Parinita - 11 in Hindi Moral Stories by Sarat Chandra Chattopadhyay books and stories PDF | परिणीता - 11

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परिणीता - 11

परिणीता

शरतचंद्र चट्टोपाध्याय

(11)

लगभग एक वर्ष बीता। गुरुचरण बाबू के मुंगेर जाने पर भी स्वास्थय को कोर्इ लाभ न पहुंचा और वह इस संसार को छोड़कर चल दिए। गिरीन्द्र उनको बहुत मानता था और उसने उनकी सेवा करने में कसर नहीं रखी।

आखिरी दम निकलने के समय गुरुचरण बाबू ने उसका हाथ पकड़कर आग्रह के साथ कहा था कि कीसी अन्य कि भांति उनके परिवार का बहिष्कार किसी दिन न कर दे, अपनी इस घनिष्टता को आत्मीयता का स्वरूप दे दे।

इसका संकेत था कि वह अपनी बेटी का ब्याह उसके साथ करना चाहते थे।

गुरुचरण बाबू ने गिरीन्द्र से कहा- ‘यदि मैंने यह सुखदायी नाता अपने जीते-जी नहीं देखा तो कोर्इ बात नहीं, परलोक में बैठकर सुखपूर्वक देख सकूंगा। बेटा! यह याद रखना कि मेरी इस इच्छा पर कहीं कुठाराघात न हो जाए।’

गिरीन्द्र ने खुशी से गुरुचरण बाबू की यह अभिलाषा पूर्ण करने की प्रतिज्ञा की थी।

भुवनेश्वरी गरुचरण बाबू के कलकत्ता वाले मकान के किराएदारों से उनका हाल मालूम कर लिया करती थी। गुरुचरण बाबू के परलोक सिधार जाने की खबर भी उन्हीं से मालूम हुर्इ थी।

एक दारूण घटना शेखर के घर में भी घटी। एकाएक नवीन बाबू भी यह परलोक सिधार चले। भुवनेश्वरी के हृदय पर सांप लोट गया। असह्य वेदना के कारण उनमें उन्माद समा गया। वह अपने चित्त की शांति के लिए, घर का काम-काज अपनी बड़ी बहू पर छोड़कर काशी चली गर्इ। जाते समय यह कह गर्इ थीं कि अगले साल शेखर के विवाह के समय सूचित करना? मैं आकर विवाह कर जाऊंगी।

ब्याह का सभी इंतजाम नवीन बाबू स्वयं कर गए थे। अब तक शेखर का ब्याह हो गया होता, परंतु एकाएक नवीन बाबू के देहावसान के कारण एक साल के लिए टल गया। लड़की वाले अब और अघिक दिन रूकना नहीं चाहते थे। इसी कारण कल उन्होंने आकर तिलक कर दिया। इसी महीने में ब्याह हो जाएगा।

शेखर अपनी माँ को लिवा लाने के लिए तैयार हो रहा था। उसने जब अलमारी से सामान निकालकर संदूक में रखना शुरू किया, तो उसे ललिता की याद आर्इ, उसका सब काम ललिता ही किया करती थी।

ललिता को गए हुए लगभग तीन साल गुजर गए। इस बीच में शेखर को उसका हाल-चाल न प्राप्त हो सका। उसने समाचार प्राप्त करने की कोशिश भी नहीं की थी। मालूम होता है, इस ओर उसकी प्रवृत्ति भी नहीं हुर्इ। ललिता से वह धृणा करने लगा था, परंतु आज उसकी मनोवृत्ति में परिवर्तन हुआ और वह ललिता का समाचार पढ़ने की इच्छा करने लगा। वह सुख में होगी उसकी शादी कैसे हुर्इ, भली प्रकार हुर्इ अथवा नहीं, अब उसे कोर्इ दुःख तो नहीं है-यह सब बातें जानने को वह व्याकुल हो उठा।

गुरुचरण बाबू के कलकत्ता वाले मकान के सभी किराएदार घर छोड़कर चले गए हैं। मकान खाली पड़ा है। शेखर के मन में आया कि वह गिरीन्द्र का हाल चारू के पिता से पूछे। थोड़ी देर कपड़े रखना भूलकर उसने संदूक खुला पड़ा रहने दिया और झरोखों से बाहर की ओर झांकता रहा। उसी समय घर की दासी ने आकर पुकारा- ‘छोटे भैया! आपको अन्नाकाली की माँ बुला रही है। ‘

दासी ने गुरुचरण बाबू का मकान बताते हुए कहा- ‘हमारी पड़ोंसिन अन्नाकाली की माँ कल रात को बाहर से आर्इ हैं, वही हैं।’

शेखर- ‘अच्छा जी, मैं अभी आया।’ इतना कहकर वह नीचे आया।

दिन समाप्त होने पर आ गया था। शेखर को मकान के अंदर आते देखकर वह बड़ी हृदय-विदारक चीख से रो पड़ी। शेखर उस अभागिन विधवा-गुरुचरण बाबू की पत्नी के पास जाकर बैठ गया। उसकी करूणा भरी चीख से शेखर के आँखों में भी आँसू भर आए। अपनी धोती के किनारे से उसने आँसू पोंछ डाले। केवल गुरुचरण बाबू की याद करके नहीं, बल्कि अपने पिता की याद में उसके आँसू निकल आए।

दिन समाप्त हो गया। ललिता ने आकर चिराग जलाया। दूर खड़े-खड़े ही उसने शेखर को प्रणाम किया, फिर थोड़ी देर ठहरकर चली गर्इ। शेखर ने ललिता को दूसरे की जीवन-संगिनी समझ लिया था। इसीलिए शेखर ने उस सत्रह वर्षीया परार्इ नववधू की ओर निगाह नहीं की और न खुलकर बात करने की हिम्मत हुर्इ। फिर जो कुछ भी तिरछी निगाहों से उसने देख पाया, उससे यह अनुभव किया कि ललिता दुबली-पतली हो गर्इ है।

उस विधवा ने चीखना समाप्त करने के बाद जो कुछ कहा, वह इस प्रकार है- वह चाहती है कि अपना मकान बेचकर, अपने दामाद के साथ मुंगेर में रहे। घर को शेखर के पिता पहले ही से खरीदने के इच्छुक थे। अतः टीक दाम देकर शेखर मकान को ले ले, तो उसे अति हर्ष होगा। कारण यह कि मकान अपने ही परिचितों के पास रहेगा और उसके लिए उसे मोह तथा क्षोभ न रहेगा। इसके अलावा सबसे बड़ी बात यह थी कि यहाँ आने पर, उसको दो-चार दिन ठहरने के लिए आश्रय तो मिल जाएगा।

यह सुनकर शेखर ने कहा कि इस काम के लिए वह अपनी माँ से कहेगा और इस कार्य को पूरा करने का भरसक प्रयत्न करेगा।

आँसू पोंछते हुए गुरुचरण बाबू की पत्नी ने पूछा- ‘शेखर! क्या दीदी आएंगी?’

शेखर- ‘आज ही मैं उन्हें बुलाने के लिए जाने वाला हू।’

ललिता की मामी ने सभी बातें धीरे-दीरे ज्ञात कर लीं। शेखर का ब्याह कहाँ होगा? क्या-क्या तिलक में मिलेगा? कितना गहना दिया जाएगा? नवीन बाबू का देहांत कब हुआ, दीदी कहाँ हैं। यह सभी बातें धीरे-धीरे उन्होंने मालूम कर ली।

इस बातों के समाप्त होने तक चांदनी छिटक आर्इ थी। गिरीन्द्र इसी समय नीचे उतरकर आया और शायद वह अपनी बहिन के पास गया। शेखर से गुरुचरण बाबू की स्त्री ने पूछा- ‘शेखर, क्या तुम मेरे दामाद को जानते हो? स तरह के सुयोग्य लड़कों का मिलना संसार में कठिन है।’

शेखर ने कहा कि इस बार में उसे जरा भी संदेह नहीं है। गिरीन्द्र से उसकी काफी बांते हो चुकी है और वह उससे परिचित है। इतना कहकर वह उठकर तेजी से बाहर चला गया, लेकिन बैठक के सामने उसे रुकना पड़ा।

ललिता उस घने अंधकार में दरवाजे के पीछे खड़ी थी। उसने पूछा- ‘क्या आज ही माँ को बुलाने जाओगे?’

‘हां।’

‘क्या उन्हें बहुत शोक हो गया है।’

‘उन्हें तो उन्माद सा हो गया है।’

‘तुम कैसे हो?’

‘ठीक हूँ।’ कहता हुआ शेखर तेजी से चला गया।

लज्जा के अनुभव से शेखर कांप उठा। ललिता के समीप खड़े होने के कारण उसने शरीर को अपवित्र समझा।

घर के अंदर आकर, किसी प्रकार इधर-उधर सामान रखकर उसने संदूक बंद किया। अबी गाड़ी जाने में कुछ विलम्ब था। ललिता की याद को आग लगाकर नष्ट कर देने के लिए, उसने अपने रोम-रोम में आग लगा दी। उसकी याद भुलाने के लिए उसने कसम तक खा डाली।

बातचीत के समय गुरुचरण बाबू की पत्नी ने कहा था- ‘सुखपूर्वक शादी न होने के कारण किसी ने ध्यान नहीं दिया। ललिता ने तो तुमको सूचना देने के लिए पहले ही कहा था।’ ललिता की इन्हीं शेखी भरी बातों से उसके शरीर में आग लग गर्इ।

***