Rai Sahab ki chouthi beti - 2 in Hindi Moral Stories by Prabodh Kumar Govil books and stories PDF | राय साहब की चौथी बेटी - 2

Featured Books
  • My Wife is Student ? - 25

    वो दोनो जैसे ही अंडर जाते हैं.. वैसे ही हैरान हो जाते है ......

  • एग्जाम ड्यूटी - 3

    दूसरे दिन की परीक्षा: जिम्मेदारी और लापरवाही का द्वंद्वपरीक्...

  • आई कैन सी यू - 52

    अब तक कहानी में हम ने देखा के लूसी को बड़ी मुश्किल से बचाया...

  • All We Imagine As Light - Film Review

                           फिल्म रिव्यु  All We Imagine As Light...

  • दर्द दिलों के - 12

    तो हमने अभी तक देखा धनंजय और शेर सिंह अपने रुतबे को बचाने के...

Categories
Share

राय साहब की चौथी बेटी - 2

राय साहब की चौथी बेटी

प्रबोध कुमार गोविल

2

इंसान ज़िन्दगी में जो कुछ भी करता है वो लोगों के लिए!

लोग क्या कहेंगे, लोग क्या सोचेंगे...

और ये नामुराद "लोग" ही कभी - कभी नज़र लगा देते हैं। कुछ का कुछ हो जाता है।

अगर किसी के साथ कुछ अच्छा हो रहा हो तो इन "लोगों" की ही आंखें फ़ैल जाती हैं। इंसान इनकी कुढ़न - ईर्ष्या से बिगड़े काम को अपना नसीब मान कर चुपचाप बैठ जाता है। आख़िर करे भी तो क्या?

लेकिन इसमें लोगों का क्या दोष? अगर अच्छा हमारे नसीब से हो रहा है तो बुरा भी हमारे नसीब से ही तो होता होगा। लोग दुआएं भी तो देते हैं। लोग हमदर्दी भी तो जताते हैं।

राय साहब की देहरी पर भी हमदर्दी जताने आने वालों का तांता लग गया।

एक रात हल्के से कार्डियक अरेस्ट के बाद राय साहब ने दुनिया को अलविदा कह दिया।

घर में हाहाकार मच गया। एक हंसते खिलखिलाते परिवार पर मानो दुर्भाग्य का ग्रहण लग गया।

भीड़ जुटी। पर अब राय साहब के इर्द- गिर्द खड़े होकर उन्हें सराहने को नहीं, बल्कि उन्हें इस दुनिया से रुखसत कर के विदा देने आए लोग।

राय साहब की धर्मपत्नी न तो किसी नौकरी के लिए पर्याप्त शिक्षित ही थीं और न घर से निकल कर किसी व्यवसाय को जमा पाने में सक्षम।

अपने भाग्य को स्वीकार कर के उन्होंने इस खानदान की चमक -कीर्ति को अपने तीनों छोटे बच्चों के गिर्द ही समेट लिया और कभी गुलज़ार रहने वाली कोठी राय साहब की छोड़ी जमा पूंजी के सहारे अब "घर" बन कर चलने लगी।

तीन में से दो दामाद भी शहर से काफ़ी दूरी पर थे, इसलिए उनसे जुड़े तार भी अब केवल दुआ- सलाम तक ही सीमित रह गए।

घर में सबसे ज़्यादा पढ़ी -लिखी होने के कारण राय साहब की चौथी बेटी पर अब घर के निर्णयों में अपनी उम्र से भी बड़ा बनकर बोलने की ज़िम्मेदारी आ गई।

अम्मा के साथ कंधे से कंधा मिला कर वो अपने घर की बची हुई प्रतिष्ठा को बनाए रखने के लिए जुट गई। उसने अपनी पढ़ाई भी जारी रखी, किन्तु अब वैसी आन बान न थी, कभी नियमित तो कभी प्राइवेट, वो परीक्षाएं देती रही।

कहते हैं ईश्वर जब किसी के आसरे का कोई बड़ा छप्पर गिराता है तो आसपास छितरे संभावित सहारों में मदद की चाह बांट देता है। वो सहयोग के लिए उठने लगते हैं।

इस परिवार को भी रिश्ते के एक ऐसे ही भाई की छत्रछाया मिल गई जो कम उम्र में ही जज के ओहदे तक पहुंच गया था। और इस गरिमामय पद तक पहुंचने में मिला राय साहब का आशीर्वाद और सहयोग वो अब तक भूला नहीं था।

अम्मा का दायां हाथ वही मुंह बोला बेटा बन गया। अम्मा को एक सलाहकार और बच्चों को एक संरक्षक मिल गया, जो आर्थिक न सही, सामाजिक और पारिवारिक मामलों में तो सहायता देने ही लगा।

तीनों बच्चे अभी छोटे ही तो थे, वक़्त ने चाहे उन्हें अकस्मात बड़े नज़रिए से सोचने की चुनौती दे डाली थी। राय साहब की चौथी बेटी धीरे - धीरे अपने छोटे भाई और बहन की सबसे विश्वस्त और आत्मीय संरक्षक बन गई।

राय साहब की चौथी बेटी को अब हर पल ये अहसास था कि घर की अब कोई नियमित आमदनी नहीं है, जो कुछ है सो पिताजी की छोड़ी हुई जमा पूंजी। हां, शहर के बीचों बीच लंबी - चौड़ी कोठी ज़रूर एक अहम और कीमती मिल्कियत थी, जिसने अम्मा के मनोबल को थाम रखा था।

अम्मा को अभी तीन बच्चों की ज़िन्दगी खड़ी करनी थी। और सांस रहने तक खुद अपने भी दिन काटने थे।

राय साहब के सभी समधियाने सरकारी रसूखों से वाबस्ता थे, इसलिए खुद राय साहब के न रहने के बाद वहां से भी संपर्क के दायरे काफ़ी सिमट गए।

एक बात और थी, जो अब तक तो दबी ढकी रही लेकिन अब घर के आसपास के गलियारों में सुगबुगाहट पैदा कर रही थी।

कुछ पुराने लोग कहते थे कि राय साहब की दो शादियां हुईं। लोगों का कयास था कि ये पहली तीनों बेटियां तो एक मां से थीं और छोटे तीनों बच्चे दूसरी मां, अर्थात अम्मा के अपने थे।

और इस समीकरण से देखा जाए तो राय साहब अपनी तीनों "बिन मां की बच्चियों" का घर तो बसा गए थे, और बाक़ी तीनों बच्चों की ज़िम्मेदारी उनकी अपनी अम्मा पर छोड़ गए थे।

ये भी एक कारण था कि तीनों बड़ी बेटियों के ससुराल अम्मा की गृहस्थी से ज़्यादा अपनापे से नहीं जुड़ सके। जबकि बहनों में आपस में तो ग़ज़ब का अपनापा था।

अम्मा के ऊपर अब ज़िम्मेदारी का जो बोझ आन पड़ा था, उसके चलते उनकी सेहत भी थकी सी रहने लगी थी। वो भी अब इस फिराक में रहने लगी थीं कि कोई ठीक- ठाक सा रिश्ता मिले तो एक एक करके दोनों छोटी बेटियों को भी विदा करें।

इस चौथी बेटी के लिए तो एक बार खुद चल कर एक रिश्ता आया भी। बेटी की सूरत और तालीम के असर से शहर के ही एक परिवार के बेहद स्मार्ट और ख़ूबसूरत लड़के के अभिभावकों ने बात छेड़ी।

पता चला कि लड़का है तो खानदानी, मगर गाने -बजाने और एक्टिंग करने में गहरी दिलचस्पी रखता है। इतना ही नहीं बल्कि सिनेमा में काम पाने की कोशिश करने के लिए बंबई के चक्कर भी काटता रहता है।

- ना बाबा ना, ऐसी बरसात का क्या ठिकाना, जो कभी मूसलाधार बरसे और कभी सूखा और अनावृष्टि दिखा दे। और लड़का बंबई में जाकर रंगीनियों या अंधेरों में खो गया, तो क्या करेगी बेचारी राय साहब की चौथी बेटी? अम्मा ने ऐसे अजूबे रिश्ते को फ़ौरन नकार कर बिसरा दिया। लड़का खूबसूरत हो तो क्या। लड़के की ख़ूबसूरती तो नियमित कमाने- धमाने और परिवार चलाने में है!

कहते हैं कि इंसान का रुआब रुतबा रसूख जैसा होता है वो संतान के नाम भी उसी हिसाब से रखता है। राजेश्वरी का नाम राय साहब ने जब रखा, वो राज के हिमायती और चहेते थे। दुनिया उन्हें अपनी जद में नजर आती थी, शायद इसी लिए दूसरी बेटी भुवनेश्वरी हुई।

तीसरी बेटी का नाम रामेश्वरी रखा गया।

ये चौथी परमेश्वरी थी। लेकिन अम्मा को ये वीतरागी संन्यासिनियों से नाम कभी नहीं भाए।

उन्होंने अपनी मनपसंद गाथा दुष्यंत- शकुंतला को याद करते हुए परमेश्वरी का नाम बदल छोड़ा।

लेकिन जैसे एक दिन दुष्यंत शकुंतला को भुला बैठा था, वैसे ही अनमनी होकर अम्मा भी अपनी इस बिटिया के नसीब से जी उचाट कर बैठी।

हुआ ये कि एक दिन जज साहब की शानदार काली मोटर अचानक कोठी के बाहर आकर ठहरी और उसमें से जज साहब उतर कर भीतर आए।

जज साहब के साथ एक शांत सौम्य संजीदा सा युवक भी था, जो बिना कुछ बोले चुपचाप कुछ सकुचाता सा उनके पीछे- पीछे चला आ रहा था।

किसी ने कोई ख़ास ध्यान न दिया। जज साहब का आना- जाना घर में था ही,और उनके साथ कोर्ट- कचहरी से आते -जाते कोई न कोई होता ही था।

युवक की उम्र लगभग पच्चीस- छब्बीस साल थी और वो चेहरे से काफ़ी गंभीर सा लग रहा था।

बाहर के लॉन में कुर्सियां रख दी गईं।

छोटी लड़की एक टेबल पर रखकर मटर छील रही थी और अम्मा तथा बड़ी बेटी रसोई में थीं।

बेटा बस उन्हें जज साहब के आने की खबर देकर अपने दोस्तों के साथ खेलने निकल गया। बच्चे जज साहब को मामाजी कहते थे।

जज साहब कुर्सी से उठ कर रसोई घर में गए और भीतर झांकते हुए लगभग फुसफुसा कर बोले- तुम दोनों बस एक बार आकर उसे देख लो, फ़िर बाक़ी बात बाद में करेंगे जब मैं इसे वापस घर छोड़ कर आ जाऊंगा।

उन्नीस वर्षीया बड़ी बेटी एकदम से उठकर मामाजी को सवालिया निगाहों से देखने लगी और अम्मा चाय का पानी चढ़ा कर बाहर आने के लिए हाथ पौंछ कर धोती ठीक- ठाक करने लगीं।

न्यायाधीश मामाजी की कार युवक को वापस छोड़कर जब तक न लौटी, अम्मा और दोनों बेटियां उसी युवक की बातें करते रहे। लड़का बहुत संजीदा, समझदार और ज़िम्मेदार था। बोलता था तो किसी के पास उसे सुनने के अलावा और कोई भी विचार न होता। उच्च शिक्षित, गंभीर। अम्मा की तो आंखें डबडबा आईं।

वो राय साहब को याद करते हुए कहने लगीं- आज वो होते तो कितने खुश होते। वो हमेशा से तेरी शादी ऐसे ही पढ़े- लिखे समझदार लड़के से करना चाहते थे।

कहते थे, सरकारी अफ़सर होता है तो अपने घमंड में चूर रहता है, बीवी बेचारी सहमी सी पीछे- पीछे फिरे । बिज़नेस मैन को कमाने से फुरसत नहीं मिलती, बीवी कहां है, क्या कर रही है, ये खबर ही नहीं रहती।

मामाजी ने लौट कर पूरी कहानी सुनाई।

पास के एक गांव का प्रतिष्ठित परिवार था, जो अब यहीं शहर में आकर बस गया था।

लड़के के पिता वैसे तो पटवारी थे मगर आढत का लंबा- चौड़ा व्यापार था। पिता का जितना सरकारी वेतन था उससे दोगुणा तो हर महीने वो खुद अपने घर के नौकरों- चाकरों में बांटते थे।

परिवार भी लंबा- चौड़ा। लड़का पांच भाइयों में दूसरे नंबर का। दो बहनें- एक बड़ी, एक छोटी।

गांव में तो घर- ज़मीन थी ही, यहां शहर में भी हवेली बना ली थी।

लड़के ने यहीं यूनिवर्सिटी में अंग्रेज़ी में एम ए किया है। साथ में वकालत भी पास की है। और वकालत में यूनिवर्सिटी टॉप करके गोल्ड मेडल भी लिया है।

- सच ! अम्मा प्यार से बिटिया की ओर देखती हुई निहाल ही हो गईं।

- और क्या? तभी तो मेरी जानकारी में आया। लॉ डिपार्टमेंट तो हमसे टच में रहता ही है न । मेरे मित्र ने तो उसे पढ़ाया है लॉ में।

लेकिन तभी अम्मा को एकाएक जैसे कुछ याद आया, बोलीं - पर भैया, ऐसा लड़का और घर बार है तो खूब दान- दहेज मांगेंगे?

- नहीं मांगेंगे... कहते - कहते मामाजी का स्वर कुछ मंद पड़ गया।

फ़िर एकाएक जैसे उन्हें कुछ याद आया हो, वो बड़ी बिटिया से बोले- अरे तू यूनिवर्सिटी में किसी कोर्स के लिए पूछ रही थी न ? चल मेरे साथ घर चल। अभी मुझसे मिलने घर पर यूनिवर्सिटी के प्रॉक्टर आ रहे हैं। उनका कुछ काम है, चल वहीं बात करवा दूंगा तेरी।

वैसे भी मामाजी के घर काफ़ी दिन से जाना हुआ नहीं था, अम्मा भी दो - तीन बार कह चुकी थीं। मामी से मिलने की भी इच्छा थी।

बिटिया जल्दी से तैयार होने चली गई।

छोटी बहन बोली- मैं भी चलूं?

मामाजी बोले- तू क्या करेगी बिटिया, बोर हो जाएगी यूनिवर्सिटी की बातों में। फ़िर भैया सिनेमा देखने गया है। शाम को देर से आयेगा। अम्मा अकेली क्या करेंगी।

बिटिया चुपचाप मान गई और अपनी बड़ी बहन को देखने लगी जो कपड़े बदल कर अभी अभी आई थी।

जबसे उसकी शादी की बात चली थी, उसका उत्साह और चपलता देखने लायक थी। वो ललचाई नज़रों से जीजी को जाते देखती रही जिसे वो छोटी बीवी कहती थी।

कार रवाना हो गई।

अम्मा आज सुबह से ही बड़ा हल्का हल्का सा महसूस कर रही थीं। ठीक भी था, बच्चों का जल्दी जल्दी घर बसे, ये कौन मां नहीं चाहती। फ़िर यहां तो मां ही बाप भी थी।

मामाजी जब भी बच्चों से कोई गहरी या महत्वपूर्ण बात करते, अतिरिक्त आत्मीयता से उन्हें "बच्चे" कह कर पुकारते।

- बच्चे, मैं तुझे एक बेहद खास बात करने के लिए साथ में लाया हूं, तू बहुत ध्यान से सुनना और फ़िर जो कुछ तुझे कहना है वो साफ़ साफ़ मुझे बताना...मुझसे न कह सके तो मामी को बता देना।

अब बिटिया का माथा ठनका। वो कुछ चौंकी और सोचने लगी कि ऐसी क्या बात है जो मामाजी मुझे यहां लाकर बताना चाहते हैं, वहां अम्मा और छोटी के सामने नहीं बता पाए।

वो सोच में पड़ गई।

- कैसा लगा लड़का बेटी? मामी ने चाव से पूछा।

बिटिया कुछ कह पाती, उससे पहले ही मामाजी टाई की नॉट ढीली करके सामने कुर्सी पर आ बैठे।

मामीजी भी कुछ चुप सी हो कर बैठ गईं। बिटिया को लगा ज़रूर कोई खास बात है, और ऐसा लगता है कि मामाजी और मामीजी भी इस बात के बारे में पहले बात कर चुके हैं, और अब उसकी राय जानने के लिए उसे यहां लाए हैं।

वो कुछ सतर्क सी होकर बैठ गई और मामाजी की बात सुनने लगी।

- देख बेटा, पूरा कोई भी नहीं होता, कमी हर एक में होती है। समझदार वो होता है, जो सबको समझ कर अपना फ़ैसला ले! अदालत में हम खुद यही करते हैं। कोई पूरा सही नहीं होता, कोई पूरी तरह ग़लत नहीं होता, हम सबकी बात ध्यान से सुन कर हर बात की अच्छाई एक पलड़े पर रखते हैं, और कमी दूसरे पलड़े पर। फ़िर जिस तरफ वज़न ज़्यादा होता है, फ़ैसला उसी के हक में दे देते हैं।

बिटिया इस भूमिका से फ़ौरन समझ गई कि ज़रूर लड़के में कोई न कोई कमी है। लोगों की चालू भाषा में कहें तो कोई न कोई "खोट" है। साथ ही उसे ये भी समझ में आ गया कि लड़का जैसा भी है, मामाजी को पसंद है और वो उस पर समझौता करने का दबाव बनाना चाहते हैं।

- देख, वो लोग दान - दहेज की तो कोई मांग नहीं करेंगे, वैसे भी उनके घर में तीन -चार शादियां हुईं, किसी में उन्होंने मांग- तांग तो नहीं की है।

बिटिया ने झट बात को लपक लिया। आखिर राय साहब की चौथी बेटी थी, बोल पड़ी- जब लड़का पांचों भाइयों में दूसरे नंबर का है तो तीन -चार शादियां किस की कर दीं मामाजी? दूसरा ब्याह है क्या?

***