"गांव की पंडिताइन"
आर0 के0 लाल
विजयदशमी के अवसर पर पंडिताइन ने अपने घर में भंडारा किया। कई गांवों के लोगों को निमंत्रण दिया था। बड़ी संख्या में लोग आए थे। पंडिताइन बड़े रोब के साथ सबका स्वागत सत्कार कर रही थी। उनके पति पंडित सदाफल भी लाल साफा बांधे यजमानों को आशीर्वाद दे रहें थे। एकाध लोग अपना भविष्य जानना चाहते थे इसलिए वे उन्हें अगले हफ्ते का अपॉइंटमेंट भी दे रहे थे।
उनके पट्टीदार द्वारका कह रहे थे कि देखो किस्मत भी क्या चीज होती है। अभी कुछ दिनों पहले तक पंडित सदाफल मांग कर काम चलाते थे। दोनों पति पत्नी एक छोटी सी कुटिया में रहते थे I खेत भी ज्यादा नहीं था। मात्र डेढ़ बीघा खेत रहा होगा। वह भी तराई में था इसलिए हमेशा पानी में डूब जाता था और उसमें कुछ ज्यादा उपज नहीं हो पाती थी। केवल एक जून ही चूल्हा जल पता था। फिर प्रभु की कृपा हो गई और मात्र दो सालों में देखते देखते उनका खेत अनाज उगलने लगा। कुटिया पक्के मकान में बदल गई और अब कितने ठाठ-बाट से ये लोग जीवन गुजार रहे हैं।
पंडित सदाफल उनकी बात को सुन रहे थे और मुस्कुरा रहे थे। उन्होंने कहा- " भई! मैं तो एक दरिद्र ब्राह्मण था। घर घर घूमता था कि कोई जजमान सत्य नारायण की कथा ही करवा लें मगर इस घोर कलयुग में लोग कथा सुनते ही नहीं। लोगों को ज्योतिष शास्त्र में भी विश्वास नहीं होता। ऐसे में शाम तक मुश्किल से दस बीस रुपए का ही जतन हो पाता था।“
द्वारका ने कहा - "अब तो आप में लोगों की बड़ी आस्था है। गांव में सभी लोग आपको बहुत सम्मान देते हैं। चाहे किसी के यहां शादी हो या जनेऊ, बिना आपके कोई करता ही नहीं । कहा जाता है कि जब किसी इंसान पर भगवान की कृपा हो जाती है तो उसकी जिंदगी पूरी तरह से बदल जाती है। ईश्वर की कृपा होने से असंभव भी संभव हो जाता है। आज उसने आपको सब कुछ दे दिया है।"
तभी पड़ोस के गांव के ठाकुर मथुरा प्रसाद ने आकर दंडवत किया और बोले- " पंडित जी, यह हमारा बड़का बेटवा है। नाम है सूर्य नारायन, मगर करम से एकदम उल्टा है। एकदम नालायक है। सुबह से ही खाना ठूंस कर घर से निकल जाता है, दिन भर दोस्तों के साथ आवारागर्दी करता है। कोई काम नहीं करता। घर में ट्रैक्टर भी है। कभी नहीं होता कि वह उसे ही चलाएं। अपनी मां से पैसे मांगता रहता है और दारू भी पीता है। मै तो समझा कर हार गया। सोचा था किसी अच्छे खानदान की लड़की से शादी करवा दूंगा तो शायद सुधर जाए, पर यह तो शहर जा कर एक परकटी को ब्याहता बना कर ले आया। वह भी इसके कर्मों से हताश रहती है। आप इसके हाथ की रेखाएं देख कर कुछ उपाय कीजिए । इसके ग्रह शांत करा दीजिए।" पंडित सदाफल ने उन्हें परसों आने के लिए के लिए कह कर विदा किया।
पंडिताइन यह सब सुन कर मुस्कुरा दी। सोचा तगड़ा आसामी फंसा है । उसे याद आया कि उसके पति जो आजकल बहुत बड़ा पंडित बने घूम रहै हैं, बड़का ज्ञानी बन रहे हैं वे भी कभी निकम्मे और बदजात थे। दो कौड़ी के महंगे थे।
पंडिताइन सोच रही थी कि बहुत से लोग पूछते हैं कि हम लोग कैसे संपन्न हो गए, यह सब कैसे हुआ? मैं खुल्लमखुल्ला कैसे सच बता सकती हूं कि मैं दिन भर खट्ती रहती थी और हमारे पंडित गुलछर्रे उड़ाते थे। रोजाना तैयार होकर अच्छी सी पगड़ी लगा कर घर से निकल जाते थे और फिर शाम को वापस लौटते थे। शाम को जब मैं उनसे पूछती पंडित जी कुछ कमाकर आए हो या नहीं, कितना पैसा लाए हो तो कहते दिन भर काम की तलाश करता रहा मगर कोई काम ही नहीं मिला। पंडित जी हमेशा ऐसा ही करते । मै लाचारी में छोटी सी परचून की दुकान चलाती, दूसरों के घर और खेत में भी काम करती। किसी प्रकार घर का खर्च चलाती। पंडित तो पान-पत्ता के लिए रोज दस पंद्रह रुपए मेरी कमाई के भी मांग लेते।
मैं उनसे कहती कि अगर तुम्हें कोई काम नहीं मिल रहा है अथवा तुम्हारी पंडिताई नहीं चल रही है तो मेरे साथ कम से कम खेत में काम कर सकते हो। अगर हम दोनों लोग मेहनत करके काम करेंगे तो अच्छी उपज होगी और हम लोगों का खर्चा आसानी से निकल जाएगा। मगर वे कहां सुनने वाले थे । इन्हें तो अपने दोस्तों के साथ घूमना था, चौराहे पर चाय की दुकान पर बैठकर गप लड़ाना था या पॉलिटिक्स की बातों में समय नष्ट करना था। मेहनत की बात सुनकर तो इनका पजामा गीला हो जाता।
मुझे याद है जब मैं 16 साल की थी, मेरी जिंदगी में पंडित जी आए और उनसे मेरी शादी हो गई। मैंने अपने दिल का उन्हें मालिक बना लिया। सोचा था उनकी खूब सेवा करूंगी। पूरा घर सजा संवार कर रखूंगी। किसी को कोई तकलीफ नहीं होने पाएगी। इसलिए मैंने शादी के बाद पहले दिन से ही कमर कस ली थी और सभी काम अकेले करने लगी थी। किसी को कोई काम नहीं करने देती थी। घर से लेकर के खेत तक का काम मैं करती थी। धीरे धीरे परिवार बड़ा होता गया अब सभी काम करना मेरे बस का नहीं था। हमारे घर का बटवारा भी हो गया। सबका चूल्हा अलग हो गया, खेत बंट गए। अब और पैसों की जरूरत थी पर ये इतना काहिल हो गए थे कि हाथ पैर ही नहीं हिलाते थे। पैसा की तंगी होने लगी। मैंने सोचा था कि बंटवारे के बाद जो मेरी छोटी मोटी उम्मीदें हैं उसको यह पंडित जी अपनी कमाई से पूरी करेंगे मगर उनके पास मेरी भावनाओं की कद्र करने की कहां फुर्सत थी। इतना ही नहीं उनका मिजाज भी बदल गया। जब कभी अच्छा खाना न मिलता तो ये बहुत गुस्सा करते और गाली-गलौज पर भी उतर आते। हमारी मदद करने वाला कोई नहीं था।
मैंने सोचा कि एक छोटी सी परचून की दुकान खोल लिया जाए तो पंडित जी उस दुकान में बैठ कर सामान बेंचेगे और दो पैसे कमाएंगे। मैंने साहूकार से उधार कुछ सामान खरीद कर अपने ओसारे में दुकान लगा दिया। पंडित जी एक-दो दिन तो वहां बैठे मगर उनका मन वहां नहीं लगता था और वह तीसरे दिन से फिर किसी न किसी बहाने से गायब रहने लगे। खर्चा पूरा करने के लिए मैं ही समय निकाल कर दुकान पर कुछ देर के लिए बैठती।
अब मेरा बच्चा भी बड़ा हो रहा था उसकी भी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए अतिरिक्त धन की जरूरत थी इसलिए मैंने गांव में ही लाला जी के घर जाकर खाना बनाने का काम करने लगी।
हमारी उधारी बढ़ रही थी और इनका निकम्मापन भी। उस दिन तो घर में बड़ी मारपीट हुई जब मैंने खाना ही नहीं बनाया क्योंकि घर में कुछ था ही नहीं और कोई उधार देने वाला भी नहीं था। पंडित जी शाम को खाना मांगने लगे। मैंने कहा घर में एक दाना भी नहीं था इसलिए खाना नहीं बना तो गाली-गलौज करने लगे। मुझे मारा भी। मैं रात भर रोती रही और सोचा कि अब कुछ न कुछ करना चाहिए। पहले सोचा कि इन्हें छोड़ कर अपने मायके चली जाऊं मगर बच्चों का ख्याल आया कि उनका क्या होगा? इसलिए मैंने इरादा बदल दिया।
मेरे दिमाग में गोस्वामी तुलसीदास की चौपाई का अंश कौंध गया कि भय बिन होय न प्रीत। मतलब उन्हें प्यार से बहुत समझा दिया कोई फर्क नहीं पड़ा। उन्हें किसी का डर नहीं है। इसलिए मैंने गांव के बड़े बुजुर्गों से भी शिकायत की और अपनी समस्या रखी। ज्यादातर लोगों ने इसे मजाक में लिया और कुछ खास नहीं किया। हां एक दो लोगों ने जरूर इन्हें लताड़ा। मगर उनके उपदेश का भी उनके ऊपर नहीं फर्क पड़ा। खाना पीना बंद करना भी समस्या का निदान नहीं लग रहा था। आए दिन हमारे बीच लड़ाई हो जाती थी। नतीजा यह होता था कि हमारे काम पर उसका प्रभाव पड़ने लगा और मेरी कमाई घटने लगी।
फिर मैंने सोचा कि पंडित जी का इलाज मुझे ही करना है। अगर ये मेरे पर हाथ उठा सकते हैं तो मैं क्यों नहीं? एक दिन सुबह जब पंडित जी घर से निकल रहे थे तो मैंने कहा कि आज जल्दी आइएगा। आपके लिए बहुत अच्छे अच्छे खाना तैयार करके रखूंगी। जब शाम को वे आए तो बहुत प्रसन्न दिख रहे थे। मैं भी खूब सज संवार कर तैयार थी। कहा कि आओ पहले हम लोग कुछ बात करते हैं, कुछ रोमांस करते हैं, फिर साथ बैठकर खाना खाएंगे। तुम्हारा खाना तैयार है। वे बड़ी खुशी से बोले आज तुम्हें क्यों इतना प्यार आ रहा है। मैंने दरवाजे की सिटकनी लगा दी और पलंग पर बैठने को कहा। उन्हें आश्चर्य हुआ कि आज क्या हो रहा है अभी तो शाम ही है लेकिन वे बहुत खुश थे और अपना जूता उतार कर पलंग पर बैठ गए।
यह मेरे इम्तिहान की घड़ी थी। मैंने पास में रखें डंडे को उठाया और उनके ऊपर टूट पड़ी। मैं उनसे काफी तगड़ी हूं वे कुछ नहीं कर सकते थे। उनको समझ में नहीं आया यह क्या हो रहा है। मैंने कहा आज से तुम्हारा खाना पीना बंद। तुम्हें खेत में काम करना होगा तभी खाना मिलेगा और अगर नहीं काम करोगे तो इसी तरह से मैं तुम्हें पीटती रहूंगी। पंडित जी की बोलती पूरी तरह से बंद थी। उन्होंने कुछ बोलना चाहा मगर मैंने फिर दो डंडे उनके पीछे जड़ दिए।अब वह बेहाल पड़े थे और कह रहे थे मुझे छोड़ दो तुम जो कहोगी वही करूंगा। फिर मैंने उनसे हामी भराई कि वे आवारागर्दी छोड़ कर घर का काम करेंगे। उन्हें हिदायत दिया कि पंडिताई भी घर से करोगे मगर पहले खेत का काम करोगे। वे उस दिन की घटना के बारे में किसी से कुछ कह नहीं सकते थे। कहते तो बड़ी बदनामी होती कि पत्नी से पिट गए। इसलिए वह चुप रहे। बाहर खाना लगा हुआ था वे जाकर चुपचाप खाना खाने लगे।
दूसरे दिन तो चमत्कार ही हो गया। वे स्वयं खेत पर गए और दोपहर तक काम किया। मैं भी उनके साथ खेत पर काम करती रही। मिलकर धान की रोपाई पूरा किया। पूरे महीने उन्होंने काम किया । नतीजा यह हुआ कि हमारे खेत में बहुत अच्छी फसल हुई और हमारे दिन बहुर गए। अब तो वे एकदम बदल गए थे। वे दुकान पर भी बैठते। पिछले साल हमने दो लोगों के खेत अधिया पर लिया था। उसी की कमाई से यह कमरा बनवाया। धीरे-धीरे हमारी कमाई बढ़ने लगी आज जो कुछ है उसी का नतीजा है।
यह सब बातें पंडिताइन किसी को बता नहीं सकती थी इसलिए वे केवल मुस्कुराती रही और सोचती रहीं कि बिगड़े पति को रास्ते पर लाने का उत्तरदायित्व पत्नी पर भी होता है कि उनका सही इलाज हो।
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