अपनी असफलता के लिए सिर्फ भाग्य को कोसते-कोसते, वह अपने आप को हीन और तुच्छ समझने लगा था। इच्छा शक्ति की बात अब उसके मन-मस्तिष्क पर किसी कारक का काम नहीं कर रही थी। वो उठा और टेलीफोन बुथ जाकर अपने दोस्त को फोन मिलाया और कहा’’ यार विजय, मैं अजय बोल रहा हूं, अब पढ़ाई का मन नहीं कर रहा है, मैं भी आ रहा हूं तुम्हारे पास। दिल्ली में तो अकेला होगा, साथ मिलकर रहेंगे, साथ मिलकर काम करेंगे। ’’
अजय को आभाष हुआ कि फोन कट गया है, लेकिन विजय फोन काटकर सोच में पड़ गया कि यहाँ मैं खुद परेशानी में हूँ और अजय को यहाँ बुलाकर क्यों अपनी परेशानी बढ़ाउं।
फोन अपने से कट गया या जान-बुझकर काट दिया गया यह प्रश्न अजय के मन-मस्तिष्क में शोर मचाने के बाद शांत पड़ चुका था। अब अजय के मन-मस्तिष्क में नए प्रश्न का उदय हुआ कि मैं सही कर रहा हुं या गलत कर रहा हूँ। गलत कर रहा हूं या सही कर रहा हूं। माँ को तो इस बात के लिए बहला-फुसला कर राजी कर लुंगा, हालांकि राजी करना इतना भी आसान नहीं है, मगर पिता जी को इस बात के लिए राजी करना आसान ही नहीं नामूमकिन भी है। अगले ही क्षण अजय के मन में यह विचार आया कि राजी करना तो बहूत दुर की बात, अपनी बात को पिताजी के सामने कैसे रख पाउंगा कि अब मैं पढ़ना नहीं चाहता हूं, पढ़ाई छोड़ कर दिल्ली काम करने की योजना बना रहा हूँ। खैर इस दुविधा से ग्रस्त अजय अपने घर के पास मुख्य द्धार पर पिताजी की साईकिल खड़ी देखकर समझ गया कि पिताजी कहीं बाहर से आए हैं और इस समय अपनी बात रखना बड़ी मुर्खता होगी। अजय घर में प्रवेश किया और सीधे चापाकल पे चला गया। हाथ-पाँव धोकर ज्योंही वो आया तो देखा कि माँ नास्ता लगा चुकी है। अजय रोटी खाते-खाते कभी इधर कभी उधर देखता और कभी अपनी माँ को देखता। एक दो बार में माँ को आभाष होते ही माँ ने थाली देखा और रोटी देते हुए कहा ’’ माँग नहीं सकता था, खाने में काहे की शर्म। ’’
अजय ने कहा ’’ रोटी नहीं चाहिए। ’’
माँ ने पुछा ’’ तो क्या सब्जी चाहिए ? ’’
अजय ने मौका की नजाकत को समझते हुए स्पष्ट कह दिया ’’ माँ हमको आगे नहीं पढ़ना है, दिल्ली जाना है काम करने। ’’
माँ ने कहा ’’ यह तो अच्छा हुआ कि पिताजी की आँख लग गई है, नही तो हंगामा खड़ा कर देते। ’’
बेटे के आग घुटना टेक चुकी माँ ने अजय का प्रस्ताव रखा तो लाला दयाल ने दो चार छड़ी अजय को जमा दी और कुछ भी नहीं कहा, मगर उनकी लाल आँखें बहुत कुछ बोल रही थी।
दुसरी दिन भी बेटा को डांटने-मारने के बाद लाला दयाल और उन्की पत्नी खुद को असहाय महसूस करने लगे और सब कुछ अजय पर ही छोड़ दिया। माँ तो अजय के लिय पकवान बनाते-बनाते रो रही थी और आँसु पोंछ रही थी। लाला दयाल गुम से खाट पर बैठे हुए थे।
कल्लुआ ने आकर कहा ’’ विजय भइया का फोन आया है। ’’
अजय के फोन पकड़ते ही विजय ने कहा ’’ मैं तो सिर्फ नाम का ही विजय हूँ, मगर तु तो अजय है, जिसको कि कोई भी जीत नहीं सकता है। अबकी बार मत आ, एक बार और इम्तहान दे दे, उसके बाद मैं खुद आकर तुमको ले जाउंगा।’’
विजय की बात मानकर अजय ने फिर नए मुकाम को छुआ।
समाप्त