Tasvir me avanchhit - 3 - last part in Hindi Moral Stories by PANKAJ SUBEER books and stories PDF | तस्वीर में अवांछित - 3 - अंतिम भाग

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तस्वीर में अवांछित - 3 - अंतिम भाग

तस्वीर में अवांछित

(कहानी - पंकज सुबीर)

(3)

लड़की ने जो टीवी पर फिल्म देख रही थी अंदर जाकर कुछ सामान ज़ोर से पटका और फिर किसी खिड़की या शायद दरवाज़े को ज़ोर से लगाया। सारी की सारी आवाज़ें रंजन तक पहुंचीं, ज़ाहिर सी बात है पहुंचाने के लिए की गईं थीं तो पहुंचेगी ही। अंदर कुछ देर तक अंसतोष अपने आपको विभिन्न ध्वनियों के माध्यम से व्यक्त करता रहा, फिर जैसी की असंतोष की प्रवृति होती है वह धीरे धीरे कम होता हुआ समाप्त हो गया। असंतुष्ट होना सबसे अस्थायी गुण है। कई बार तो समय के साथ हम स्वयं ही भूल जाते हैं कि हम क्यों असंतुष्ट थे।

रंजन ने कुर्सी पर कुछ पसरते हुए सिर को पीछे टिका लिया और आंखें मूंद ली। कुछ देर पहले देखे गए फ़िल्म के दृष्य अभी भी दिमाग में थे। फिल्म की हीरोइन कितनी ज्यादा संस्कारों से जुड़ी हुई थी। जब वह अपने पुरुष मित्र के साथ बिस्तर में थी तब भी उसके ख़यालों में उसका पती ही था। इधर उसका पुरूष मित्र आदिम चेष्टाएँ कर रहा था उधर उस हीरोइन का मन पती को याद कर रहा था। संभवतः वह भी अपने मन का कम्प्यूटर चालू करके वहां उस पुरुष मित्र के चेहरे के स्थान पर अपने पति का चेहरा कापी पेस्ट करने का प्रयास कर रही थी। ताकि उस मित्र की क्रियाओं में अपनी सक्रिय सहभागिता दर्ज कर सके। जब वो ऐसा करने में सफल हो गई थी तभी गूंजा था वो गीत ‘‘भीगे होंठ तेरे, प्यासा मन मेरा’’। अपने पती का चेहरा उस पुरुष मित्र के चेहरे पर पेस्ट करके वह पूरे मनोयोग से अपने पती को सक्रिय सहयोग प्रदान करने लगी थी। और जब गाने की अगली पंक्ति बजी ‘‘लगे अब्र सा, मुझे तन तेरा’’ तो उसने फुसफुसाते हुए अपने प्रेमी के कान में पूछा था ‘‘अब्र का मतलब क्या होता है’’ उसने ...? उसने कहाँ पूछा था ? वो तो उन एक या शायद दो बच्चों में से बड़ी वाली लड़की ने पूछा था। ‘‘मुझे नहीं मालूम अब्र का मतलब’’ कुछ भुनभुनाते हुए कहा रंजन ने।

‘‘क्या हुआ पापा’’ रंजन के ऐसा कहते ही ये स्वर आया। चौंक कर रंजन ने आंखें खोलीं तो देखा पास में उन एक या शायद दो बच्चों में से छोटी वाली लडकी वहाँ खड़ी हैरत से उसकी तरफ़ देख रही है। संभवतः वहाँ से गुज़र रही थी और उसे बड़बड़ाता देख कर रुक गई थी।

‘‘क्या हुआ ?’’ रंजन को अपनी ओर देखता पाकर उसने पुनः प्रश्न को दोहराया। ’’

‘‘कुछ नहीं ’’ रंजन ने आगे बेटी शब्द कहने और मुस्कुराने का प्रयास भी किया किन्तु दोनों ही काम नहीं कर पाया।

‘‘पापा मुझे एक छोटी साइकिल दिलवा दो ना’’ उस लड़की ने संवाद स्थापित होता पाकर कहा।

रंजन को याद आया कि अभी दो माह पूर्व जब वो घर रुका था तब ये लड़की अपने लिये एक गुड़िया मांग रही थी, हालांकि वो अभी तक गुड़िया भी नही ला पाया है और आज ये अपने लिए साइकिल की मांग कर रही है।

‘‘अभी उस दिन तो तुम कह रही थीं कि गुड़िया चाहिए, आज गुड़िया से एकदम साइकिल पर आ गईं’’ रंजन ने कहा।

‘‘मैंने ......? मैंने कब मांगी गुड़िया ?’’ उस लड़की ने कुछ हैरत के साथ पूछा।

‘‘अभी पिछली बार जब मैं संडे को घर पर रुका था तब नहीं कहा था तुमने कि मुझे एक बड़ी सी गुड़िया चाहिए ’’। रंजन ने उत्तर दिया।

‘‘नहीं...... मैंने तो नहीं कहा’’ लड़की के स्वर में अभी भी हैरानी थी ।

दोनों की बातचीत सुनकर स्त्री भी अंदर से निकलकर कमरे में आ गई। ‘‘क्या हुआ ?’’ उसने पूछा। ‘‘पापा कह रहे हैं कि पिछली बार जब मैं संडे को रुका था तो तुमने मुझसे गुड़िया मांगी थी।’’ लड़की ने सफाई देने वाले स्वर में कहा। स्त्री के चेहरे के भाव कुछ बदले फिर उसने संभलते हुए लड़की से कहा ‘‘अच्छा-अच्छा ठीक है तुम जाओ, पापा को आराम करने दो’’। स्त्री के ऐसा कहते ही लड़की बाहर चली गई। रंजन ने स्त्री की ओर देखते हुए कहा ‘‘पर उसने मांगी थी गुड़िया।’’

‘‘हाँ मांगी थी मुझे भी मालूम है’’ स्त्री का चेहरा तथा भाव दोनों ही सपाट थे।

‘‘तो फिर तुमने अभी कहा क्यों नहीं उससे, कि हाँ मांगी थी।’’ रंजन ने कुछ झुंझलाहट के स्वर में कहा।

‘‘इसलिए क्योंकि गुड़िया उसने पांच साल पहले मांगी थी, जब वो छः साल की थी, अब वो ग्यारह साल की है।’’ एक-एक शब्द को लगभग चबाते हुए बड़े ही शुष्क अंदाज में कहा उस स्त्री ने और रंजन के उत्तर की प्रतीक्षा किये बिना ही पलट कर अंदर भी चली गई। ये हो क्या रहा है ? ये कोई षड़यंत्र तो नहीं है उसके विरुद्घ ? रंजन उस स्त्री के वहाँ से चले जाने के बाद कुछ देर स्तब्ध सा बैठा रहा।

‘‘अगर उसे पता ही है कि उसका इतना ज्यादा विरोध है तो फिर हट क्यों नही जाता वो उस पद से ?’’ यूं ही चलते-चलते प्रश्न किया था उसने अपने वरिष्ठ सहयोगी कमलकांत जी से। प्रश्न अंबरीश सक्सना को लेकर था जिनके विभाग में उनको ही लेकर भारी विरोध की स्थिति बन गई थी। उसका प्रश्न सुनकर चलते-चलते ठिठक गए थे कमलकांत फ़िर वहीं गलियारे के खंबे से पीठ टिकाकर खड़े हो गए थे। उसकी आँखों में गहरे तक झांकते हुए बोले थे ‘‘दरअसल अंबरीश अभी भी इस सत्य को स्वीकार नहीं कर पा रहा है कि वह अवांछित हो चुका है। अंबरीश ही क्या कोई भी इस सत्य को स्वीकार नही कर पता। तुम, मैं, हम सब इसी गलतफहमी में जी रहे हैं कि हम जहां पर हैं, हम हम जो भी हैं वहाँ पर सबसे वांछित हमीं हैं। विरोध होता है तो हमें दिखाई नहीं देता, दिखाई देता है तो हम उसे इग्नोर करते हैं। इग्नोर करने लायक नहीं होता तो फिर हम अपने आपको दुनिया का सबसे झूठा वाक्य ‘‘हर अच्छे आदमी और हर अच्छे काम का विरोध होता है’’ सुनाकर संतुष्ट कर देते हैं। तर्क से कुतर्क से हम अपनी स्थिति को जस्टीफाई करते रहते हैं।’’ कहते हुए कुछ देर रुक गए थे कमलकांत और एक गंभीर सी मुस्कुराहट के साथ रंजन को देखने लगे। ‘‘हमारे चारों ओर ये जो अवांछितों की भीड़ बढ़ती जा रही है, ये इसी आत्म संतुष्टी का परिणाम है। हम इस बात पर यकीन ही नहीं करना चाहते कि हम भी अवांछित हो सकते हैं। अपने घर में, अपने समाज में, अपने कार्यक्षेत्र में, हर जगह हम अपने आपको सबसे उपयुक्त पाते हैं।’’ कहते हुए उसकी पीठ पर हाथ रख कर वापस गलियारे से सीढ़ियों की ओर बढ़ने लगे थे कमलंकात। ‘‘हम सब सबसे ज़्यादा डरते हैं अपने अंदर झांकने से, अपनी स्थिति का अवलोकन करने से, और वो इसलिए क्योंकि हम जानते हैं कि परिणाम क्या होगा। आत्मावलोकन से हमारा यह भय ही जन्म देता है अंबरीश सक्सेना जैसे चरित्रों को ’’ सीढ़ियाँ उतरते हुए कहा था कमलकांत ने आख़िरी सीढ़ी उतरकर फिर ठिठक गए और रंजन के कंधे को दबाते हुए कहा ‘‘लेकिन ये सब कुछ जो मैं कह रहा हूं यह मरे हुए लोगों के बारे में कहा रहा हूँ, ज़िंदा आदमी ऐसा नहीं होता, ज़िंदा आदमी अपनी हर स्थिति पर नज़र रखता है, और उसका आकलन भी करता रहता है। यही सबसे बड़ा फ़र्क होता है ज़िंदा होने और मरे हुए होने में।’’ कहकर रंजन के कंधे को कुछ मुस्कुराकर थपथपाया और अपने स्कूटर की ओर बढ़ गए थे कमलकांत।

ट्रिनःट्रिन फोन अपने बेसुरे स्वर में चीख रहा है। शाम होने वाली है। रंजन ने बेमन से उठकर फोन को उठाया। रंजन के हलो कहते ही उधर से चिरपरिचित स्वर आया ‘‘हाँ रंजन जी मैं बोल रहा हूँ सुधाकर, तो आप आ रहे हैं ना ?।’’

‘‘अरे हाँ सुधाकर जी आप हैं’’ किसी सिलसिले को तोड़ते हुए उत्तर दिया रंजन ने ‘‘जी में आ रहा हूँ अभी पांच बजे रहे हैं छः साढे छः तक निकलूंगा तो उधर आठ तक पहुंच जाऊँगा।’’

‘‘अरे ...बहुत-बहुत धन्यवाद रंजन जी आपने बड़े संकट से बचा लिया हमें। वरना हम तो लगभग निराश ही हो चुके थे।’’ उल्लासित सा स्वर आया उधर से।

‘‘अरे नहीं सुधाकर जी ऐसी कोई बात नहीं है, आप सक्षम हैं, समर्थ हैं, हर परिस्थिति में आयोजन कर सकते हैं’’ रंजन ने थोड़ी विनम्रता बरतते हुए कहा।

‘‘ये आपकी महानता है जो आप ऐसा सोचते हैं। तो ठीक है रंजन जी हम प्रतीक्षा कर रहे हैं, जैसे ही आप पहुंचते हैं वैसे ही कार्यक्रम प्रारंभ कर देंगे ’’ उधर से स्वर आया।

‘‘ठीक है मैं समय पर पहुंच जाऊंगा।’’ कहते हुए रंजन ने फोन काट दिया।

‘‘क्या हुआ ?’’ स्त्री ने पूछा जो फोन की बातचीत सुनकर वहाँ आ गई थी।

‘‘आयोजक का फोन आया था, पहले तो मैंने मना कर दिया था फिर सोचा कि चला ही जाता हूँ। तीन हजार दे रहे हैं’’ रंजन ने उत्तर दिया। स्त्री के चेहरे के भाव स्थिर बने रहे। रंजन ने स्त्री के चेहरे में उसके जाने की बात सुनकर नागवारी के चिह्न ढूंढने का प्रयास किया किंतु वहां ऐसा कुछ भी नहीं था।

थके क़दमों से चलता हुआ वह आकर कुर्सी पर बैठ गया, कुर्सी पर सर टिका कर आंखें बंद किये अभी उसे कुछ ही देर हुई थी कि अचानक उसे लगा कि उसके चेहरे के किनारे-किनारे बारीक सूई की चुभन या चीटियों के काटने का एहसास हो रहा है। उसने घबरा कर आँखें खोलीं तो देखा चारों तरफ़ गहरा अंधेरा है, ठण्डा, काला और उदास अंधेरा। चेहरे के किनारों पर चुभन तेज़ होती जा रही थी, और अंधेरे में कापी-पेस्ट, कापी-पेस्ट जैसी फुसफुसाहट भी आनी शुरू हो गई थी। अचानक उसे लगा कि उसका चेहरा किसी बड़े वेक्यूम क्लीनर में फंस गया है, और वह वैक्यूम क्लीनर उसके चेहरे को खींच रहा है। उसने चेहरा छुड़ाने का प्रयास किया पर सफल नहीं हुआ। कापी-पेस्ट, कापी-पेस्ट की फुसफुसाहट तेज़ होती जा रही थी। फुसफुसाहटों के बीच ही उसे ट्रेन की सीटी की तेज़ आवाज़ सुनाई दी। सीटी की आवाज़ सुनकर उसने चेहरा छुड़ाने के लिए पूरी ताक़त लगाई। वैक्यूम क्लीनर भी कुछ कमज़ोर हो गया था वो अपने चेहरे को छुड़ाने में क़ामयाब हो गया। उसे लगा कि कुछ वैक्यूम क्लीनर पर छूट गया है, चेहरा टटोला तो सब कुछ ठीक था। वैक्यूम क्लीनर में अटक कर छूटी चीज़ को देखने को जैसे ही बढ़ा वैसे ही पीछे से ट्रेन की सीटी फिर बजी, वह पलटा तो देखा ट्रेन धीरे धीरे सरक रही थी, वह दौड़ा और दौड़ता हुआ जाकर ट्रेन में चढ़ गया। ट्रेन में चढ़कर उसने देखा वहाँ सारे परिचित चेहरे थे, वो चेहरे जिनके नाम वो जानता है। सारे चेहरे मुस्कुरा रहे थे। सबको मुस्कुराता देख वह भी मुस्कुराया और दरवाज़े से बाहर की ओर देखने लगा। उसने देखा कि कुछ देर पहले अंधरे में डूबे उस ग़लत स्टेशन पर लाइटें जगमगा रही हैं। रोशनी का झाग पूरे स्टेशन पर फैला हुआ है जिस बैंच पर वह बैठा था उसके पास धीरे-धीरे समाचार सुनाने वाली वही स्त्री खड़ी है, उसके पास बड़ी लड़की और छोटी लड़की खड़ी हैं। स्त्री के हाथों में एक चेहरा है जो दूर से देखने पर भी जाना-पहचाना लग रहा है। स्त्री के चेहरे पर कुछ उदासी के भाव नज़र आ रहे हैं। उसने देखा कि स्त्री से कुछ दूरी पर खंबे की ओट में रामलाल भी खड़ा है जो ललचाई नज़रों से उस चेहरे को देख रहा है जो स्त्री ने अपने हाथों में पकड़ा हुआ है। उसने ट्रेन से कूदने का प्रयास किया मगर ट्रेन रफ़्तार पकड़ चुकी थी, एक जाने पहचाने चेहरे ने उसे तुरंत रोक दिया। ग़लत स्टेशन धीरे-धीरे पीछे जा रहा था, वहाँ के चेहरे धीरे-धीरे धुंधले होते हुए अदृष्य होते जा रहे थे।

-:(समाप्त):-