ट्रीय कवि-सम्मेलन में अन्य स्थानों के अतिरिक्त कानपुर (उ.प्रदेश) से एक खूबसूरत कवयित्री का आगमन हुआ |नाम नहीं बताऊँगी,आप अंदाज़ भी नहीं लगा सकेंगे | ख़ैर -- मंच पर हम साथ थे किन्तु उस समय बातें करने का अवसर न था | सम्मेलन के बाद डिनर पर उनसे ठीक से परिचय व वार्तालाप हुआ , उनके पति भी साथ थे |

मित्रो ! यह स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि हम महिलाएँ बड़ी जल्दी मित्र बन जाती हैं |जल्दी ही अपने परिचय के साथ परिवार का परिचय भी विस्तृत रूप से देने लगती हैं |वो मुझसे उम्र में काफ़ी बड़ी थीं लेकिन दोनों पति-पत्नी ख़ासे बातूनी थे | हम भी कम कहाँ !बातों बातों में उन्होंने अपना विस्तृत परिचय दे दिया ,मैंने अपना | साथ ही यह भी बता दिया कि मेरी छोटी ननद कानपुर में रहती हैं ,उनके श्वसुर का नाम पं अयोध्यानाथ शर्मा है ,महान साहित्यकारा श्रीमती वर्मा उनका बहुत सम्मान करती हैं और उनके सम्मान में उनसे ऊपर की सीट पर कभी नहीं बैठतीं |

पति-पत्नी बहुत प्रभावित हुए ,उन्होंने बताया कि वे उनसे परिचित हैं और श्री राजीव गांधी के द्वारा पंडित जी को एक वृहद समारोह में जब सम्मान प्रदान किया गया था ,उसमें उन्होंने शिरकत भी की थी | बात यह भी हुई कि आप कानपुर आती होंगी ? स्वाभाविक था ,क़रीब का रिश्ता ! पंडित अयोध्यानाथ शर्मा जिन्हें मैं भी बाबू जी कहती थी वे मुझे अपनी मानस-पुत्री मानते थे और खूब स्नेह व आशीष भरे पत्र लिखते थे जिनमें मुझे खूब लिखने का आशीष भरा रहता| कानपुर में उनका बहुत सम्मान था और उनसे मिलने बहुत बड़े-बड़े साहित्यकार उबके घर पर ही आ जाते क्योंकि उनकी आयु काफ़ी थी और वे बाहर कम ही निकल पाते थे |

वायदा हो गया कि जब कानपुर आऊँगी ,उनसे ज़रूर मिलूंगी |उन दिनों मोबाइल तो होते नहीं थे ,लैंड-लाइन हुआ करती थीं सो फ़ोन नं का भी आदान-प्रदान हो गया और कुछ ऐसा अवसर हुआ कि मुझे उसी वर्ष कानपुर की यात्रा करनी पड़ी |

स्वाभाविक था ,मैंने बाबू जी को उन कवयित्री जी के बारे में बताया ,बाबू जी उनसे परिचित थे | उनको सूचना दी और उन्होंने बड़े उत्साह से मेरे सम्मान में एक बड़ी गोष्ठी आयोजित कर दी | बाबू जी प्रसन्न थे ,उनकी आज्ञा से मैं उस गोष्ठी में अपनी ननद की बिटिया के साथ पहुँची | गाड़ी का इंतज़ाम उन्होंने कर दिया था | जाकर देखा ,बड़ा विशाल घर था उनका और शानदार व्यवस्था ! कानपुर के कई बड़े साहित्यकार वहाँ मौज़ूद थे | मैंने इतने बड़े ,शानदार कार्यक्रम की कल्पना नहीं की थी | लोग आते गए ,उन पति -पत्नी के चरण-स्पर्श करते गए और अपने स्थान पर पधारते गए |ऐसा लग रहा था मानो उन कवयित्री व उनके पति का वहाँ पर काफ़ी दबदबा था | मैं केवल दो-एक प्रख्यात नामों से परिचित थी जिनके साथ कहीं कवि-सम्मेलन में शिरकत कर चुकी थी |

अभी चाय-पानी के साथ परिचय होकर कविता-पाठ का कार्यक्रम आरंभ होने ही वाला था कि एक खूबसूरत सी किशोरी ने दनदनाते हुए प्रवेश किया,अपना बड़ा सा बैग दादी की ओर पटककर वह चिल्लाकर बोली ---

"ये क्या है दादी --आपने मुझे इन्फॉर्म किए बिना इतनी बड़ी महफिल सजा ली ,ज़रा नहीं सोचा अगर मैं नहीं हूँ तो सरस्वती वंदना कौन करेगा ?" उस युवती का चेहरा लाल-भभूका हुआ जा रहा था | मेरे साथ गई मेरी ननद की किशोरी बिटिया उसके व्यवहार को देखकर सहम सी गई थी | कोई ऐसे भी अपने बुज़ुर्गों से बात कर सकता है ? उसके संस्कारी मन ने यह स्वीकार करने से मना कर दिया था | केवल मैं और बिटिया वंदना ही सहम से गए थे ,शेष सबको देखकर लग रहा था कि उनके लिए वहा सब नया नहीं था |

दादी जी ने खिसियाकर पोती जी को अपने बाहुपाश में समेट लिया और बताया कि ये अहमदाबाद से आई हैं ,इनके सम्मान में गोष्ठी रखी गई है ,वह तो लखनऊ थी अत: वे उससे बात नहीं कर सकीं |युवती ने मुझे विश करना भी उचित नहीं समझा ,मैंने उसे ज़बरदस्ती मुस्कुराकर 'हैलो'कहा जिसका उसने कोई उत्तर नहीं दिया |उस युवती ने इतना उपद्रव मचाया कि वंदना बेचारी बेज़ार हो गई | सौम्य,शालीन वंदना ने मुख से एक भी शब्द नहीं निकाला लेकिन उसकी आँखों में यह प्रश्न पूरे सामी मचलता रहा कि कब घर चलेंगी?

बीसेक कवि एकत्रित थे ,ज़ाहिर है समय अधिक लगना था | उसके बाद डिनर की व्यवस्था भी थी किन्तु दादी जी को अपनी पोती को मनाने में इतना समय लग गया था कि काव्य-पाठ यूँ ही ,बिना किसी उत्साह के होता रहा | मैं अपरिचित स्थान पर थी ,लगभग रात के बारह बजने को थे ,कानपुर का इलाक़ा वैसे भी बहुत सुरक्षित नहीं माना जाता | मुझे बड़ी उधेड़बुन हो रही थी | किसी तरह थोड़ा-बहुत कविता -पाठ हुआ ।एक अरुचि पैदा हो चुकी थी |

वंदना को 'वॉशरूम' जाना था ,घर के एक नौकर को हुक्म दिया गया और वो हमें लेकर रास्ता दिखाने चला | कई कमरों को पार करके हम वॉशरूम तक पहुँचे | मैं बाहर खड़ी हुई ,वंदना अंदर गई और उबकाई लेते हुए तुरंत बाहर आई | उसे उल्टी आ रही थी , वह मुँह पर हाथ रखकर वहाँ से भागना चाहती थी | मुझे समझ नहीं आया ,मैंने झाँककर देखा --एक छोटे हॉल के बराबर बड़े वॉशरूम की दीवारों पर पान की पीकें फिसल रहीं थीं | देखते ही मैं भी अजीब सी स्थिति में हो आई | मैंने वंदना का हाथ पकड़ा और बाहर आ गई |

अपनी 'होस्ट' से क्षमा माँगते हुए मैंने उनसे कहा कि बिटिया की तबीयत ख़राब हो रही है ,हमें जाना होगा | डिनर के लिए बहुत इसरार करने को टालकर मैंने उनसे गाड़ी के लिए निवेदन किया और हम बहुत खराब अनुभव लेकर रात के लगभग साढ़े बारह बजे घर वापिस लौट सके | बहुत पूछने पर वंदना ने कहा --

"ऐसे होते हैं ये कवियों के परिवार !हम अब कभी मामी जी के साथ नहीं जाएँगे---"

ऐसे भी अनुभव मिलते हैं कभी दोस्तों ,

आख़िर दुनिया के रूप अनेक !!

आपकी मित्र

डॉ. प्रणव भारती