Quotes by Kishore Sharma Saraswat in Bitesapp read free

Kishore Sharma Saraswat

Kishore Sharma Saraswat Matrubharti Verified

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(71)

पुस्तक समीक्षा
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पत्थर में देवत्व गढ़ने वाली एक अकेली और निरीह स्त्री के संघर्ष का बेजोड़ कथानक जिसमें वह ‘हार’ (पराजय) को ठोकर मारकर, सफलता के झंडे गाड़ती है और ‘हार’ (विजय माला) को गले में पहनकर ही दम लेती है-

माणक तुलसीराम गौड़
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साहित्य जगत में श्री किशोर शर्मा ‘सारस्वत’ एक जाना-माना और पहचाना हुआ नाम है। इनके प्रकाशित उपन्यासों में क्रमशः ‘मेरा देश’, ‘बड़ी माँ’, ‘पुनर्जन्म एक यथार्थ’, ‘जीवन एक संघर्ष’ व ‘द ग्रैटमदर’ है। जिनमें जीवन एक संघर्ष तो हिंदी में अब तक का सबसे लंबा उपन्यास का दर्जा पा चुका है। साथ ही समीक्षित उपन्यास ‘बड़ी माँ’ का यह दूसरा संस्करण है जो सन् 2024 में प्रकाशित हुआ। पहला संस्करण 2005 में प्रकाशित हुआ था। इस उपन्यास को ‘मुंशी प्रेमचंद’ पुरस्कार से नवाजा जा चुका है।

इस उपन्यास में मैंने पाया कि जब दुःख मनुष्य को चारों तरफ से घेरता है तो पुरुष अपने हथियार डाल देता है, उसकी चूँ बोल जाती है, मगर स्त्री को भगवान ने वह शक्ति दी है जो हारना नहीं जानती। वह सब-कुछ न्यौछावर कर देती है, मगर पराजय नहीं स्वीकारती। जीवन के संझावतों से टकराते हुए वह आगे बढ़ती है, जिसके शब्द कोश में ‘हार’ है लेकिन हार पराजय वाली नहीं बल्कि विजय माला वाला ‘हार’ है, जिसका वरण करके ही या तो वह दम लेती है या फिर वह दम तोड़ देती है।

कथानक ऐसा है जिसमें उपन्यास की नायिका की ईश्वर में आस्था है तो स्वयं में विश्वास भी। प्रकृति की गोद में सोने का सुख है तो उसकी दी हुई वेदना झेलने का दुःख भी। प्राकृतिक आपदाओं के झंझावात हैं तो उनसे मुक्ति दिलाने वाले इनसान भी। जहाँ आदमी को बेचने वाले नर पिशाच हैं तो उनको बचाने वाले नेक इनसान भी। निर्धन और असहाय को घर में आसरा देने वाले भी हैं तो उन्हें दुत्कारने-फटकारने वाले निर्दयी लोग भी। गरीब की अज्ञानता और उसकी मजबूरी पर हँसने-ठहाके लगाने वाले हैं तो उन्हें सांत्वना तथा ढाढ़स बंधाने वाले देवतुल्य जन भी। रोजी-रोटी छीनने वाले दुर्जन हैं तो खाली हाथों को रोजगार देकर उन्हें दो जून की रोटी का जुगाड़ करने के काबिल बनाने की कूवत प्रदान करने वाले सज्जन भी।

इस उपन्यास का कथानक भी बड़ा रोचक है जिसके अंत तक यह जिज्ञासा बनी रहती है कि अब आगे क्या होगा! अब कैसे होगा!

सफल लेखक वह होता है जो अपनी कृति के नायक या नायिका को पाठक से जोड़ दें अर्थात् उनको एकाकार कर दें। फिर पाठक उसके सुख-दुःख को अपना सुख-दुःख मानने लग जाता है। वह मनोवैज्ञानिक रूप से उसके साथ अपना गठजोड़ इस तरह बाँध लेता है कि उसके यदि ठोकर लगे तो पीड़ा पाठक को होती है। पीड़ा यदि उसे हो तो आँसू पाठक के निकलने लग जाते हैं। मुझे यह कहने में कतई भी अतिशयोक्ति नहीं लगती कि उपन्यासकार इस कसौटी पर खरा उतरा है। उसने यह कलम का जादू सफलता से अपने पाठकों पर किया है।

कथानक के अनुसार लाला दीवानचंद और उसकी धर्मपत्नी कौशल्या के दीर्घ प्रतीक्षा के बाद एक लड़का जन्म लेता है। उसका लालन-पालन बड़े लाड़-प्यार से चल रहा था। महकते उपवन में फूलों की तरह वह पल रहा था, मगर फूलों के संग काँटे तो होते ही हैं। एक दिन बाल स्वभाव के वशीभूत हो वह तितलियों का पीछा करते हुए वहाँ से बहुत दूर चला गया और उसी समय नदी में आई बाढ़ में बहकर वह पलक झपकते ही आँखों से ओझल हो गया।

‘जाँको राखे साइयाँ मार सके ना कोई’ की कहावत को चरितार्थ करते हुए वह बालक जिसे मुन्ना नाम से पुकारते हैं तथा इसी का नाम आगे चलकर ‘देव’ रखा जाता है, घटना स्थल से बहुत दूर झाड़ियों में अटक जाता है जिसे बाढ़ से बहकर लकड़ियों को बीनने आया दंपति मुरली और राम आसरी उसे अपने घर लेकर जाते हैं।

राम आसरी जितनी दयालु, ममतामयी और करुणामयी थी मुरली उतना ही दुष्ट, नशेड़ी और अपराधी स्वभाव का दुर्जन आदमी था।

राम आसरी ने बड़े जतन से उसे दवा-उपचार करके होश में लाई तथा जब वह कहता है कि आप कौन हैं तो वह कहती है- ‘‘मैं तेरी बड़ी माँ हूँ।’’ बस, तब से वह उसकी बड़ी माँ बन गई।

उधर दुष्ट मुरली धोखे से बच्चे को शहर लेजाकर मात्र चार हजार में उसे बेच देता है तथा करनी का फल भोगकर लौटते वक्त रेल से कटकर मर जाता है।

बच्चे के खरीददार तो शातिर अपराधी निकले। वे उससे भीख मंगवाते थे।

एक दिन राम आसरी बच्चे की खोज में शहर जाती है तो बच्चे को भीख माँगते हुए देखती है, उसे पहचान जाती है। उसे बचाने के लिए वह अपनी जान जोखिम में डालकर मालगाड़ी में छिपकर अन्यत्र चली जाती है। यानी चंडीगढ़ पहुँच जाती है। जहाँ पर एक सद्ग्रहस्थी के यहाँ राम आसरी नौकरी कर मुन्ना यानी देव को पढ़ाने लगती है।

उधर पुत्र के असमय काल कवलित होना मानकर देव के माता-पिता को धक्का कहो या सद्मा लगना स्वाभाविक ही था। दुःख से मन विचलित हो जाने से लाला दीवानचंद ने अपनी नौकरी से त्यागपत्र देकर पत्नी को साथ लेकर अम्बाला अपनी मौसी के पास चले गए तथा अध्यापक की नौकरी करने लगे।

इसी बीच इनका मन बहलाव और साधु संगत करने के उद्देश्य से ऋषिकेष जाना हुआ। वहाँ एक संत ने बताया कि तुम्हारा लापता बच्चा अभी तक जीवित है, सुरक्षित है तथा समय आने पर वह तुम्हें अवश्य मिलेगा।

रोजगार की तलाश में उधर राम आसरी देव को लेकर चंडीगढ़ आकर जीविकोपार्जन के लिए सब्जी की दुकान शुरू करनी पड़ी। इस तरह राम आसरी ने अपना सब-कुछ उस बालक देव को पढ़ाने-लिखाने, उसे सुसंस्कारित बनाने तथा उसे बहुत बड़ा आदमी बनाने की ठान रखी है। इस सपने को सच करने के लिए उसने अपने आप को गला रखा है, समर्पित कर रखा है। सच ही कहा गया है कि मनुष्य में देवत्व गढ़ने का काम केवल माताएँ ही कर सकती हैं, यानी नारियाँ।

उधर मन नहीं लगने से लाला दीवानचंदजी तथा कौशल्या अम्बाला अपनी मौसी को छोड़कर चंडीगढ़ आ गए। यहाँ उस स्कूल की शाखा थी अतः नई नौकरी के लिए पापड़ नहीं बेलने पड़े। चूँकि लालाजी अपने लापता पुत्र को भूले नहीं थे अतः वे बच्चों में अपने उस पुत्र की छवि को पाते थे। देव गरीब बच्चा भी था तथा मेधावी भी। अतः वह दीवानजी का सबसे चहेता बच्चा बन गया।

यहाँ उपन्यासकार का चमत्कार देखिए, पढ़ने वाला बेटा और पढ़ाने वाला पिता, मगर दोनों ही इस बात या तथ्य से अनजान। वाह!

बच्चा जब सातवीं कक्षा में आता है तब उसकी बड़ी माँ यानी राम आसरी गंभीर बीमारी में जकड़ जाती है। मानवता के नाते दीवानचंदजी ने राम आसरी को अच्छे डॉक्टर को दिखाया। उसके अच्छे उपचार हेतु स्तरीय अस्पताल में भर्ती करवाया। आदमी परिश्रम कर सकता है। पैसे खर्च कर सकता है, मगर इलाज तो चिकित्सक ही करते हैं। साथ ही चिकित्सक भी इलाज ही करते हैं, उपचार तो ऊपर वाला ही करता है।

राम आसरी को लगा कि उसका अब अंत निकट है तो देव का हाथ छोड़ने से पहले उसका हाथ उसके असली माता-पिता को पकड़ा दिया। इस तरह बड़ी माँ अपना जीवन हार गई, मगर अपनी प्रतिज्ञा जीत गई। उसने ही तो कहा था- ‘‘मुन्ना, मरने से पहले मैं तुझे माँ से जरूर मिलवाऊँगी।’’

पुस्तक के कुछ उद्धरण हमें बहुत ही प्रभावित करते हैं-

‘आजकल के लड़के किसी के मन की क्या जाने ? पैसा जब पास होता है तो वह इंसान से इंसान की दूरी बना देता है।’ पृष्ठ 134

माँ- ‘‘मेरे मुन्ना को मुझसे मिला दे। वह अभागा एक माँ को तो पहले ही खो चुका है और अब उसे दूसरी माँ से भी दूर मत कर।’’ पृष्ठ 142

‘‘संतान को जन्म नहीं दिया, फिर भी नारी हृदय माँ, मातृत्व के प्रेम, वात्सल्य और वियोग की पीड़ा से राम आसरी की आँखें भर आईं। पृष्ठ 142

‘‘भगवान में आस्था का दूसरा नाम ही धर्म है और उस परमात्मा में आस्था ही मनुष्य को बड़ी से बड़ी विपत्तियों को सहन करने की शक्ति प्रदान करती है। पृष्ठ 150

‘‘हाँ बेटा, माताएँ होती ही ऐसी हैं। माँ को दुनिया में अगर कोई सब से सुंदर और प्यारा लगता है तो वह है उसका बच्चा। इंसान तो समझदार है, परंतु पशु-पक्षी भी अपने बच्चों से बहुत प्यार करते हैं। उनकी सलामती के लिए अपनी जान तक भी दे देते हैं।’’ पृष्ठ 180

‘‘पैसा तो हाथ का मैल होता है। तू अगर पढ़-लिखकर बड़ा बन गया तो पैसे ही पैसे हैं।’ पृष्ठ 181

‘‘अपना बेटा नहीं है तो क्या हुआ! क्या यह जरूरी है कि कोख से जन्म लेकर ही संतान का माँ से सम्बन्ध बनता है ? नहीं, हरगिज नहीं। जन्म लेना और जन्म देना अलग बात है और इस पवित्र बंधन को निभाना अलग बात है। पृष्ठ 194

‘‘सर, डॉक्टर को तो दिखाया था। अब पैसे नहीं हैं, जितने घर में पैसे थे सारे खर्च हो चुके हैं।’’

‘‘ओह! आचार्यजी के मुँह से यह शब्द अनायास ही निकल गया। उन्होंने अपनी जेब को टटोला और उसमें से एक सौ का नोट निकालकर मुन्ना को देते हुए बोले- ‘‘ले बेटा, इससे अभी थोड़ा काम चलाओ।’’ पृष्ठ 216

पहली बार दीवानचंदजी ने अपनी औलाद को बेटा कहा, मगर वे अभी तक आपसी रिश्तों से अनजान थे। यही चमत्कार है इस उपन्यास का।

‘‘संसार बहुत बड़ा है आचार्यजी, किस-किस का दुःख बाँटोगे। कौशल्या ने कहा। पृष्ठ 220

‘‘समय बहुत थोड़ा है। तू भागकर मास्टरजी को बुला ला। मुझे कुछ नहीं होगा। तेरी बड़ी माँ पत्थरों से खेलकर पत्थर बन चुकी है।’’ पृष्ठ 222

इस तरह ‘बड़ी माँ’ एक सुखांत उपन्यास है जो उपन्यास के आवश्यक तत्वों यथा कथावस्तु, पात्र, संवाद, देशकाल और वातावरण, भाषा-शैली और अपने उद्देश्य में खरा उतरने में सफल रहा है। अपनी रोचकता और सार्थकता के कारण यदि इस पर कोई फिल्म बने तो वह अवश्य सफल होगी, ऐसा मेरा मानना है।

मानवीय पक्षों को गंभीरता से उजागर करता एक बेजोड़ उपन्यास सृजन पर मैं उपन्यासकार श्री किशोर शर्मा ‘सारस्वतजी’ का हार्दिक अभिनंदन करता हूँ तथा भविष्य में भी ऐसे श्रेष्ठ उपन्यास सृजन हेतु शुभकामनाएँ देता हूँ।

मुझे पूर्ण विश्वास है कि साहित्य जगत इस कृति का हृदय से स्वागत करेंगे।
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पुस्तक का नाम - बड़ी माँ
विधा - उपन्यास
उपन्यासकार - किशोर शर्मा ‘सारस्वत’
मो. नं. - 90502 23036
समीक्षक - माणक तुलसीराम गौड़
मो. नं. - 87429 16957
प्रकाशक - के. वी. एम.
प्रकाशन वर्ष - 2005
द्वितीय संस्करण 2024
मूल्य - 425 रुपये मात्

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समीक्षा
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ईश्वर में आस्था रखते हुए, सदा खुश रहते तथा जीवन में सदाचार अपनाते हुए जो आत्मविश्वास और सकारात्मक सोच के साथ जीवन पथ पर आगे बढ़ते हैं, उसी का जीवन सार्थक होता है-
माणक तुलसीराम गौड़
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सार्थक जीवन जीने के लिए पहली और आधारभूत शर्त यह है कि हम पहले मानव बनकर जीएँ तथा सभी प्राणी मात्र में उस ईश्वर का वास देखें जो सबका नियंता है।
हम हमारे पूर्वजों द्वारा बताए गए मार्ग पर चलते हुए, उन परम्पराओं का पालन करते हुए, हमारी संस्कृति को अक्षुण्ण रखते हुए उन संस्कारों में जीने की आदत डालनी है जिन्हें हमारे पूर्वजों ने संभालकर रखा। वे स्वयं मिट गए, परंतु हमारी संस्कृति और संस्कारों को नहीं मिटने दिया। क्योंकि ये संस्कार ही हमारा मार्ग प्रशस्त करते हैं तथा हमारे अंदर नित नई ऊर्जा का संचार करते हैं।
ऐसा कहना है श्री किशोर शर्मा ‘सारस्वत’ का अपनी पुस्तक ‘सकारात्मक सोच में निहित है सार्थक जीवन’ में।

श्री सारस्वतजी का मुझ पर असीम स्नेह रहा है। जिन्होंने मुझे अपना कीमती विस्तृत उपन्यास ‘भीष्म प्रतिज्ञा’ भेजा जिसकी समीक्षा मैंने हाल ही में की है। उस उपन्यास तथा समीक्षा की साहित्य जगत में भूरि-भूरि प्रशंसा हुई, जिसका सारा श्रेय उस अमूल्य कृति को ही है।

इस समीक्षित पुस्तक को मैंने बड़े ही मनोयोगपूर्वक पढ़ा और पाया कि जिनका मन स्थिर नहीं रहता, जीवन का कोई लक्ष्य निर्धारित नहीं कर पाता, नया कार्य प्रारंभ करने में मन हिचकिचाता है, सदैव असफल होने का डर सताता है, असफलता पर मन मुर्झाता है, जीवन जीने में रस का अभाव रहता है, मन में उत्साह नहीं रहता, मन पर हमेशा दबाव या तनाव रहता है, किंकर्तव्यविमूढ़ होकर जिंदगी जीते नहीं बल्कि जैसे-तैसे जीवन के दिन काट रहे हैं, मन में हीनभावना ने घर कर लिया है तो इस पुस्तक को अवश्य पढ़ें।
यह केवल पुस्तक ही नहीं बल्कि उपर्युक्त रोगों-मनोरोगों की रामबाण औषधि है, ऐसा मेरा मानना है।

स्वयं लेखक के शब्दों में- ‘‘सकारात्मक सोच एक ईश्वरीय देन है, जो इंसान को जिंदगी बदलने के लिए निःशुल्क मिलती है।’’
इस पुस्तक में सैंकड़ों ऐसे उद्वरण दिए गए हैं जिन्हें पढ़ना-समझना और इस पुस्तक में संकलित करने के लिए लेखक ने विद्वानों, साहित्कारों, वैज्ञानिकों, शिक्षाविदों, उद्योगपतियों, सेना के जनरलों, निवेशकों तथा सफल अन्य व्यक्तियों के वक्तव्यों को खोजकर इस पुस्तक में सम्मिलि करने के लिए कितनें प्रयास किए होंगे, देखकर दाँतों तले उँगली दबानी पड़ती है।

देखिए, कुछ उदाहरण- कुरुक्षेत्र में गीता का ज्ञान देने पर अजुर्न भगवान श्री कृष्ण से कहता है- ‘‘न दैन्यं न पलायनम्’’ अर्थात् न कभी अपने भीतर दीनता यानी हीनता का, छोटेपन का भाव आने दूँगा, न युद्ध क्षेत्र से पीठ दिखाकर भागूँगा।’’
युवाचार्य महेंद्र ऋषिजी ने कहा है- ‘‘सदैव ठंडा करके खाना चाहिए, चाहे वह भोजन हो या सूचना।’’

किसी सद्पुरुष ने सच ही कहा है- ‘जिंदगी काँटों का सफर है, हौसला इसकी पहचान है, रास्ते पर तो सभी चलते हैं, जो रास्ता बनाए वही इंसान है। '
‘अपना महत्व समझो और विश्वास करो कि तुम संसार के सबसे महत्वपमर्ण व्यक्ति हो।’
कार्लाइल

‘कमजोर न बनें, शक्तिशाली बनें और यह विश्वास रखें कि भगवान हमेशा आपके साथ है।’
‘महान उपलब्धियाँ कभी भी आसानी से नहीं मिलती और आसानी से मिली उपलब्धियाँ महान नहीं हो सकती।’
बालगंगाधर तिलक

‘अकसर हमें थकान काम के कारण नहीं, बल्कि चिंता, निराशा और असंतोष के कारण होती है।’
डेल कार्नेगी

‘कमजोर व्यक्ति हमेशा सुअवसरों का इंतजार करते हैं, जबकि निर्भीक व्यक्ति इन्हें बनाते है।’’
ऑरिसन स्वेट मॉडन

‘सपने वो नहीं है जो आप नींद में देखे, सपने वो है जो आपको नींद ही न आने दे।’
‘इंतजार करने वालों को उतना ही मिलता है, जितना कोशिश करने वाले छोड़ देते है।’
पूर्व राष्ट्रपति श्री ए.पी.जे. अब्दुल कलाम

‘जिंदगी में सब कुछ छोड़ देना, लेकिन मुस्कान और उम्मीद मत छोड़ना।’
स्वामी विवेकानंद

‘संसार में सबसे सुखी वही व्यक्ति है जो अपने घर में शांति पाता है।’
गेटे

‘कष्ट ही तो वह प्रेरक शक्ति है जो मनुष्य को कसौटी पर परखती है और आगे बढ़ाती है।’
महान स्वतंत्रता सैनानी वीर सावरकर

‘कठिन समय में कायर बहाना ढूँढ़ते है, जबकि बहादुर व्यक्ति नया रास्ता खोजते है।’
सरदार बल्लभ भाई पटेल

‘शुरुआत करने के लिए महान होना जरूरी नहीं है, लेकिन महान होने के लिए शुरुआत करना जरूरी है।’
सेंट फ्रांसिस

‘कल्पना के बाद कर्म जरूर करना चाहिए, क्योंकि सीढ़ियो को देखते रहना ही काफी नहीं, उस पर चढ़ना भी जरूरी होता है।’
वैंस हैवनेर

‘यदि आपको अपनी छवि की चिंता है तो अच्छे लोगों की संगति करें। बुरी संगति से अकेले रहना अच्छा है।’
जॉर्ज वाशिंगटन

‘जे न मित्र दुःख होहि दुखारी।
तिन्हहि बिलाकत पातक भारी।।
अर्थात् जो लोग मित्र के दुःख से दुःखी नहीं होते, उन्हें देखने से ही बड़ा पाप लगता है।’
गोस्वामी तुलसीदासजी

‘जिसके पास स्वास्थ्य है, उसके पास आशा है तथा जिसके पास आशा है उसके पास सब कुछ है।’
एक अरबी कहावत

‘दुनिया के छः सबसे अच्छे डॉक्टर हैं धूप, आराम, व्यायाम, आहार, आत्मविश्वास और मित्र। इन्हें सभी अवस्थाओं में बनाए रखें और स्वस्थ जीवन का आनंद लें।’
स्टीव जॉब्स

‘मेहनत इतनी कर की उसमें तुझे कभी कोई कमी न लगे, खुद को इस काबिल बना की हर शख्स सिर्फ तुम जैसा बनने की चाह रखे।’
अज्ञात

इच्छाशक्ति और आत्मविश्वास कार्य-संपादन के लिए मनुष्य की भीतरी ऐसी दो शक्तियाँ हैं जो हताशा और निराशा को उभरने का अवसर नहीं देती। जब इंसान कार्य को बोझ न समझकर उसमें आनंद का अनुभव करने लगता है तो उसकी मानसिक और शारीरिक शक्ति का विकास स्वयमेव होने लगता है। इस पुस्तक का यही भाव है।’
किशोर शर्मा ‘सारस्वत’

हीन भावना ही चिंता और निराशा का जनक है। क्योंकि जब इंसान अपनी आंतरिक शक्ति को खो देता है तो उसे हर काम को पूरा करने में जटिलता नज़र आने लगती है। यह नकारात्मक भाव शरीर की क्रियात्मक ऊर्जा को क्षीण कर देता है। बिना परिश्रम किए ही उसे थकान का आभास होने लगता है। यह स्थिति न केवल इंसान की मानसिक सोच का पतन करती है, बल्कि शारीरिक तौर पर भी उसे अक्षम बना देती है। हीन भाव से कैसे मुक्ति पाई जाए, इसके कुछ उपाय मैंने इस पुस्तक के माध्यम से देने का प्रयास किया है।
पृष्ठ 8

इंसान भावनाओं के वश होकर जीता है। थोड़ा सा सुख मिला, तो खुशी का ठिकाना नहीं और जिंदगी में दुःख आया तो सहनशीलता नहीं। इंसान सारी उम्र भर जिंदगी के इस ज्वार-भाटा में डोलता रहता है। सरल और सरस जिंदगी जीने का कभी प्रयास ही नहीं करता है। असल खुशी की अनुभूति वही इंसान कर पाता है जो सुख और दुःख को जिंदगी के तराजू में एक समान रखकर जीने का प्रयास करता है।
पृष्ठ 9

इस प्रकार यह पुस्तक उन लोगों के लिए अमृतपान की तरह है जो नये काम प्रारंभ करते समय घबराते हैं, मन से कमजोर हैं, जिनमें साहस की कमी है, मन उदास, हताश और निराश रहता है, मन में अवसाद भरा है, जिन्हें जीवन निरर्थक लगता है तथा जो हीन भावना से ग्रसित है।
मुझे पूर्ण विश्वास है कि उन्हें इसमें पूर्ण समाधान मिलेगा।
आज के आपाधापी भरे और गलाकाट प्रतिस्पर्धा के युग में इस तरह की पुस्तकों की बहुत आवश्यकता है।
मैं तो यहाँ तक कहना चाहूँगा कि ऐसी प्रेरणादाई तथा सकारात्मक दृष्टिकोण वाली पुस्तक विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में सम्मिलित होनी चाहिए। जो मन की दीनता, हीनता और मलीनता को त्यागकर विजयीभाव लिए सिंह की तरह स्वाभिमान के साथ जीना सिखाती है, श्री किशोर शर्मा ‘सारस्वत’ की पुस्तक ‘सकारात्मक सोच में निहित है सार्थक जीवन’।
साहित्यजगत, विद्यार्थी और नौजवान या यों कहें कि हर पीढ़ी के जन इस पुस्तक का स्वागत करेंगे और इससे अधिक से अधिक लाभ उठाएँगे, ऐसा मेरा मानना है।

मैं श्री किशोर शर्मा ‘सारस्वतजी’ को ऐसी शानदार पुस्तक लेखन के लिए हार्दिक अभिनंदन करता हॅंऔर आशा करता हूॅं कि भविष्य में भी ऐसी शानदार पुस्तकें लिखकर मानव मात्र का कल्याण करेंगे, ऐसी मंगलकामनाएँ करता हूँ।
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पुस्तक का नाम - सकारात्मक सोच में निहित है सार्थक जीवन
विधा - निबंध
निबंधकार-
किशोर शर्मा ‘सारस्वत’
मो. नं. -
90502 23036
समीक्षक-
माणक तुलसीराम गौड़
मो. नं.- 87429 16957
प्रकाशक- के. वी. एम.
प्रकाशन वर्ष - 2023
मूल्य - 299 / मात्र

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पुस्तक समीक्षा
समीक्ष्य उपन्यास : *बड़ी माँ*
उपन्यासकार : *किशोर शर्मा 'सारस्वत'*
प्रकाशक : *के.वी.एम. प्रकाशन, कजियाना (पिंजौर)*
पृष्ठ : *242*
मूल्य : *425*
रचना संसार : *7 उपन्यास (942 पृष्ठीय उपन्यास- 'जीवन एक संघर्ष' भी), 2 कहानी-संग्रह सहित हिन्दी व अंग्रेजी में 17 पुस्तकें*
शिक्षा : *लोक प्रशासन में स्नातकोत्तर, ऑफिस ऑर्गनाइजेशन एंड प्रोसीजर्स का स्नातकोत्तर डिप्लोमा, औद्योगिक संबंध और कार्मिक प्रबंधन में स्नातकोत्तर डिप्लोमा*
सम्प्रति : *सेवानिवृत्त सलाहकार, राज्य सूचना आयोग, हरियाणा, अब स्वतन्त्र लेखन*
निवासी : *पंचकूला (हरियाणा)*

*भावनाओं व संभावनाओं का रोचक गठजोड़ है उपन्यास: 'बड़ी माँ'*
वृहद उपन्यासों को लिखने में सिद्धहस्त, भावनाओं के कुशल चितेरे व कल्पनाओं के धनी श्री किशोर शर्मा 'सारस्वत' का यह उपन्यास वस्तुत: द्वितीय संस्करण है जिसमें नदी किनारे रहने वाली गरीब बस्ती की निस्संतान राम आसरी एक 3-4 वर्षीय बच्चे के नदी में बहकर अटके मरणासन्न मुन्ना के जीवन को बचाने व अगले कुछ वर्षों में जीवन में आई विपत्तियों को दूर कर सँवारने के अनोखे घटनाक्रम का विवरण है।
उपन्यास, राम आसरी के शराबी व नीयत के खोटे पति तथा राम आसरी के ही भाई द्वारा मुन्ना को गुंडों के हाथों चार हजार में सौदा करने, उसको भिक्षावृत्ति के धंधे से बचाने वाली राम आसरी के विकट परिस्थितियों में संघर्षों की गाथा अंतत: अपने मरने से पहले नाटकीय घटनाक्रम में उसके माँ-बाप से मिलने की रोचक कहानी भी है।
उपन्यास के कई संवाद भावुक करने वाले बन पड़े हैं, घटनाएँ मार्मिक किन्तु जिज्ञासा जगाने वाली हैं तथा उपन्यास का विस्तार प्राकृतिक सौंदर्य के दर्शन के साथ उपन्यासकार का लोहा मनवाने में सक्षम है। बच्चे को विकृत मानसिकता के गुंडों को बेचने वाले भाई व पति को ईश्वर का न्याय हाथों-हाथ मिल जाने की घटनाएँ पाठकों को रोमांचित करती हैं तो बच्चों को भिक्षावृत्ति में धकेलने वाले गुंडों से राम आसरी का संघर्ष भी पठनीय बन पड़ा है।
उपन्यास में एक ओर मुन्ना के नदी में बह जाने के बाद उसके माँ-बाप की मनोदशा का कारुणिक चित्रण है तो दूसरी ओर राम आसरी का गुंडों से मुन्ना को बचाने का संघर्ष पाठकों के माथे पर पसीने की बूँदें ले आता है। साथ ही राम आसरी के शराबी पति की रेल की पटरियों से दोनों पैर कट जाने से मृत्यु तथा राम आसरी के कपटी भाई की शक के आधार पर गुंडों द्वारा पिटाई व मौत का वर्णन ठंडी फुहारों का आभास दिलाता है।
राम आसरी का गुंडों व बाद में परिस्थितियों से अथक संघर्षों के पश्चात मुन्ना का 6-7 वर्षों बाद अपनी माँ से पुनर्मिलन का दृश्य नयनाभिराम बन पड़ा है।
इसकी एक झलक देखिए:
*मुन्ना ने ज्योंही उसे अपनी ओर निहारते देखा, उसकी नज़र माँ के चेहरे पर पड़ी। उसे लगा कि यह कहीं उसकी आँखों का भ्रम तो नहीं है। उसने अपने दोनों हाथों से अपनी आँखें मसलकर साफ कीं। माँ की सूरत तो ज्यों की त्यों थी। मन में ऐसा तूफान उठा मानो छाती फाड़कर बाहर निकल जाएगा। वह बिजली की सी तेज गति से उसकी ओर भागता हुआ चिल्लाया, 'माँ..!'* (पृष्ठ 230)
इधर मुन्ना को अपनी असल माँ मिलीं और उधर जिसके सान्निध्य व स्नेह में रह कर मुन्ना ने बचपन के 7-8 वर्ष गुजारे थे, की दुनिया से विदाई हो रही थी:
*'बड़ी माँ, आप मुझे छोड़कर क्यों चली गई? आपके वायदे तो झूठे निकले। आप तो कहती थी कि तुझे एक दिन बड़ा और महान आदमी बनाऊँगी। परन्तु आज आप स्वयं ही मेरी जगह बड़ी और महान माँ बनकर चली गई हो। बड़ी माँ! आप महान हो! ...आप महान हो!'* (पृष्ठ 234)
'बड़ी माँ' के रूप में किशोर शर्मा साहब का एक और अविस्मरणीय उपन्यास, जो प्रेरक है, जिसमें त्याग और स्नेह की उदात्त भावनाएँ प्रस्फुटित होकर पाठकों की आँखों को नम कर देती हैं। उपन्यास अपने कथ्य, शिल्प, संवाद, पात्रों के चरित्र-चित्रण, वातावरण व उद्देश्य में खरे सोने की भाँति है।
पुस्तक की छपाई तथा बाइन्डिंग भी उत्कृष्ट है।
इंडिया बुक ऑफ रिकॉर्ड्स होल्डर उपन्यासकार को बधाई!

*समीक्षक : डाॅ. अखिलेश पालरिया,
अजमेर*

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समीक्षा

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सामाजिक बुराइयों का शमन करके-नवयुवकों के त्याग और तपस्या के बल पर भारत के नव निर्माण एवं उत्थान के लिए सपने संजोता उपन्यास है- भीष्म प्रतिज्ञा-
माणक तुलसीराम गौड़
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साहित्य जगत में श्री किशोर शर्मा ‘सारस्वत’ एक जाना-माना नाम है जो उच्च शिक्षित तो हैं ही साथ ही हरियाणा राज्य के सूचना आयोग में सलाहकार पद को भी सुशोभित कर चुके हैं। आपकी अब तक सत्रह कृतियाँ साहित्य जगत में पदार्पण कर चुकी हैं जिनमें सात कृतियाँ प्रसिद्ध और बेस्टसेलिंग के दर्जे में आ चुकी हैं। इनके अतिरिक्त दो कहानी संग्रह तथा एक काव्य संग्रह ‘एक अभिलाषा अधूरी-सी’ के नाम से प्रकाशित हो चुके हैं। आपको आपकी श्रेष्ठ रचनाधर्मिता एवं साहित्य सेवा के लिए अनेक सम्मान एवं पुरस्कारों से नवाजा गया है, जो एक गौरव का विषय है।

‘भीष्म प्रतिज्ञा’ नामक उपन्यास इनका इसी वर्ष प्रकाशित हुआ है जिसे श्री किशोरजी ने मुझे अपना मानते हुए बड़े ही नेह के साथ भेजा है, जिसे मैंने सात दिन में पढ़ डाला। उपन्यास में गति है, लय है, मेरी-आपकी सब की बातें हैं, रोचकता है, घटनाओं की एक श्रृंखला है। उपन्यास के नायक जिसका नाम ‘कृपाशंकर’ है के मन में एक आग है तो कुछ कर गुजरने का जज्बा भी। भविष्य के सपने हैं तो सच को सच तथा झूठ को झूठ कहने का माद्दा भी। त्याग करने की तमन्ना है तो बलिदान होने का मन में बल भी। जीवन जीने की जिजीविषा है तो जीवन उत्सर्ग करने का साहस भी। किसी के साथ चलने की प्रबल इच्छा है तो किसी को साथ लेकर चलने का सामर्थ्य भी। प्रेम का प्यासा है तो नेह लुटाने की चाहत भी। किसी का परामर्श मानने की ललक है तो नेतृत्व करने की क्षमता भी। पात्र व्यक्ति को सहयोग करने की भावना है तो जरूरत पड़ने पर सहयोग प्राप्त करने की तत्परता भी। और अंत में मानवोचित व्यवहार करने में हमेशा आगे रहने का स्वभाव है तो अपने मित्रों को उसी पथ पर चलने के लिए प्रेरणा देने की कूवत भी।

उपन्यास ‘भीष्म प्रतिज्ञा’ का फलक बड़ा व्यापक और विस्तृत है। जिसमें इस उपन्यास के शीर्षक को सार्थक करता हुआ नायक कृपाशंकर एक छोटे-से गाँव का निवासी है। जो विद्यार्थी जीवन से ही एक होनहार छात्र रहा है। जिसके पिता का नाम पं. दीनदयाल, माता का नाम सावित्री तथा बहन का नाम यशोदा है। परिवार में मुफ़लिसी है। फिर भी अपनी सीमित आय में गुजारा करने वाला परिवार। परम संतोषी स्वभाव।

कृपाशंकर के मन में उसके प्रारंभिक विद्यार्थी जीवन से ही एक ज्वलंत प्रश्न हमेशा बना रहा कि हम इस भारत भूमि में हमेशा बहुसंख्यक रहे, मगर हम ही क्यों निरंतर गुलाम रहे। क्यों हमने गुलामी को हमारी मानसिकता मान ली। क्यों नहीं हमने सामूहिक प्रयास और संघर्ष किए। क्यों नहीं हमने इकट्ठे होकर उन आतताइयों का मुकाबला किया! क्यों हमने हमारे आदर्शों- सुभाषचन्द्र बोस, वीर सावरकर, लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक, बंकिमचन्द्र पाल, लाला लाजपतराय, चन्द्रशेखर आजाद, भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव जैसे वीरों, बलिदानियों, तपस्वियों के त्याग को भुला दिया!
उपन्यास के अनुसार यह वृति आज भी हमारे देश में विद्यमान है। मीर जाफर हर युग में पैदा हो रहे हैं। तभी तो उनके मामाजी कहते हैं, ‘‘इसका कारण था बेटा, द्वेष की भावना और आपसी फूट। जब एक राजा अंग्रेजों से लड़ता था तो दूसरा उनकी सहायता करता था। बस यही सिलसिला चलता रहा और अंग्रेज देश पर कब्जा करते गए।
पृष्ठ- 45

बालक कृपाशंकर के मन में ग्राम विकास की तड़प बालपन से ही कुलाँचें मारती रही। चाहे वह समस्या गाँव में पीने के पानी की हो या फिर शराब और अन्य नशाखोरी के विरोध की। गाँव में शिक्षा सुधार की बात हो या अन्य विकास की बातों की।
कहते है जहाँ चाह वहाँ राह मिल ही जाती है। अपनी निर्धनता के कारण जब कृपाशंकर की पढ़ाई में बाधा आई तो उस पर नेह बरसाने वाली अध्यापिका ने पढ़ने के लिए उसे अपने पास बुला लिया और यहीं से उसके जीवन ने करवट बदली।
वह पढ़ने के उद्देश्य से गाँव छोड़कर शहर आ तो गया पर उसका कोमल और मोम-सा मन गाँव की गलियों में ही भटकता रहा। उसे अपने बाल सखा जिसमें रामू पहलवान मुख्य था, हमेशा याद आता रहा। गाँव की ओछी राजनीति और स्थानीय राजनेताओं के नित नये हथकण्डे उसे बेचैन किए रहते। खासकर स्थानीय चुनावों में अपनाए जाने वाले षड़यंत्र।

इस बीच महाविद्यालयीन पढ़ाई के दौरान जब उसका संपर्क सहपाठी दुस्यंत, अमरदीप, अनुराधा इत्यादि से होता है तो उसे जीवन के अनेक खट्टे-मीठे अनुभवों से गुजरना पड़ता है। दुष्यंत एक अमीर परिवार का बिगड़ेल लड़का था जो कॉलेज में तफरीह करने जाता है तथा सुंदर-सलोनी लड़कियों को छेड़ना, भद्दे मजाक करना तथा उनके साथ दिल्लगी करके अपना मन बहलाता है। इसी तारतम्य में जब वह अनुराधा के साथ निचले स्तर की हरकत करता है तो उसे मुँह की खानी पड़ती है। कहते हैं कि ‘भगवान के घर देर है, अंधेर नहीं तथा गोपाल की लाठी बजती कम, मगर चोट गहरी करती है।’ दुर्भाग्यवश दुस्यंत की एक भयंकर सड़क दुर्घटना होती है और वह कृपाशंकर तथा अनुराधा की असीम सहायता तथा सेवा-सुश्रुषा से बच जाता है।
बस, यहीं से दुष्यंत की जिंदगी बदल जाती है। जब वह अस्पताल में पड़ा हुआ स्वास्थ्य लाभ ले रहा होता है तब अनुराधा उससे मानवता के नाते मिलने जाती है। उसे देखकर पश्चाताप के मारे दुष्यंत के आँसू टपक पड़ते हैं। उसकी दुर्दशा देखकर अनुराधा की आँखें भी छलक जाती हैं।
तब दुष्यंत हिम्मत बटोरकर रुंधे गले से बोलता है- ‘‘भाई को माफ नहीं करोगी अनुराधा ?’’
ये चंद शब्द मानो तीर बनकर अनुराधा के दर्द भरे मन को छेदकर पार कर गए हों। वह सुबक-सुबक कर रोने लगी। पत्थर का कठोर बुत आज मोम बनकर उसके सामने अपनी पहचान बदल चुका था। वाह रे समय! तू कितना बलवान है। आदमी तो तुच्छ है तेरे सामने। वो मूर्ख है जो तुझे पहचानते नहीं और तेरे र्वमान में मदमस्त होकर भविष्य के सुनहरे सपने देखने लगते हैं। जबकि भविष्य तो अंधकार है, जिसे पहचान पाना मुश्किल है।
तब अनुराधा ने धीरे-से दुष्यंत का हाथ पकड़कर ऊपर उठाया और उसे झुककर माथे से लगाकर आँखें बन्द कर ली। उसके नयनों से टपके आँसू दुष्यंत की कलाई पर जा गिरे। मानो एक बहिन ने अपने भाई की कलाई पर धागे की नहीं अपितु आँसुओं की राखी बाँध रही हो। पृष्ठ 256
मेरे मतानुसार यह प्रसंग इस उपन्यास की आत्मा है।

जब कृपाशंकर देखता है कि गाँव हो या कस्बा, शहर हो चाहे नगर चारों तरफ अंधविश्वास, व्यसन, परंपरावादी सोच, रूढ़ीवादिता, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, अशिक्षा, आडंबर, ढ़कोसले, लंपटता, चापलूसी, स्वार्थपन, छल-कपट, धोखाधड़ी, भाई-भतीजावाद जैसी दिखने में लघु, मगर घाव करने में गंभीर बातों से जब तक नहीं निपटा जाएगा, आगे बढ़ना मुश्किल है। इन नन्ही-नन्ही बातों पर हम ध्यान भले ही नहीं दे पाते हों, मगर ये छोटी बातें ही आगे चलकर बड़े-बड़े प्रभाव डालती हैं। छोटी-छोटी बातों से ही देश बनता है और उसी से देश बिगड़ता है।
जीवन में आगे बढ़ने के लिए हमारा कोई एक सहारा या कहो कि कोई निमित बनता है जैसे कृपाशंकर को वह अध्यापिका मिली और य सोदा को मामाजी। अन्यथा वे गरीब घर के बच्चे पढ़ और बढ़ नहीं पाते।

जब हमारे मन में किसी को जोड़ना होता है तो इसका माध्यम कोई भी हो सकता है, बशर्तें हमारा ध्येय पवित्र हो। जैसे कृपाशंकर ने कुश्ती दंगल के माध्यम से अपने गाँव वासियों को जोड़ा जो दो गुटों में बंटकर रोज आपस में सिर फोड़ते थे।
हम जो दुनिया के साथ व्यवहार करते हैं। उन पर हमारे मात-पिता या गुरुजनों की दृष्टि हमेशा रहनी चाहिए ताकि हम भटकें नहीं। इसी तारतम्य में एक बार दीनदयालजी कृपाशंकर से कहते हैं- ‘‘बेटा, जवानी का उबाल दूध की तरह होता है जो कभी भी बर्तन से बाहर निकल सकता है।’’ पृष्ठ 288
इसी तरह भारत भ्रमण के दौरान जब उसे एक जगह पुलिस कप्तान कहते हैं- ‘‘दूध में पानी तो मिलाया जा सकता है, मगर पानी में दूध नहीं मिलाया जा सकता। जब सारी व्यवस्थाओं को घुन और जंग लग चुका हो तो उन्हें जीवनदान देना इतना सहज नहीं है, जितना तुम मानकर चल रहे हो।’’ पृष्ठ 334
‘‘दुर्जन से मित्रता और दुश्मनी दोनों को त्याग दो। क्योंकि दोनों ही हानिकारक है।’’ पृष्ठ 362
कृपाशंकर के संघर्ष में पीटर की भी महत्वपूण भूमिका रही। जिसने उसके प्रथम उपन्यास ‘अपना देश’ को प्रकाशित करवाने, बिक्री की व्यवस्था करने तथा अग्रिम भुगतान देकर वह कृपाशंकर की आर्थिक सहायता करता रहा। अन्यथा उसकी भारत भ्रमण यात्रा सफल नहीं हो पाती।

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। वह अकेला कुछ नहीं कर सकता। सभी मिलकर के बहुत कुछ कर सकते हैं। एकता में बहुत शक्ति होती है, यही इस उपन्यास का महत्वपूर्ण संदेश है। कहा भी गया है- ‘‘झुंड से बिछुड़कर तो शेर भी कमजोर पड़ जाता है।’’ पृष्ठ- 364
‘‘इनसान जितना दूर होता है, उसकी कशिश उतनी ही पास होती है और शायद जीवन की यही सब से बड़ी आकर्षक और मनोहारी अवधि होती है। पृष्ठ- 383
भारत भ्रमण के दौरान जब कृपाशंकर राजनेताओं की बातों के जाल में फँसकर चुनाव के वक्त जब संबोधन करता है तब उस पर जानलेवा हमला हो जाता है। अमनदीप उससे मिलकर जब उसके गाँव धर्मपुर जाकर उसकी माँ से मिलता है तब वह कहती है, बेटा, अम्माजी के हाथ से बनी हुई चीज और बाजार से खरीदी गई चीज में बहुत अंतर होता है। एक में आत्मिक स्नेह होता है और दूसरी में मजबूरी की तल्ख।’’ कितना हृदयस्पर्शी बचन है। पृष्ठ- 388
अब देखिए राजनीति पर एक तंज की बानगी, ‘‘राजनीति तो वो खेल है जहाँ पर ना कोई मित्र है और ना कोई दुश्मन, केवल स्वयं हित सर्वोपरि है।’’ यह एक कटु सत्य है। पृष्ठ- 404

भवन की सुदृढ़ता उसके सुंदर कंगूरों से नहीं बल्कि उसकी नींव की मजबूती पर निर्भर करती है। हमें सर्वप्रथम हमारे चरित्र को उज्ज्वल रखते हुए, हमारे हृदय में राष्ट्र प्रेम की ज्योत जगानी होगी, हमें हमारे कर्तव्य निर्वहन पर खरा साबित होतेेे हुए दायित्वों को भलि-भाँति निभाना होगा। अपनी स्वार्थपरता को तिलांजलि देते हुए परहित के मार्ग पर चलना होगा। यह काम सरल नहीं है। काँटों पर चलना है। मगर कुछ पाना है तो कुछ खोना होगा, यही सीख देता, समझाता है यह उपन्यास ‘भीष्म प्रतिज्ञा’ जिसे हर नवयुवक को न केवल पढ़ना चाहिए बल्कि इसे अपनी आदर्श रचना मानते हुए इससे समय-समय पर आवश्यकतानुसार मार्गदर्शन प्राप्त करते रहना चाहिए।
इस तरह एक वृहद उपन्यास जिसका समापन सुखांत होता है, जिसमें उपन्यास का नायक देशभक्त और रचनाधर्मी कृपाशंकर का शुभ विवाह अपने माता-पिता की सहमति से उपन्यास की नायिका अनुराधा के साथ होता है।

समीक्षित कृति में विविध प्रकार की शैली का प्रयोग हुआ है जिससे इसमें रोचकता आ गई है, भाषा सीधी, सरल, प्रांजल तथा देशज शब्दों से सजी हुई है। यत्र-तत्र मुहावरों का समुचित प्रयोग हुआ है। पात्रानुकूल भाषा से उपन्यास में एक अलग ही प्रभावोत्पादकता पैदा हो गई है तथा यह कृति भी उत्कृष्टता की श्रेणी में आ गई है।

इस वृहद उपन्यास की संरचना के लिए उपन्यासकार श्री किशोर शर्मा ‘सारस्वत’ जी को मेरे हृदय की अतल गहराइयों से मैं बधाई देता हूँ।
मुझे पूर्ण विश्वास है कि साहित्य जगत, पाठक तथा विशेषकर युवावर्ग में इसका खुले मन से स्वागत होगा।

***
मेरी पुनः शुभकामनाएँ।
पुस्तक का नाम : भीष्म प्रतिज्ञा
लेखक : किशोर शर्मा ‘सारस्वत’
मो. नं. : 90502 23036
विधा : उपन्यास
प्रकाशक : के बी एम प्रकाशन
प्रथम संस्करण : 2025
मूल्य : रुपये : 699
पृष्ठ : 449 (सजिल्द)
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समीक्षक :
माणक तुलसीराम गौड़
बेंगलुरु
मो. नं. :
87429 1695

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उपन्यास : जीवन एक संघर्ष
उपन्यासकार : किशोर शर्मा 'सारस्वत'
कुल भाग : 42, कुल पृष्ठ : 940
आज समीक्षा : भाग 39 की

कथानक : समय का फेर कुछ ऐसा हुआ कि राधोपुर गाँव में जगपाल का परिवार जो कुछ भी नहीं था, अब सब-कुछ हो गया। रमन जब तक कलेक्टर पत्नी के साथ अपनी हनीमून ट्रिप से वापस लौट न आया, 'नन्दलाल अखाड़ा' को लेकर अंतिम स्वरूप दिए जाने का मामला टाल दिया गया था।
फिर जब रमन लौटा तो बैठक हुई और इसमें अखाड़े के लिए जमीन का बन्दोबस्त करना, साथ ही आवश्यक सुविधाओं हेतु धन उपलब्ध कराना आदि मुद्दे शामिल थे।
90 वर्षीय ताऊ हवा सिंह ने बैठक की अध्यक्षता की। बैठक में यह भी तय हुआ कि अखाड़े का उद्घाटन ताऊ द्वारा ही किया जाएगा।
ऐन वक्त पर यद्यपि ताऊ का स्वास्थ्य बिगड़ गया और ताऊ के लिए कविता ने अपनी कार भेज दी। ताऊ अस्पताल में कुछ ठीक होकर आए, सुबह उद्घाटन किया और शाम तक चल बसे।

उपन्यासकार ने इस 20 पृष्ठीय अंक को केवल 'नन्दलाल अखाड़ा' पर केन्द्रित किया है। गाँव के पूर्व में रहे किसी प्रसिद्ध खिलाड़ी को इससे बेहतर श्रद्धांजलि नहीं हो सकती। इस परम्परा से निश्चय ही अन्य खिलाड़ी भी प्रोत्साहित होते हैं।
प्रस्तुत है, वे पंक्तियाँ जो किसी भी खेल और खिलाड़ी को महत्त्वपूर्ण बनाना प्रेरक एवं अनुकरणीय होता है:
- नन्दू ताऊ के पश्चात गाँव में कोई ऐसा पहलवान नहीं हुआ जो उसकी बराबरी कर सकता। दंगल में बड़े-बड़े पहलवान दाँव-पेंच में उसके सानी नहीं थे। धोबी-पटका का ऐसा दाँव चलाता था कि अपने से भारी पहलवानों को धूल चटा देता था। (पृष्ठ 771)
समय के साथ बदलती परिस्थितियों ने पूर्व में अन्याय के प्रतीक केहर सिंह को अब एक अति सभ्य, दयालु और सौम्य पुरुष बना दिया था:
- 'मैंने अज्ञानतावश उस भद्र पुरुष (नन्दू ताऊ) के साथ काफी अन्याय किया था। अब मैं उस पाप को धोना चाहता हूँ। जमीन का जो भी टुकड़ा कुश्ती अखाड़े के लिए चयनित किया जाता है, भू मालिक को उसकी कीमत मैं अपनी ओर से अदा करूँगा।' (पृष्ठ 773)
- 'यह सब उस लड़के (रमन) की करामात है। भला हो उसका जिसने हम लोगों की आँखें समय रहते खोल दी हैं, वरना हम तो कुत्ते-बिल्लियों की तरह लड़ कर अपना समय बर्बाद कर रहे थे।' (पृष्ठ 779)
लेखक ने ग्राम प्रधान केहर सिंह के कहे संवाद से एक बहुत महत्वपूर्ण बात कह दी है। इसके लिए उनकी लेखनी की जितनी सराहना की जाए, कम है।

समीक्षक : डाॅ. अखिलेश पालरिया, अजमेर
23.01.2025

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उपन्यास : जीवन एक संघर्ष
उपन्यासकार : किशोर शर्मा 'सारस्वत'
कुल भाग : 42, कुल पृष्ठ : 940
आज समीक्षा : भाग 38 की

कथानक : दूल्हा-दुल्हन को विवाह के बाद अगली सुबह गाँव की परम्परा के अनुसार मंदिर ले जाया गया। अतिथियों की विदाई के बाद वे चंडीगढ़ पहुँच कर हनीमून के लिए डलहौजी के लिए निजी कार द्वारा एक ड्राइवर लेकर प्रस्थान कर गए। लेकिन पठानकोट से बाहर निकलते ही चढ़ाई शुरू हो गई। ड्राइवर डलहौजी के कुछ पहले सीधी चढ़ाई का अभ्यस्त न था अत: चढ़ाई पर कार चलाने की अभ्यस्त कविता को ड्राइविंग करनी पड़ी।
डलहौजी पहुँच कर उन्होंने अगली सुबह ड्राइवर को चंडीगढ़ के लिए रवाना कर दिया और फिर दोनों विशेषकर रमन ने वहाँ के प्राकृतिक सौन्दर्य का खूब आनन्द लिया। कविता तो इन्हीं वादियों में पल-बढ़कर बड़ी हुई थी और यहाँ के रास्तों से भी परिचित थी।
पहले दिन तो वे डलहौजी में ही घूमते रहे- पहले, गाँधी चौक व बाद में सुभाष चौक। रमन प्रथम बार इतने सुहावने दृश्य देखकर आनंद में डूबा हुआ था। वह जिधर भी देखता, प्रकृति मुस्कुराती ही नजर आती थी।
कविता ने वहाँ से रमन के लिए एक हिमाचल टोपी एक हाफ कोट तो रमन ने कविता के लिए एक महंगा पश्मीना शाल खरीदा। दुकानदार ने कविता की सुंदरता तथा व्यक्तित्व देख कर ही यह कहते हुए शाल दिखाई थी कि इससे बढ़िया शाल कहीं नहीं मिलेगी।
दूसरे दिन उन्होंने अपनी कार के लिए होटल वालों को कहकर एक ड्राइवर बुक कर लिया था जो सुबह ही वहाँ पहुँच गया था।
अब पहले वे लकड़ मंडी पहुँचे जहाँ से खजियार जाने के लिए रवाना हुए जहाँ पूरा रास्ता ढलान में था। खजियार वहाँ से 22 किमी. था जिसे बेहद खूबसूरत होने के कारण *मिनी स्विटजरलैंड* भी कहा जाता है।
होटल आकर वे दूसरे दिन सुबह 56 किमी.दूर चंबा शहर के लिए रवाना हुए। रास्ते में वहाँ की निराली सुंदरता के साथ दोनों ने फोटो खिंचाई और चंबा के सर्वाधिक प्रतिष्ठित लक्ष्मीनारायण मंदिर पहुँचे, साथ ही म्यूजियम, पैलेस आदि को देखा। मंदिरों के शहर चंबा में चौरासी ऐसे मंदिर हैं जिन्हें आठवीं और दसवीं शताब्दी में बनवाया गया था।
बारिश के कारण उन्हें जल्द ही होटल में लौटना पड़ा था।
अगले दिन सुबह भी बादलों की गर्जना और बिजली की कड़क ने उन्हें होटल से बाहर न निकलने के लिए विवश कर दिया। फिर वे प्रकृति और प्रेम पर ही बातों में लीन रहे।
ड्राइवर के आने पर उन्होंने कल सुबह आने के लिए कहा ताकि वह उन्हें चंडीगढ़ छोड़कर आ सके।
एक और सुबह हुई तो बाहर बर्फ की सफेद चादर प्रत्येक वस्तु को अपने में समेटे हुए थी।
वे अपनी कार द्वारा उसी ड्राइवर को साथ लेकर भारी मन और डलहौजी में बिताए सुनहरी मीठी यादों के साथ चंडीगढ़ के लिए रवाना हुए और लुधियाना कुछ ऊनी गिफ्ट खरीदते हुए देर शाम चंडीगढ़ पहुँचे जहाँ भुआ उनकी प्रतीक्षा कर रही थीं।
दूसरे दिन वे पिंजौर गार्डन गए जहाँ का दृश्य स्वर्ग की तरह था। वहाँ रंग महल और जल महल पहुँचकर कविता ने मैनेजर को अपना परिचय देकर सुइट बुक करा लिया। रात वहीं रुक कर दूसरे दिन बुआ के पास ठहरते हुए हुए अगले दिन अपने घर की ओर प्रस्थान कर गए।

उपन्यासकार ने एक तरह से चंडीगढ़ से डलहौजी, खजियार व चंबा का सुंदर वर्णन यात्रा-वृत्तांत की तरह किया है।
कुछ झलकियाँ प्रस्तुत हैं:
- 'काफी सर्दी है, कितनी ठंडी हवा चल रही है।'
- 'यही तो पहाडों की खासियत है। ये हवा और हरियाली न हो तो यहाँ पर कौन आएगा?'
- 'प्रकृति की अजीब विडम्बना है। उसे भी मानो ये ऊँचे पहाड़ और दुर्गम रास्ते ही पसंद हैं।' (पृष्ठ 704)
- प्रकृति ने सारी ने सारी नेमत इन पहाड़ों को बक्श दी है। अपने दाएँ, बाएँ और सामने देखो, कहीं आपको उदासी नजर आती है क्या? ऐसा प्रतीत होता है मानो ब्रह्मांड में स्थित समस्त पेड़-पौधे, जीव-जन्तु और ये कल-कल करते झरने अपने यौवन की बहार में मदमस्त हों।' (पृष्ठ 717-18)
लेखक ने चंडीगढ़ में पिंजौर गार्डन का वर्णन कुछ इन शब्दों में किया है:
- पूरी नहर को प्रकाश से आलोकित कर दिया गया था। पानी की फुहारें रंगीन प्रकाश के आलिंगन में अनगिनत इंद्रधनुषों का आबोधन करवा रही थीं। ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानो स्वर्ग पृथ्वी पर उतर आया हो।
- 'सचमुच आपका यहाँ पर ठहरने का निर्णय स्मरणीय है। यहाँ का एक दिन ही किसी सुहाने सफर के सौ दिनों के बराबर है। अब डलहौजी से वापस आने का मुझे कोई मलाल नहीं रह गया है।' (पृष्ठ 765)
लेखक 84 पृष्ठीय इस अंक को सही मायने में एक यात्रा-वृत्तांत बनाकर पाठकों को चंडीगढ़ से डलहौजी और चंबा के दर्शनीय स्थलों, वहाँ के दुर्गम चढ़ाई के मार्गों, पहाड़ों के सुंदर मनभावन दृश्यों की तुलना यूरोप व स्विट्जरलैंड से करते हुए, साथ में वर्षा व बर्फबारी के कारण मार्ग अवरुद्ध होने सम्बन्धी विविधतापूर्ण चित्रण से पाठकों से अपनी लेखनी का लोहा मनवाने में सफल हुए हैं।

समीक्षक : डाॅ. अखिलेश पालरिया, अजमेर
20.01.202

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उपन्यास : जीवन एक संघर्ष
उपन्यासकार : किशोर शर्मा 'सारस्वत'
कुल भाग : 42, कुल पृष्ठ : 940
आज समीक्षा : भाग 37 की

कथानक : शादी राधोपुर गाँव के एक व्यक्ति रमन की हो रही थी लेकिन पूरे गाँव का कायाकल्प हो गया था क्योंकि गाँव में उनकी चहेती जिलाधीश, बहू बनकर आ रही थी।
गाँव में सब लोग इस शादी से आह्लादित थे। बारातियों के लिए चंडीगढ़ का एक नामी होटल बुक करा लिया गया। कुछ पलों के लिए राज्य के मुख्यमंत्री भी वर-वधू को आशीर्वाद देने पहुँचे।
बाराती इस खूबसूरत शहर में घूमे-फिरे, बढ़िया नाश्ता-खाना खाकर तृप्त हुए। फिर सायं दुल्हन की विदाई की बेला आ गई।
इधर दुल्हन की मामी अपने ओछे वक्तव्यों से बाज नहीं आ रही थी।
रात 10 बजे बारात राधोपुर पहुँची तो दुल्हन की सास ने दुल्हन की अगवानी की। सबने रात का खाना खाया। गाँव की महिलाएँ लोकगीतों को गाने में मस्त थीं। फिर स्टेज पर कार्यक्रम हुआ। थकान के बावजूद सबमें जोश था। दूल्हा-दुल्हन थक चुके थे लेकिन नाच-गानों में ही सुबह के तीन बज गए। कविता, जिसके आदेशों का डंका पूरे जनपद में चलता था, आज बेबस होकर कार्यक्रम समाप्ति के लिए बेचैन हो रही थी।

उपन्यासकार ने विवाह की तैयारियों से लेकर चंडीगढ में विवाहोत्सव, विदाई व राधोपुर में बारात वापसी व उत्सव समाप्ति तक का वर्णन बहुत ही सुंदर ढंग से किया है।
प्रस्तुत हैं, बेटी की विदाई के कुछ मार्मिक क्षण:
- माँ की आँखों में आँसू थे, जिन्हें वह रोकने की कोशिश कर रही थी। आखिर कब तक रोक पाती। मुँह मोड़कर अपने दिल में रुका हुआ गुबार निकालने लगी। इससे पहले कि सुचित्रा, भाभी को ढाढ़स बँधाती वह स्वयं ही बच्चों की तरह अपना धैर्य खो बैठी। भाई के कंधे पर सिर रखकर रोने लगी। महेश्वर प्रसाद जी मुँह से कुछ न बोल पाए। भारी मन से बहन के सिर पर हाथ रखकर उसे चुप कराने की कोशिश करने लगे। (पृष्ठ 679)
- पीहर का घर दुनिया में सबसे अनमोल चीज होती है। उससे बिछोह शायद सबसे अधिक मार्मिक होता है। डबडबाती सुर्ख आँखों को भींचकर वह पहले माँ की छाती पर अपना सिर टिकाकर उस जननी के मातृत्व के स्नेह में सराबोर हो गई, जिसकी कोख से जन्म लेकर वह आज उस मुकाम तक पहुँची थी। माँ ने उसका सिर अपने चेहरे के सामने लाकर उसके माथे को चूमा और फिर अपने आलिंगन में लेकर अपनी दुलारी को अपने धड़कते दिल से लगा लिया। (पृष्ठ 679)
लेखक ने सभी वैवाहिक घटनाओं का जीवन्त वर्णन किया है जिसमें उत्कृष्ठ भाषा शैली, जानदार संवाद व परिवेश का चित्रण, सब-कुछ मानो सामने घटित हो रहा हो।

समीक्षक : डाॅ. अखिलेश पालरिया, अजमेर
17.01.2025

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उपन्यास : जीवन एक संघर्ष
उपन्यासकार : किशोर शर्मा 'सारस्वत'
कुल भाग : 42, कुल पृष्ठ : 940
आज समीक्षा : भाग 36 की

कथानक : रमन की प्रबल इच्छा थी, कविता से बात करने की। किन्तु अभी करूँ या नहीं, सोचता ही रह गया वह कि खुद कविता का फोन आ गया। कुछ अन्तरंग वार्तालाप हुआ फिर पता चला कि शादी 14 जून को चंडीगढ़ में होगी।
बाद में कविता के मम्मी-पापा से बात करने पर तय हुआ कि वह रमन के साथ जाकर कपड़े व गोल्ड चंडीगढ़ से ही खरीद लेगी।
दोनों निजी कार द्वारा ड्राइवर को साथ लेकर चंडीगढ के लिए रवाना हुए। समय कम था, पहले कपड़ों की खरीदारी की फिर एक रेस्तराँ में डोसा खाया, हनीमून पर जाने के बारे में भी विचार किया और अंत में काॅफी पीकर गोल्ड खरीदने के साथ ही वापसी के लिए कार में बैठ गए।
जिला मुख्यालय पहुँचने तक रात के ग्यारह बज गए थे। क्वार्टर में खाना खाकर रमन विश्राम घर में सोने चला गया और सुबह जब राधोपुर पहुँचा तब जाकर घर वालों को शांति मिली।
जगपाल ने प्रबुद्ध लोगों को शाम को घर आने का न्यौता भेजा ताकि विवाह के बारे में बातचीत हो जाए।
सभी बुजुर्ग जगपाल के घर इकट्ठा हो गए। सबने रमन की तारीफ की और विवाह के लिए मिलजुल कर अच्छी तरह विवाह को निपटाने की बात कही क्योंकि यह विवाह तो गाँव की इज्जत का सवाल था।
सब लोगों के बीच केहर सिंह भी था जो गुमसुम बैठा था, लौटते समय उसने ताऊ हवा सिंह को कहा कि उसने जगपाल व रमन के साथ बहुत बुरा किया था और अब वह इसका पश्चाताप करना चाहता है क्योंकि उसने जगपाल की फसल खराब की, वह बतौर हर्जाने उसकी मदद करना चाहता है। उसने ताऊ को कहा कि वह किसी तरह स्वाभिमानी जगपाल को इस मदद को स्वीकार करने के लिए तैयार करे ताकि वह इस मानसिक बोझ से किसी तरह विमुक्त हो जाए।

इस अंक में सब-कुछ सकारात्मक होने से उपन्यासकार ने पाठकों का मन खुशी से भर दिया है।
प्रस्तुत है, केहर सिंह के बारे में ताऊ द्वारा जगपाल को कहे संवाद के अंश:
- 'कल शाम जब हम लोग यहाँ से घर जा रहे थे तो केहर सिंह मेरे साथ ही हमारे यहाँ पहुँचा। मुझे लगता है, वह जरूरत से अधिक ही बदल गया है। एकदम साधु प्रवृत्ति का हो गया है। अपने पुराने पापों को इसी जन्म में धो डालना चाहता है। क्षमा-याचना तो पहले ही कर चुका है परन्तु अब वह उनसे उऋण भी होना चाहता है।' (पृष्ठ 671)
केहर सिंह का यह परिवर्तन सिद्ध करता है कि बुरा आदमी भी एक दिन बुराई त्याग कर अच्छाई की ओर बढ़ना चाहता है। साथ ही यह भी कि परिस्थितियाँ ऐसी बन जाती हैं कि अतीत का जानी दुश्मन भी हितैषी बन जाता है।

समीक्षक : डाॅ.अखिलेश पालरिया, अजमेर।
14.01.2025

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उपन्यास : जीवन एक संघर्ष
उपन्यासकार : किशोर शर्मा 'सारस्वत'
कुल भाग : 42, कुल पृष्ठ : 940
आज समीक्षा : भाग 35 की

कथानक : मुख्यमंत्री द्वारा राधोपुर में स्कूल के उद्घाटन की दूसरी सुबह कविता के पिता ने खुशनुमा माहौल में उसे बताया कि वे राधोपुर में सबके सामने रमन के साथ उसकी सगाई का ऐलान करके आ गए हैं।
कविता के ऑफिस जाने के बाद उसके मम्मी-पापा ने कविता की भुवा-फूफा तथा मामा-मामी को फोन कर आने का निमंत्रण दिया ताकि कविता के विवाह की तैयारियों पर बात की जा सके।
वे सब निश्चित समय पर कविता के सरकारी बंगले में पहुँच गए तो पहले लड़के रमन को लेकर बात हुई, बाद में विवाह की तैयारियों पर। यह भी तय हुआ कि विवाह सुविधाजनक स्थल चंडीगढ़ में ही रखा जाए।
सब-कुछ तय होने के बाद सभी अपने-अपने स्थान के लिए रवाना हो गए।

उपन्यासकार ने इस अंक में मुख्यत: कविता जो जिला कलक्टर है, के घर व ऑफिस की व्यस्तता के चित्रण के साथ ही पहली बार अपने घोषित पति के साथ मीठी बातों के संवादों से भी पाठकों को रूबरू करवाया है, साथ ही परिवार जनों के आत्मीय व कंटीले वचनों का भी आस्वादन कराया है।
प्रस्तुत है, बिगड़े रिश्तों वाले परिजनों के मध्य संवादों की छोटी सी झाँकी:
- 'कौन लोग हैं वो, जहाँ मेरी भानजी को भेज रहे हो चुपके-चुपके?'
- 'देहाती लोग हैं, परन्तु हैं मन के बहुत अच्छे।'
- 'क्या? हमारी बेटी देहात में जाएगी, जहाँ पर इसने अभी तक पैर भी नहीं रखा है? शहर में क्या लड़कों का अकाल पड़ गया है जो नोबत यहाँ तक आ पहुँची?'
- 'गाँवों में क्या इंसान नहीं रहते? बल्कि वहाँ पर अभी भी इंसानियत कायम है। रिश्तों में अच्छाई सर्वोपरि होती है, न कि सूट-बूट के साथ मन की मैल। पति-पत्नी का रिश्ता तो मन मिले का होता है, चाहे वो जंगल में ही क्यों न हो।' (पृष्ठ 631)
लेखक ने छोटी से छोटी बातों का भावनात्मक चित्रण कर इस अंक को भी रोचक और पठनीय बनाया है।

समीक्षक : डाॅ.अखिलेश पालरिया, अजमेर
11.01.2025

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उपन्यास : जीवन एक संघर्ष
उपन्यासकार : किशोर शर्मा 'सारस्वत'
कुल भाग : 42, कुल पृष्ठ : 940
आज समीक्षा : भाग 34 की

कथानक : इस बार के मुख्यमंत्री ईमानदारी और मेहनती अधिकारियों को महत्वपूर्ण पदों पर देखना चाहते थे। मुख्यमंत्री के निर्देश पर ऐसे अधिकारियों की सूची बनी, उसमें प्रथम गिने-चुने व्यक्तियों में कविता का नाम भी था। मुख्यमंत्री ने ऐसे लोगों को व्यक्तिश: उनके पसंद के जिले में जिला स्तर पर लगाने हेतु बुलाया।
कविता ने झिझकते हुए कहा कि वह तो सर्विस छोड़कर ग्रामीण बच्चों का स्तर सुधारना चाहती है जिसका भवन एक वर्ष में बनकर तैयार हो जाएगा। मुख्यमंत्री ने उसे एक वर्ष तक वहाँ जिला कलक्टर के पद पर काम करने को कहा। यही नहीं, कविता के अनुरोध पर वे राधोपुर गाँव को आदर्श ग्राम बनाने को राजी हो गए।
कविता ने खूब मेहनत कर मुख्यमंत्री जी का दिल जीत लिया और उन्होंने राधोपुर ग्राम में स्कूल के साथ प्रौढ़ शिक्षा केन्द्र तथा स्टेडियम का उद्घाटन करने की तिथि निश्चित कर दी।
कविता ने इस बीच स्वयं मुख्यमंत्री की चाहत पर फिलहाल रमन व अपने माता-पिता की भी मंशा पर नौकरी छोड़ने का विचार त्याग दिया क्योंकि स्कूल का काम तो रमन खुद सँभाल सकता था।
स्कूल के लिए अनुदान कविता के पिता द्वारा दिया गया था। रमन ने भी वहाँ कविता के माता-पिता का मन जीत लिया था।
मुख्यमंत्री जी ने उद्घाटन के लिए पहुँचकर अपने भाषण में भी कविता की खूब सराहना की। उद्घाटन के बाद कविता तो मुख्यमंत्री जी के साथ प्रोटोकॉल के तहत चली गई लेकिन सभी ग्रामवासियों के समक्ष उसके पिता ने कविता के साथ रमन की सगाई की घोषणा कर दी तो सबकी खुशी की सीमा न रही क्योंकि रमन के त्याग और पहल पर ही राधोपुर गाँव का इतना विकास संभव हुआ था। वहाँ हर्ष के बीच केहर सिंह ने सबके बीच कहा कि कन्यादान तो मैं ही करूँगा।

उपन्यासकार ने इस अंक को भी सकारात्मकता से भरकर पाठकों को आनन्दित कर दिया। इसी अंक में उपन्यास के भविष्य की नींव रखने की रूपरेखा तैयार हुई है। जैसे- कविता के मम्मी-पापा का राधोपुर आना तथा स्कूल के निर्माण हेतु राशि उपलब्ध कराना, उनको गाँव वालों की आत्मीयता के साथ रमन के लिए खुशी-खुशी स्वीकारोक्ति, कविता का मुख्यमंत्री की पहल पर सर्विस न छोड़ने का निर्णय करना।
यहाँ प्रस्तुत हैं, नये ईमानदार मुख्यमंत्री व कविता के बीच संवादों के कुछ अंश:
- 'एक पिता को अपनी संतान से क्या अपेक्षाएँ होती हैं? यही न कि वे बड़े होकर उसका सिर गर्व से ऊँचा करें। मिस कविता! तुम मेरी बेटी के समान हो। मेरी जिम्मेदारियों को निभाने का कुछ बोझ तुम पर भी है। जहाँ तक मुझे ज्ञात है, लोगों में मेरी सरकार की कार्यप्रणाली और उपलब्धियों को लेकर एक सकारात्मक सोच बनी है। मैं उसे बनाए रखना चाहता हूँ। यह तभी संभव है यदि तुम जैसे कर्तव्यनिष्ठ अधिकारियों का सहयोग मुझे मिलता रहे। इसलिए मैं तो कहूँगा तुम जल्दबाजी में कोई निर्णय मत लो। वैसे मुझे भी तो पता चले कि तुम नौकरी किसलिए छोड़ना चाहती हो?'
- 'सर, मैं स्कूल के माध्यम से जनता की सेवा करना चाहती हूँ। गाँव के बच्चे शिक्षा में पिछड़ जाते हैं। मैं उनको दूसरों की बराबरी पर लाने का प्रयास करूँगी, ताकि शिक्षा की असमानता को समाप्त किया जा सके।'
- 'अच्छा प्रयास है। परन्तु कितनों का भला होगा? अधिक से अधिक पाँच-दस गाँवों का, बस। राज्य में कितने गाँव हैं? जहाँ पर तुम हो, वहाँ से सैंकड़ों-हजारों गाँवों का भला किया जा सकता है। इस असमानता को कौन दूर करेगा?' (पृष्ठ 596-97)
इसमें कोई शक नहीं कि राधोपुर का कायाकल्प हो रहा है और उपन्यास की बुनियाद निश्चित आकार ले रही है।

समीक्षक : डाॅ.अखिलेश पालरिया, अजमेर
8.1.202

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