चांदी के कल्दारी दिन
रातों के घर बंधुआ बैठे बच्चों से बेगारी दिन
खूनी तारीखे बनकर आते हैं त्योहारी दिन ! 1
पेट काटकर बाबा ने जो जमा किए थे वर्षों में
उड़ा दिए दो दिन में हमने चांदी के कल्दारी दिन ! 2
नौन तेल के बदले हमने दिया पसीना जीवन भर
फिर भी खाता खोले बैठे बेईमान पंसारी दिन ! 3
कोर्ट कचहरी उम्र कट गई मिसल ना आगे बढ़ पाई
जाने कब आते जाते थे उसको ये सरकारी दिन ! 4
पैदा हुए उसूलों के घर उस पर कलम पकड़ बैठे
वरना क्या मुश्किल से हमको सत्ता के दरबारी दिन ! 5
शब्दो की मौत
यह कहने से
कि धरती कभी आग का गोला थी
आज बर्फीले मौसम को कतई दह्शत नहीं होती
शब्दो की तमक बुझ गयी है
व्याकरन कि ताकत पर
आखिर वे कब तक पुल्लिंग बने रह्ते
जब कि वे मूलत नपुंसकलिंग ही थे
तम्तमाये चेहरों और उभरी हुई नसो की
अब इतनी प्रतिक्रिया होती है
कि बांहो में बान्हे डाले दर्शक
उनमें हिजडो के जोश का रस ले
मूंग्फलियां चबाते रह्ते हैं
और अभिनय की तारीफ करते रह्ते हैं
यह रामलीला मुद्दत से चल रही है
और लोग जान गये हैं
कि धनुश टूट्ने पर
परर्शुराम का क्रोध बेमानी है
शब्द जब बेजान बेअसर हो जाये
तब अपनी बात सम्झाने के लिये
हाथ घुमाने के अलावा
और कौन सा रास्ता है
यह सन्योग है साजिश
कि जब जब कुछ काफिले
राजधानियो की विजय यात्रा पर निकल्ते हैं
नदिया पयस्विनी हो जाती हैं
और पेडो पर लटक्ने लगती हैं रोटियां
ताकि विरोध के बिगुल पर रर्खे मुन्ह
रास्ते से हट जाये
जब तक हम
पत्थरों पर अंकित आश्वासन बांच्ते हैं
तब तक वहाँ लश्कर मे जश्न होने लगता है
संधि पत्र
अंधकार के साथ जिन्होंने संधि पत्र लिखिए खुशी से
उन्हें सूर्य के संघर्षों का कोई क्या महत्व समझाएं
मेले संदर्भों पर जीवित यह ऐसी आधुनिक शिक्षाएं
मोहक मुखपृष्ठ पर जैसे अपराधों की सत्य कथाएं
सबके सिर पर धर्म ग्रंथ है सबके शब्दों में हैं सपने
किस न्यायालय में अब कोई झूठ शक्ति का न्याय कराएं
अंधकार के साथ प्रश्न लौट आते अनाथ से
कहीं नहीं मिलता अपनापन
अपने साथ ही रूप घरों में खोया सा लगता हर दर्पण
अलग-अलग आलाप रे रहे जहां बेसुरे कंठ जीतकर
उस महफिल में सरगम की मर्यादा बोलूं कौन बचाए
अंधकार के साथ जिन्होंने संधि पत्र लिख दिए खुशी से
उन्हें सूर्य के संघर्षों का कोई क्या महत्व समझाएं
आप कुल संभागों में कितनी बैठा सही तब भाई भाषण पाई
भाषा पाखंडी शब्दों में लेकिन लिख दी चारों और निराशा
हर क्यारी में जहां लगी हैं नागफनी की ही कक्षाएं
उन्हें सुनील के संघर्षों का कोई क्या महत्व समझाएं
दर्द का क्या जाने के चौड़े चौड़े रिक्त हाशिए
कैसा राजयोग तीन कौन है दक्षिण के अधिकार पालिए
सब ऐसे सेहमी सेहमी हैं जैसे चलते हुए सफर में
गांव पास आए दुश्मन का जूही तभी रात हो जाए
उन्हें सूर्य के संघर्षों का कोई क्या महत्व समझाएं ्
केबीएल पांडे के गीत
गीत
हमारे पास कितना कम समय है
डाल पर अब पक न पाते फल हमारे पास कितना कम समय है
कौन मौसम के भरोसे बैठता है
चाहतों के लिए पूरी उम्र कम है
मंडियां संभावनाएं तौलती है
स्वाद के बाजार का अपना नियम है
मिट्ठूओ का वंश है भूखा यहां तक आगये दुर्भिक्ष भय है
डाल पर अब पक न पाते फल हमारे पास कितना कम समय है
हरे बनके सिर्फ कुछ विवरण बचे हैं
भरी मठ में ली उदासी क्यारियों में
आग की बातें हवा में उड़ रही हैं
आज ठंडी हो रही जिन गाड़ियों में
वह इससे क्या सारणिक लेगा यहां पर आरंभ से निस कर सकता है
डाल पर अब पक न पाते फल हमारे पास कितना कम समय है
वहां जाने क्या विवेचन चल रहा है
सभी के वक्तव्य बेहद तीखे
यहां सड़कों पर हजारों बिखरे रूट से वास्तविक है
पूछने पर बस यही उत्तर सभी के
यह गंभीर चिंता का विषय है
के बी एल पांडेय के गीत
जिंदगी का कथानक
है कथानक सभी का वही दुख भरा
जिंदगी सिर्फ शीर्षक बदलती रही॥
जिंदगी ज्यों किसी कर्ज के पत्र पर कांपती उंगलियों के विवश दस्तखत,
सांस भर भर चुकाती रहीं पीढ़ियां ऋण नहीं हो सका पर तनिक भी विगत।
जिंदगी ज्यों लगी ओठ पर बंदिशें चाह भीतर उमड़ती मचलती रही ॥
है कथानक सभी का वही दुख भरा,जिंदगी सिर्फ शीर्षक बदलती रही॥
तेज आलाप के बीच में टूटती खोखले कंठ की तान सी जिंदगी,
लग सका जो न हिलते हुए लक्ष्य पर उस बहकते हुए वाण सी जिंदगी।
हो चुका खत्म संगीत महफिल उठी जिन्दगी दीप सी किन्तु जलती रही ।
है कथानक सभी का वही दुख भरा,जिंदगी सिर्फ शीर्षक बदलती रही॥
देखने में मधुर अर्थ जिनके लगें जिन्दगी सेज की सिलवटों की तरह,
जागरण में मगर रात जिनकी कटी जिन्दगी उन विमुख करवटों की तरह।
जिंदगी ज्यों गलत राह का हो सफर इसलिए तीर्थ की छांव टलती रही ॥
है कथानक सभी का वही दुख भरा,जिंदगी सिर्फ शीर्षक बदलती रही॥
बदनियत गांव के चोंतरे पर टिकी, रूपसी एक सन्यासिनी जिंदगी,
द्वार आये क्षणों काे गंवा भूल से हाथ मलती हुई मालिनी जिंदगी।
जिंदगी एक बदनाम चर्चा हुई बात से बात जिसमें निकलती रही॥
है कथानक सभी का वही दुख भरा,जिंदगी सिर्फ शीर्षक बदलती रही॥
जिंदगी रसभरे पनघटों सी जहां प्यास के पांव खोते रहे संतुलन,
जिंदगी भ्रातियों का मरूस्थल जहां हर कदम पर बिछी है तपन ही तपन।
जिंदगी एक शिशु की करूण भूख सी चंद्रमा देखकर जो बहलती रही ।
है कथानक सभी का वही दुख भरा,जिंदगी सिर्फ शीर्षक बदलती रही॥
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