aisa kyu hai in Hindi Poems by Sweta Pandey books and stories PDF | ऐसा क्यूँ है?

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ऐसा क्यूँ है?

  लेखक की कलम से:   

                             यह कविता मन के उन अनकहे प्रश्नों की यात्रा है, जो उजियारे पलों में भी अपनी छाया ढूँढ लेते हैं। साधारण जीवन, संबंधों की जटिलता, अनुशासन की सीमाएँ और मन के भीतर चलने वाला द्वंद—सब यहाँ शब्दों में ढलकर एक दार्शनिक आत्म-संवाद बन जाते हैं। यह रचना उन भावों को पकड़ती है, जिनसे हर व्यक्ति कभी न कभी गुजरता है: कुछ पाने की चाह, कुछ खोने का भय, संघर्ष का सत्य और संबंधों की अनिश्चितता। कभी-कभी साधारण पल भी मन के भीतर बहुत गहरे भाव जगा जाते हैं। यह कविता उन्हीं अनकहे अनुभवों, सवालों और द्वंदों का चित्रण है—जो हम सब महसूस करते हैं, पर शब्दों में लाना मुश्किल होता है। यह रचना मन की उसी यात्रा का हिस्सा है।

✹  यह कविता उन सवालों का संग्रह है जो जीवन के हर मोड़ पर मन से टकराते हैं। उजाले और अंधेरे, उम्मीद और उलझन, संबंध और संघर्ष—इन सबके बीच मन अक्सर पूछ बैठता है, “ऐसा क्यों है?” यह रचना उसी अंतर्द्वंद की आवाज़ है।

✹  जीवन की उलझनों, संघर्षों और उम्मीदों के बीच मन में उठने वाले अनकहे प्रश्न इस रचना की नींव हैं।

✹  यह कविता मन के उन सवालों की प्रतिध्वनि है, जिनके उत्तर शायद कभी नहीं मिलते, पर फिर भी वे हमें सोचने पर मजबूर करते हैं।

✹  हर कविता अपने लेखक का हिस्सा होती है—यह कविता मेरे मन के उन कोनों से निकली है, जो प्रश्नों और भावनाओं से भरे हुए हैं।

 

ऐसा क्यूँ है? आँखों पर जब, उजियाली सी चमक पड़े तो,
पलकों की काली छाया उस, मन-दर्पण को ढ़क देती है।

ऐसा क्यूँ है? गालों पर जब, सूरज सी लाली छाए तो,
माथे की बस एक शिकन, उस अमृत-घट में विष भरती है।

क्यूँ साधारण जीवन-पथ भी, आडम्बर का बंदी होकर,
सुख की गलियों में अनजाने, राही जैसा फंस जाता है?

क्यूँ अपनों की खातिर जग से, लड़ने वाला अपनों की ही,
आजादी से डर बेगानी, जंजीरों में कस जाता है?

क्या कोई ये नियम है जग का, कुछ पाना तो कुछ खोना है?
हर इक हँसी, खुशी के संग ही, मुरझाना है और रोना है।

क्या कोई ये नियम है जग का, जितना भी संघर्ष मिले पर,
अपनी मंजिल की राहों पर, खुद गिरना है खुद बढ़ना है।

इतना क्यूँ मुश्किल लगता है, अपने अपने सपने बुनना।
इतना क्यूँ मुश्किल लगता है, सब के संग में खुद को चुनना।

क्यूँ मुश्किल है संबंधों का, हर स्थिति में बेहतर होना।
क्यूँ मुश्किल है संवादों के,भावों का भी उत्तर होना।

अनुशासन में बंध कर जीवन बेहतर हो, यह तो सम्भव है।
अनुशासन अपना है, या फिर औरों का,ये कैसे तय है?

ऐसा क्यूँ है? साधारण-सी, घटना वाला कोई पल भी,
अन्तर्मन के गहरे भावों, का अनुमोदन कर जाता है।

ऐसा क्यूँ है? अनपेक्षित अनुरागों वाला कोई बंधन,
इस जीवन की अंतिम सांसों, का भी साथी बन जाता है।

मुश्किल है ये कहना, कि क्या इनके उत्तर मिल पाएंगे?
बस इतना है, के ये मन में, उलझे उलझे रह जाएँगे।

वैसे तो सम्मोहित सा जग, भौतिकता के मद में ग़ुम है।
फिर भी हर पल चलता मन में, द्वंद यही कि ऐसा क्यूँ है?

 

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