The Download Link has been successfully sent to your Mobile Number. Please Download the App.
Continue log in with
By clicking Log In, you agree to Matrubharti "Terms of Use" and "Privacy Policy"
Verification
Download App
Get a link to download app
पैरो मे पड़ी थी बेढियां, उनसे न किसी ने आज़ाद किया। पैरो मे पड़ी थी बेढियां, उनसे न किसी ने आज़ाद किया........ अब तो लगता है कि शायद... आजा़दी का वो पन्ना खुदा ने भी लिख के हमारे हिस्से से मिटा दिया...... चीखी चिल्लाई इतना में, पर किसी ने भीे ना मुझ पर ध्यान दिया। चीखी चिल्लाई इतना में पर किसी ने भी ना मुझ पर ध्यान दिया..... अब तो लगता है कि शायद..... हमारी खामोशी ने ही मन के शोर को अंदर कहीं दफ़्ना दिया ..... पैरो मे पड़ी थी बेढियां उनसे न किसी ने आज़ाद किया.....
अपने दोनो कंधो पर मैं, अपने घरवालों की इज्जत का बोझ उठाती हूं। शायद इसीलिए मैं बेटी कहलाती हूं। अपने पैरों में मैं इनके सम्मान की बेड़ियां पाती हूं। अपने दोनो कंधो पर मैं, अपने घरवालों की इज्जत का बोझ उठाती हूं। शायद इसीलिए मैं बेटी कहलाती हूं। अपनी उमर के साथ साथ मैं उनके लिए और भी कीमती हो जाती हूं अगर हूं मैं सुंदर तो उनके मन में अनजाना डर बैठाती हूं। शायद इसीलिए मैं बेटी कहलाती हूं। अपने दोनो कंधो पर मैं, अपने घरवालों की इज्जत का बोझ उठाती हूं। शायद इसीलिए मैं बेटी कहलाती हूं। ना हो जो रंग रुप मेरा तो भी उनकी चिंता बन जाती हूं। शायद इसीलिए मैं बेटी कहलाती हूं। सारे अरमान पूरे कर उनके विदा हो कर मैं उन्हें छोड़ जाती हूं। शायद इसीलिए मैं बेटी कहलाती हूं। अपने दोनो कंधो पर मैं, अपने घरवालों की इज्जत का बोझ उठाती हूं। शायद इसीलिए मैं बेटी कहलाती हूं। छोड़ जाने के बाद उनको मैं जब अपने ढर को जाती हूं तो खुद को उस घर में अब मैं मेहमान पाती हूं। अपने दोनो कंधो पर मैं, अपने घरवालों की इज्जत का बोझ उठाती हूं। शायद इसीलिए मैं बेटी कहलाती हूं। शायद इसीलिए मैं बेटी कहलाती हूं। शायद इसीलिए मैं बेटी कहलाती हूं
Copyright © 2025, Matrubharti Technologies Pvt. Ltd. All Rights Reserved.
Please enable javascript on your browser