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Devraj singh

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@devrajraj


बेमतलब होने का डर — भाग 2

कभी लगता है,
जीवन कोई अधूरा ग्रंथ है,
जिसकी हर पंक्ति मैं लिख तो देता हूँ,
पर अर्थ कभी पूरा नहीं कर पाता।

मन प्रश्न पूछता है—
क्या मैं ही अधूरा हूँ?
या फिर यह दुनिया
हम सबको अधूरा ही रखती है?

हर दिन जागता हूँ
नए संकल्प के साथ,
पर रात की खामोशी में
वही पुराने सवाल
तारों की तरह झिलमिलाने लगते हैं।

कभी सोचता हूँ—
अगर सब कुछ बेमतलब है,
तो फिर यह धड़कन क्यों जारी है?
क्यों सपनों की परछाइयाँ
अब भी मेरी पलकों पर उतर आती हैं?

शायद मतलब ढूँढ़ने से नहीं मिलता,
बल्कि जीने से बनता है।
जैसे दीपक
अंधेरे का हिसाब नहीं पूछता,
बस जलकर
अपना उत्तर दे देता है।

तो क्या मैं भी
एक दीपक की तरह
जलने के लिए ही बना हूँ?
या फिर राख में छिपी चिनगारी
कभी अग्नि बनकर
आकाश को छूने की हिम्मत करेगी?

डर अब भी है…
पर डर के पीछे
एक छोटा-सा साहस भी है।
वो कहता है—
"मतलब खोज मत,
मतलब बन जा।"

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कभी सोचता हूँ—
अगर मैं मरकर भी अमर हो गया,
तो क्या ये अमरता
मेरे शब्दों की होगी,
या मेरी अधूरी कहानियों की?

शायद लोग पढ़ेंगे मुझे
एक अनजान दर्पण की तरह,
जिसमें झाँककर वे
अपने ही चेहरे देखेंगे।
और मैं…
फिर भी अनकहा रह जाऊँगा।

जीवन ने जितने प्रश्न दिए,
वे अधूरे ही रहे।
मृत्यु शायद
उनका उत्तर न बने,
पर शायद नई पहेली बन जाए।

क्या सचमुच अमर होना
जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है?
या यह भी एक और बंधन है
जिससे आत्मा मुक्त नहीं हो पाती?

मैं डरता हूँ…
कि मेरी अमरता भी
मेरे ही शब्दों की कैद न बन जाए।
कहीं ऐसा न हो कि
मैं फिर लौट-लौटकर
अपनी ही कविताओं में
भटकता रह जाऊँ।

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बेमतलब होने का डर

कभी आजीविका की भागदौड़ से
जब पल दो पल का सन्नाटा मिलता है,
तो मन अपने ही विचारों की
भट्टी में तपने लगता है।
शब्द उठते हैं,
विचारों की धारा में उलझते हैं,
और मैं…
हर बार अपने ही जाल में कैद हो जाता हूं।

निकलना चाहता हूं—
पर जाल और गहराता जाता है।
थककर बैठता हूं
तो फिर नए सिरे से उलझना शुरू कर देता हूं।
मानो समय का चक्र
मेरे साथ खेल खेल रहा हो।

कभी दूसरों की अच्छाइयों को
अपने जीवन का आदर्श मान लेता हूं,
तो कभी अपनी कमियों से
नज़रें चुरा लेता हूं।
कभी अनमोल जीवन का मोल तौलने लगता हूं,
तो कभी कल्पनाओं के अथाह समंदर में
बिना नाव, बिना किनारे
डूबता चला जाता हूं।

सोचता हूं—
संसार के गड़े हुए मुर्दों को
एक-एक कर बाहर निकाल दूं,
झूठ के नीचे दबे सत्य को
सबके सामने रख दूं।
लेकिन तभी डर लगता है,
कहीं मैं खुद उसी कब्र में
दफन न हो जाऊं।

इस मतलबी दुनिया में
कहीं गुम न हो जाऊं,
दुनिया की तरह
कहीं मैं भी मतलबी न बन जाऊं।
देखी है ये दुनिया
आधी अधूरी, अधूरी सी—
कहीं ऐसा न हो कि
इस अधूरी दुनिया में
मैं भी बेमतलब हो जाऊं।

हाँ, मृत्यु निश्चित है…
हर सांस उस ओर एक कदम है।
पर मेरे भीतर सवाल उठता है—
क्या मृत्यु सचमुच अंत है?
या फिर जीवन का दूसरा नाम ही अमरता है?

डर यही है…
कि मरने के बाद भी
यह मन, यह विचार, यह उलझन
जिंदा रह जाएँ।
और मैं…
मरकर भी
जिंदा न हो जाऊं।

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