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Kishore Sharma Saraswat

Kishore Sharma Saraswat Matrubharti Verified

@kishoresharmasaraswat6429
(61)

उपन्यास : जीवन एक संघर्ष
उपन्यासकार : किशोर शर्मा 'सारस्वत'
कुल भाग : 42, कुल पृष्ठ : 940
आज समीक्षा : भाग 24 की

कथानक : सरकार बदलने के बाद प्रशासनिक अधिकारियों के स्थानांतरण की सूचियां बनने लगीं। सबसे पहले जिला स्तर पर नये उपाचार्य नियुक्त हुए जिन्होंने आते ही समस्याओं सम्बन्धी प्रार्थना पत्रों पर कार्यवाही आरम्भ कर दी। केहर सिंह का प्रार्थना पत्र देखकर उन्होंने जगपाल का केस कविता से हटाकर किसी और को दे दिया जिससे कविता को घोर निराशा हुई।
वह अकेले ही सोच-सोचकर विचलित होती रही हालांकि वह रमन से इस बाबत बात करना चाहती थी।
एक बार दो लोगों के साथ रमन, कविता से मिलने पहुँचा और बताया कि गाँव के लोग आगामी चुनाव में उसके पिताजी को खड़े करना चाहते हैं लेकिन जब तक वे निर्दोष साबित नहीं हो जाते, चुनाव लड़ना अवैध है।
कविता ने बताया कि अब यह मामला किसी और को दे दिया गया है। रमन को यह सुनकर धक्का लगा।
बाद में कविता ने रमन को वापस बुलाकर उलाहना दिया कि वह क्यों मिलने नहीं आए जबकि वह काफी परेशान रही थी।
रमन ने पूछा कि परेशानी का क्या कारण था? कविता ने कहा कि आपके पिताजी पर केस के कारण ही, क्योंकि प्रतिद्वंद्वी उपाचार्य जी से स्वयं उससे केस वापस लेने के लिए मिल कर आए हैं।
काफी देर तक बात होने के बाद रमन को जाने से पहले कविता ने जाँच की प्रगति के बहाने ही सही, आने हेतु कहा।

उपन्यासकार ने इस अंक में देश के प्रति कर्तव्यनिष्ठ, समान विचारधारा किन्तु असमान पद व व्यक्तित्व के दो झिझकते, विवशता की डोर से बँधे, एक दूसरे के प्रति निष्ठावान एवं समर्पण रखने वाले प्रेम की ओर बढ़ते कपल का सधी हुई लेखनी से रोचक व मार्मिक चित्रण किया है।
कुछ बानगी देखिए:
- कविता ने बाहर निकले लोगों में से केवल रमन को अंदर बुलाने के लिए भेजा।
- 'माफ करना, उन लोगों के सामने मैं आपसे पूरी बात नहीं कर सकी। दूसरों के सामने कार्यालय की मर्यादा रखना भी जरूरी है।'
- 'मैं इस बात को समझता हूँ...घर और कार्यालय दो अलग जगह हैं और और इनकी परिस्थतियाँ भी एक दूसरे से भिन्न होती हैं। काफी समय हो गया, मैं भी इधर नहीं आया।'
- 'क्यों आपको किसी ने खूँटे से बाँध रखा था क्या?'
- 'कुछ ऐसा ही समझ लीजिए। खो देता है ईमान रोज का आना जाना। वरना आपसे मिलने की इच्छा तो सदैव बनी ही रहती है।'
- 'और कोई बहाना?'
- 'नहीं, और कोई बहाना नहीं है।'
- 'मैं पीछे परेशान रही और सोचती रही कि अगर आप होते तो अच्छा होता। किसी से मन की बात कह कर बोझ तो हल्का कर लेती।' (पृष्ठ 385)
लेखक एसडीएम कविता का चरित्र-चित्रण कुछ इस प्रकार करते हैं:
'पता नहीं, भगवान ने मेरा दिमाग कैसा बनाया है। मैं बड़ी से बड़ी विकट स्थिति से कभी नहीं घबराती, परन्तु अन्याय की एक छोटी सी बात भी मेरा मन विचलित करने के लिए काफी है। मेरा धैर्य मेरा साथ छोड़ देता है। आप भली भाँति जानते हो, मैं इंसाफ और इंसानियत का दामन थाम कर इस सेवा में आई हूँ।' (पृष्ठ 386)

कहना होगा कि लेखक जीवन के हर पहलू का रोचक और मर्मस्पर्शी चित्रण करने में सफल रहे हैं।

समीक्षक: डाॅ.अखिलेश पालरिया, अजमेर
25.12.202

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उपन्यास : जीवन एक संघर्ष
उपन्यासकार : किशोर शर्मा 'सारस्वत'
कुल भाग : 42, कुल पृष्ठ : 940
आज समीक्षा : भाग 23 की

कथानक : इस अंक के प्रारम्भ में रमन व कविता का आत्मीय वार्तालाप मन को गुदगुदाता है।
उधर, केहर सिंह जमानत पर छूट कर घर आ तो जाता है लेकिन सरकार गिरने से तथा जिंदगी में पहली बार पराजय का मुँह देखकर वह अत्यधिक व्यथित है, उसकी रातों की नींद भी उड़ी हुई है। लेकिन उसकी पत्नी का परामर्श कि एसडीएम की बड़े अधिकारी से शिकायत कर दो, सुनकर जैसे उसे संजीवनी मिल जाती है और वह दूसरे दिन चुपचाप शहर में एक सेवानिवृत्त पटवारी के घर पर जाता है जो शिकायती प्रार्थना पत्र लिखने का ही कार्य करता है। पटवारी उसकी बात सुनकर उसके लिए एक प्रार्थना पत्र उपाचार्य को व दूसरा मुख्यमंत्री के नाम सुपुर्द करता है जिसमें जगपाल का शिकायती केस एसडीएम कविता के बजाय किसी अन्य को सुपुर्द कर दिए जाने की माँग की गई है। प्रार्थना पत्र में वह अपने कुछ गुर्गों से हस्ताक्षर करवाकर उन्हें रजिस्टर्ड डाक से भेज देता है।

उपन्यासकार ने इस अंक की शुरुआत दो एक समान वैचारिक पृष्ठभूमि के सच्चरित्र आत्मीयजनों- कविता व रमन के इन संवादों से की है:
- 'किन ख्यालों में खो गए थे?'
- 'कुछ नहीं, बस यूँ ही समय की चाल देख कर उस सृष्टि नायक का स्मरण हो आया था। देखो न, वह कितना महान है? इंसान क्या सोचता है और होता क्या है। वे लोग, जो आपको नीचा दिखाना चाहते थे, आज स्वयं अपने ही लोगों के कारण धरातल पर पहुँच गए हैं। किसी ने सच ही कहा है कि इंसान चाहे जितना भी बड़ा बन जाए, उसे अपने पाँव जमीन पर ही रखने चाहिए। पता नहीं, समय की चाल कब बदल जाए। ' (पृष्ठ 365)
बाद में दो दुर्जन चरित्र केहर सिंह और उसकी पत्नी की कुटिल चालें आरम्भ हो गईं जो निम्न स्वरूप में उभरीं:
- केहर सिंह सरपंच जमानत पर छूट कर गाँव वापस आ चुका था...उसके भीतर का विष जो पहले उसका सामना करने वाले किसी भी व्यक्ति को चित किए बिना नहीं छोड़ता था, आज उसे ही अचेत किए जा रहा था। जिस बिस्तर पर लेट कर वह दूसरों की नींद हराम करने के सपने लिया करता था, वह स्वयं की नींद हराम कर रहा था। (पृष्ठ 367)
- उसकी पत्नी उसे सान्त्वना देते हुए बोली, 'आप उसकी (एसडीएम) शिकायत बड़े अधिकारियों से क्यों नहीं कर देते कि वह इन लोगों से मिली हुई है। कम से कम इस बला से तो छुटकारा मिलेगा।' (पृष्ठ 368)
लेखक इस बात को प्रमाणित कर देते हैं कि जीवन में संघर्ष चलता ही रहता है, कभी कम नहीं होता। इस दृष्टि से पुस्तक का शीर्षक इस अंक में भी मुखर हो रहा है।

समीक्षक : डाॅ.अखिलेश पालरिया, अजमेर
24.12 2024

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उपन्यास : जीवन एक संघर्ष
उपन्यासकार : किशोर शर्मा 'सारस्वत'
कुल भाग : 42, कुल पृष्ठ : 940
आज समीक्षा : भाग 22 की

कथानक : इस भाग में भोर के सुन्दर चित्रण के साथ ही सरपंच केहर सिंह के घर सुबह-सुबह पुलिस जीप उसके गिरफ्तारी वारंट लेकर पहुँच गई तो शराब पीकर सोए सरपंच का नशा उतर गया।
पत्नी के शब्दिक आक्रमण के बावजूद उसे जीप में बिठाकर ले जाया गया।
यह खबर देखते-देखते पूरे गाँव में फैल गई जिससे उसके विरोधी खुश होकर रमन के घर इकट्ठा हो गए और इसका श्रेय रमन को देने लगे लेकिन रमन ने इसके लिए एसडीएम मैडम को धन्यवाद कहा। सब लोगों की चाहत पर न चाहते हुए भी रमन को मैडम के नाम आभार पत्र लेकर कविता के घर जाना पड़ा।
रमन कविता से अभी मिलना नहीं चाहता था लेकिन कविता ने उसे बाहर आकर जाने से रोक दिया।
दोनों को यह तो ज्ञात ही था कि अब स्थानान्तरण होना तय था। इसी विषय पर बात करते हुए कविता ने कहा कि वह मेहनती और ईमानदार होने के साथ-साथ इज्जतदार भी है अत: वह इज्जत के साथ समझौता नहीं करेगी। इससे तो बेहतर है कि वह यह सर्विस छोड़कर शिक्षा के क्षेत्र में चली जाए।
रमन अनुरोध करता है कि वे ऐसा न करें बल्कि सरकारी तंत्र के मध्य रहकर संघर्ष करें और वह समाज में रह कर सामाजिक बुराइयों से लड़ेगा।
कविता के पूछने पर कि क्या वह हम दोनों के बीच की दूरी में यह सामंजस्य बनाए रखना संभव होगा? रमन भावुक होकर बोला कि वह तो क्षितिज के उस पार तक भी साथ निभाने को तैयार है।
इस दौरान एक फोन आता है तो पता चलता है कि कविता को सुबह इसी जगह कार्यग्रहण करना है क्योंकि सरकार गिर गई है।

उपन्यासकार ने इस अंक के आरम्भ व अंत में अप्रत्याशित मोड़ देकर पाठकों को लंबी मुस्कान बिखेरने का अवसर प्रदान किया है...लगता है, अब दुष्टों की शामत आने वाली है!
कुछ महत्वपूर्ण अंश द्रष्टव्य बन पड़े हैं:
- 'हम कोई चोर, डाकू, लुटेरे नहीं हैं, जो थारे खाखी कपड़े देखकर भाग जाएँगे। चोरों की तरह तो तुम आए हो। हिम्मत है तो दिन के समय आकर दिखाओ, फिर देखती हूँ तुम इसे कैसे लेकर जाते हो?' (पृष्ठ 355)
- 'भाई, यह तो एक दिन होना ही था। आखिर पाप का घड़ा भर कर फूटता ही है। लोगों का पैसा लूट कर खूब ऐश-परस्ती कर ली है। अब थोड़े दिन जेल में सरकारी मेहमान नवाजी का मजा भी लेने दो, ताकि तोंद अपने सही ठिकाने पर आ जाए।' (पृष्ठ 356)
- 'मैं रणभूमि से नहीं भाग रही हूँ और भाग कर जाऊँगी भी कहाँ? यहाँ पर तो पूरा देश ही कुरुक्षेत्र का मैदान बना पड़ा है। कदम-कदम पर दुर्योधन और शकुनि जैसे घमंडी और धूर्त लोग दूसरों का अहित करने के लिए घातक लगाए बैठे हैं। उनसे लड़ने के लिए किसी का सहारा चाहिए। अर्जुन के साथ तो स्वयं भगवान श्रीकृष्ण थे, परन्तु मेरा साथ देने वाला तो यहाँ पर कोई भी नहीं है।' (पृष्ठ 361)
- 'रमन, अगर यह शब्द सच्चे मन की परिभाषा है तो फिर मैडम और कविता के बीच का अंतर मिटा दो। मैं आपके लिए आज भी वही कविता हूँ जो प्रोफेसर अमलेन्दू घोष जी के सम्मुख आपसे मिली थी।आदमी कर्म से चाहे कितना भी बड़ा बन जाए, इंसान के रूप में तो वह एक इंसान ही है। मेरे अंदर भी इंसान का दिल है। शायद आप न जानते हो, परन्तु उसने आपको बहुत पहले से ही पहचान लिया था। रमन, हम दोनों मिल कर वास्तव में बहुत कुछ बदल सकते हैं।' (पृष्ठ 361)
लगता है, कविता और रमन मिलकर कुछ बड़े-बड़े काम करने वाले हैं और अब भ्रष्टाचारियों की खैर नहीं है।
सम्पूर्ण उपन्यास में अब तक जिसकी आधी कड़ियाँ समाप्त हो चुकी हैं, रोचकता व संवादों के माध्यम से पात्रों का चरित्र-चित्रण बहुत अच्छे से अभिव्यक्त हुआ है। निस्संदेह लेखक इसके लिए बधाई के पात्र हैं।

समीक्षक : डाॅ.अखिलेश पालरिया, अजमेर
23.12.202

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उपन्यास : जीवन एक संघर्ष
उपन्यासकार : किशोर शर्मा 'सारस्वत'
कुल भाग : 42, कुल पृष्ठ : 940
आज समीक्षा : भाग 21 की

कथानक : 31 पृष्ठीय इस अंक के आरम्भ में कविता इस बात से परेशान है कि दूसरों का अहित करने में लोग आनंदित क्यों होते हैं? बेटी को परेशान देखकर उसकी माँ को कहना पड़ता है कि आराम की जिंदगी के लिए टीचिंग से बढ़िया जाॅब नहीं! लेकिन अब तो गले में पड़ा ढोल बजाना ही पड़ेगा। इस पर कविता का कहना है कि वह कभी हार मानने वाली नहीं है।
उधर केहर सिंह सरपंच कविता से जख्म खाकर दूसरे दिन मंत्री से मिलकर कहता है कि जगपाल और उसके पिल्ले (रमन) को दुरुस्त करने से पहले इस एसडीएम को सबक सिखाना पड़ेगा।
मंत्री एसडीएम को खूब खरी-खोटी सुनाता है तो कविता गलत काम करने से साफ मना कर देती है। इस पर मंत्री, मुख्यमंत्री से मिलकर एसडीएम को तुरंत बदलने का अनुरोध करता है जिसे वे स्वीकर कर लेते हैं।
सचिवालय से फोन आने पर उपाचार्य भी एसडीएम का साथ छोड़ देते हैं जिससे वह अकेली पड़कर निराशा में डूब जाती है।
तभी रमन वहाँ पहुँच जाता है जिससे बात कर वह कुछ हल्कापन अनुभव करती है।
अब कविता सोचती है कि उसे रोज-रोज नाखुश देखकर मम्मी-पापा भी परेशान ही होंगे, इससे तो अच्छा हो, वे शिमला चले जाएँ। कविता के मम्मी-पापा भी शिमला जाकर घर सँभालना चाहते ही थे।
उनके जाने के बाद घर सूना हो गया था कि रमन मिलने आ जाता है तथा प्रशंसा करता है कि उनके ज्वाइन करने के बाद कार्यालय का कायाकल्प हो गया है।
एक दिन कविता को ट्रेन में मिले नेक सेवानिवृत्त मुख्य सचिव का ध्यान आता है तो वह उन्हें फोन कर उन्हें अपना दुखड़ा सुनाती है कि उसकी सच्चाई और ईमानदारी एक मंत्री को रास नहीं आ रही है। इस पर वे उसको सलाह देते हैं कि अपना मानसिक संतुलन बनाए रखकर ईमानदारी से एक निश्चित दायरे में रह कर अपना काम करती रहो।
इस पर वह काफी हल्का महसूस करती है और चाहती है कि इसके पहले कि वह स्थानांतरित हो, सरपंच की जाँच का काम पूरा कर दे।
दूसरे ही दिन वह राधोपुर जाकर बिना रमन से मिले भ्रष्ट सरपंच की जाँच रिपोर्ट उसी दिन पूर्ण कर उपायुक्त को भेज देती है।
उधर सरपंच इस बाबत मंत्री को अवगत कराता है तो मंत्री मुख्यमंत्री को फोन कर आज ही एसडीएम को कार्यमुक्त करने हेतु प्रार्थना करता है।
उपायुक्त कविता की रिपोर्ट पर उसकी सराहना करते हैं तथा कहते हैं कि वे उस जैसी ईमानदार अधिकारी को खोना नहीं चाहते। लेकिन उन्हें ऊपरी आदेश के कारण कविता को अग्रिम आदेशों तक अवकाश पर भेजना पड़ता है।
केहर सिंह उसके अवकाश पर जाने से अपने साथियों के साथ शराब पीकर जश्न मनाता है।
एसडीएम के अवकाश पर जाने से रमन अवकाश पर जाने का कारण जानने के लिए कविता से घर जाकर मिलता है जहाँ कविता उसके बहुत जोर देने पर उसे खाना खिलाते हुए कारण बताती है।
रमन उसे भूलकर भी सर्विस न छोड़ने की बात पर जोर देता है और कहता है कि वह लोगों का हुजूम मुख्यमंत्री के सामने खड़ा कर देगा। हालांकि कविता उसे ऐसा करने से मना कर देती है।

उपन्यासकार ने इस अंक में उन सभी दाँव-पेचों का जिक्र किया है जब एक अधिकारी अपनी ईमानदारी के लिए, तो मंत्री उसे हटाने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा देते हैं। इस संघर्षपूर्ण लड़ाई का खाका लेखक ने बहुत ही शानदार तरह से खींचा है जिसमें दाँव-पेचों के निम्न अंशों से पाठक हतप्रभ रह जाता है:
- 'राजनीति करनी हो तो उसके गुर भी सीखने चाहिए। राजनीति में ऐसी बेइज्जतियाँ तो हजारों बार होती हैं। अगर हम ऐसी बातों से घबराने लग गए, फिर तो हो गई राजनीति। अच्छा राजनेता वही होता है जो पूरी तरह से शर्मप्रूफ हो। एक कान से सुने और दूसरे से निकाल दे और केवल उसी बात का ध्यान रखे जो उसके अपने हित की हो।' (पृष्ठ 324)
- 'तुम सर्विस में नई-नई आई हो न, इसलिए शायद तुम्हें पता नहीं कि सरकार के हाथ कितने लंबे होते हैं। अगर नौकरी करना हो तो स्थानीय विधायक और मंत्री की बात को मान कर चलना पड़ता है, नहीं तो रास्ते के पत्थर की तरह सारी उम्र ठोकरें खानी पड़ती हैं।' (पृष्ठ 326)
- 'तुमने पूरे मुल्क की ईमानदारी का ठेका ले रखा है क्या? क्यों व्यर्थ के पचड़ों में पड़ती हो। नौकरी करनी है तो अपने आप को इन लोगों के मुताबिक ढालना पड़ेगा, वर्ना त्याग-पत्र देकर अपने घर बैठो।' (पृष्ठ 329)
- 'सर्विस में खामियाँ देखकर एक मेहनती और ईमानदार अधिकारी उसे छोड़ कर भाग जाए तो फिर इस देश का रखवाला कौन होगा? क्या वे लोग, जो पहले ही इस देश को दीमक की तरह चाट रहे हैं? इसलिए प्रत्येक क्षेत्र में अच्छे, ईमानदार और साहसी नौजवानों की आवश्यकता है। तभी बुराई पर अच्छाई की जीत का मार्ग प्रशस्त होगा।' (पृष्ठ 340)
- 'मेरे शेरों! सरपंच गाँव का राजा होता है। किस के साथ क्या सलूक करना है, यह देखना उसका काम होता है। इन शहर की छोरियों को क्या पता, गाँव क्या होता है? आई थी बड़ी गाँव में फैसले करने, खुद अपना ही फैसला करवा गई। हा...हा...हा।' (पृष्ठ 346)
- 'क्योंकि अन्याय के विरुद्ध लड़ना ही संघर्ष है। जो सामना करेगा, वो जीतेगा और जो घबराकर पीठ दिखाएगा, वो हारेगा। मैं आपको हारते हुए नहीं देखना चाहता।' (पृष्ठ 350)
इस भाग के कई अंश उद्धृत करने योग्य हैं। ये अंश लेखक की विषय पर पकड़, प्रशासन तथा राजनीतिक दाँव-पेंच से परिचित होने तथा सुयोग्य लेखनी की क्षमताओं से परिचय करवाते हैं। ऐसे में पाठक जिज्ञासावश अगले भाग की प्रतीक्षा करने को विवश हो जाते हैं।

समीक्षक : डाॅ.अखिलेश पालरिया, अजमेर
22.12.202

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आप उतनी ही देर किसी को अच्छे लगते हो जितनी देर आप उसके काम आते हो।

उपन्यास : जीवन एक संघर्ष
उपन्यासकार : किशोर शर्मा 'सारस्वत'
कुल भाग : 42, कुल पृष्ठ : 940
आज समीक्षा : भाग 20 की

कथानक : राधोपुर ग्राम पंचायत के चुनाव अब छ: माह ही दूर थे। लेकिन इस बार परिस्थितियाँ वर्तमान सरपंच केहर सिंह के पक्ष में नहीं थीं क्योंकि केहर सिंह की धूर्तता लोग पहचान गए थे। साक्षरता बढ़ना भी लोगों को सजग कर रहा था।
केहर सिंह यह सब अनुभव कर अपने गुर्गों के साथ मंत्री की शरण में चला गया। मंत्री ने एसडीएम कविता से बात कर आदेशित किया कि वह एक तो सरपंच केहर सिंह के विरुद्ध विचाराधीन झूठी शिकायत को रफा-दफा कर दे। दूसरे, जगपाल चौधरी की फाइल निकाल कर उस पर तुरंत कार्रवाई करे।
कविता ने दोनों फाइलें निकलवा कर उनका अध्ययन किया व दोनों पार्टियों को उपस्थित होने का नोटिस दे दिया।
कार्रवाई के दिन फिर कविता के पास मंत्री का धमकी भरा फोन आ गया कि क्या कुछ करना है!
कार्यवाही शुरू होने से पहले केहर सिंह ने एसडीएम से मिलना चाहा तो कविता ने बाहर बैठने को कहा।
बैठक के समय सरपंच की आशा के विपरीत एसडीएम ने जानबूझ कर पहले सरपंच के विरुद्ध शिकायत का केस उठाया और इस सम्बन्ध में लोगों का पक्ष जाना तो सरपंच व पटवारी से जवाब देते न बना। इससे कविता को उनकी करतूत का पता चल गया। कहा कि वह गाँव जाकर पूरे मामले की जाँच-पड़ताल करेगी।
उसके बाद जगपाल चौधरी का केस लिया तो रमन ने अपने पिता का पक्ष अच्छी तरह रखा। यहाँ भी सरपंच व उसके आदमियों की वास्तविकता सामने आ गई।
कविता पूर्व में रमन से प्रोफेसर घोष के साथ सेमिनार में मिल चुकी थी और उसे पहचान भी लिया था अत: रमन को बाद में अलग से बुलाकर बात की तो रमन भी कविता को पहचान गया। दोनों के बीच वार्तालाप हुआ और रमन ने बताया कि किस तरह से सरपंच ने उसे झूठा केस बनवा कर सिविल परीक्षा से वंचित कर दिया और उसे पाठशाला खोलनी पड़ी।
उसने कविता से न्याय करने की अपील की तो कविता ने कहा कि वह इसी पावन उद्देश्य से सिविल सेवा में आई है।

उपन्यासकार ने 18 पृष्ठीय इस अंक में न्याय-अन्याय, झूठे-सच्चे लोगों की दास्तानें कहीं यथार्थ तो कहीं व्यंग्य की पिचकारी द्वारा अभिव्यक्त की हैं। साथ ही भ्रष्ट नेताओं द्वारा कर्मठ, ईमानदार अधिकारियों को काम न करने देने व दबाव की राजनीति उजागर की है।
प्रस्तुत हैं कुछ रोचक संवादों के अंश:
(1). 'मैडम, राधोपुर गाँव का सरपंच आपसे मिलना चाहता है।'
'किसलिए?'
'कहता है, उसे मंत्री जी ने भेजा है।'
'उससे कह दो, मैडम किसी जरूरी काम में व्यस्त है, बाद में बात करना।'
यह सुनकर सरपंच का चेहरा उतर गया। उसकी पूरी हेंकड़ी रफूचक्कर हो गई। वह मुँह लटकाए बाहर की ओर निकल गया। (पृष्ठ 312)
(2). 'आप में से केहर सिंह सरपंच कौन है?'
'जनाब, केहर सिंह सरपंच मैं हूँ।'
'सरपंच साहब, ये बाढ़ घोटाला का क्या माजरा है? क्या कुछ गड़बड़ हुई है इसमें?'
'जनाब, माजरा कुछ नहीं है। वैसे भी कुछ सिरफिरे लोगों ने राई का पहाड़ बना दिया है।'
'बिल्कुल सही फरमाया आपने सरपंच साहब, आप जैसे ईमानदार और भले मानुष्य को लोग कुछ अधिक ही परेशान करते हैं।' (पृष्ठ 313)
(3). 'क्या बात है मैडम, आपने मुझे बुलवाया है?'
'हाँ, मैं आपसे कुछ व्यक्तिगत बात करना चाहती हूँ।'
'जी, पूछिये।'
'अगर मैं गलती पर न होऊँ, तो क्या आपका नाम मि. रमन है?'
'जी हाँ मैडम, आप मुझे नाम से कैसे जानती हैं?'
'क्यों आप मुझे नहीं पहचानते हो क्या?'
'आप मिस कविता तो नहीं हैं?'
'यस, आपने बिल्कुल ठीक पहचाना है। आप तो सिविल सर्विसेज के लिए तैयारी कर रहे थे, अब क्या कोई और कैरियर चुन लिया है?'
'अपनी-अपनी किस्मत की बात है। जिस दिन परीक्षाएँ शुरू होनी थीं, उससे एक दिन पहले इसी सरपंच ने मुझे एक झूठे पुलिस केस में फंसवा दिया था। मैं परीक्षा में नहीं बैठ सका। यही घटना मेरी जिंदगी का टर्निंग प्वाइंट बन गई।'
'यह तो बहुत बुरी बात हुई। अब क्या कर रहे हो?'
'समाज सेवा। गाँव में बड़े-बुजुर्गों और अशिक्षितों के लिए एक पाठशाला चला रहा हूँ। इससे उनका भी भला हो रहा है और मेरी रोजी-रोटी भी चल रही है।'
'यह तो बहुत ही अच्छा कार्य है। परन्तु आप जैसे कर्मठ और ईमानदार व्यक्ति को तो समाज सेवा से कहीं ऊपर राष्ट्र सेवा में होना चाहिए था।' (पृष्ठ 320-21)
उक्त संवादों के अंश उपन्यास के कथानक में जान डाल देते हैं। इनमें सहजता, सरलता अपने विशिष्ट स्वरूप में देखने को मिलती है जो यथार्थपरक व अन्यायपूर्ण पूर्ण होने पर भी उनके विरुद्ध जाने का मार्ग प्रशस्त करती है।
लेखक ने कविता व रमन के रूप में जो पात्र चुने हैं, वे महान बनकर आदर्श परिस्थितियों का निर्माण कर रहे हैं, सुखद लग रहा है।

समीक्षक : डाॅ.अखिलेश पालरिया, अजमेर
21.12.202

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उपन्यास : जीवन एक संघर्ष
उपन्यासकार : किशोर शर्मा 'सारस्वत'
कुल भाग : 42, कुल पृष्ठ : 940
आज समीक्षा : भाग 19 की

कथानक : कविता आईएएस में सफलता के बाद अपना प्रशिक्षण पूर्व करने पर उप खंड अधिकारी के पद पर नियुक्त हो गई, उस स्थान पर जिसके अंतर्गत राधोपुर गाँव भी आता था। कविता राज्य सचिवालय में नियुक्ति के बजाय किसी ऐसे ही स्थान पर पदस्थापन चाहती थी जहाँ कुछ अच्छा कर भ्रष्टाचार को समाप्त कर सके।
ज्वाइनिंग के समय उसने स्टाफ को अपना परिचय न देकर देखना चाहा कि उनके काम करने का ढंग कैसा है हालांकि उसे उनका रवैया देखकर आश्चर्य हुआ क्योंकि पूरा स्टाफ कामचोर था तथा वहाँ पर तो भ्रष्टाचार का ही बोलबाला था।
कविता ने सबको बुलाकर उन्हें धिक्कारा साथ ही सुधरने का फरमान जारी कर दिया कि वह अब यह और सहन नहीं करेगी।
एक पखवाड़े में ही पूरे कार्यालय का कायाकल्प हो गया। लोग नई एसडीएम की सराहना करने लगे।

उपन्यासकार ने कविता को सही स्थान पर पदस्थापित करके कथानक को रोचक बना दिया है क्योंकि पाठकों की विशेष तौर पर रुचि राधोपुर गाँव में है जहाँ कहानी का नायक रमन गाँव के उद्धार हेतु सिविल परीक्षा का मोह छोड़ पाठशाला खोल कर बैठा है, बावजूद स्थानीय विधायक एवं मंत्री तथा सरपंच बेहद भ्रष्ट हैं जबकि नवनियुक्त एसडीएम के रूप में कविता भ्रष्टाचार को दूर करने के लिए कृतसंकल्प है।
कुछ सन्दर्भों का उल्लेख यहाँ आवश्यक हो जाता है:
- 'आप थोड़ा सब्र रखिये, जीवन बाबू चाय पी रहे हैं। अभी आ जाएँगे, जितनी देर आप लाइन में खड़े होने का कष्ट करें। डेमोक्रेसी भी क्या आई, लोग सिर पर ही सवार होने लगे हैं। किसी में दो मिनट भी सब्र रखने का धैर्य नहीं रहा है। जिसको देखो, वही राशन-पानी लेकर ऊपर चढ़ा रहता है।' (पृष्ठ 298)
एसडीएम ऑफिस में यह संवाद उस नव-पदस्थापित एसडीएम को कहे जा रहे हैं जो बिना अपनी पहचान बताए ड्राइविंग लाइसेंस बनवाने की प्रार्थना के उत्तर में एसडीएम कविता को सुनने पड़ते हैं। लेखक ने यहाँ वर्तमान में बतौर व्यंग्य ऑफिस की कार्यप्रणाली का रोचकता व हास्य का पुट देते हुए खाका खींचा है।
- 'इन लोगों को खुद को तो घर पर चैन है नहीं, दूसरों को भी दो मिनट आराम से नहीं बैठने देते। चलो भाई चलो, अपनी-अपनी सीटें संभालो, वरना ये शांति के दुश्मन हमारा जलूस निकाल कर रख देंगे।' (पृष्ठ 299)
यहाँ स्टाफ के अन्य सदस्य के मुख से यह कहलवाया गया है। यानी पूरे कुएं में ही भांग पड़ी है।
- 'मैंने आज यहाँ आकर जो देखा है, उससे मुझे बहुत कष्ट पहुँचा है। आप लोगों का काम करने का तरीका बहुत ही घृणित और कलंकित किस्म का है। मैं चाहूँ तो इसके लिए तुम्हारे विरुद्घ अनुशासनिक कार्रवाई हेतु कड़े कदम उठा सकती हूँ। परन्तु जानते हुए भी मैं ऐसा नहीं कर रही हूँ। क्योंकि मैं तुम्हें तुम्हारी अपनी भूल सुधारने के लिए एक मौका देना चाहती हूँ।' (पृष्ठ 303)
लेखक द्वारा नई ईमानदार एसडीएम की इस चेतावनी के जरिए सब-कुछ स्पष्ट कर दिया है।
अब देखना यह है कि एक ईमानदार अफसर और भ्रष्ट मंत्री के बीच ऊँट किस करवट बैठता है।
जो पाठक इस रोचक उपन्यास को पढ़ने से वंचित हैं, उन्हें कल व आगामी अंकों की बेसब्री से प्रतीक्षा करनी पड़ेगी।

समीक्षक : डाॅ.अखिलेश पालरिया, अजमे

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उपन्यास : जीवन एक संघर्ष
उपन्यासकार : किशोर शर्मा 'सारस्वत'
कुल भाग : 42, कुल पृष्ठ : 940
आज समीक्षा : भाग 18 की

कथानक : सरपंच केहर सिंह की काफी छीछालेदर हो चुकी थी...रमन का बाइज्जत बरी होना, जयवंती का विवाह सम्पन्न हो जाना, सरपंच के भ्रष्टाचार का उजागर होना, प्रौढ़ शिक्षा का विस्तार होना, उधर गुंजनपुर वालों का भी उससे खार खाए बैठना...ये सब वे कारक थे जिनके कारण केहर सिंह की छवि धूमिल हो चुकी थी। ऐसे में विधायकों के चुनाव का बिगुल भी बज गया था। केहर सिंह जब अपनी अंतिम आशा नेता जी से मिलने गया तो उन्होंने चुनाव तक चुप रहने का इशारा कर दिया और चुनाव जीतने के लिए सभी हथकंडे अपनाने की सलाह दे डाली।
शराब खूब बाँटी जा रही थी और नेता इस बार चुनाव फिर से जीत कर मंत्री भी बना दिए गए। अब तो लोगों से आँखें चुराने वाला केहर सिंह अकड़ कर चलने लगा। एक दिन वह मंत्री जी के पास वापस रमन के विरुद्ध पुराना राग अलापने लगा।
मंत्री ने राय दी कि वह राधोपुर आकर लोगों को धन्यवाद भी दे देगा और रमन के विरुद्ध एसडीएम को खींचकर कह देगा।
उधर मंत्री के आने के दिन वह मंत्री जी के स्वागत के लिए जीप में सवार हो गया किन्तु शराबी ड्राइवर ने दुर्घटना कर सबको घायल कर दिया। सरपंच की भी दाहिनी टाँग टूट गई और उसे अगले छ: महीने तक उपचार लेना पड़ा।

उपन्यासकार ने चुनाव के दिनों की सही तस्वीर पेश की है जब शराब बाँटने का दौर कई दिनों तक चलता रहता है और चुनाव जीत भी लिए जाते हैं।
इस भाग के कुछ प्रमुख प्रसंग द्रष्टव्य हैं:
- अपने आपको चारों ओर से घिरा हुआ पाकर केहर सिंह सरपंच काफी मायूस था तथा प्राय: लोगों की नजरों से बचकर ही रहने लगा था। अब उसकी समस्या शिकार करने को नहीं अपितु स्वयं को शिकार होने से बचने की थी। (पृष्ठ 289)
- 'मुझे मंत्री बन लेने दे एक बार, उसकी गर्दन मरोड़ कर मैं उसे तेरे हाथ में पकड़ा दूँगा। मगर अभी चुप रहो। तुम नहीं जानते, इन छोटी-छोटी बातों का चुनाव पर बहुत प्रभाव पड़ता है।' (पृष्ठ 290)
- पैसों और बाहुबल के दम पर नेता महोदय चुनाव जीत गए और अपने रसूख की बदौलत मंत्रीमंडल में स्थान पाने में भी कामयाब हो गए। (पृष्ठ 295)
- प्रधान, थोड़ा धीरज रख। तेरा काम मेरे जेहन में पहले से ही है। मैं उसे भूला नहीं हूँ...ऐसा करते हैं किसी दिन तेरे गाँव का दौरा रख लेते हैं। लोगों का धन्यवाद भी हो जाएगा और लगे हाथ तेरे काम के लिए उप मंडल अधिकारी को भी थोड़ा खींचकर कह दूँगा। (पृष्ठ 295)
- इसे अच्छाई की जीत कहें या बुराई की हार, केहर सिंह सरपंच की सभी तमन्नाएं धराशायी होकर रह गईं। आगामी छ: महीनों तक वह अस्पताल में उपचाराधीन रहा। (पृष्ठ 297)
जब गाँव का मुखिया ही अपनी सारी बुराइयों के साथ गाँव का भला करने वाले के पीछे पड़ जाए और मंत्री भी उसका साथ देने लगे तो न्याय ईश्वर के हाथों हो जाता है। शायद यही सीख इस भाग की विशेषता बन गई है।

समीक्षक : डाॅ.अखिलेश पालरिया, अजमे

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उपन्यास : जीवन एक संघर्ष
उपन्यासकार : किशोर शर्मा 'सारस्वत'
कुल भाग : 42, कुल पृष्ठ : 940
आज समीक्षा : भाग 17 की

कथानक : जगपाल चौधरी के घर ग़जब तमाशा हो गया...इधर अगली सुबह राजू के पिताजी रमेश कुमार ने आकर राजू के साथ जयवंती के विवाह की स्वीकृति दे दी जिससे जगपाल के घर पुन: उत्सव का माहौल हो गया। रमन ने भी राजू के गले मिलकर उसका उपकार माना लेकिन उधर गुंजनपुर से भी वरपक्ष के लोग भी वास्तविकता जानकर दूल्हे को लेकर जगपाल के घर आ पहुँचे थे। जब जगपाल ने उन्हें बताया कि अब तो बेटी के विवाह के लिए दूसरा दूल्हा तलाश लिया गया है तो गुंजनपुर से आए दूल्हे संदीप को यह बात नागवार गुजरी और वह सुंदरता की प्रतिमूर्ति जयवंती से विवाह के लिए अड़ गया। अंतत: स्वयं उसे दुल्हन द्वारा ना कह देने पर उसे संदीप के पिता बलवान सिंह डाँटते-पुचकारते हुए गुंजनपुर ले गए।

उपन्यासकार ने इस भाग में कहीं यथार्थ तो कहीं नाटकीय रोचकता परोसते हुए हास्य का वातावरण उपस्थित कर दिया है जो निम्न संवादों से स्पष्ट हो जाता है:
- 'ये गाँवों की राजनीति बहुत घटिया किस्म की होती है।यहाँ पर बगैर किसी बात के ही एक-दूसरे के घोर-विरोधी और दुश्मन बने फिरते हैं। किसी ने अच्छा खा लिया, अच्छा पहन लिया तो दुश्मनी। किसी ने विरोधी पार्टी को वोट डाल दिया तो दुश्मनी। छोटी-छोटी बातों को लेकर मरने-मारने तक उतारू हो जाते हैं।' (पृष्ठ 276)
- 'मैं इन लोगों की रग-रग से वाकिफ हूँ। किसी तरह अगर चार पैसे जुड़ भी जाएँ तो ये लोग उन्हें अपने बच्चों की परवरिश या पढ़ाई पर खर्च करने की अपेक्षा व्यर्थ के झगड़ों और मुकदमों पर बरबाद कर देते हैं।' (पृष्ठ 276)
- आए हुए मेहमानों के लिए चाय-पानी का इंतजाम किया गया। कुछ प्रबुद्ध लोग बीच में दखल देकर बात को संभालने लगे। बलवान सिंह ने अपनी गलती मानते हुए पूरे घटनाक्रम का खुलासा किया तो सुनकर सभी स्तब्ध रह गए। अपने गुर्गों के माध्यम से इस बात की खबर केहर सिंह सरपंच तक भी पहुँच चुकी थी। इसलिए अपनी किरकिरी होने से बचने के लिए वह पहले ही भूमिगत हो गया। (पृष्ठ 282)
- 'क्यों लड़की क्या पाताल में से पैदा होती है, जो लड़के आकाश से टपकते हैं? जन्म देने वाले तो वही माँ-बाप होते हैं। फिर लड़के और लड़की का भेदभाव किसलिए?' (पृष्ठ 283)
- 'जयवंती, मैं कोई गैर नहीं हूँ, तुम्हारा मंगेतर हूँ। मेरे बाबूजी ने अपनी गलती मान ली है। और फिर घर आए मेहमान को तो दुश्मन भी माफ कर देता है।' (पृष्ठ 286)
- 'मंगेतर है नहीं, था। वो रिश्ता तुम्हारी ओर से कल खत्म हो गया। औरत कोई हाट या बाजार में बिकने वाली वस्तु नहीं है, जिसे जब चाहा कीमत चुका कर हासिल किया जा सकता हो।' (पृष्ठ 286)
- 'मुझे देखे और जाने बगैर इतना बड़ा लांछन जो मेरे ऊपर लगा दिया गया, उसे मैं कैसे भूल सकती हूँ। ऐसे में जिस भले घर के इंसान ने मेरा हाथ थाम कर मेरे परिवार को मिट्टी में मिलने से बचाया है, मेरे लिए वही सब-कुछ है। (पृष्ठ 287)
लेखक ने प्रत्येक पात्र की मनोदशा का विस्तार से दिग्दर्शन कराया है, साथ ही कथानक के प्रवाह तथा प्रभाव में कहीं कोई कमी नहीं आने दी। यही उनकी लेखनी की सफलता है।

समीक्षक : डाॅ.अखिलेश पालरिया, अजमे

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उपन्यास : जीवन एक संघर्ष
उपन्यासकार : किशोर शर्मा 'सारस्वत'
कुल भाग : 42, कुल पृष्ठ : 940
आज समीक्षा : भाग 16 की

कथानक : जयवंती के विवाह की मुख्य सूत्रधार माधो की बहन नसीबो को समझ नहीं आ रहा था कि दोनों परिवारों के शरीफ व इज्जतदार होने तथा सुशील, सुन्दर, साक्षात देवी की मूरत जयवंती के बावजूद यह आग किसने लगाई है? आखिर नसीबो के शक की सूई अपनी भाभी पर आकर ठहर ही नहीं गई बल्कि उसने प्रमाण भी जुटा लिए।
नसीबो ने अपने भाई माधो को अलग ले जाकर सही बात बताई तो माधो का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुँच गया और वह तेजी से अपनी पत्नी ननकी को सबक सिखाने अपने घर की ओर जाने लगा तो नसीबो ने अपने भाई को कसम दिला दी कि वह भाभी से मारपीट नहीं करेगा।
माधो का गुस्सा देखकर शेरनी की तरह दहाड़ने वाली ननकी आज मेमना सी नजर आई।
माधो ने उसे मारने के लिए छड़ी उठाई किन्तु बहन की कसम याद आने पर छड़ी को फेंक कर पत्नी पर क्रोधित होकर उसे हमेशा के लिए घर छोड़ने के लिए ललकारा। फिर खुद ही उसकी बाँह पकड़कर घर से निकालने लगा तो भी बात नहीं बनी तो उसका बाजू छोड़कर प्यार से समझाने लगा।
अब ननकी ने अपना अपराध स्वीकार कर सरपंच के झांसे में आने की बात कही। वह पूरी तरह बदल चुकी थी।
माधो के कहे अनुसार पड़ोस के ट्रेक्टर वाले के साथ गुंजनपुर जाकर उसने वर पक्ष को सही-सही बात बता दी और राधोपुर लौट आई।
उधर गुंजनपुर में बिरादरी की पंचायत बुलाकर सरपंच केहर सिंह की इस घिनौनी हरकत के लिए उसका भाई-बिरादरी से बहिष्कार का निर्णय लिया गया और जीप का इंतजाम कर वर पक्ष के गिने-चुने लोग राधोपुर के लिए रवाना हो गए।

उपन्यासकार ने कथानक को रोचक बनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। इस बात की गवाही निम्न संवादों के अंशों की जुबानी:
- ननकी की हालत अब उस मेमने की तरह हो गई थी जिसे शेर को फांसने के लिए चारे के रूप में इस्तेमाल किया गया हो। कहते हैं कि डंडे के आगे तो भूत भी नाचते हैं। ननकी को नचाने वाला मदारी कुछ ही कदमों के फासले पर था। (पृष्ठ 265)
- 'कुलटा! मेरे घर से इसी वक्त निकल जा। तेरा और मेरा सम्बन्ध अब खत्म हो चुका है। तेरे पापों का घड़ा अब भर कर फूट चुका है। इससे पहले कि किसी अनर्थ के लिए मेरा हाथ दोबारा ऊपर उठे, तू इसी समय मेरी नजरों से दूर हो जा। मैं अपाहिज तो उसी दिन हो गया था जिस दिन तू इस घर में ब्याह कर आई थी...एक देवी स्वरूप लड़की को चरित्रहीन बतलाकर तूने अपने अगले जन्म के लिए भी पाप की गठरी बाँध ली है।' (पृष्ठ 265)
- मैं तो सीधा-सादा एक ईमानदार किसान हूँ। परन्तु इतना मैं जरूर जानता हूँ कि बुरे कर्मों का फल हमेशा बुरा ही होता है।' (पृष्ठ 266)
- 'तू इंसान होकर भी शैतान वाले काम क्यों करती है? हम दोनों की आधी से अधिक जिंदगी बीत चुकी है, वह भी एक कुत्ते और बिल्ली के समान। एक छत के नीचे रहते हुए भी हम हमेशा एक दूसरे पर गुर्राते रहे। जरा सोच, क्यों और किसलिए?' (पृष्ठ 266)
- ननकी भी अब समय के आगे थक चुकी थी। उसे अतीत की परछाइयों से भय लगने लगा था। वह उनकी गिरफ्त से मुक्त होना चाहती थी। ननकी को भी सहारे की जरूरत थी। वह अपनी पलकें नीची किए माधो के पास पहुँची और अपना सिर उसके सीने से लगाकर फफक-फफक कर रोने लगी। (पृष्ठ 266-67)
किसी बहुत बुरे इंसान को मार-पीट कर नहीं सुधारा जा सकता लेकिन उसे प्यार से समझा कर अतीत में किए उसके पापों का अहसास करवाकर सही राह पर लाया जा सकता है, यह बात लेखक ने अपनी सशक्त लेखनी द्वारा उद्घाटित की है।
जयवंती के विवाह से जुड़ी एक और कड़ी पूर्ण होकर यहाँ चहुंओर उजास की किरणें विस्तार पाती प्रतीत हो रही हैं।
लेकिन पाठक अब भ्रमित हो रहे होंगे कि जयवंती का विवाह आखिर किस्से होगा?
यह जानने के लिए अगले भाग की प्रतीक्षा कीजिए।

समीक्षक : डाॅ.अखिलेश पालरिया, अजमे

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