No revolution was ever made by imitation - 4 in Hindi Biography by Dr. Suryapal Singh books and stories PDF | नकल से कहीं क्रांति नहीं हुई - 4

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नकल से कहीं क्रांति नहीं हुई - 4

1953 में ही लखनऊ विश्वविद्यालय में छात्रों पर गोली चल गई थी उस समय चंद्रभान गुप्त मुख्यमंत्री, जुगुल किशोर शिक्षा मंत्री थे और राज्यपाल थे कन्हैयालाल मानिकलाल मुंशी। कॉलेज से निकल कर लखनऊ विश्वविद्यालय में पढ़ रहे बाबूराम तिवारी को भी गोली लग गई। हम लोग कॉलेज पहुँचे तो बच्चों ने जुलूस निकाला और नारा लगाया ‘मुंशी गुप्ता जुगुल किशोर, यूपी के यह तीनों चोर’। जुलूस में ज्यादातर बड़े बच्चे ही शामिल हुए, शहर में घूमते हुए जुलूस का समापन हुआ। उस दिन अध्यापन नहीं हुआ, कक्षा नहीं चली। उस समय कॉलेज में कक्षाएँ नियमित चलती थीं। बरसात के मौसम में एकाध दिन अधिक बारिश होने के कारण कॉलेज बंद हो जाता अन्यथा कक्षाएँ नियमित रूप से चलती थीं, कॉलेज के पास एक बड़ा हाल था जिसे शिवदासानी हाल कहा जाता है। इसी हाल में लाइब्रेरी की पुस्तक रखी जाती, लाइब्रेरी प्रभारी पाल बाबू और उनके सहायक लाइब्रेरी में ही बैठते। वहाँ पत्र पत्रिकाएँ भी आतीं और मेज पर लगाई जातीं और बच्चे खाली घंटी में वहाँ बैठकर पढ़ाई करते। पाल बाबू का स्वभाव अत्यन्त सरल था, वह अच्छे खिलाड़ी भी थे। कोई बच्चा कोई पुस्तक माँगता तो उसे तुरन्त उपलब्ध कराने का कार्य करते। हाई स्कूल तक बच्चों के घंटे प्राय खाली नहीं होते लेकिन इंटरमीडिएट के बच्चों का एकाध घंटा खाली रहता। वे बच्चे प्रायः लाइब्रेरी में बैठकर पत्र-पत्रिकाओं का अध्ययन करते, उस समय तक कॉलेज का स्टाफ-रूम अलग से नहीं बना था, हाल में ही कुछ अलमारी से घेर कर स्टाफ-रूम की व्यवस्था कर दी गई थी जिसमें खाली घंटे में अध्यापक बैठते, कुछ पढ़ते-लिखते या कॉपी जाँचते, भौतिक विज्ञान, रसायन विज्ञान और जीव विज्ञान के अध्यापक प्रायः अपनी लैब में ही बैठते। सभी लैब बहुत ही सुसज्जित और संपन्न थी। कक्षा 10 में हमें 10 ए में रखा गया और श्याम जी श्रीवास्तव उसके कक्षाध्यापक हुए। वह कक्षा 10 में हम लोगों को अंग्रेजी पढ़ाते। सप्ताह में एक दिन प्राचार्य जी भी हम लोगों को अंग्रेजी कविता पढ़ाते, यदि उन्हें कभी अवसर नहीं मिलता तो किसी दूसरे को ही भेज देते। 1954 में हाई स्कूल की परीक्षा हुई जिसमें अपने संवर्ग में मैं, देवमणि त्रिपाठी और विश्वनाथ त्रिपाठी तीन लोग प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए। उस समय हाई स्कूल में प्रथम श्रेणी पाने वालों की संख्या बहुत कम होती थी। देवमणि जमथा के रहने वाले थे और विश्वनाथ त्रिपाठी का घर परसपुर के पास था। कक्षा 11 में हमने हिंदी, अंग्रेजी, भूगोल, अर्थशास्त्र और नागरिक शास्त्र का विषय लिया। देवमणि ने भूगोल के बदले संस्कृत विषय चुना। देवमणि का कद छोटा था, पर वह पढ़ाई में बहुत मेहनत करते थे। कक्षा 11 में पहुँचने हम लोगों को थॉमसन कॉलेज की रीति-नीति का काफी ज्ञान हो चुका था। हाई स्कूल की परीक्षा देने के बाद गर्मी की छुट्टियों में मुझे पंडित राम बहादुर मिश्र के यहाँ रामचंद्र शुक्ल का लिखा ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ दिखाई पड़ा। मैं उनसे माँग कर पुस्तक को घर ले आया और गर्मी की छुट्टियों में ही पूरा पढ़ गया। इंटरमीडिएट के दो वर्ष मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण थे। इन दोनों वर्षों में मैंने थॉमसन कॉलेज के पुस्तकालय का खूब प्रयोग किया। मैंने हिंदी में अनेक महत्वपूर्ण पुस्तकों व शोघ ग्रंथों का अध्ययन कर डाला। पुस्तकालय प्रभारी पाल बाबू ने कोई भी पुस्तक देने से कभी मना नहीं किया। भूगोल की दो अलमारियाँ इल्तेफात साहब के चार्ज में थीं और उनमें से मैं अनेक भूगोलवेत्ताओं-आर्थर होम्स, फिन्च एड ट्रिवर्थ, ब्लास, डडले स्टांप की पुस्तकों का अध्ययन करने में मन लगाया। इसी तरह अर्थशास्त्र नागरिक शास्त्र और अंग्रेजी में भी अच्छी पुस्तकों का अध्ययन करने का प्रयास किया। प्रायः देर रात तक पढ़ता रहता था और एक एकाध दिन तो पूरी रात पढ़ते रह गए। उस समय अधिक से अधिक ज्ञान लेने, समझ लेने की ललक पैदा हो गई थी। गोधूलि के कुछ समय बाद ही लालटेन जलाकर बैठ जाता और देर रात तक पढ़ता। इसी समय आगे बढ़कर कुछ करने की इच्छा जगी। इसलिए मेरे विकास में थॉमसन कॉलेज का योगदान अत्यन्त महत्वपूर्ण है। यद्यपि इंटरमीडिएट में मुझे 59.2 प्रतिशत 296 (500 में) अंक ही प्राप्त हुए थे पर मन के उत्साह में कोई कमी नहीं थी। 

जीतेशकान्त पाण्डेय- हाईस्कूल की परीक्षा देने के बाद ही आपका विवाह हो गया था। इसका प्रभाव आपके अध्ययन पर किस तरह पड़ा?

डॉ0 सूर्यपाल सिंह- 1949 में मेरे संयुक्त परिवार में बँटवारा हो गया था। बड़े पिता (दादू) का परिवार अलग हो गया था। अब हमारे परिवार में पिता रामशरण सिंह, काका शिवशरण सिंह, अम्मा शरफ़राज कुँवरि, और मैं भाई-बहिन ही थे। हाईस्कूल तक आते-आते कई लोग शादी के लिए आने लगे। हमारे घर में सोलह-सत्रह वर्ष की अवस्था में प्रायः शादियाँ हो जाती थीं। मेरे चेचेरे भाई रणछोर सिंह की शादी भी सत्रहवें वर्ष में हो गई थी। इसलिए माता-पिता ने मेरी भी शादी हाईस्कूल परीक्षा देने के बाद ही तय कर ली। जिस गाँव में शादी तय की गई थी उसी गाँव में पिता जी का ननिहाल भी था। उस समय शादियों में आज की तरह लड़की देखने, गोदभराई आदि का रिवाज नहीं था। तिलक चढ़ाने वाले जब आ जाते तो गाँव में पट्टीदारी में निमन्त्रण दे दिया जाता था। भोजनादि की व्यवस्था महिलाएँ संभाल लेतीं। बारात में भी दूल्हे के लिए पालकी कर ली जाती और बाराती पैदल या बैलगाड़ी पर जाते। हमारी बारात नौ कोस दूर ही बखरिहा जानी थी। इसलिए अधिकांश बाराती पैदल ही वहाँ पहुँच गये। बारात बाग में टिकी। तीन दिनी बारात होती थी। पहले दिन द्वारचार, दूसरे दिन शिष्टाचार और तीसरे दिन विदाई। बारात को खिलाने-पिलाने का काम प्रायः घर और गाँव के लोग ही कर लेते। मेरी पत्नी सुमनलता मुझसे एक साल छोटी ही थीं। पढ़ी-लिखी नहीं थी। मेरे घर आकर ही उन्होंने थोड़ा-बहुत पढ़ना-लिखना और हस्ताक्षर करना सीखा। इस शादी का मेरी पढाई पर कोई नकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ा। माँ को एक सहयोगी मिल गई थी और मैं अपनी पढ़ाई में अधिक ध्यान देने लगा था। इंटरमीडिएट उत्तीर्ण करते ही गर्मी की छुट्टियों में बहन इंदिरा की शादी करनी पड़ी। उस शादी में भी दौड-़ धूप और व्यवस्था का काम मुझे ही सँभालना था। शादी सम्पन्न हो गई तो अम्मा को भी थोड़ी राहत मिली और मैं आगे की पढ़ाई के लिए सोच-विचार करने लगा।


जीतेशकान्त पाण्डेय- इण्टरमीडिएट के बाद आप कैसे प्रयाग विश्वविद्यालय पहुँचे? उस समय प्रयाग विश्वविद्यालय का माहौल कैसा था?

डॉ0 सूर्यपाल सिंह- 1956 में मैंने इण्टरमीडिएट की परीक्षा उत्तीर्ण की थी। उस समय अर्थव्यवस्था का फैलाव हो रहा था। अनेक नये विभाग खुल रहे थे। जो बच्चे हाई स्कूल या इण्टरमीडिएट कर लेते थे उन्हें कोई न कोई नौकरी अवश्य मिल जाती थी। मैं भी यदि नौकरी पकड़ लेता तो परिवार के लोग प्रसन्न ही होते। पर मेरा मन तो आगे की पढ़ाई के लिए अधिक उत्सुक था। प्रयाग विश्वविद्यालय के बारे में बहुत कुछ पढ़ और सुन चुका था। यद्यपि 1955 में बलरामपुर में महारानी लाल कुँअरि डिग्री कालेज खुल चुका था। मैं चाहता तो वहाँ प्रवेश लेकर कुछ सुविधाएँ भी प्राप्त कर लेता लेकिन मेरा मन प्रयाग विश्वविद्यालय की ओर ही अधिक उन्मुख था। बहलोलपुर गाँव से सम्बद्ध एक लड़का अयोध्या प्रसाद मिश्र प्रयाग विश्वविद्यालय में पढ़ रहा था। उससे सम्पर्क किया तो पता चला कि प्रयाग विश्वविद्यालय में गर्मियों की छुट्टियों में ही प्रवेश हो जाता है। वह स्वयं भी जाने की तैयारी कर रहा था। मैंने भी अंकपत्र और स्थानान्तरण प्रमाणपत्र लिया और प्रयाग जाने की तैयारी करने लगा। अम्मा ने दाल, चावल, आटा, कुछ सत्तू, चबैना तैयार कर एक बोरे में बाँध दिया। अब कुछ पैसे का इंतजाम करना था। काका शिवशरण सिंह ने कहा कि मेरी पुटकी में कुछ रुपये हैं, यदि उनसे काम चल जाए तो ले लो। पुटकी खोलकर गिना तो उसमें छान्नबे रुपये निकले। काका के पास धराऊँ कुर्ता और धोती थी। उनका पम्प जूता भी मुझे हो जाता था। काका के 96 रुपये तथा उन्हीं का धोती-कुर्ता व पम्प जूता पहन कर बहलोलपुर के पंडित अयोध्याप्रसाद मिश्र के साथ अपनी बोरी लादे हुए चल पड़ा। उस समय अयोध्या में सरयू नदी पर पुल नहीं बना था। स्टीमर से नदी पार करनी पड़ती थी और फैजाबाद से प्रयाग के लिए गाड़ी मिलती थी। इसी से हम लोग प्रयाग पहुँचे। अयोध्या प्रसाद जी मुट्ठीगंज में एक वकील साहब के परिसर में रहते थे। वकील साहब का परिसर बहुत बड़ा था। उसी में बीच में एक मंदिर था। मिश्र जी उसी परिसर में बने एक कमरे में रहते थे। हम लोगो ने उसी आवास पर विश्राम किया और सुबह रोटी-सब्जी बनाया गया। उसी को खा-पीकर हम लोग दस बजे विश्वविद्यालय के सीनेट हाल पहुँचे। अयोध्या प्रसाद मिश्र को वहाँ की सारी जानकारी थी। उन्होंने फार्म लिया। उसे भरकर आवश्यक पत्र-जात के साथ प्रवेश समिति के सामने प्रस्तुत किया गया। बिना किसी बाधा के मेरा प्रवेश विश्वविद्यालय के बीए भाग एक में हो गया। अयोध्या प्रसाद मिश्र के साथ एक अन्य साथी जमुनानन्द मिश्र भी प्रवेश के लिए गये थे, लेकिन इण्टरमीडिएट में अंक कम थे। इसलिए उनका प्रवेश काफी बाद में हो पाया। उस समय बीए का मासिक शुल्क बारह रुपये था। विश्वविद्यालय के पास आवास के लिए हम अयोध्या प्रसाद को लेकर एक कमरा ढूँढने लगे। मुझे एक कमरा मिला जिसमें खिड़की नहीं थी और दरवाजा गली में खुलने के कारण दिन में भी अंधेरा रहता था। किराया दस रुपये बताया गया, मैं अघिक किराया दे पाने की स्थिति में नहीं था। इसलिए उसी कमरे में सामान लाकर रख दिया। बुरादेवाली एक अंगीठी का इंतजाम किया और सुबह बना खाकर प्रायः विश्वविद्यालय की ओर चला जाता। वहीं बैठकर कुछ पढ़ता लिखता। कम्पनी बाग में एक लाइब्रेरी थी, उसमें भी जाने लगा। सोलह जुलाई को विश्वविद्यालय खुला तो विभाग के नोटिस बोर्ड पर टाइम टेबिल लगाया गया। उसी के अनुरूप 18 जुलाई से ही नियमित कक्षाएँ चलने लगीं। परिचय पत्र और पुस्तकालय कार्ड बन गया जिससे पुस्तकालय में बैठकर पढ़ने की सुविधा मिल गई। यदि मैं छात्रावास का कुछ खर्च वहन करने की क्षमता रखता तो मुझे छात्रावास में जगह मिल सकती थी। पर मैंने अपनी आर्थिक स्थिति को देखते हुए छात्रावास में प्रवेश पाने का कोई प्रयास नहीं किया। उस समय प्रयाग विश्वविद्यालय अनेक प्रतिष्ठित अध्यापकों से पूर्ण था। अंग्रेजी विभाग में एस.सी. देव, पी.ई. दस्तूर, के.के. मल्होत्रा, रघुपति सहाय फिराक, विजयदेव नारायण साही, संस्कृत में बाबूराम सक्सेना, क्षेत्रेषु चटोपाध्याय, उमेश मिश्र, हिन्दी में धीरेन्द्र वर्मा, रामकुमार वर्मा, हरदेव बाहरी, माता प्रसाद गुप्त, उमाशंकर शुक्ल, लक्ष्मी सागर वार्ष्णेय, व्रजेश्वर वर्मा, रघुवंश, धर्मवीर भारती, जगदीश गुप्त, प्राचीन इतिहास में जी. आर. शर्मा, अर्थशास्त्र में जे. के. मेहता, पी.सी. जैन, पी.डी. हजेला, भूगोल में रामनाथ दूबे आदि विद्वान थे। विज्ञान संकाय में भौतिक विज्ञान में राजेन्द्र सिंह ‘रज्जू भैया’ समेत अनेक प्रसिद्ध विद्वान कार्यरत थे। विभिन्न विभागों के विद्वानों से ही विभाग पहचाना जाता था। दूर दूर से लड़के प्रयाग पढ़ने आते। प्रयाग में उस समय बच्चे सर्विस की भी तैयारी करते। प्रतियोगिता सम्बन्धी तमाम पुस्तकें और नोट्स दुकानों पर उपलब्ध रहते। बहुत से बच्चे अपनी पढ़ाई पूरी करते करते किसी न किसी सेवा में चुन लिये जाते।
 
   दशहरे की छुट्टी में मैं घर आया तो कॉलेज भी गया। गुरुवर श्याम जी साहब से भेंट हुई। मैंने प्रयाग में निवास की कठिनाई बताई। उन्होंने कहा कि मेरे भतीजे कृष्ण मोहन सिन्हा प्रयाग में रहकर हाईकोर्ट में वकालत करते हैं। वे जिस बंगले में रहते हैं उसमें आउट हाउस भी है। मैं उनसे कह दूँगा तो तुम्हें आउट हाउस में रहने की जगह मिल जाएगी। मैं दशहरे बाद जब गया तो वकील साहब से मिला। उन्होंने आउट हाउस में जो लोग रह रहे थे उनसे एक कमरा खाली करने को कहा लेकिन उनमें रहने वाले मकान खाली करने में अपनी असमर्थता व्यक्त करने लगे। वकील साहब ने कहा तो फिर किराया बढ़ा दो। उन्होंने किराया बढ़ाना स्वीकार कर लिया। वकील साहब ने अपने बंगले के बरामदे में मुंशी के लिए एक कमरा बना रखा था पर उस समय मुंशी कोई रहता नहीं था। उन्होंने कहा कि तुम इसी में रह जाओ। यद्यपि वे बंगला किराये पर लिए हुए थे। पर उसमें काफी जगह थी। मैंने उसी मुंशी वाले कमरे में लाकर अपना सामान रखा और रहने लगा। वकील साहब का परिवार बहुत सज्जन था। उनके माता पिता भी साथ रहते थे। बीए के दोनों सत्र में मैं वहीं रहा। वह बंगला आठ-बी अल्बर्ट रोड सिविल लाइन में था। वहाँ से पैदल विश्वविद्यालय आता जाता था। विश्वविद्यालय के वाचनालय का भी घंटा दो घंटा उपयोग करता। उस समय विश्वविद्यालय में स्नातक स्तर पर एनसीसी या पीटी में से एक विकल्प चुनना होता था। हास्टल के बाहर जो बच्चे किराये पर कमरा लेकर रहते थे वे डेलीगेसी के छात्र कहलाते थे। शहर कई क्षेत्रों में बँटा था। एक डेलीगेसी के छात्र एक जगह एकत्रित होकर सुबह पीटी करते थे। मेरा पुराना पता मुट्ठीगंज का ही दर्ज था। इसलिए मुट्ठीगंज डेलीगेसी में ही मेरा नाम पीटी के लिए पंजीकृत था। मुट्ठीगंज के बच्चे जहाँ पीटी के लिए इकट्ठा होते थे वहीं मुझे भी भाग कर जाना होता था। मैं प्रायः तेज चाल से सिविल लाइन से मुटठीगंज पहुँच जाता था। प्रयाग विश्वविद्यालय स्नातक स्तर पर बारह-बारह बच्चों की हर एक विषय की सेमिनार कक्षा लगती थी। हफ्तें में एक दिन सेमिनार कक्षा होती थी। उसमें बच्चे अध्यापक से निकटता स्थापित करते थे। उन्हें उचित मार्गदर्शन भी मिलता था।
    विश्वविद्यालय में मेरी आधी फीस माफ हो गई थी और साल में एक बार पुस्तकीय सहायता के लिए 75 रुपये मिलते थे। इससे मुझे थोड़ी राहत मिली। दस-बीस रुपये की पाठ्यक्रम की जरूरी किताबें खरीद कर शेष पाठ्यक्रम वाचनालय में बैठकर पढ़ता था। वाचनालय सुबह आठ बजे से शाम आठ बजे तक खुला रहता था और वहाँ पढ़ने के लिए आवश्यक पुस्तकें भी मिल जाती थी। हिन्दी और भूगोल विभाग में विभागीय पुस्तकालय भी था। भूगोल विभाग में रीडिंग रूम भी था जिसमें किताबें लेकर पढ़ी जा सकती थीं। हिन्दी विभाग से पुस्तकें घर के लिए भी मिल जाती थीं। उस समय दूधनाथ सिंह जी अनुसंधान कर रहे थे और वही पुस्तकें निर्गत भी करते थे। हिन्दी विभाग के अन्तर्गत ही हिन्दी परिषद भी संचालित होती थी। साल में उसका एक कार्यक्रम अवश्य होता था। एक वर्ष हजारी प्रसाद द्विवेदी जी परिषद के कार्यक्रम में आए थे। उन्होंने एक उदाहरण के माध्यम से परिषद की उपयोगिता को रेखांकित किया। उन्होंने कहा कि दुष्यंत शकुन्तला का चित्र खींचता है। चित्र पूरा हो जाने पर वह उसे देखता है तो उसे लगता है कि यह चित्र तो अधूरा है। वह परिवेश जिसमें शकुन्तला रहती थी कण्व का आश्रम, वनस्पतियाँ, आश्रम में निर्द्वंद्व भ्रमण करते हिरन, आश्रम के बगल में बहती हुई नदी के बिना यह चित्र अधूरा है। परिषद भी परिवेश निर्मित करती है। द्विवेदी जी की इस बात को सुनकर सभी छात्र अत्यन्त प्रसन्न हुए। द्विवेदी जी की इस शैली का निदर्शन उनके साहित्य में प्रायः मिलता है। दूसरे वर्ष के परिषद के कार्यक्रम में दीनदयालु गुप्त आये थे। वे लखनऊ विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के अध्यक्ष थे तथा प्रयाग विश्वविद्यालय में हिन्दी प्रथम बैच के छात्र रह चुके थे। उस वर्ष एम. ए. में केवल तीन लोग थे। दो छात्र- राम कुमार वर्मा, दीनदयालु गुप्त तथा छात्रा चन्द्रावती। रामकुमार वर्मा और चन्द्रावती प्रयाग विश्वविद्यालय में अध्यापक हो गये थे और दीन दयालु जी लखनऊ विश्वविद्यालय में। दीनदयाल जी ने अष्टछाप और बल्लभ सम्प्रदाय पर अनुसंधान किया था। मैं उनकी पुस्तक को इण्टरमीडिएट में ही पढ़ चुका था। इसलिए उनको सामने देखकर अच्छा लगा।