लेखक की कलम से-- कभी लगता है कि ख़्वाब लिख दूँ, कभी कल्पनाएँ… पर जब कलम जीवन की सच्चाई को छूती है, तब लगता है—शायद यही सबसे सुंदर लेखन है।
कभी-कभी मन में एक प्रश्न बार-बार उभरता है—मैं क्या लिखूँ?
ख़्वाब लिखूँ तो लगता है वे बहुत दूर हैं,
कल्पनाएँ लिखूँ तो लगता है वे बहुत व्यापक हैं,
और यथार्थ लिखूँ तो लगता है वह इतना सरल है कि शब्दों का मोह नहीं रखता।
फिर भी कलम जब हाथ में आती है तो मन अपने भीतर के तीनों संसारों को टटोलने लगता है—
वह संसार जहाँ ख़्वाब सूरज की किरणों को पकड़कर आसमान पर चढ़ना चाहते हैं,
वह संसार जहाँ कल्पनाएँ अपनी ही बनाई ब्रह्माण्ड में राज करती हैं,
और वह संसार जहाँ जीवन की सबसे सच्ची सीखें हमारे क़दमों में छिपी रहती हैं।
यह कविता उन्हीं तीनों यात्राओं का परिणाम है—
मन का झूलना, विचारों का बहना और भावनाओं का ठहर जाना।
लिखते-लिखते समझ आती है कि शायद लेखन वही है
जहाँ मन ईमानदार हो जाता है और शब्द अपने आप जन्म लेते हैं।
इसलिए यह कविता सिर्फ़ ‘क्या लिखूँ’ का प्रश्न नहीं,बल्कि उस यात्रा का प्रतिबिंब है जिसमें हम सभी कभी न कभी खो जाते हैं। यह कविता मन के तीन आयामों की यात्रा है—ख़्वाबों की उड़ान, कल्पनाओं की दुनिया और जीते हुए यथार्थ की सच्चाई।
कभी मन आसमान छूना चाहता है, कभी शून्य में लौट आता है, और कभी अपने जीवन के सरल अनुभवों को ही सबसे गहन सत्य पाता है।
‘मैं क्या लिखूँ?’ एक प्रश्न नहीं, आत्मा की पुकार है—जो हर संवेदनशील मन कभी न कभी पूछता है।
मै क्या लिखूँ ?
सोचती हूँ, लिख दूँ अपने ख़्वाब सारे..
सूर्य की किरणें पकड़ कर, आसमां पर चढ़ सकूँ।
दिन में सोए चाँद तारों के घरों में रह सकूँ।
देखूँ तो अम्बर सजाते, टिमटिमाते कितने तारे..
क्या एक ही घर में बसे सारे के सारे ?
मै बसूँ उनमें, तो क्या मै भी धरा से दिख सकूँगी ?
अपने ख्वाबों को हकीकत की जुबानी लिख सकूँगी ?
लिख सकूँ तो अच्छा है, गर ना लिखूँ तो क्या लिखूँ?
मै क्या लिखूँ?
सोचती हूँ, लिख दूँ अपनी कल्पनाएँ..
कल्पनाओं में जगत सारा मेरे अनुसार ही हो,
मेरी उँगली की दिशा में देखता संसार भी हो,
मै करूँ सृष्टि जिसकी, मै करूँ संहार जिसका,
मै ही जिसका केन्द्र हूँ और,मै ही हूँ परिहार जिसका,
कोई मेरी कल्पनाओं में कोई हलचल न लाए,
और वसुधा बैठी हो मेरे लिए आँचल सजाए,
मौन होकर सोचती हूँ, ऐसा भी परिपूर्ण जीवन..
शून्य है स्तब्ध है, इसमें नहीं कोई नयापन,
कल्पनाएँ हैं, बनती हैं बिगड़ती हैं।
शून्य से उठती फ़लक तक, शून्य पर आ रूकती है।
इन कल्पनाओं को लिखूँ तो क्या लिखूँ ? मै क्या लिखूँ ?
सोचती हूँ, लिख दूँ वो जो जी रही हूँ..
उँगली जिसने थामकर चलना सिखाया,
रोना, हँसना, गाना, खाना, खेलना, पढ़ना सिखाया,
थामकर फिर सीख उसकी, अब कदम-दर चल रही हूँ।
उसकी आँखों में सजी थी जैसी, वैसी बन रही हूँ।
चाहे ये संसार मुझसे जैसी उम्मीदें करे।
मै वही बस बन सकूँ कि जिसकी मुझको आरज़ू है।
गर फिर लिखूँ तो ये लिखूँ, ये न लिखूँ, तो क्या लिखूँ?
मै क्या लिखूँ?