12 - Udhyog prabandhan in Hindi Motivational Stories by Rajesh Maheshwari books and stories PDF | अर्थ पथ - 12 - उद्योग प्रबंधन: एक चुनौती

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अर्थ पथ - 12 - उद्योग प्रबंधन: एक चुनौती

उद्योग प्रबंधन: एक चुनौती

हमारा प्रबंधन ऐसा होना चाहिए कि यदि हम कारखाने से दूर भी रहते हों तो उसका उत्पादन प्रभावित नहीं होना चाहिए और कारखाना सुचारू रुप से चलते रहना चाहिए। हमें हमेशा यह प्रयास करते रहना चाहिए कि हम निरन्तर अधिकारियों के संपर्क में रहें और हमें वहां की गतिविधियों की जानकारी मिलती रहे। हमें अपने उद्योग में ऐसी व्यवस्था भी रखनी चाहिए जिसके माध्यम से हमें बाजार की गतिविधियों की जानकारी निरन्तर प्राप्त होती रहे। हमारे प्रतिस्पर्धी किस मूल्य पर अपना माल बेच रहे हैं, उनकी गुणवत्ता कैसी है और उनकी भविष्य की क्या योजनाएं हैं, इसकी जानकारी हमें प्राप्त होते रहना चाहिए। हमारे भविष्य की योजनाओं की जानकारी एवं हम अपने उद्योग में जो भी गुणात्मक परिवर्तन कर रहे हों वह गोपनीय रहना चाहिए कहीं ऐसा न हो कि हमारे अधिकारी या कर्मचारी ही यह जानकारी हमारे प्रतिस्पर्धियों तक पहुँचा रहे हों। किसी भी उद्योग में सुधार एक निरन्तर प्रक्रिया है जिसका अन्त कभी नहीं होता इसलिये हमें निरन्तर अपना आन्तरिक अंकेक्षण करवाते रहना चाहिए। इससे हमें अपने धन के आगम और निर्गमन का ज्ञान होता रहेगा और हम अंधेरे में नहीं रहेंगे।

किसी भी उद्योग या व्यापार में उतार-चढ़ाव होता ही है। कभी-कभी उद्योग या व्यापार लाभ के स्थान पर हानि भी देने लगते हैं। इसके प्रमुख कारण निम्नांकित हैः-

ऽ समय पर तकनीकी प्रगति का न होना,

ऽ उत्पादन की मांग का बाजार में समाप्त हो जाना,

ऽ हमारे उत्पादन का विकल्प बाजार में आ जाना,

ऽ समय पर कार्यरत पूंजी उपलब्ध न करा पाना,

ऽ उत्पादन लागत विक्रय मूल्य से अधिक हो जाना,

ऽ प्रबंधकों एवं श्रमिकों के बीच मतभेदों का उभरना और हड़ताल आदि हो जाना।

किसी भी उद्योग के बन्द होने की दो स्थितियां होती हैं- पहली वह जब उद्योग के बन्द होने के कारणों का निदान संभव होता है और दूसरी वह जब उद्योग के बन्द होने के कारणों का निदान संभव न हो। दूसरी स्थिति में उद्योग को बन्द कर देना ही श्रेयस्कर होता है। यह वैसी ही स्थिति है जैसे किसी बीमार व्यक्ति का तो उपचार किया जा सकता है किन्तु मृत व्यक्ति का कोई उपचार नहीं हो सकता है। उद्योग घाटे में धीरे-धीरे आता है और हमें उसके भविष्य का पता होने लगता है। जब उद्योग बन्द होने की स्थिति में जा रहा हो तो हमें उसे अचानक बन्द नहीं कर देना चाहिए। इससे दो बातें हो सकती हैं एक तो बाजार में हमारी जो लेनदारियां हैं वे डूब जाएंगी और दूसरा प्रबंधक और कर्मचारियों के बीच तनाव व उपद्रव हो सकता है जो हिंसक भी हो सकता है।

यह हमारे देश में अजीब स्थिति है कि जिस कारखाने में सौ से अधिक कामगार हों तो उसे बन्द करने के लिये राज्य सरकार की अनुमति आवश्यक होती है। राजनैतिक कारणों से यह अनुमति प्रायः प्राप्त नहीं होती है चाहे आपका कारखाना कितने भी घाटे पर चल रहा हो। यह स्थिति श्रमिकों और उद्योगपति दोनों के लिये बहुत अधिक घातक है। इस कारण कारखाना समय पर बन्द न होने से मजदूरों को मुआवजे और ग्रेच्युटी का भुगतान भी पैसों के अभाव में रूक जाता है जिससे दोनों का ही अहित होता है।

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हमारे देश में उद्योगों के संबंध में जो कानून बने वे समाजवादी विचारधारा के प्रभाव में बने। इसका परिणाम यह हुआ कि उनमें उद्योगपति की स्थिति को पूरी तरह नकार दिया गया था। उसे शोषणकर्ता और अत्याचारी मानते हुए ही इन नियम कानूनों का निर्माण किया गया। इसके परिणाम स्वरुप एक ओर देश का त्वरित औद्योगीकरण नहीं हो सका और दूसरी ओर उद्योगों की कठिनाइयों की उपेक्षा के कारण बहुत बड़ी संख्या में उद्योग बन्द हो गए और आज भी बन्द पड़े हैं। इससे एक ओर तो बेरोजगारी को दूर करने में उद्योगों की जो भूमिका हो सकती थी वह नहीं हो सकी और दूसरी ओर सरकारी बैंको का अरबों रूपया बटटे खाते में चला गया।

हमने मिश्रित अर्थव्यवस्था को स्वीकार किया है। हम न तो माक्र्सवादी ही रहे और न ही हम पूंजीवादी हो सके। इन दोनों के बीच हम कुछ ऐसी विचित्र स्थिति में आ गए जैसे धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का। सरकार को एक समय जो राष्ट्रीयकरण का भूत चढ़ा था उसने देश की अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका रखने वाले उद्योग जगत को भारी क्षति पहुँचाई है और हमारा सकल घरेलू उत्पादन लगातार गिरता चला गया। विश्व में सभी ओर प्रगति हो रही थी और हम स्वयं को अवनति के गर्त की ओर ले जा रहे थे।

सामाजिक उन्नति और क्षेत्रीय विकास में उद्योग महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। शिक्षा और चिकित्सा के क्षेत्र में उद्योगों का योगदान होना चाहिए। हमारे नैतिक चरित्र के उत्थान और जनजागृति में भी उद्योगपति अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। कुछ साल पहले कुछ समाजसेवी नगर में पीने के पानी की समस्या हल करने के लिये कंपनी में आये। वे एक ट्यूबवैल खुदवाना चाहते थे और इसमें लगने वाली राशि की अपेक्षा कंपनी से रखते थे। इस जन कल्याण के कार्य के लिये कंपनी के चेयरमैन ने ग्यारह ट्यूबवैल खुदवाने का पैसा दे दिया। उनकी सोच थी कि हमारे पास धन है तो जनहित के कार्य में उसे खर्च करने में कोई कोताही नहीं करनी चाहिए। अच्छे कार्य पर खर्च करने से लक्ष्मी और सरस्वती दोनों प्रसन्न होती हैं।

मानवीयता का परिष्कृत स्वरुप होता है कि हमारे द्वारा किसी का हित हो। इससे अच्छी जीवन में दूसरी और कोई बात नहीं होती। इससे हमें आत्म संतोष और मन में प्रसन्नता प्राप्त होती है जिससे असीम शान्ति का अनुभव होता है।

ऐसी किंवदंती है कि एक बार सरस्वती जी और लक्ष्मी जी एक साथ भ्रमण पर निकलीं। लक्ष्मी जी को देखकर सभी उनके चरणों में नमन करने लगे और उनकी कृपा पाने के लिये अनुनय विनय में व्यस्त हो गए। यह देखकर सरस्वती जी अपनी उपेक्षा से दुखी हो गईं। माँ लक्ष्मी जी इस बात को भांप गईं। उन्होंने श्रृद्धालुओं से कहा- अरे मूर्खो ! पहले सरस्वती को प्रणाम करो! ये शिक्षा एवं ज्ञान की देवी हैं तथा इनके बिना मैं अधूरी हूँ। मेरा आशीर्वाद उसे ही मिलता है जिस पर इनकी कृपा होती है। आदमी को अपनी भूल पर पश्चाताप हुआ। उसने उनसे क्षमा मांगी और उनके चरणों की वन्दना की। ऐसी किंवदन्ती है कि ये दोनों तभी से एक स्थान पर वास नहीं करतीं लेकिन जिन पर प्रभु की कृपा रहती है उन पर दोनों की कृपा रहती है। यह व्यक्ति के जीवन में सफलता की महत्वपूर्ण सीढ़ी है। जब तक व्यक्ति पर इन दोनों की कृपा नहीं होगी तब तक उसका जीवन अपूर्ण ही रहेगा।