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महेश रौतेला

महेश रौतेला Matrubharti Verified

@maheshrautela
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संदर्भ-गीता-३

केशव रथ को हाँको तो
वीर भूमि को देखो तो,
दैवीय इस मुस्कान को
मेरे विषाद से जोड़ो तो।

बन्धु-बान्धव उधर खड़े
मेरे चित्त को घेरे हैं,
तीर चलना व्यर्थ लगे
ऐसे विचार मन में हैं।

मन के घोड़े दौड़ रहे हैं
तुम सारथी बनकर बैठे हो,
नव शरीर में इस जीव का
गमन सदा बताते हो।

मरना यहाँ सत्य नहीं
आत्मा शाश्वत चलती है,
तुम कहते हो,समझाते हो
जिज्ञासा फिर-फिर आती है।


*** महेश रौतेला

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केशव मंद हँसी तुम हँस देना
ऐसे ही गीता कह देना,
लघु प्राणी के लिए तुम
विराट रूप में आ जाना।

जब विपत्ति धरा पर आती है
विश्वास सर्वत्र मरता है,
लघुता की लघु सम्पत्ति
वृक्षों सी उखड़ने लगती है।

अर्ध सत्य कहते-कहते
ये जीवन घराट सा घूमा है,
पाँच गाँव की चाह थाम
यह धरा लहू से बँटती है।

केशव व्यथा तुम्हारी भी है
युद्ध टले तुम चाहे हो,
मरने-जीने के संदर्भ छेड़
फिर गीता कहने आये हो।

* महेश

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इस नगर में आँसू हैं
इस शहर में आशायें,
जब गहराई में देखा तो
मेरे ऊपर परिच्छाई।

इस गाँव में आँसू हैं
इस ग्राम में आशायें,
जब गौर से देखा तो
जहाँ-तहाँ प्रेम पिपासायें।

इस राह पर आँसू हैं
इस पथ पर लक्ष्य खड़े,
जब जब चलके देखा तो
चहुँ ओर खुले द्वार पड़े।


* महेश रौतेला

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प्रभु, एक स्वर तुम्हारा था
एक स्वर मेरा था,
तुम कहते थे धनुष उठाओ
मुझे विषाद ने तोड़ा था।


* महेश रौतेला

पहाड़ों ने नदियाँ बुन दी हैं
धीरे-धीरे-धीरे,
पहाड़ों ने नदियाँ बना दी हैं
धीरे-धीरे-धीरे।
मैं ढूंढ रहा हूँ,साफ नदी,
खोज रहा हूँ,स्वच्छ जल,
जिसे पहाड़ बहाता है तेज-तेज और तेज।

* महेश रौतेला

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प्रभु,ऐसे ही गीता कहना
असीम ज्ञान की उत्पत्ति करना,
प्यार जहाँ -जहाँ आता हो
उसकी दुनिया तुम रच देना।

* महेश रौतेला

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प्रभु, इस पार तुम्हारी नगरी है
उस पार अनोखा घर लगता है,
कहाँ-कहाँ तुम दिखते हो
हर विपत्ति को साधे हो।
जल से ऐसी क्या ममता है
आस्था जिसमें पक्की है,
इस पार तुम्हारे मन्दिर हैं
उस पार चेतना रहती है।
इस पार अनेकों सुख-दुख हैं
उस पार अद्भुत व्यापकता है,
मौन कहीं पर गढ़ा हुआ है
कहीं तीव्र स्वर गरजता है।
प्रभु, इस पार हमारी मन की नगरी
उस पार तुम्हारा ठहराव बना,
जन-जन से पूछा तो
क्षण-क्षण तुम्हारा आवास मिला।

*** महेश रौतेला

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प्यार इतना चटक था
दोस्तों को भी पता था।

* महेश

कौसानी में दो महिलाएं घास ले जा रही थीं,सिर पर रखकर। उसमें से एक महिला ने कहा,"पहाड़क जीवन यसै हय पै!" मैंने कहा," बचपन में हमने भी ये सभी काम किये हैं।" फिर वह बोली फिर तुम भ्यार न्है गनाल( फिर तुम बाहर चले गये होगे)! मैंने कहा ,"होय"(हाँ)।--


जन्म पहले से है
मृत्यु भी पहले से है,
बचपन,यौवन,बुढ़ापा उनसे निकल
घरों के आसपास रहते हैं।
झील की मछलियां
किनारे आती हैं,
नाव का नाविक
कुछ कहता रोजगार पर
उसे भी भय है बेरोजगारी का।
कौसानी की महिला
कह डालती है-
पहाड़ का जीवन "यसै हय पै"
उसके सामने हिमालय है
वह रोज का है,
उसके आसपास पहाड़ हैं
वे भी हर रोज के,
घास की गठरी सिर पर रख
वह कहती है-
"पहाड़क जीवन यसै हय पै"
( पहाड़ का जीवन ऐसा ही हुआ)
मैं कहता हूँ-
हाँ, श्रम में ही जीवन है
जन्म से मृत्यु तक,
मृत्यु से जन्म तक।

** महेश रौतेला

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ऐसे ही चोटियां दिखती रहें
साल दर साल,
ऐसे ही देवदार उगते रहें
दिन पर दिन,
ऐसे ही झरने बहते रहें
बरस दर बरस,
ऐसे ही बर्फ गिरती रहे
चोटी दर चोटी,
ऐसे ही आग जलती रहे
ठंडे पड़े मन में बार-बार,
ऐसे ही मिठास मिलती रहे
बहार दर बहार।

* महेश रौतेला

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