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हवा में मिल जाऊँगा तो दिखूँगा कहाँ, अँधकार में रहूँगा तो दिखूँगा कहाँ! आकाश में मिल जाऊँगा तो कब तक दिखूँगा, पाताल में रहूँगा तो कैसे दिखूँगा! नीति में रहूँगा तो न्याय में दिखूँगा, सत्य पर रहूँगा तो पुण्य में ठहरूँगा। लय में रहूँगा तो गीत में मिलूँगा, शान्ति में रहूँगा तो शुद्धता में आऊँगा। *** महेश रौतेला
एक दिन थकना ही था क्रोध को, एक दिन थमना ही था हँसी को, एक दिन टूटना ही था फूल को, एक दिन धराशायी होना ही था वृक्ष को, एक दिन बुझना ही था ममता को, एक दिन होना ही था प्यार को एकान्त, एक दिन निकल ही जाना था जीवन को। *** महेश रौतेला
एक दिन थकना ही था क्रोध को, एक दिन थकना ही था हँसी को, एक दिन छूटना ही था फूल को, एक दिन धराशायी होना ही था वृक्ष को, एक दिन जाना ही था ममता को, एक दिन पाना ही था प्यार को एकान्त, एक दिन निकल ही जाना था जीवन को। *** महेश रौतेला
देश में भेड़िया घुस आया है हर भेड़िये की अपनी योजना है- देश को काट-छाँट कर अपनी मांद सा बना देना। भेड़िया चाहता है देश मुर्दा रहे और हवा सहमी, सड़ांध भरी। वह चाहता है देश धँसे और वह धूल में लोटपोट खेले। मनुष्य को जागना होगा हाथ में लाठी ले भेड़िये को भगा देश को श्रेष्ठ रखना होगा। *** *** महेश रौतेला
मैं जीने को जागा था मरने का ध्यान नहीं था, ऋतु बसंत जब आयी थी पतझड़ का नाम नहीं था। * महेश रौतेला
तुम चुप रहने का क्या लोगे जानता हूँ तुम वफादार हो,स्वामी भक्त हो, भौंकना तुम्हें आता है पता नहीं तुम क्यों भौंक रहे हो! आगे दुश्मन भी नहीं हरा भर पेड़ है, उस पर फूल खिले हैं सुगंध छायी है, क्या तुम सुगंध पर भौंक रहे हो? *** महेश रौतेला
उठो पहाड़ प्यार की गुनगुन सुनो, बुरांश फूल चुके हैं बसंत आ चुका है, बातचीत के शीर्षक बदल चुके हैं कुछ राहें खुली हैं कुछ रास्ते बन्द हो गये हैं। सुख-दुख की गूँज के बीच मेरी कहानी को विस्तार दे एक फूल और जोड़ दो, उठो प्रिय प्यार की गुनगुन सुनो। *** महेश रौतेला
एक दिन: एक दिन मैं मर जाऊँगा शायद आकाश बन जाऊँगा, कुछ लोग शव को देखेंगे कुछ श्मशान को। एक दिन मर कर शायद हवा बन जाऊँगा, हवा बन सांसों में आया-जाया करूँगा। जो बात नहीं कही उसे कहने लगूँगा, जो बात नहीं सुनी उसे सुनने लगूँगा। क्या पता किसी परी लोक में विश्राम कर विशाल सपने देखने लगूँगा। धरती से बातें कर उसकी सुगंध बन जाऊँगा, जल में बहते- बहते समृद्ध हो समुद्र में आ जाऊँगा, फिर बादलों में आ पहाड़ों पर मुग्ध हो तुम्हें देखने लगूँगा। क्या पता मेरी जड़ यहीं छूट जीवन और मौत के बारे में बताते-बताते, फिर अंकुरित होने लगेगी। **** *** महेश रौतेला
गणतंत्र 2025: तन भी तेरा,मन भी तेरा तेरे उपवन,बाग,बगीचे हैं, हिमगिरि तेरा,जलधर तेरा सागर से महासागर तेरा। भारत से महाभारत तेरा अन्न और आकाश है तेरा, नदियों के नयन भी तेरे गिरिवर पर चढ़ना है तेरा, सागर से मिलना भी तेरा इस विराट का निकट है तेरा, जय-पराजय, समभाव भी तेरा गण-गण का गणतंत्र है तेरा। *** महेश रौतेला
जीना अभी शेष है उगा सूरज छिपा बहुत है, शहर ये धुआं-धुआं आदमी कहाँ-कहाँ ! जो कहा गया सुना नहीं मनुज पूर्ण दिखा नहीं, फूल में सुगन्ध है छिपा सूरज उगा तो है। पाप-पुण्य लिखे गये भीड़ को दिखे नहीं, अँधकार में दीपक जला है बुझा प्रकाश जला तो है। *** महेश रौतेला
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