रघु ने बाबू को साफ़ साफ़ कह दिया था कि चाहे मूंगफली के पैसे की उगाही धनीराम के यहां से आए या न आए, वो काकाजी के पास ज़रूर जाएगा।
उसका दसवीं का इम्तहान था जिसके बस सात पेपर बाक़ी थे। यानी कुल ग्यारह दिन! बस, फ़िर वो मुंबई जा कर ही रहेगा। बाबू उसे पिछले तीन साल से टालते आ रहे हैं। उसने मां को भी कह छोड़ा था..."अबकी बार तू बाबू की भीड़ मत बोलियो अम्मा !"
जबसे काकाजी के बड़े लड़के,उसके चचेरे भाई नवल दादा ने उसे पिछली होली पर ये उकसान भरा आश्वासन दे डाला था कि दसवीं करके तू मुंबई आ जाइयो, मैं मेरे सेठ के पास ही रखवा दूंगा पूरे तीन सौ में,तब से उसे अपना ये फटीचर सा गांव सेकेंड हैंड सा दिखता आ रहा है। उसे अपना कद गांव के मंदिर की बुर्जी के मानिंद उभरता दिखता है,जो पूरे तीन सौ रुपए कमा सकता है। और बाबू है कि सारा साल गर्मी सर्दी में हाड़ पेलता है इस ऊसर भूमि में,तब भी इकट्ठे तीन सौ तो शायद ही कभी हाथ पर देख पाता है।
नवल दादा तो यहां तक कह गया था कि तू कोई अलग थोड़े ही रहेगा, हमारे साथ ही रहेगा। रोटियां तेरी भाभी बनाएगी। आराम से सौ-पचास रुपया यहां तू अपनी मां को भेज सकेगा... सोचते सोचते पटवारिन की मिर्ची कूटते कूटते धांस खा गई मां का ललाया निस्तेज चेहरा उसे दरमाह सौ रुपए अपने पर निसार के दमकता सा दिखने लगा।
मुंबई, उम्मीद और सपनों की नगरी... गंवई देहाती पंछियों की आंखों का सनातन सोन पिंजरा!
बीस रुपए मां से लेकर बाक़ी अपने पास से मिलाए, सालों साल के जोड़े हुए... कुएं पर बैठ कर साबुन की बट्टी से खूब धोकर चमकाए अपने कपड़े, दोनों कमीज़ें और खाकी पैंट...बनियान के छेद छिपाने के लिए उसकी चौहरी तह बना कर पेटी में रख ली।
बाबू ने खूब समझा बुझा कर उसे रेल में बैठाया। काग़ज़ में लिखा काका का पता उसने चड्डी के नेफे में उन सौ रुपयों के साथ बांध लिया था जो रेल का टिकट खरीदने के साथ साथ बाबू ने उसे और दे दिए थे।
टिकट भी पायजामे की जेब में उस पुराने रुमाल में सेंत कर रख लिया था जो एक साल पहले गांव के स्कूल से वॉलीबाल के टूर्नामेंट में सतनगर जाने पर उसने खरीदा था।
पेटी में ही अम्मा की दी हुई गुड़ और रोटी की पोटली भी समा गई जिसके कपड़े में लहसुन की चटनी की गंध जैसे अम्मा के हाथों की गंध बन कर बसी थी।
पूरा एक दिन और रात गाड़ी का मुसाफ़िर बना रघु जब मुंबई स्टेशन पर उतरा तो दूसरी रात हो चुकी थी।
उस राक्षसों के किले के से आकार के स्टेशन पर रघु ने आदमियों की ऐसी भरपूर फसल देखी जैसी कभी अपने खेत में चौलाई की फलियों की भी न देखी। उतनी कहां होती थीं?
लेकिन नवल दादा भीड़ में भी उसे दिख गए जिससे उसे पता चला कि बाबू का डाला पोस्टकार्ड उन्हें मिल गया।
वहां से फिर एक दूसरी गाड़ी और फिर एक बस बदल कर पौन किलोमीटर तक रघु अपनी पेटी उठाए उठाए नवल दादा के पीछे पीछे चलता रहा,तब तक भी उसके उत्साह और हैरत में राई रत्ती कमी नहीं आई थी।
ये इमारतें ज़मीन से उठ कर आकाश को गई है या आकाश से उतर कर ज़मीन पर आई हैं, राम जाने!
रघु ने रोशनी की इतनी खिड़कियां और उनमें इतने मनक पिछले सात जन्मों में तो नहीं ही देखे होंगे, ये भरोसा था उसे।
गाड़ी से उतरने के बाद भी पौने दो घंटे हो चुके थे जब नवल दादा सारी इमारतों सड़कों को परे छोड़ते माचिस की डिब्बियों सी सटी जुड़ी झुग्गियों की एक बस्ती की राह रघु को लेकर चल पड़े।
रोशनी अब साथ छोड़ गई थी,और मुंबई के इस नए मेहमान की अंगुली अब अंधेरे और बदबू ने पकड़ ली थी।
कचरे के ढेर जैसे नवल दादा के पैरों तले रौंदे जा रहे थे वैसे ही रघु के पांवों तले भी आते गए।
कीचड़ होता तो लांघ लिया जाता, बैठी गैया होती तो परे हट लिया जाता।
सड़ांध मारता, मरे चूहे से लेकर ताज़ा डबल रोटी के छिलके तक की वैरायटी लिए कचरे का टीबा होता तो पांव की चप्पलों से सख्ती से दबा दिया जाता।
कहीं औरतों के झुंड, कहीं खेलते लड़के, तेज़ आवाज़ में बजते गानों का शोर,तो कहीं खटोले झटोले इधर उधर अड़ाए सटाए हुक्के बीडियों से लिपटे बुज़ुर्गवार ...इस मुंबई में आकर रघु की वो छोटास झर गई जो स्टेशन से बाहर निकलते ही उस पर किसी तिलचट्टे सी चिपट गई थी।
फिर एक झोंपड़ी का दड़बे नुमा दरवाजा,उसके बाहर खेलता दीनू, दरवाजे पर बैठी एक खुजलाई सी कुतिया।
भीतर फैले बिखरे बर्तनों के बीच की औरत के रूप में चूल्हा फूंकते भौजाई को पहचानने में रघु ने कोई गलती नहीं की। पांव छुए।
पड़ौस की झुग्गी के दरवाजे पर किसी से बैन बट्टा करते काकाजी भी आवाज़ सुन कर पलट अाए।
काकाजी के पांव छुए। दीनू को गोद में लेकर पुचकारा, कुतिया ने इतने भर में ही हुलस कर पूंछ हिलाई।
और इस तरह सामने पड़ी झटोला खाट पर नवल दादा का इशारा पाकर धंसते ही रघु की मुंबई यात्रा पूरी हुई।
भीतर भौजी के करीब रखे बर्तनों से उठता धुंआ रघु को हिर फिर उधर ही देखने को मजबूर करता था। जोरों की भूख लगी थी उसे।
एक भगौनी में पानी भीतर से बढ़ाया गया। हाथ मुंह धोए रघु ने।जेब के रुमाल से पोंछा ही था कि काकाजी का गमछा थामे हाथ सामने आ गया। पर रघु तब तक हाथ पौंछ चुका था, और साथ ही रुमाल के भीतर ठुंसा हुआ टिकट भी फाड़ कर समीप ही उछाल चुका था,जिसे न जाने क्या समझ कर खुजलाई कुतिया भी झपटी थी और खेलता दीनू भी।
खा चुकने के बाद सोने लायक रात होने के दरम्यान का वक़्त इतना नहीं था कि आजू बाजू की खोज खबर ले पाए रघु। फ़िर भी कोई एक काकाजी से मिलने आया बूढ़ा उनके साथ ही खटोले पर बैठा तो पता चल गया, कौन गांव कौन ठांव का वासी है।
दो आदमी पीक थूकते, कान कुरेदते, भौजी को देखते, दादा से बतियाते अा खड़े हुए तो रघु का परिचय भी हो गया।
और फिर आई सोने की घड़ी। झुग्गियों की कतार के आगे चलने भर लायक ऊबड़ खाबड़, आड़ी तिरछी जो जगह बची थी, भरनी घिरनी शुरू हो गई।
कुछ एक और खटिया खटोले, कुछ टाट के बिछावने, कुछ पुरानी दरियां...एक से एक सटकर लुंगियां, धोती, कच्छे, मैले पायजामे कतार में फैल गए।
रघु को कहां सोना है,इस किस्म का कोई सवाल कहीं से भी न होने पर भी उसने तीन चार बार सिर खुजाते नवल दादा को भीतर बाहर आते जाते देखा।
एक फटा सा कम्बल और छेद छेद तार तार चादर जतन से अपने खटोले पर फैलाते काकाजी को दूर दराज तक किसी और की चिंता व्यापती रघु ने नहीं देखी।
लेकिन काकाजी की रुखाई गुस्सा नहीं, तरस ही जगा सकती थी उन पर।
रघु भीतर झांक कर देख आया था, अपनी कमीज़ पेटी में रख आने के बहाने। जैसे तैसे बस एक बिस्तर फैलाने भर की जगह थी वहां,सो भी तब,जब अगल बगल पड़ा सामान यहां वहां से बिस्तर को छूता रहे। तिस पर भी जब भौजाई के जिस्म भर की जगह दूसरे किनारे छोड़ कर, अपने लेटने को तकिया नवल दादा ने इस तरह रखा कि कुछ ठौर उसके लिए भी बच जाए तो खुद ही रघु कह उठा था..."गर्मी है, मैं तो बाहर ही सो जाऊंगा दादा.."
और ये सुनते ही दीनू, जो काकाजी से हिलगा उनकी खटिया में धंसा था, कूद कर भीतर नवल दादा के पास आ गया। और रघु बनियान उतार कर बाहर।
भौजी ने एक दरी दे दी उसे।
जब तक अन्दर की सटर पटर मद्धम करके ढिबरी का उजास भिड़ाया गया,रघु काकाजी की खाट के पास ही बगल में दरी बिछाकर लमलेट हो चुका था।
थका होने पर भी, ऊपर आसमान में निगाहें जाते ही उसे अम्मा की याद आ गई। वहां गांव में कितना ही आसमान ऐसे ही फैला बिखरा पड़ा होगा कि अम्मा बाबू देख भी न सकें।
खुद रघु के हिस्से का आसमान और उसकी पांती की हवा भी फ़िज़ूल पड़े होंगे।यहां तो आकाश कतरियां काट काट कर बंटा है, और तिस पर भी लोग बहुत हैं टुकड़े थोड़े। एक एक तारा भी एक को दो तो पूरा न पड़े।
अगर अभी बरसात आ जाए तो?
... भगवान है, ज़रूर है,वो इन लोगों को ऊपर से बैठा देख भी रहा है इसी से मेघ भी बरसने नहीं देता। अब जब तब सूखा पड़ने लगा है मुल्क में। क्या मेघ बरस जाए तो एक किलोमीटर दूर की इमारतों की वो कतार लोगों के इस अंबार को अपने अहाते के साए में ले लेगी?
ठेंगे से... हरगिज़ नहीं।
और ये सब भगवान को भी मालूम है।
न जाने क्या उधेड़ बुन गुनती रघु की नाक भी थोड़ी देर के बाद काकाजी की नाक के साथ नींद में ताल देने लगी।
खूब थक कर सोया रघु भी सवेरे ही जाग गया।
बस्ती अंधेरा रहते ही किसी लोहा मिल की मशीनों सी खटकती पटकती बजने लगी थी।
ढेरों सोए थे, ढेरों जग पड़े थे।
तभी नवल दादा ने उसे भी पुकारा आकर।
चल रघु, बाहर हो आएं। कहते नवल दादा को हाथ में तार बंधा डालडा का पुराना डिब्बा लिए वहीं खड़े छोड़ रघु अपनी दरी भीतर रखने चला गया।
दरवाजे से बाहर निकल वह पायजामा पैरों में डाल ही रहा था कि नवल दादा बोल पड़े- रहने दे, गंदगी रहती है, गंदा हो जाएगा।
और तब रघु देख पाया था कि कान पर मैली जनेऊ लपेटे खड़े नवल दादा भी सिर्फ चड्डी में ही हैं।
वो भी उसी तरह चड्डी पहने उनके साथ चल पड़ा।
कई घुमाव दार ऐलगैल घूमते, इधर उधर से आते जाते लोगों के बीच से गुज़र कर नवल दादा वहां आकर थमे तो रघु रेल की पटरी के किनारे एक पत्थर की ओट के पास रुकते हुए उन्हें ही देख रहा था।
शायद वो कुछ और आगे बढ़ता पर तभी उसका ध्यान उस डिब्बे पर गया जिसका पानी उसके और नवल दादा के बीच साझा ही था। वह अचकचा कर रुक गया और जल्दी से बैठने लगा।
नवल दादा ने उसकी ओर पीठ फिराई और झुक कर चड्डी का नाड़ा खोलने लगे।
इतने पास होने के कारण रघु उनकी तरफ से नजर फेर कर कुछ और आगे बढ़ने लगा।
लेकिन चारों ओर नजर फैलाने पर रघु ने पाया कि वहां बिना हवा की जगह थी, बिना पानी की जगह थी, पर बिना इंसानों की जगह उसे कहीं नहीं दिखाई दी।
और एक आदमी ने उससे सिर्फ डेढ़ फुट की दूरी पर बैठ कर लुंगी उठाई तो रघु बैठता बैठता भी परे खिसक गया। पर ऐसा करने में वो अनजाने ही उस लड़के के एकदम पास आ गया जो कच्छा नीचे सरकाए आराम से बैठा दातुन कर रहा था। रघु ने अब देर करना मुनासिब नहीं समझा वह गर्दन झुका कर जल्दी से बैठ गया।
रघु को बैठने का कोई लाभ नहीं हुआ।
पेट बगावत सी कर गया। हाजत ही जैसे खत्म हो गई।
खाली डिब्बा हाथ में लिए रघु नवल दादा के पीछे पीछे चल पड़ा।
जाहिल गंवार रघु की आंखों पर मक्खी सा भिनभिनाता पल भर पहले का कभी उनकी उघड़ी पीठ का दृश्य आ जाता तो कभी रात का वह दृश्य अा जाता,जब उसने भीड़ के बीच झुक कर उनके चरण स्पर्श किए थे।
और सारे ऊबड़ खाबड़ से बचने चलने के बीच उसे वो दिन पल भी याद आया जब अम्मा की पेटी से मिलते हुए रंग का धागा ढूंढ़ खंगाल कर उसने जतन से अपनी फटी चड्डी गांठी थी।
वापस लौट कर मुंह हाथ धोकर भौजी के हाथ से चाय का प्याला लेने में भी सिहर गया रघु... पिए कि न पिए, कहीं पेट...
काम पर से आज छुट्टी लेकर बैठे नवल दादा पत्नी से गुफ्तगू कर रहे थे कि आज रघु को मुंबई का कौन सा इलाका घुमाया जाए।और रघु मन ही मन अम्मा को आज ही चिट्ठी लिखने की जुगत जोड़ भिड़ा रहा था कि घरके बाहर वाली उसकी पढ़ने की कोठरी को बाबू रामावतार को किराए से न दे डाले... वह अम्मा को लिख दे कि दो चार दिन में वापस आ रहा है।
भौजी ने दाल को तड़केदार बघार मारा था,पर रघु की आंखें तो पहले ही पनीली हो गई थीं, अपने घर के पिछवाड़े के कुएं पर लगे पम्प से कलकल बहते बेशुमार पानी की याद भर से ही...!