Manjali Didi - 5 in Hindi Moral Stories by Sarat Chandra Chattopadhyay books and stories PDF | मंझली दीदी - 5

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मंझली दीदी - 5

मंझली दीदी

शरतचंन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकरण - 5

दूसरे दिन सवेरे ही किशन चुपचाप हेमांगिनी के घर पहुंचकर उसके बिस्तर पर पैरों की ओर जाकर बैठ गया। हेमांगिनी ने अपने पैर थोड़े से ऊपर खींच लिए और बड़े प्यार से कहा, ‘किशन, दुकान पर नहीं जाएगा?’

‘अब जाऊंगा।’

‘देर मत कर भैया! इसी समय चला जा। वरना गालियां देने लगेंगी।’

किशन का चहेरा एक बार लाल पड़ा और फिर पीला पड़ा गया, ‘अच्छा जाता हूं,’ कहकर वह उठ खड़ा हुआ। उसने कुछ कहने की कोशिश की लेकिन फिर चुप हो गया। हेमांगिनी ने जैसे उसके मन की बात समझ ली, पूछा - ‘क्या मुझसे कुछ कहना चाहता है भैया?’

किशन ने जमीन की ओर देखते हुए बहुत ही कोमल स्वर से कहा, ‘मंझली दीदी! कल से कुछ भी नहीं खाया।’

‘हैं, कल से कुछ भी नहीं खाया? क्या कहता है किशन?’

कुछ देर तक तो हेमांगिनी चुप रही। फिर तुरन्त ही उसकी आंखों में आंसू भर आए और धीरे-धीरे झर-झर करके बहने लगे। उसने उसका हाथ पकड़कर अपनी ओर खींच लिया, और अपने पास बैठाकर जब एक-एक करके सारी बातें जान ली तो कहा, ‘कल रात को ही यहां क्यों नहीं चला आया?’

किशन चुप बैठा रहा। हेमांगिनी ने आंचल से आंसू पोंछते हुए कहा, ‘भाई! तुझे मेरे सिर की सौगंध। आज से मुझे अपनी मरी हुई मां की जगह ही समझना।’

कुछ समय के बाद ही यह सब बातें कादम्बिनी के कानों तक पहुंच गई। उसने अपने घर से ही मंझली बहु को पुकारकर कहा, ‘क्या मैं अपने भाई को खिला नहीं सकती, जो तुमने उसके गले पड़कर इतनी बातें कही?’

बातों का ढंग देखकर हेमांगिनी के सारे बदन में आग लग गई। लेकिन क्रोध को छिपाकर बोली, ‘अगर मैंने गले पड़कर कुछ कहा भी है तो इसमें दोष क्या हो गया?’

कादम्बिनी ने कहा, ‘अगर मैं तुम्हारे लड़के को बुलाकर उससे इस तरह की बातें कहूं तो तुम्हीं बताओ, तुम्हारी क्या इज्जत रह जाएगी? अगर तुम उसे इस तरह बढ़ावा दोगी तो मैं उसे नियन्त्रण में कैसे रख सकूंगी?’

अब हेमांगिनी बर्दाशत नहीं कर सकी। उसने कहा, ‘बहन, पन्द्रह-सोलकह साल तुम्हारे साथ रहकर गृहस्थी चला चूकी हूं। मैं तुम्हें अच्छी तरह पहचानती हूं। पहले अपने लड़के को भूखा रखकर उस पर शासन करो तब दूसरे के लड़के पर करना। तब गले पड़कर कुछ कहने नहीं आऊंगी।’

कादम्बिनी ने भड़ककर कहा, ‘मेरे पांचू गोपाल के साथ उसकी तुलना? देवता के साथ बन्दर की बराबरी? मंझली बहू, मैं सोचती हूं इसके बाद तुम न जाने और भी क्या-क्या कहती फिरोगी?’

मंझली बहु ने उत्तर दिया, ‘मैं जानती हूं कि कौन देवता हे और कौन बंदर है, लेकिन जीजी, अब मैं कुछ भी नहीं कहूंगी। अगर कहूंगी तो केवल यही कि तुम जैसी निष्ठुर और तुम जेसी बेहया औरत इस संसार में और दूसरी नहीं है।’

यह कहकर उत्तर की अपेक्षा किए बिना हेमांगिनी ने अपनी खिड़की बंद कर ली।

उस दिन शाम को जब घर में मालिकों के लौट आने का समय हुआ कादम्बिनी ने अपने घर के आंगन में खड़े होकर दासी को निशाना बनाकर ऊंची आवाज में गरजना-बरसना शुरू कर दिया, ‘जो रात-दिन काम करते हैं वहीं इसकी व्यवस्था करेंगे। देखती हूं, मां से बढ़कर मौसी को दर्द है। अपने भाई का दुःख-दर्द नहीं समझाती, समझते हैं पराए। कभी भला नहीं होगा अगर कोई भाई-बहन को लड़ाएगा और ख़ड़ा-खड़ा तमारशा देखेगा। धर्म भी इसे बर्दाशत नहीं कर सकेगा। यह मैं कहे देंती हूं।’

यह कहकर कादम्बिनी अपने रसोईघर में चली गई।

देवरानी-जेठानी में इस ढंग की गाली-गलौज और कोसा-काटी अनेक बार ओर अनेक तरीके से हो चुकी थी, लेकिन आज वह अस्वस्थ थी इसलिए बर्दाशत न कर सकी। उठकर खिड़की के पास आ खड़ी हुई और बोली, ‘जीजी, इतना ही कहकर चुप क्यों हो गई? शायद भगवान ने अभी तक तुम्हारी पुकार न सुनी हो। थोड़ी देर और हमारे सर्वनाश की कामना करो। जेठानी घर आएं वह सुन लें। तब तक वह भी आ जाएं और वह भी सुन लें। अगर इतने में हीं तुम थककर चुप हो जाओगी तो काम कैसे चलेगा?’

कादम्बिनी तत्काल झपटकर आंगन में आ गई और सिर ऊपर उठाकर चिल्ला उठी, ‘मैंने क्या किसी सत्यानाशी का नाम लिया है?’

हेमांगिनी ने बड़े संयत स्वर में कहा, ‘भला तुम किसी का नाम क्यों लेने लगी जीजी! नाम लेने का अधिकार तुम्हें है ही नहीं। लेकिन क्या तुम यह समझाती हो कि दुनिया में केवल एक तुम ही सयानी और समझदार हो, और बाकी सब बेवकूफ है? ठोकर मारकर किसका सिर तोड़ रही हो, यह क्या कोई समझाता नहीं?’

अब कादम्बिनी ने अपना वास्तविक स्वरूप धारण कर लिया और खूब मुंह बिचका-बिचाकर हाथ-पैंर नचा-नचा कर कहना शूरू कर दिया, -भले ही कोई समझ ले। जिसका दोष होगा उसी को तो बुरा लगेगा, और फिर क्या तुम ही सारी बातें समझती हो? मैं नहीं समझती। जब किशन आया था तो दो चाटे खाकर नहीं करता था। जो कहती थी चुपचाप वही करता था। लेकिन आज दोपहर को किसी ताकत पर जवाब दे गया? जरा पूछ कर देखो इस प्रसन्न की मां से’, और फिर दासी की ओर उंगली से इशारा कर दिया।

प्रसन्न की मां ने कहा, ‘हां मंझली बहू, यह तो ठीक है। आज दोपहर को जब इस भात के लिए बिना छोड़कर उठ खड़ा हुआ, तब मालकिन ने कहा, जब इस भात के लिए बिना यमराज के घर जाना पड़ेगा, तब इतनी अकड़ किसलिए? इस पर वह कह गया, अपनी मंझली बहन के होते हुए मैं किसी से नहीं डरता।’

कादम्बिनी ने ब़ड़े गर्व से कहा, अब तो मालूम हो गया? बताओ, किससे बल पर उसे इतनी अकड़ है? आज मैं तुमसे साफ-साफ कहे देती हूं, तुम उसे बार-बार मत बुलाया करो। भाई-बहन के बीच में तुम मत पड़ो।’

हेमांगिनी ने फिर कुछ नहीं कहा। एक केंचुए ने भी सांप की तरह कुंडली मार कर काटा है यह सुनकर उसके आश्चर्य की सीमा नहीं रही। वह खिड़की के सामने से हटकर सोचने लगी कि कितने भारी अत्याचारों को सहते रहने के बाद उस मासूम बच्चे के द्वारा यह संभव हुआ होगा?

हेमांगिनी का सिर भारी हो गया और ज्वर मालूम होने लगा। इसीलिए वह असमय ही पलंग पर बेजान-सी पड़ गई। उसके पति कमरे में आए और उसकी ओर ध्यान दिए बिना ही गुस्से में भरकर कहने लगे, ‘आज भाभी के बारे भाई के में क्या झगड़ा कर बैठी हो? किसी के मना करने पर भी सुनोगी नहीं और चाहे जिस अभागे दरिद्र के पीछे कमर बांधकर खड़ी हो जाओगी। मुझसे यह आए दिन का बखेड़ा सहा नहीं जाता है। आज भाभी ने नाहक मुझे दस बातें सूना दी।’

हेमांगिनी ने थकी-थकी आवाज में कहा, ‘तुम्हारी भाभी हक की बात ही कब कहती हैं जो आज ही नाहक दस बातें सूना दी।’

‘नहीं, आज तो उन्होंने जो कुछ कहा है ठीक ही कहा है। मैं तो तुम्हारा स्वभाव जानता हूं। उस बार घर के ग्वाले के बारे में भी ऐसा ही किया था। मोती कुम्हार के भानजे का इतना अच्छा बाग तुम्हारे कारण ही मुट्ठी से निकल गया, उलटे पुलिस को चुप करने के लिए गांठ से सौ रुपए देने पड़े। क्या तुम अपना भला-बुरा भी नहीं समझती? आखिर तुम्हारा स्वभाव कब बदलेगा?’

हेमांगिनी उठकर बैठ गई और अपने पति के चेहरे की ओर देखकर बोली, ‘मेरा स्वभाव तो मरने पर ही बदलेगा, इससे पहले नहीं। मैं भी मां हूं, मेरी गोद में लड़के-बच्चे भी हैं और ऊपर भगवान है। इससे अधिक मैं बड़ो की शिकायत करना नहीं चाहती। मेरी तबीयत खराब है, इस समय मुझसे बकझक मत करो, जाओ।’

यह कहकर वह चादर खींचकर करवट बदल कर लेट गई।

विपिन को और अधिक तर्क-वितर्क करने का साहस नहीं हुआ। लेकिन मन-ही-मन अपनी पत्नी और विशेष रूप से गले पड़ीं बला अभागे किशन से बहुत ही चिढ़ गए।

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