Pyar ka asib in Hindi Horror Stories by Neelam Kulshreshtha books and stories PDF | प्यार का आसिब

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प्यार का आसिब

औरत - 7

प्यार का आसिब

[भूत]

ज़िद तो उसी की थी कि वह कोतवाल साहब की मजार देखेगा । एक खुले मैदान में थी ये मजार । मैदान के एक तरफ फूलवाले, धूपबत्ती वाले व अगरबत्ती वाले ज़मीन पर दुकान सजाये बैठे थे । अगर कोई मजार पर चादर चढ़ाना चाहे तो वह भी एक दुकान पर बिक रही थी । कुछ लोग मजार के पास चादर बिछाये बैठे थे । बीच के कव्वाल ने हारमोनियम पर कुछ स्वरलहरियां हवा में बिखेरी, ढोलक वाले ने ढोलक पर थाप मारी तो मैदान में बिखरी भीड़ उधर भी खिंचने लगी ।

“अब तो मदीना जाना है मुझे जागीर मिलेगी ।

सरकार अगर चाहे मेरी तकदीर खुलेगी ।”

पान से तराशे हुए सधे गले से कव्वाल की आवाज़ गूँजने लगी । धीरे धीरे ढोलक की थाप और मजीरे की आवाज़ के साथ उसकी उंगलियाँ भी हारमोनियम पर तेज़ी से दौड़ने लगी ।यहाँ `सरकार` का अर्थ था -मजार में सो रहे कोतवाल साहब। कव्वालों की तालियों की आवाज़ में तेज़ी भी आ गई । मजार में आगे बैठे लोगों के हूजूम के बीच में कुछ लोगों के सिर किसी नशे में धुत शराबियों की तरह झूमने लगे । कुछ औरतों के सिर के दुपट्टे उतर गये थे । खुले बालों के कारण उनके झूमने से अजीब वहशियाना बरस रहा था । लग रहा था इधर-उधर काली छतरियाँ ज़ोर-ज़ोर से घुमाई जा रही हैं ।

मैंने तलत की ओर देखा । उसकी आँखें भी धीरे-धीरे लाल होती जा रही थी । चादर बिछा कर उसे कव्वालों के पास बिठा दिया गया था । “अब तो मदीना जाना है...।” की तेज़ी के साथे वह भी झूमने लगी । पास बैठे काले चोगे व काली दाढ़ी वाले मौलवी साहब ने कहा- “जिन्न ऐसे नहीं उतरेगा, इसकी ज़ुल्फें खोल दो ।”

और तलत की नस-नस में वही वहशीपन असर करने लगा । बाल खुलते ही वह भी भयानक रूप से झूमने लगी । साज़िद ने मुझे खींचते हुए काँपती आवाज़ में कहा- “मुझसे नहीं देखा जाता ।”

हम और वह तलत के सामने से हट गये । इस कोने से सारी मजार दिखाई दे रही थी । लोग कोतवाल साहब की मजार पर बहुत श्रद्धापूर्वक फूल, पैसे और चादर चढ़ा रहे थे । हमारे मंदिरों के पंडों की भाँति लड़के बहुत तत्परता से चादर और पैसे संभाल रहे थे ।

साज़िद यहाँ आने को तैयार नहीं था । उसने झल्लाकर कहा भी था -“अम्मीजान बेकार वहम करती हैं, तलत पर कोई आसिब नहीं है । फिट पड़ने को वह आसिब समझ रही है । लाख समझाने पर भी उसे कोतवाल साहब की मज़ार पर ले जा रही हैं ।”

“यह कोतवाल साहब की मज़ार क्या है?”

“ यार! इसकी कहानी तो ठीक से मुझे भी नहीं मालूम । इसके बारे में कोई कुछ बताता है, कोई कुछ । बहुत सालों पहले एक कोतवाल साहब थे, बहुत ही न्यायप्रिय । उनके मरने के बाद लोग उनकी मज़ार पर दुआएँ माँगने जाने लगे । धीरे-धीरे दुआओं के पूरे होने की बहुत सी कहानियाँ सुनने में आने लगी । और अब तो दूर-दूर इसकी मानता होती है । हर जुम्मेरात को यहाँ मेला-सा लगता है । मन्नत पूरी होने पर चादर और पैसे चढ़ाते हैं । ”

“अगर यह बात है तब तो मैं ज़रूर जाऊँगा । एक नई चीज़ मिलेगी ।” मन के कोने में छिपे लेखक ने सिर उठाया । मैं ही उसे घसीट कर यहाँ लाया था ।

मैंने अपनी दृष्टि इधर-उधर घुमाई । पास में ही दो लड़के खड़े आपस में धीरे-धीरे बात कर रहे थे । मज़ार के पास एक पेड़ के नीचे चादर और फूल बेचने वालों की कईं दुकानें थीं । रंग-बिरंगे धारीदार, चैक की लुंगियाँ, गुलाबी रिबन, चूड़ियाँ और बिन्दियाँ भी नज़र आ रही थीं । लोगों के जत्थे-के-जत्थे यहाँ-वहाँ बिखरे पड़े थे । कुछ आदमियों के पैरों में केदियों की तरह बेड़ियाँ डालकर लाया गया था । मैंने साज़िद से पूछा भी-ये कैदी यहाँ क्यों लाये गये हैं ?

“ये कैदी नहीं है । कपड़े फाड़नेवाले या मारने वाले पागल हैं । उनके घर वाले यहाँ इसी विश्वास पर उन्हें बेड़ियाँ डालकर लाते हैं कि यहाँ आकर उनका पागलपन दूर हो जायेगा ।”

झूमते हुये लोगों का उन्माद किसी नदी की भाँति उफनता जा रहा था । कव्वाल के पास बैठे छोटे-छोटे बच्चे तक झूम रहे थे, लेकिन वे सभी बच्चें निम्नवर्गी थे जहाँ दो रोटी भी जुटा पाना संभव नहीं हो पाता । किसी तेज भागती मोटर के पहिये रुकने की तरह लय के साथ उनका लहकना भी कम होने लगा । अब कव्वालों ने दूसरी कव्वाली शुरू कर दी थी । तरन्नुम में झूमते हुये अचानक एक हिन्दू बहू का घूँघट खुल गया । काले काले बालों के घेरे में उसका गोरा चेहरा दप्प से दमकने लगा तभी पास बैठी उसकी सास ने झपट कर उसका चेहरा फिर से धोती के पल्लू से ढँक दिया ।

पास ही पेड़ के एक ठूँठ से एक पगली बँधी बैठी थी । सलवार कमीज तार-तार हो रही थी । धूल से सने बालों से घिरे भावशून्य चेहरे में भी उसका छिपा सौन्दर्य झाँक रहा था। वह बार-बार अपने हाथ की हथकड़ी का पेड़ से बँधी ज़ंजीर से खींचने की कोशिश कर रही थी । जब थक कर हाँफने लगती तो फिर पास से गुजरती औरतों को देखकर गिड़गिड़ाने लगती- ``अल्ला की बंदियों मुझे छुड़ा लो........मुझे छुड़ा लो । मैं भी तो अल्ला की बंदी हूँ ।--- तुम कैसी पत्थर दिल इंसान हो एक बंदी को कैद से छुड़ा नहीं रहीं ?

उसकी मजबूरी का अहसास मन को कहीं छील रहा था कि साज़िद की आवाज़ से चौंका, “साले कहतें हैं कि जो यहाँ कव्वाली में बैठता है उस पर आसिब आ जाता है इसलिये यहाँ हर एक आदमी झूमने लगता है और हम यहाँ इतनी देर से खड़े हैं हम पर कोई असर नहीं है ।”

“साहब खुदा के दरबार में ऐसा नहीं कहिये, पाप लगता है । मैंने तो स्वयं यहाँ अनुभव करके देखा है ।” पास खड़े दो लड़के जो हमारे ऊपर बहुत देर से नज़र रखे थे उनमें से एक हमारे पास आकर बोला, दूसरा भीड़ में गुम हो गया था ।

“क्या अनुभव किया है ?” मैंने उत्सुकता से पूछा ।

“मैं बरेली आई.टी.आई. में पढ़ रहा था । एक दिन मैंने पीपल के पेड़ के नीचे थूक दिया । बस साहब, उसी दिन शाम से मुझे बुखार आ गया, पागलों जैसी हालत हो गई । पिताजी जब मुझे यहाँ लाये तक कहीं वह कमबख़्त आसिब उतरा । अब तो मैं बिल्कुल ठीक हूँ ।”

“तुम्हारा नाम क्या है?” साज़िद ने अविश्वसनीय आँखों से उसे घूरकर पूछा ।

“जी, भगवानदास ।”

थोड़ी देर तक भगवानदास अपने सम्बन्धियों व पड़ोसियों के इसी तरह के किस्से सुनाता रहा । मुझे बिचारी तलत पर तरस आ रहा था । दूर से उसका झूमता हुआ सिर दिखाई दे रहा था। इतना झूमने के कारण उसके मुँह से फेन निकल रहा था । आँखें उलटी होकर चढ़ी जा रही थीं । बिचारी....... मैं नज़रें घुमाकर एक पेट के बल सरकते हुए आदमी को देखने लगा जो कि मज़ार का चक्कर लगा रहा था ।

“साहब ! आप लोग पहली बार यहाँ आये हैं ?”

मैंने इसे पहचानने की कोशिश की । यह वही दूसरा लड़का था । जाने कब हमारे पास आकर खड़ा हो गया ।

“भई ! जब तक अपने साथ नहीं गुज़रती तब तक विश्वास करना मुश्किल है ।”

“यह बात तो है ही । मेरी बहिन भी पागल-सी हो गई थी । अकेले बैठे-बैठे बड़बड़ाती रहती थी । जब इसे यहाँ लाये तब पता लगा उस पर दो सौ आसिब थे । सौ तो पिछली बार की कचहरी में उतर गये । सौ अब की आनेवाली जुम्मेरात को उतरेंगे ।”

मुझे उसकी बात पर हँसी आ रही थी । मैंने अपनी हँसी छिपाते हुए उससे कहा, “अपना नाम तो बता दो ।”

“मेरा नाम भगवानदास है ।”

साज़िद ने तपाक से कहा, “अभी एक लड़का आया था । वह भी अपना नाम भगवानदास बता रहा था।”

उसकी बात सुनकर वह सटपटा गया ,``ऐं ?---क्या ? वो ये बात है -.....जी..... ``कहता हुआ वह भीड़ के रेले में ऐसा गायब हुआ कि हम उसे पकड़ भी नहीं पाये ।

``क्या बात है --कोतवाल साहब की मजार के सभी सेल्समैन ने अपना नाम भगवानदास रख लिया है?हा ---हा ---हा। ``साज़िद ने ज़ोर से ठहाका लगाया।

हालांकि मैं भी समझ गया था कि इस मजार के बारे में अफ़वाहें फैला फैला कर रूपये कमाए जातें हैं।जैसे हमारे मंदिरों के आस पास झूठी श्रद्धा व अंधविश्वास का बखान करते पंडे मंडराते रहते हैं।

अब तक कव्वाली समाप्त हो चुकी थी । हम तलत के पास लौट आये । बहुत झूमने के कारण वह आँखें बंद किये अम्मी के कंधे से टिकी बैठी थी । होंठ सूखकर पपड़ा गये थे, आँखों की काली पलकों की झालर रह-रहकर लरज जाती थी । लेकिन उसकी अम्मी के चेहरे पर किसी चमत्कार से उसके ठीक हो जाने की आशा झलक रही थी । उन्होंने साज़िद से कहा, “तलत को आज शाम की कचहरी में बुलाया है ।”

उसके मुँह पर एक उबाल-सा आया, मुठ्ठियाँ भिंच गईं । लेकिन उनके अंधविश्वास को देखकर अपने को ज़ब्त कर गया ।

मैंने रास्ते में उससे पूछा भी, “कचहरी क्या बला है ?”

“शाम को ख़ुद ही देख लेना ।” उसने टाल दिया ।

रात के साढ़े नौ का समय । गहरे काले अँधेरे को चीरती मेढकों की टर्र-टर्र । झींगुरों की रहस्यमयी आवाज़ें । पेड़ों के काले साये रात में स्वयं ही भूत नज़र आ रहे थे । मैदान की सीढ़ियाँ उतरते समय टार्च की रोशनी में उसकी अम्मी के माथे पर पसीने की बूँदें दिखाई दे रही थीं । उनकी डरी-डरी आँखें खोजती हुई-सी चल रही थीं । लेकिन आश्चर्य था, तलत के चेहरे पर डर का नामोनिशान ही नहीं था । बल्कि मुझे लग रहा था, खुशी की एक हिंस्त्र चमक उसकी आँखों में रह-रहकर दौड़ रही थी ।

अचानक कहीं सियार जोर से चीखा, “हँआ ।” अम्मी चीखकर साज़िद से लिपट गईं । वास्तविकता का ज्ञान होने पर भी वह उससे सटी-सटी चलने लगीं । दूर मजार पर लालटेनों की पीली मद्धिम रोशनी दिखाई दे रही थी ।

वहाँ पर और भी मरीज़ बैठे हुए थे । एक-एक करके उन्हें हाथों के सहारे पेड़ पर लटका दिया जाता था और भूत झाड़ने वाला फ़कीर उनके ऊपर झाड़ू से प्रहार करते हुये बहुत से सवाल पूछता और जब प्रहार बढ़ते जाते तो वह आदमी नीचे गिरकर नार्मल हो जाता । इस प्रकार आसिब को फाँसी लगाकर आदमी को उससे मुक्त कर दिया जाता ।

झाड़ू लिये वह मरगिल्ला-सा पिचके हुये गालों वाला फ़कीर धँसी हुईं आँखों और उलझी हुई दाढ़ी के कारण स्वयं जीता-जागता भूत लग रहा था । लालटेन की क्षीण रोशनी में जब वह मुँह खोलता तो उसके बड़े-बड़े दांत किसी विकराल रहस्य का द्वारा खटखटाते-से लगते । अचानक वह तलत की ओर देखकर चीखा, “इस लड़की को इधर लाओ ।”

अम्मी व साज़िद ने तलत को पेड़ के पास पहुँचाकर उसे दोनों हाथों के बल पेड़ की छोटी डाल पर लटका दिया । “बोल, कौन है तू ?” फ़कीर ने एक झाड़ू उसके पैर पर लगाई, लेकिन तलत चुप रही । जब पैर पर झाड़ू की मार बढ़ने लगी तो उसके गले से अजीब तरह की आवाज़ें निकलने लगी । ये भयानक आवाज़ें रात के वातावरण को कुरूपता से विकृत कर रही थीं ।

“बोलेगा या नहीं ? ” अब भी भरपूर शक्ति से झाड़ू पड़ी ।

“बताता हूँ, बताता हूँ .....।” तलत ने हाँफते हुये उत्तर दिया ।

उसका भारी स्वर सुनकर एक बारगी हम सब चौंक गये ।

“मैं कासिमपुर का सूरजप्रकाश हूँ । इसकी सुन्दरता पर मर मिटा हूँ ।”

“जायेगा या नहीं ?”

“नहीं जाउंगा । इतनी सुन्दर लड़की इतनी आसानी से फिर नहीं मिलेगी ।”

तलत के मुँह से आती पुर्लिंग में बोली जा रही आवाज़ों को सुनकर हम सब सकते में आ गये थे ।

“एक बार फिर पूछ रहा हूँ, जायेगा या नहीं ?”

“नहीं जाऊँगा ।”

“क्या कहा नहीं जायेगा ?” वह गुस्से से लगातार पीटे जा रहा था । तलत में जाने कहाँ से ताकत आ गई थी जो इन वारों को झेल रही थी ।”

“अच्छा, एक शर्त पर जा सकता हूँ ।” पिटाई से शायद घबरा गया था ।

“क्या?”

“इसकी शादी कर दो ।”

“लड़का कोई इतनी जल्दी थोड़े ही मिल जायेगा ।”

“लड़का तो मेरी नज़र में है । लड़के का नाम ख़ालिद है । इसका चचाजाद भाई है ।” तलत के गले से अभी भी वह अजनबी आवाज़ आ रही थी ।

यह सुनकर साज़िद ने अर्थपूर्ण नजरों से मुझे देखा । इस रहस्यपूर्ण वातावरण से उसके चेहरे पर जो मुर्दनी छाई हुई थी मुस्कान में बदल गई । लेकिन उसे उसने होठों में ही दबा लिया ।

“तू बेफ़िक्र रह इसकी उसी से शादी करवायेंगे ।” फ़कीर ने आश्वासन दिया ।

``तू कोच्छ नहीं समझता। इसकी अम्मा अपने भाई के बेटे से ज़बरदस्ती निकाह पढ़वाना चाहती है। वह कभी नहीं मानेगी।`` तलत मोटी आवाज़ में बिफ़री।

`` मैं कह रहा हूँ इसकी शादी ख़ालिद से ही होगी। ``

“लेकिन पहले इसकी अम्मी से कसम उठवाओ । वह पहले इससे खालिद के साथ शादी करने को मना कर चुकी है । कहती है कि वह बदमाश है ।”

उसकी अम्मी जैसे तैयार-सी बैठी थी । सिर झुकाते हाथ जोड़कर काँपते हुए बोली, “मैं कसम खाती हूँ । इसकी शादी खालिद के साथ ज़रूर कर दूँगी । आसिब साब मेरा पक्की कसम है। अब आप तलत के शरीर में से जाओ। ``”

“अब जायेगा या नहीं ?” मौलवी ने जोश में तलत की पीठ पर कसकर झाड़ू मारी

“शादी हो जायेगी तभी जाऊँगा ।” अब वह फिर अड़ गया ।

“अच्छा तू ऐसे नहीं मानेगा ।” कह कर उसने फिर से झाड़ू से तलत की घुनाई शुरू कर दी ।

“अच्छा जा रहा हूँ बाबा....” तलत बुरी तरह हाँफ रही थी । उसकी आँखों से गहरी पीड़ा झाँक रही थी। यह कहने के साथ ही उसके दोनों हाथों ने पेड़ छोड़ दिया और धम्म से कच्ची जमीन की धूल में गिर पड़ी । सारे शरीर पर झाड़ू के लाल-लाल निशान उभर आये थे और सारा शरीर फोड़े की तरह दुःख रहा था । लेकिन मन में एक पुलक जन्म ले रही होगी, भूत सिर पर चढ़ने का नाटक करके, इन चोटों को तन पर झेलकर उसने अपना मन पसन्द लड़का तो पा ही लिया, मैंने सोचा ।

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- नीलम कुलश्रेष्ठ

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