Mantar in Hindi Short Stories by Saadat Hasan Manto books and stories PDF | मन्तर

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मन्तर

मन्तर

नन्हा राम। नन्हा तो था, लेकिन शरारतों के लिहाज़ से बहुत बड़ा था। चेहरे से बेहद भोला भाला मालूम होता था। कोई ख़त या नक़्श ऐसा नहीं था जो शोख़ी का पता दे। उस के जिस्म का हर उज़ू भद्दे पन की हद तक मोटा था। जब चलता था तो ऐसा मालूम होता था कि फुटबाल लुढ़क रहा। उम्र ब-मुश्किल आठ बरस की होगी। मगर बला का ज़हीन और चालाक था। लेकिन उस की ज़ेहानत और चालाकी का पता उस के सरापा से लगाना बहुत मुश्किल था। मिस्टर शंकर-अचार्या एम ए, एल एल बी..... राम के पिता कहा करते थे कि “मुँह में राम राम और बग़ल में छुरी” वाली मिसाल इस राम ही के लिए बनाई गई है।

राम के मुँह से राम राम तो किसी ने सुना नहीं था। मगर उस की बग़ल में छुरी की बजाय एक छोटी सी छड़ी ज़रूर हुआ करती थी। जिस से वो कभी कभी डगलस फेयर बैंक्स यानी बग़्दादी चोर की तेग़ ज़नी की नक़ल किया करता था।

जब राम की माँ यानी मिसिज़ शंकर-अचार्या उस के कान से पकड़ कर उस के बाप के सामने लाईं तो वो बिलकुल ख़ामोश था। आँखें ख़ुश्क थीं। उस का एक कान जो उस की माँ के हाथ में था। दूसरे कान से बड़ा मालूम हो रहा था। वो मुस्कुरा रहा था। मगर उस के चेहरे से पता चलता था कि वो अपनी माँ से खेल रहा है और अपने कान को माँ के हाथ में दे कर एक ख़ास क़िस्म का लुत्फ़ उठा रहा है जिस को दूसरों पर ज़ाहिर करना नहीं चाहता। जब राम मिस्टर शंकर आचार्या के सामने लाया गया तो वो आराम से कुर्सी पर जम कर बैठ गए कि इस नालायक़ के कान खींचें हालाँकि वो उस के कान खींच खींच कर काफ़ी से ज़्यादा लंबे कर चुके थे और उस की शरारतों में कोई फ़र्क़ न आने पाया था। वो अदालत में क़ानून के ज़ोर पर बहुत कुछ कर लेते थे। मगर यहां इस छोटे से लौंडे के सामने उन की कोई पेश न चलती थी।

एक मर्तबा मिस्टर राम शंकर-अचार्या ने किसी शरारत पर उस को परमेश्वर के नाम से डराने की कोशिश की थी। उन्हों ने कहा था। “देख राम, तू अच्छा लड़का बन जा, वर्ना मुझे डर है परमेश्वर तुझ से ख़फ़ा हो जाऐंगे।”

राम ने जवाब दिया था। “आप भी तो ख़फ़ा हो जाया करते हैं और मैं आप को मना लिया करता हूँ।” और फिर थोड़ी देर सोचने के बाद उस ने ये पूछा था “बाबू जी ये परमेश्वर कौन हैं”

मिस्टर शंकर-अचार्या ने उसे समझाने के लिए जवाब दिया था। “भगवान और कौन......... हम सब से बड़े।”

“इस मकान जितने।”

“इस से भी बड़े......... देखो अब तू कोई शरारत न कीजीव, वर्ना वो तुझे मार डालेंगे!”

मिस्टर शंकर-अचार्या ने अपने बेटे पर हैबत तारी करने के लिए परमेश्वर को इस से ज़्यादा डरावनी शक्ल में पेश करने के बाद ये ख़्याल कर लिया था कि अब राम सुधर जाएगा और कभी शरारत न करेगा। मगर राम जो उस वक़्त ख़ामोश बैठा था, अपने ज़ेहन के तराज़ू में परमेश्वर को तोल रहा था। कुछ देर ग़ौर करने के बाद जब उस ने बड़े भोलेपन से कहा था। “बाबू जी......... आप मुझे परमेश्वर दिखा दीजीए।” तो मिस्टर रामा शंकर-अचार्या की सारी क़ानून-दानी और वकालत धरी की धरी रह गई थी।

किसी मुक़द्दमे का हवाला देना होता तो वो उस फाईल को निकाल कर दिखा देते या अगर कोई ताज़ीरात-ए-हिंद की किसी दफ़ा के मुतअल्लिक़ सवाल करता तो वो अपनी मेज़ पर से वो मोटी किताब उठा कर खोलना शुरू कर देते जिस की जिल्द पर उन के उस लड़के ने चाओ से बेल बूटे बना रखे थे मगर परमेश्वर को पकड़ कर कहाँ से लाते जिस के मुतअल्लिक़ उन्हें ख़ुद अच्छी तरह मालूम नहीं था कि वो क्या है, कहाँ रहता है और क्या करता है।

जिस तरह उन को ये मालूम था कि दफ़ा379 चोरी के फ़ेल पर आइद होती है। इसी तरह उन को ये भी मालूम था कि मारने और पैदा करने वाले को परमेश्वर कहते हैं और जिस तरह उन को ये मालूम नहीं था कि वो जिस के क़ानून बने हुए हैं। उस की असलियत किया है ठीक इसी तरह उन को परमेश्वर की असलियत मालूम न थी। वो एम.ए, एल. एल. बी थे। मगर ये डिग्री उन्हों ने नई उलझनों में फंसने के लिए नहीं बल्कि दौलत कमाने के लिए हासिल की थी।

वो राम को परमेश्वर न दिखा सके और न उस को कोई माक़ूल जवाब ही दे सके। इस लिए कि ये सवाल उन से इस तरह अचानक तौर पर किया गया था कि इन का दिल परेशान हो गया था।

वो सिर्फ़ इस क़दर कह सके थे। “जा राम, जा, मेरा दिमाग़ न चाट, मुझे बहुत काम करना है।”

उस वक़्त उन्हें काम वाक़ई बहुत करना था मगर वो पुरानी शिकस्तों को भूल कर फ़ौरन ही इस नए मुक़द्दमे का फ़ैसला कर देना चाहते थे।

उन्हों ने राम की तरफ़ ख़इम-आलूद निगाहों से देख कर अपनी धर्म पत्नी से कहा। “आज इस ने कौन सी नई शरारत की है..... मुझे जल्दी बताओ, मैं आज इसे डबल सज़ा दूंगा।”

मिसिज़ अचार्या ने राम का कान छोड़ दिया और कहा कि “इस मूए ने तो ज़िंदगी वबाल कर रखी है जब देखो नाचना, थिरकना, कूदना..... न आए की शर्म न गए का लिहाज..... सुबह से मुझे सता रहा है। कई बार पीट चुकी हूँ मगर यह अपनी शरारतों से बाज़ ही नहीं आता। नेअमत ख़ाने में से दो कच्चे टमाटर निकाल कर खा गया है। अब में सलाद में इस का सर डालूं।”

ये सुन कर मिस्टर शंकर-अचार्या को एक धक्का सा लगा। वो ख़्याल कर रहे थे कि राम के ख़िलाफ़ कोई संगीन इल्ज़ाम होगा। मगर ये सुन कर कि उस ने नेअमत-ख़ाने से सिर्फ़ दो कच्चे टमाटर निकाल कर खाए हैं उन्हें सख़्त ना-उम्मीदी हुई। राम को झिड़कने और कोसने के लिए उन की सब तैय्यारी इका ईकी सर्द पड़ गई। उन को ऐसा महसूस हुआ कि इन का सीना एक दम ख़ाली हो गया। जैसे एक दफ़ा उन के मोटर के पहीए की सारी हवा निकल गई थी। कच्चे टमाटर खाना कोई जुर्म नहीं, इस के इलावा अभी कल ही मिस्टर शंकर-अचार्या के एक दोस्त ने जो जर्मनी से तिब्ब की सनद ले आए थे उन से कहा था कि अपने बच्चों को खाने के साथ कच्चे टमाटर ज़रूर दिया कीजिए। क्योंकि इन में कसरत से विटामिन्ज़ हैं मगर अब चूँकि वो राम को डांट डपट करने के लिए तैय्यार हो गए थे और उन की बीवी की भी यही ख़्वाहिश थी। इस लिए उन्हों ने थोड़ा ग़ौर करने के बाद एक क़ानूनी नुक्ता सोचा और इस इन्किशाफ़ पर दिल ही दिल में ख़ुश हो कर अपने बेटे से कहा। “मेरे नज़दीक आओ और जो कुछ मैं तुझ से पूछूं सच्च सच्च बता।”

मिसिज़ रामा शंकर-अचार्या चली गईं और राम ख़ामोशी से अपने बाप के पास खड़ा हो गया। मिस्टर रामा शंकर-अचार्या ने पूछा। “तू ने नेमत-ख़ाने से दो कच्चे टमाटर निकाल कर क्यों खाए।”

राम ने जवाब दिया। “दो कहाँ थे। माता जी झूट बोलती हैं।”

“तू ही बता कितने थे?”

“डेढ़..... एक और आधा।” राम ने ये अल्फ़ाज़ उंगलियों से आधे का निशान बना कर अदा किए। “दूसरे आधे से माता जी ने दोपहर को चटनी बनाई थी।”

“चलो डेढ़ ही सही, पर तू ने ये वहां से उठाए क्यों?”

राम ने जवाब दिया। “खाने के लिए।”

“ठीक है, मगर तू ने चोरी की।” मिस्टर शंकर-अचार्या ने क़ानूनी नुक्ता को पेश किया।

“चोरी!......... बाबू जी मैं ने चोरी नहीं की। टमाटर खाए हैं। मगर ये चोरी कैसे हुई।” ये कहता हुआ राम फ़र्श पर बैठ गया। और ग़ौर से उपने बाप की तरफ़ देखने लगा।

“ये चोरी थी......... दूसरे की चीज़ को उस की इजाज़त के बग़ैर उठा लेना चोरी होती है।” मिस्टर शंकर-अचार्या ने यूं अपने बच्चे को समझाया और ख़्याल किया कि वो इन का मफ़हूम अच्छी तरह समझ गया है।

राम ने फ़ौरन कहा। “मगर टमाटर तो हमारे अपने थे......... मेरी माता जी के।”

मिस्टर रामा शंकर-अचार्या सटपटा गए। मगर फ़ौरन अपना मतलब वाज़ेह करने की कोशिश की, “तेरी माता जी के थे, ठीक है, पर वो तेरे तो नहीं हुए, जो चीज़ उन की है वो तेरी कैसे हो सकती है। देख सामने मेज़ पर जो तेरा खिलौना है पड़ा है, उठा ला, मैं तुझे अच्छी तरह समझाता हूँ।”

राम उठा और दौड़ कर लकड़ी का घोड़ा उठा लाया और अपने बाप के हाथ में दे दिया। “ये लीजिए।”

मिस्टर रामा शंकर-अचार्या बोले। “हाँ तो देख, ये घोड़ा तेरा है ना?”

“जी हाँ।”

“अब अगर मैं इसे तेरी इजाज़त के बग़ैर उठा कर अपने पास रख लूं। तो ये चोरी होगी।” फिर मिस्टर रामा शंकर ने मज़ीद वज़ाहत से काम लेते हुए कहा। “और मैं चोर।”

“नहीं पिता जी, आप इसे अपने पास रख सकते हैं। मैं आप को चोर नहीं कहूंगा... मेरे पास खेलने के लिए हाथी जो है..... क्या आप ने अभी तक देखा नहीं है..... कल ही मुंशी दादा ने ला के दिया है..... ठहरिए, मैं अभी आप को दिखाता हूँ।” ये कह वो तालियां बजाता हुआ दूसरे कमरे में चला गया। और मिस्टर रामा शंकर-अचार्या आँखें झपकते रह गए।

दूसरे रोज़ मिस्टर रामा शंकर-अचार्या को एक ख़ास काम से पूना जाना पड़ा, उन की बड़ी बहन वहीं रहती थी। एक अर्से से वो छोटे राम को देखने के लिए बे-क़रार थी चुनांचे एक पंथ दो काज के पेशे नज़र मिस्टर रामा शंकर-अचार्या अपने बेटे को भी साथ ले गए मगर इस शर्त पर कि वो रास्ते में कोई......... शरारत न करेगा। नन्हा राम इस शर्त पर बोरी बंद स्टीफ़न के प्लेटफार्म तक क़ायम रह सका। इधर दकन कुईन चली और उधर राम के नन्हे से सीने में शरारतें मचलना शुरू होगईं।

मिस्टर रामा शंकर-अचार्या सैकेण्ड क्लास कम्पार्टमंट की चौड़ी सीट पर बैठे अपने साथ वाले मुसाफ़िर का अख़्बार पढ़ रहे थे और सीट के आख़िरी हिस्से पर राम खिड़की में से बाहर झांक रहा और हवा का दबाओ देख कर ये सोच रहा था कि अगर वो उसे ले उड़े तो कितना मज़ा आए।

मिस्टर रामा शंकर-अचार्या ने अपनी ऐनक के गोशों से राम की तरफ़ देखा और उस को बाज़ू से पकड़ कर नीचे बिठा दिया। “तू चैन भी लेने देगा या नहीं......... राम आराम से बैठ जा” कहते हुए उन की नज़र राम की नई टोपी पर पड़ी। जो उस के सर पर चमक रही थी। “इसे उतार कर रख नालायक़, हवा से उड़ जाएगी।”

उन्हों ने राम के सर पर से टोपी उतार कर उस की गोद में रख दी।

मगर थोड़ी देर के बाद टोपी, फिर राम के सर पर थी। और वो खिड़की से बाहर सर निकाले दौड़ते हुए दरख़्तों को ग़ौर से देख रहा था। दरख़्तों की भाग दौड़ राम के ज़ेहन में आंखमिचौली के दिलचस्प खेल का नक़्शा खींच रही थी।

हवा के झोंके से अख़बार दोहरा हो गया। और मिस्टर रामा शंकर-अचार्या ने अपने बेटे के सर को फिर खिड़की से बाहर पाया, ग़ुस्से में उन्हों ने इस का बाज़ू खींच कर अपने पास बिठा लिया और कहा कि “अगर तू यहां से एक इंच भी हिला तो तेरी ख़ैर नहीं।” ये कह कर उन्हों ने टोपी उतार कर उस की टांगों में रख दी।

इस काम से फ़ारिग़ हो कर उन्हों ने अख़्बार उठाया और वो अभी उस में वो सतर ही ढूंढ रहे थे जहां से उन्हों ने पढ़ना छोड़ा था कि राम ने खिड़की के पास सरक कर बाहर झांकना शुरू कर दिया। टोपी उस के सर पर थी। ये देख कर मिस्टर शंकर-अचार्या को सख़्त ग़ुस्सा आया। उन का हाथ भूकी चील की तरह टोपी की तरफ़ बढ़ा और चश्म-ए-ज़दन में वो उन की सीट के नीचे थी। ये सब कुछ इस क़दर तेज़ी से हुआ कि राम को समझने का मौक़ा ही न मिला। मुड़ कर उस ने अपने बाप की तरफ़ देखा मगर उन के हाथ ख़ाली नज़र आए। इसी परेशानी में उस ने खिड़की से बाहर झांक कर देखा तो उसे रेल की पटरी पर बहुत पीछे एक ख़ाली काग़ज़ का टुकड़ा उड़ता नज़र आया......... उस ने ख़्याल किया कि ये मेरी टोपी है।

इस ख़्याल के आते ही उस के दिल को एक धक्का सा लगा..... बाप की तरफ़ मलामत भरी नज़रों से देखते हुए उस ने कहा। “बाबू जी......... मेरी टोपी!”

मिस्टर शंकर-अचार्या ख़ामोश रहे।

“हाय मेरी टोपी।” राम की आवाज़ बुलंद हुई।

मिस्टर शंकर-अचार्या “कुछ न बोले।”

राम ने रोनी आवाज़ में कहा: “मेरी टोपी! और अपने बाप का हाथ पकड़ लिया।”

मिस्टर रामा शंकर-अचार्या ने उस का हाथ झटक कर कहा। “गिरा दी होगी तू ने......... अब रोता क्यों है?” इस पर राम की आँखों में दो मोटे मोटे आँसू तैरने लगे।

“पर धक्का तो आप ने ही दिया था।” इस ने इतना कहा और रोने लगा।

मिस्टर रामा शंकर-अचार्या ने ज़रा डांट पिलाई तो राम ने और ज़्यादा रोना शुरू कर दिया। उन्हों ने उसे चुप कराने की बहुत कोशिश की। मगर कामयाब न हुए। राम का रोना सिर्फ़ टोपी ही बंद करा सकती थी। चुनांचे मिस्टर रामा शंकर-अचार्या ने थक हार कर उस से कहा।

टोपी वापस आजाएगी, मगर शर्त ये है कि तू उसे पहनेगा नहीं!”

राम की आँखों में आँसू फ़ौरन ख़ुश्क हो गए। जैसे तप्ती हुई रेत में बारिश के क़तरे जज़्ब हो जाएं। सरक कर आगे बढ़ आया। “उसे वापस ला दीजिए।”

मिस्टर रामा शंकर-अचार्या ने कहा। “ऐसे थोड़ी वापस आ जाएगी......... मंत्र पढ़ना पड़ेगा। कम्पार्टमंट में सब मुसाफ़िर बाप बेटे की गुफ़्तुगू सुन रहे थे।”

“मंत्र.... ” ये कहते हुए राम को फ़ौरन वो क़िस्सा याद आ गया जिस में एक लड़के ने मंत्र के ज़रीये से दूसरों की चीज़ें ग़ायब करना शुरू कर दी थीं। “पढ़िए पिता जी।”

ये कह कर वह ख़ूब गौर से अपने बाप की तरफ़ देखने लगा। गोया मंत्र पढ़ते वक़्त मिस्टर रामा शंकर-अचार्या के गंजे सर पर सींग उग आयेंगे।

मिस्टर रामा शंकर-अचार्या ने इस मंत्र के बोल याद करते हुए जो उन्हों ने बचपन में इंद्रजाल मुकम्मल से ज़बानी याद किया था कहा। “तू फिर शरारत तो न करेगा?”

“नहीं बाबू जी।” राम ने जो मंत्र की गहराईयों में डूब रहा था। अपने बाप से शरारत न करने का वाअदा कर लिया।

मिस्टर रामा शंकर-अचार्या को मंत्र के बोल याद आ गए और उन्हों ने दिल ही दिल में अपने हाफ़िज़े की दाद दे कर अपने लड़के से कहा। “ले अब तू आँखें बंद कर ले।”

राम ने आँखें बंद कर लीं और मिस्टर रामा शंकर-अचार्या ने मंत्र पढ़ना शुरू किया।

“ओन्ग नाकाम मीशरी, मदमदेश ओतमारे भरनीग पर स्वाह” मिस्टर रामा शंकर-अचार्या का एक हाथ सीट के नीचे आ गया और स्वाह के साथ ही राम की टोपी उस की गदगदी रानों पर आ गिरी।

राम ने आँखें खोल दीं। टोपी उस की चपटी नाक के नीचे पड़ी थी। और मिस्टर रामा शंकर-अचार्या की नुकीली नाक का बांसा ऐनक की सुनहरी गिरिफ़्त के नीचे थरथरा रहा था..... अदालत में मुक़द्दमा जीतने के बाद उन पर यही कैफ़ियत तारी हुआ करती थी।

“टोपी आ गई।” राम ने सिर्फ़ इस क़दर कहा, और चुप हो रहा और मिस्टर रामा शंकर-अचार्या राम को ख़ामोश बैठने का हुक्म दे कर अख़्बार पढ़ने में मसरूफ़ हो गए। एक ख़बर काफ़ी दिलचस्प और अख़्बारी ज़बान में बे-हद सनसनी-खेज़ थी। चुनांचे वो मंत्र वग़ैरा सब कुछ भूल कर इस में डूब गए।

दकन कुईन बिजली के परों पर पूरी तेज़ी से उड़ रही थी। उस के आहनी पहियों की यक-आहंग गड़गड़ाहट अख़्बार की सनसनी पैदा करने वाले ख़बर की हर सतर को बड़ी सनसनी-खेज़ बना रही थी। मिस्टर रामा शंकर-अचार्या ये सतर पढ़ रहे थे:

“अदालत पर सन्नाटा छाया हुआ था। सिर्फ़ टाइपराइटर की टिक-टिक सुनाई देती थी। मुल्ज़िम इका ईकी चिल्लाया.........बाबू जी!......... ”

ऐन उस वक़्त राम ने अपने बाप को ज़ोर से आवाज़ दी। “बाबू जी!......... ”

मिस्टर रामा शंकर-अचार्या को यूं मालूम हुआ कि ज़ेर-ए-नज़र सतर के आख़िरी अल्फ़ाज़ काग़ज़ पर उछल पड़े।

राम के थरथराते हुए होंट बता रहे थे कि वो कुछ कहना चाहता है।

मिस्टर रामा शंकर-अचार्या ने ज़रा तेज़ी से कहा: “क्या है?” और ऐनक के एक गोशे में से टोपी को सीट पर पड़ा देख कर इत्मिनान कर लिया।

राम आगे सरक आया और कहने लगा “बाबू जी! वही मंत्र पढ़िए!”

“क्यों! ” ये कहते हुए मिस्टर रामा शंकर-अचार्या ने राम की टोपी की तरफ़ ग़ौर से देखा। जो सीट के कोने में पड़ी थी।

“आप के काग़ज़ जो यहां पड़े थे, मैं ने बाहर फेंक दिए हैं।”

राम ने इस के आगे कुछ और भी कहा। मगर मिस्टर रामा शंकर-अचार्या की आँखों के सामने अंधेरा सा छा गया......... बिजली की स्रात के साथ उठ कर उन्हों ने खिड़की में से बाहर झांक कर देखा। मगर रेल की पटड़ी के साथ तितलियों की तरह फड़फड़ाते हुए काग़ज़ों के पुर्ज़ों के सिवा कुछ नज़र न आया।

“तू ने वो काग़ज़ फेंक दिए हैं जो यहां पड़े थे?” उन्हों ने अपने दाहिने हाथ से सीट की तरफ़ इशारा करते हुए कहा।

राम ने इस्बात में सर हिला दिया। “आप वही मंत्र पढ़िए न!”

मिस्टर रामा शंकर-अचार्या को ऐसा कोई मंत्र याद न था। जो सचमुच की खोई हुई चीज़ों को वापस ला सके। वो सख़्त परेशान थे। वो काग़ज़ात जो उन के बेटे ने फेंक दिए थे ये एक नए मुक़द्दमे की नक़ल थी। जिस में चालीस हज़ार की मालियत के क़ानूनी काग़ज़ात पड़े थे। मिस्टर रामा शंकर-अचार्या एम.ए, एल. एल. बी की बाज़ी उन की अपनी चाल ही से मात हो गई थी। एक लम्हे के अंदर अंदर उन को क़ानूनी काग़ज़ात के बारे में सैंकड़ों ख़्यालात आए। ज़ाहिर है कि मिस्टर रामा शंकर-अचार्या के मुअक्किल का नुक़्सान उन का अपना नुक़्सान था। मगर अब वो क्या कर सकते थे..... सिर्फ़ ये कि अगले स्टेशन पर उतर कर रेल की पटरी के साथ साथ चलना शुरू कर दें और वहीं पंद्रह मील तक इन काग़ज़ों की तलाश में मारे मारे फिरते रहें। मिलें न मिलें उन की क़िस्मत।

एक लम्हे के अंदर अंदर सैकड़ों बातें सोचने के बाद बिल-आख़िर उन्हों ने अपने दिल में फ़ैसला कर लिया कि अगर तलाश पर काग़ज़ात न मिले तो वो मुवक्किल के सामने सिरे से इनकार ही कर देंगे कि उस ने उन को कभी काग़ज़ात दिए थे। अख़लाक़ी और क़ानूनी तौर पर सरासर नाजायज़ था मगर इस के इलावा और हो भी क्या सकता था।

इस तसल्ली बख़्श ख़्याल के बावजूद मिस्टर रामा शंकर-अचार्या के हलक़ में तल्ख़ी सी पैदा हो रही थी। इका इकी उन के दिल में आई कि काग़ज़ों की तरह वो राम को भी उठा कर गाड़ी से बाहर फेंक दें। मगर इस ख़्वाहिश को सीने ही में दबा कर उन्हों ने उस की तरफ़ देखा।

इस के होंटों पर एक अजीब-ओ-गरीब सा तबस्सुम मुंजमिद हो रहा था।

उस ने हौले से कहा। “बाबू जी, मंत्र पढ़िए।”

“चुपचाप बैठा रह वर्ना याद रख गला घोंट दूंगा.... ” मिस्टर शंकर-अचार्या भुन्ना गए।

उस मुसाफ़िर के लबों पर जो ग़ौर से बाप बेटे की गुफ़्तुगू सुन रहा था। एक मानी ख़ेज़ मुस्कुराहट नाच रही थी।

राम आगे सरक आया। “बाबू जी! आप आँखें बंद कर लीजिए। मैं मंत्र पढ़ता हूँ।”

मिस्टर रामा शंकर-अचार्या ने आँखें बंद न कीं। लेकिन राम ने मंत्र पढ़ना शुरू किया।

ओनक मियांग शियांक.........लो मुद्दागा.....फ़िरौ दमा.....स्वाहा।” और स्वाहा के साथ ही मिस्टर रामा शंकर-अचार्या की गोश्त भरी रान पर एक पलंदा आ गिरा।

उन की नाक का पाँसा ऐनक की सुनहरी गिरिफ़्त के नीचे ज़ोर से काँपा।

राम की चपटी नाक के गोल और लाल नथुने भी काँप रहे थे।