Phone ki Ghanti - 2 in Hindi Moral Stories by Saroj Prajapati books and stories PDF | फोन की घंटी - 2

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फोन की घंटी - 2


रात के खाने की तैयारी कर ही रही थी कि फोन की घंटी बज उठी। मैं बिना फोन देखे ही समझ गई कि पापा का होगा । तभी बेटा चिल्लाया " मम्मी नाना जी का फोन है ।" मैंने उसे कहा तुम रिसीव करो जब तक मैं आती हूं । मुझे पता था कि पापा के कॉल का मतलब आधा घंटा कम से कम। मैंने जल्दी जल्दी दाल गैस पर चढ़ाई। इतने में बेटा फोन लेकर मेरे पास आ गया। मैंने फोन लिया ही था कि पापा शुरू हो गए।
" कैसी है ,कहां बिजी रहती है तू, जो मुझसे बात करने का टाइम ही नहीं लगता तुझे" । मेरी हंसी छूट गई "क्या पापा आप भी, रोज तो बात करती हूं !"
मेरी बात बीच मे ही काट पापा बोले "अच्छा बता क्या कर रही थी ?" और जो बातों का सिलसिला शुरू हुआ तो चलता ही गया। मेरी नजर घड़ी पर पड़ी तो मेरा माथा ठनका। अरे ,आज फिर खाने में देर हो गई। मैं मन ही मन बडबड़ाई "पापा फोन रखती हूं कोई आया है ।" कह मैंने फोन काट दिया। पापा भी ना कहां से इतनी बातें ले आते हैं! रोज नित नए किस्से।मानो किस्सों का कोई खजाना हो उनके पास ।
लेकिन पहले तो पापा इतनी बातें नहीं करते थे बल्कि बचपन में जब हम भाई-बहन बातें करते तो कहते' अरे कितना बोलते हो तुम सब ,कहां से लाते हो इतनी बातें।' उस समय पापा कम बातें करते थे। शायद ऑफिस में ज्यादा थक जाते होंगे। अब पापा के पास समय है तो मेरे पास नहीं। घर, परिवार ,नौकरी इन सब में दिन कैसे निकल जाता है, पता ही नहीं चलता लेकिन पापा को कैसे समझाऊं उन्हें खुद भी तो समझना चाहिए ।
अगले दिन ऑफिस पहुंची ही थी कि भाई का फोन आया " दीदी जल्दी आ जाओ। पापा की तबीयत अचानक ज्यादा खराब हो गई है ।" कह उसने फोन काट दिया।
यह सुन मुझे विश्वास ही नहीं हुआ कि कल शाम को तो मेरी उनसे बात हुई है। फिर एकदम से क्या हो गया ! मैंने अपने पति को भी फोन कर दिया। उन्होंने कहा वह सीधे वहीं पहुंचते हैं। जैसे ही मैं ऑटो से उतरी, घर के सामने भीड़ देख मेरे मन में अनेक आशंकाएं उठने लगी। मैं भारी कदमों से किसी तरह अंदर पहुंची तो वहां का मंजर देख मैं कांप उठी । मेरे पापा का मृत शरीर धरती पर लेटा था ,सहसा विश्वास ही ना हुआ। मैं उनकी देह से लिपट कर रोने लगी और कब बेहोश हो गई ,पता ही ना चला। और जब होश आया तो पापा अंतिम यात्रा पर जा चुके थे। भैया मेरे पति को बता रहे थे कि रात को दीदी से बात करने के बाद पापा जो सोए तो सोते ही रह गए।
सुबह मैं चाय देने गया तो पापा में कोई हलचल नहीं थी। मैंने तुरंत डॉक्टर को बुलाया, डॉक्टर ने बताया कि देर रात ही इनकी मृत्यु हो चुकी है।
रह-रहकर मेरा मन मुझे धिक्कार रहा था कि मैं कैसे इतनी स्वार्थी हो गई थी कि अपने पापा के लिए ही समय नहीं निकाल पा रही थी। कभी यह ना सोचा कि मां के बाद पापा कितना अकेला महसूस करते होंगे और मैं अपने पूरे दिन का एक आध घंटा उन्हें ना दे सकी।
अब भी रोज फोन बजेगा, लेकिन वो पापा का ना होगा और चाह कर भी मैं अब कभी उनसे बात नहीं कर पाऊंगी
दोस्तों, मेरी इस कहानी का उद्देश्य अपने बुजुर्गो के प्रति हमारी जिम्मेदारी को समझना है। उम्र के इस पड़ाव में उन्हें हमारी सबसे ज्यादा जरूरत है। वह हमारा धन नहीं समय चाहते हैं । माना आज समय बहुत कीमती हो गया है लेकिन माता-पिता से ज्यादा नहीं। उनसे मिलिए उनकी सुने, अपनी कहे वरना बाद में उनकी आवाज सुनने को तरस जायेंगे।