केबीएल पांडे के गीत
ऐसा क्यों होता है
ऐसा क्यों होता है
कि धुले खुले आसमान में
अचानक भर जाते हैं
धुंए और आग की लपटों के बादल
धुंआ जिससे होना चाहिए था
हर घर में चूल्हा सुलगने का अनुमान
लपट
जिससे निकलना चाहिए थी
सिकती हुई रोटी की महक
लपट
जिसमें दमकता
खेलकर लौटे बच्चों
और काम पर से लौटे आदमी को
रोटी परोसती
ग़हिणी के चेहरे पर
सुख और सन्तोष
पर कहां से उपजी है
यह सीलन
जिसने आग और चूल्हे के रिश्तों में
भर दिया है ठंडापन
धुआं किसके इशारों पर
हो गया है बदचलन
ऐसा क्यों होता है
कि हर तरफ धधक उठता है
श्मशान
चारों तरफ बिखर जाती है
कटी हुइ चीख और कराहें
पास ही फडफडाता है
मुस्कराते चेहरे वाला
अधफटा इश्तहार
जिस पर लिखा है
हम सब एक हैं
ऐसा क्यों होता है
कि जानी पहचानी हवा में
अचानक धुल जाता है जहर
और आंखों का रास्ता रोक लेता है
कोई कारखाना
या नासमझ नफरत में तना हुआ चाकू
तब हर पहचान
एक मैने धब्बे में
बदल जाती है
दिशाओं की संभावना
पैरों के लिए नहीं
सिर्फ अंधेरों के लिए रह जाती है
ऐसा क्यों होता है
कि सपनों के लिए
जमीन तो बनती है
हमारी आंखें
और फसलें
बिश्रामर्ग़्रहों में उगती हैं
फिर घोषणा होती है
कि त्यौहार मनाया जायेगा
लुभावनी सूक्तियों के
सूखे बंदनवार
पानी छिड्क छिडक कर
घर घर टांगट दिये जाते हैं
फिर खुल जाता हैमोर्चा
हमें दे दिये जाते हैं
अदल बदल कर
वही पुराने हथियार
जो अश्वमेध पूरा हो जाने पर
वापस शस्त्रागार में रख दिये जाते हैं
कैसा हिसाब है
लडाई हम लडते हैं
जीत वे जाते हैं
लेकिन अब हमें
मौसम में बदलाव लाना है
ताकि सुबह की कामना लेकर
रात झंपी आंख के लिए
कल का सूरज
हादसा न बन जाये
शब्दो की मौत
यह कहने से
कि धरती कभी आग का गोला थी
आज बर्फीले मौसम को कतई दह्शत नहीं होती
शब्दो की तमक बुझ गयी है
व्याकरन कि ताकत पर
आखिर वे कब तक पुल्लिंग बने रह्ते
जब कि वे मूलत नपुंसकलिंग ही थे
तम्तमाये चेहरों और उभरी हुई नसो की
अब इतनी प्रतिक्रिया होती है
कि बांहो में बान्हे डाले दर्शक
उनमें हिजडो के जोश का रस ले
मूंग्फलियां चबाते रह्ते हैं
और अभिनय की तारीफ करते रह्ते हैं
यह रामलीला मुद्दत से चल रही है
और लोग जान गये हैं
कि धनुश टूट्ने पर
परर्शुराम का क्रोध बेमानी है
शब्द जब बेजान बेअसर हो जाये
तब अपनी बात सम्झाने के लिये
हाथ घुमाने के अलावा
और कौन सा रास्ता है
यह सन्योग है साजिश
कि जब जब कुछ काफिले
राजधानियो की विजय यात्रा पर निकल्ते हैं
नदिया पयस्विनी हो जाती हैं
और पेडो पर लटक्ने लगती हैं रोटियां
ताकि विरोध के बिगुल पर रर्खे मुन्ह
रास्ते से हट जाये
जब तक हम
पत्थरों पर अंकित आश्वासन बांच्ते हैं
तब तक वहाँ लश्कर मे जश्न होने लगता है
केबीएल पांडे की कविता
चांदी के कल्दारी दिन
रातों के घर बंधुआ बैठे बच्चों से बेगारी दिन
खूनी तारीखे बनकर आते हैं त्योहारी दिन ! 1
पेट काटकर बाबा ने जो जमा किए थे वर्षों में
उड़ा दिए दो दिन में हमने चांदी के कल्दारी दिन ! 2
नौन तेल के बदले हमने दिया पसीना जीवन भर
फिर भी खाता खोले बैठे बेईमान पंसारी दिन ! 3
कोर्ट कचहरी उम्र कट गई मिसल ना आगे बढ़ पाई
जाने कब आते जाते थे उसको ये सरकारी दिन ! 4
पैदा हुए उसूलों के घर उस पर कलम पकड़ बैठे
वरना क्या मुश्किल से हमको सत्ता के दरबारी दिन ! 5