Ram Rachi Rakha - 3 - 5 in Hindi Moral Stories by Pratap Narayan Singh books and stories PDF | राम रचि राखा - 3 - 5

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राम रचि राखा - 3 - 5

राम रचि राखा

तूफान

(5‌)

सुबह उजाला होते ही नाविक ने डीजल भरा और नाव चला दी।

नाव में अब खाने के लिए थोड़े से कोंदो के अलावा कुछ भी नहीं था। दूध का एक बूँद भी नहीं बचा था। बच्चे क्या पियेंगे?

थोड़ी ही देर में बच्चों का क्रंदन आरम्भ हो गया। घोष बाबू का पौत्र और एक दूसरा बच्चा, दोनों ही भूख से चिल्लाने लगे। अंश भी खाना माँगने लगा। रामकिशोर की बेटी भी लगभग आठ-नौ साल की रही होगी। वह भी खाना-खाना रटने लगी।

सप्तमी ने अंश को कुछ बिस्कुट खाने को दिया। वह हमेशा अपने बैग में रखती है। रात में अंश प्रायः दूध-बिस्कुट ही खाता है।

बच्चों का भूख से छटपटाना सभी को असह्य होने लगा। रसोइयें ने बताया कि रात के भात का माँड़ (चावल का पानी) पड़ा हुआ है। उसे ही थोड़ा-थोड़ा बच्चों को पिलाया गया। उन्होने मुश्किल से पिया। फिर भी पेट में कुछ जाने से उन्हें कुछ राहत मिली।

भूख तो सभी को लगने लगी थी। रात में भी भर पेट खाना नहीं मिल पाया था। लेकिन सब लोगों का ध्यान अभी वापस पहुँचने पर लगा हुआ था। लोग सोच रहे थे कि बस जल्दी से एक बार पाखिरालय होटल में पहुँच जाएँ तो सब ठीक हो जाएगा।

लेकिन किस्मत !

चार घंटे तक नाव चलती रही, परंतु सही मार्ग नहीं मिल सका। नाव धाराओं के बीच उलझ कर रह गई थी। तेल खत्म होने लगा था। नाविक चिंतित हो गया। ग्यारह बजे तक उसने नाव ले जाकर एक किनारे पर खड़ी कर दी। डीजल खत्म हो चुका था।

अब क्या? अब तो सारी उम्मीदें भी ध्वस्त हो गईं। नाविक अपने केबिन से बाहर निकल आया। लोगों ने उसे घेर लिया।

“डीजल एकदम खत्म हो गया?” एक व्यक्ति ने पूछा।

“हाँ, एक-आध लीटर होगा।“

“अब क्या करेंगे?”

किसी के पास कोई उत्तर नहीं था। सबलोग सकते में थे।

“भौमिक! ऐसा कैसे हो गया कि चार घंटे में सही रास्ता भी नहीं मिल सका।“ सौरभ ने कहा।

“शायद हम सही रास्ते से दूसरी ओर चल पड़े थे। इन रास्तों से होकर हम कभी गुजरे नहीं थे।“ अधेड़ नाविक ने कहा।

“हमें ढूँढ़ा तो जा रहा होगा न ? वन विभाग या नेवी के पास रास्तों का नक्शा तो होगा ही।“

“हाँ उनके पास नक्शा रहता है। लेकिन अगर हम मुख्य रास्ते के आसपास कहीं होंगे तो वे हमें आसानी से ढूँढ़ लेंगे, अन्यथा बहुत मुश्किल होगी। सुंदरवन पंद्रह सौ स्क्वायर किलोमीटर में फैला हुआ है और इसके बीच में पानी की अनगिनत धाराएँ हैं। सब जगह पहुँचने में उन्हें हप्तों लग जाएँगे।“ भौमिक ने कहा।

“ओह ! फिर कोई कैसे जान पाएगा कि इतने बड़े जंगल में हम कहाँ हैं?” सौरभ ने कहा। सब लोग चुप थे। उसने आगे कहा, “ लेकिन इस तरह हम हाथ पर हाथ रखकर बैठे रहेंगे तो कुछ भी नहीं हो पायेगा। हमें कुछ तो करना होगा।“ सौरभ ने कहा।

“किसी के पास लाल कपड़ा है?” नाविक के अठारह वर्षीय बेटे चिन्मय ने पूछा। फिर उसने आगे कहा, “लाल कपड़े को पेड़ पर बाँधने से हमें ढूँढ़ने वालों को दिख सकता है। या कोई भी नाव आसपास से गुजरी तो किसी की नज़र पड़ सकती है।“

लाल कपड़ा ढूँढ़ा जाने लगा। जरूरत पड़ने पर सामान्य चीजें भी नहीं मिल पाती है। कहीं कोई लाल कपड़ा ही नहीं था। तभी लोपा ने बताया कि जो एक नव-दम्पति थी, उसमें लड़की के पास एक लाल साड़ी थी। सौरभ उससे साड़ी माँगने लगा। लेकिन उसने देने से मना कर दिया। बोली “मेरे शादी का जोड़ा है।“

ओह ! कितने बेवकूफ होते हैं लोग !

“अगर तुम यहाँ से ज़िंदा बचकर जाओगी तब तुम्हारा यह जोड़ा काम आएगा।“ सौरभ ने झल्लाते हुए कहा। उसके बाद उसके पति ने भी उसे समझाया। अंततः किसी तरह से देने को वह मान गई।

चिन्मय नाव से उतर कर पास वाले जंगल में एक ऊँचे पेड़ की दो शाखाओं से साड़ी को बाँध दिया। उसके दो सिरे मुक्त थे। वह हवा में लहराने लगी।

दो बजने को आ गए। अब सबके पेट में चूहे दौड़ने लगे थे। लेकिन खाने के लिए कुछ भी नहीं था। गैस के मरीज कुछ न खाने के कारण डकारने लगे। घोष बाबू लो ब्लड प्रेशर के मरीज थे। उन्हें चक्कर आने लगा। ऐसे ही कुछ और लोगों का भी बिना खाए बुरा हाल होने लगा।

जो रात का माँड़ बचा था, उसके लिए भी लूट मच गई। किसी को प्लस्टिक के छोटे गिलास में एक गिलास तो किसी को आधा मिल पाया। भूख और बढ़ गई।

कुछ देर में पता चला कि खाने से भी बड़ी एक और समस्या उत्पन्न हो गई थी और वह थी पानी की समस्या। पीने का पानी खत्म हो गया।

“ओह! हम लोग तो भूख प्यास से तड़पकर मर जायेंगे। कपड़े को लगाए हुए भी दो घंटे हो गये। किसी की भी नज़र नहीं पड़ी।“ एक व्यक्ति ने कहा।

पानी तो सबसे विकट समस्या थी। उसके बिना तो एक दिन भी निकालना कठिन था। जैसे-जैसे समय बीत रह था, लोग भूख और प्यास से व्याकुल होते जा रहे थे। कोई रास्ता ही नज़र नहीं आ रहा था।

सौरभ ने भौमिक से कहा, “समुद्र के पानी को ही उबाल दो। उसे छानकर थोड़ा-थोड़ा लोग पी लेंगे। खारापन तो नहीं जाएगा, लेकिन जीवाणु तो मर जाएँगे। वैसे भी प्यास से मरने से तो अच्छा होगा।“

समुद्र का पानी उबाला गया। उसे कपड़े से छानकर एक बर्तन में रखा गया। वह ठंडा होने लगा।

कुछ लोग जो भूख से व्याकुल हो रहे थे, उन्होंने पानी भर पेट पी लिया। वे उल्टियाँ करने लगे। समुद्र के पानी में अनेक खनिज होते हैं। लवण भी बहुत नुकसान करता है।

चार बजते-बजते आधे लोग भूख-प्यास से निढाल होकर इधर-उधर लुढ़क गए। अब बचना मुश्किल है। इसी नाव पर भूख प्यास से जान निकल जायेगी।

बच्चे भूख से फिर से बिलबिलाने लगे। लेकिन न तो खाना था और न ही दूध। माताएँ उन्हें अपने सीने से लगाकर चुप कराने का असफल प्रयत्न कर रही थीं। थोड़े बड़े बच्चे अपने माता-पिता से खाना माँग रहे थे। वे असहाय होकर आँखों मे आँसू भरकर उनकी ओर देख रहे थे। उन्हें किसी तरह से बहलाना चाह रहे थे।

अंश भी बार-बार खाना माँग रहा था। सप्तमी उसे बहला रही थी। लेकिन भूख किसकी सुनता है।

“मम्मा...! मुझे भूख लगी है....।“ अंश ने चिल्लाते हुए कहा।

“हाँ बेटा अभी थोड़ी देर में खाना बनेगा।“ सप्तमी की आँखों में आँसू आ गए, “तब तक लो थोड़ा पानी पी लो।

“नहीं, मुझे अभी खाना चाहिए...। आप कब से कह रही हैं कि खाना बनेगा। कोई खाना नहीं आया। आप झूठ बोल रही हैं। पानी भी गंदा है।“

“खाना अभी आ जाएगा...मेरा राजा बेटा...” सप्तमी ने उसे पुचकारते हुए कहा।

“नहीं आएगा....मैं नानू से आपकी शिकायत करूँगा कि आप मुझे खाना नहीं देती हैं।” अंश ने बिलखते हुए कहा। उसकी आँखों से आँसुओं की धारा बह रही थी। वह भूख से छटपटा रहा था। सप्तमी भी उसके साथ रोने लगी।

सौरभ की आँखें भी आँसुओं में डूब गईं। अपने बच्चे को इस तरह से भूख से तड़पते देखने की कल्पना कौन माँ-बाप कर सकता है। इससे बड़ी पीड़ा और कोई नहीं हो सकती।

नाविक, भौमिक और नाव के अन्य कर्मचारी नाव के अगले भाग में बैठे हुए थे। सौरभ उनके पास गया।

“बच्चे भूख से बिलख रहे हैं। तुम लोग कुछ तो करो। कहीं से कुछ भी खाने के लिए ले आओ।“ सौरभ ने कहा। सब असहाय बैठे रहे कि क्या लाएँ।

तभी नाविक का बेटा उठ खड़ा हुआ। वह जल्दी से नीचे गया और वहाँ से एक दराँती लेकर ऊपर आया। वह नाव के किनारे की ओर बढ़ते हुए एक कर्मचारी को संबोधित करते हुए बोला, “देबू ! मेरे साथ चल।“

“चिन्मय ! कहाँ जा रहा है ? जंगल में बाघ होंगे।“ नाविक ने कहा।

“क्या करूँ? बाघ के डर से बच्चों को भूख से तड़प कर मरने दूँ?”

नाविक निरुत्तर हो गया। चिन्मय नाव से उतर गया। उसके साथ देबू भी उतर गया। भौमिक ने दो अन्य कर्मचारियों को भी जाने को कहा। चारों अपनी जान हथेली पर लेकर वन के अंदर चले गये।

सब लोग उनके सकुशल लौटने की प्रार्थना करने लगे।

इधर बच्चे रो-रोकर निढ़ाल होने लगे थे। भूख के कारण असक्त हो पहले ही हो चुके थे। अब उनकी रोने की शक्ति भी खत्म होती जा रही थी। वे अचेतना की ओर बढ़ने लगे।

चिन्मय और उसके साथी एक घंटे बाद अपने साथ वनस्पतियों का एक गट्ठर लेकर लौटे। उन्हें कूटा गया। उनका रस निकालकर बच्चों के मुँह में डाला गया। उस वनस्पति का रस मीठा था और उसमें पौष्टिक तत्व भी थे। जंगलों में रहने वाले लोग उसका प्रयोग करते थे। चिन्मय उसे अच्छी तरह से पहचानता था। वह पहले कभी-कभी शहद निकालने वालों के साथ जंगल में जाया करता था।

अंश भी भूख से निढाल होने लगा था। करीब आधा गिलास रस पीने के बाद उसके जान में जान आई। चिन्मय अपने साथ कुछ जड़ें भी ले आया था। सौरभ ने उन्हें काटकर अंश को खिलाया। कुछ जड़ें अन्य बच्चों को खिलाई गईं।

घोष बाबू भूख-प्यास से मूर्छित होने लगे थे। उन्हें भी थोड़ी सी जड़ खिलाई गई।

रात फिर से घिर आई। कोई मदद नहीं पहुँच सका।

समय बढ़ने के साथ-साथ लोगों की शक्ति क्षीण होती जा रही थी। लोग लेटे-लेटे अपने परिजनों को कातर दृष्टि से देख रहे थे। माता-पिता अश्रु-पूरित नेत्रों से अपने बच्चों की दुर्दशा देखकर तड़प रहे थे। तन-मन दोनों ही पीड़ा से बिद्ध था।

बड़ों में बोलने की शक्ति नहीं बची। बच्चों में रोने की शक्ति नहीं रही। नाव ने एक खामोशी ओढ़ ली थी। लोग नींद के आगोश में समाते चले गये। नहीं पता था कि कल सुबह इनमें से कितने लोग उठ पाएँगे। सब कुछ नियति के हवाले था।

“इससे अच्छा तो नाव डूब ही गई होती। इस तरह से भूख-प्यास से तड़प-तड़प कर तो नहीं मरना पड़ता।“ एक अत्यंत निराश हो चुके व्यक्ति ने कहा।

क्रमश..