हिंदी सिनेमा के इतिहास में कुछ फिल्में केवल मनोरंजन का साधन नहीं होतीं, बल्कि वे समय, समाज और भावनाओं का आईना बन जाती हैं। 1984 में रिलीज़ हुई प्रकाश मेहरा की फिल्म “शराबी” ऐसी ही एक क्लासिक कृति है। यह फिल्म न केवल अमिताभ बच्चन के शानदार करियर का एक अहम अध्याय है, बल्कि यह उनके अभिनय कौशल का ऐसा उदाहरण भी है जो आज भी दर्शकों के दिलों में उतनी ही ताज़गी के साथ जीवित है। “शराबी” सिर्फ शराब के नशे में धुत एक अमीर बेटे की कहानी नहीं, बल्कि वह भावनात्मक यात्रा है जिसमें अकेलापन, बिछड़ाव, मोहब्बत, रिश्ते, त्याग और आत्मबल का संघर्ष गहराई से उभरता है।
फिल्म की कहानी का केंद्र बिंदु है विक्की कपूर (अमिताभ बच्चन), जो एक अरबपति उद्योगपति के इकलौते बेटे हैं। बचपन से ही पिता, अमिरचंद कपूर (ओम प्रकाश), अपने व्यवसाय और समाज में प्रतिष्ठा के कारण अपने बेटे को समय नहीं दे पाते। बचपन में मां का साया खो देने के बाद विक्की की परवरिश नौकरों, गाड़ी के ड्राइवरों और घरेलू कर्मचारियों के बीच होती है। पिता के पास समय है पैसा कमाने का, लेकिन अपने बेटे के लिए नहीं। यही कमी, यही अकेलापन, यही प्यार का अभाव धीरे-धीरे विक्की के दिल में एक खालीपन पैदा करता है। बचपन से ही वह शराब की तरफ झुकना शुरू करता है, क्योंकि उसे उसी में राहत मिलती है, वही उसका दोस्त बन जाती है।
विक्की की शराब की आदत को फिल्म बहुत संवेदनशील ढंग से पेश करती है। वह शराबी है, लेकिन बुरा इंसान नहीं है। उसकी आत्मा साफ है, दिल में करुणा है, दिमाग में मासूमियत है। वह किसी को नुकसान नहीं पहुंचाना चाहता, बल्कि वह एक ऐसे माहौल में जी रहा है जहां शराब उसका सहारा बन गई है। अमिताभ बच्चन ने इस नाजुक संतुलन को बेहतरीन तरीके से निभाया है—शराब में डूबा हुआ पर ज़िंदादिल, दुखी पर हंसमुख, टूटा हुआ पर प्यार करने वाला।
फिल्म का असली मोड़ तब आता है जब विक्की की मुलाकात मेहरुनिस्सा (जया प्रदा) से होती है। वह एक नर्तकी है, शालीन, खूबसूरत और बेहद संवेदनशील। उनकी पहली मुलाकात ही असाधारण होती है। विक्की को उसमें वह अपनापन मिलता है जो उसे आज तक कहीं नहीं मिला था। दोनों के बीच धीरे-धीरे प्रेम पनपने लगता है। इस प्रेम में कोई ड्रामा नहीं, कोई बनावट नहीं, सिर्फ दिलों की सच्चाई है। जया प्रदा की मासूमियत और अमिताभ की आंतरिक पीड़ा जब पर्दे पर एक साथ दिखाई देती है, तो दर्शक भावनाओं में डूब जाता है।
मेहरुनिस्सा का किरदार फिल्म को एक खास ऊंचाई देता है। वह विक्की की जिंदगी में रोशनी लाती है, लेकिन समाज और परिस्थितियाँ उसे स्वीकार करने में कठिनाई करती हैं। विक्की उसे पाने के लिए सब कुछ छोड़ने को तैयार है—दौलत, घर, पिता का साम्राज्य—परंतु भाग्य और समाज की दीवारें इतनी मजबूत हैं कि प्रेम को संघर्ष की राह पर चलना पड़ता है। फिल्म में प्रेम का यह संघर्ष बहुत सुंदर तरीके से दिखाया गया है। यहाँ प्रेम कोई चमक-दमक वाला बॉलीवुड रोमांस नहीं, बल्कि सच्ची भावनाओं की कहानी है।
फिल्म में पिता-पुत्र का संबंध एक और महत्वपूर्ण भाव है। ओम प्रकाश ने अमीरचंद का किरदार बड़ी मजबूती से निभाया है। वह कठोर पिता हैं, अनुशासनवादी, अहंकारी और अपने नाम और प्रतिष्ठा के प्रति अति-समर्पित। उन्हें अपने बेटे से प्यार है, लेकिन जताने की क्षमता नहीं। इस न जताने का दर्द बेटे के दिल में जख्म बनकर रहता है। फिल्म में कई दृश्य ऐसे हैं जहां पिता-पुत्र का टकराव दर्शकों को सोचने पर मजबूर कर देता है कि आखिर जिंदगी में क्या ज्यादा जरूरी है—पैसा या प्रेम? संवादों में भावनाएँ हैं, चुभन है, और दर्द भी। जब अंत में पिता को अपने बेटे की पीड़ा समझ आती है, तब दर्शक भी उनके साथ भावनात्मक रूप से पिघल जाता है।
फिल्म की सबसे बड़ी ताकत उसका संगीत है। संगीतकार बप्पी लाहिड़ी ने धुनों में भावनाओं, दर्द, प्रेम और मस्ती का ऐसा मेल किया है कि हर गीत आज भी लोकप्रिय है। गीतकार अंजान के शब्द सरल लेकिन असरदार हैं। सबसे यादगार गीतों में "इंतहा हो गई इंतज़ार की" को भला कौन भूल सकता है? किशोर कुमार और आशा भोंसले की आवाज़ें जैसे दिल के तार झंकृत कर देती हैं। यह गीत अकेलेपन और बेताबी की एक ऐसी कहानी कह देता है, जो केवल शब्दों में नहीं, संगीत में बहती है।
इसके अलावा "दे दे प्यार दे" एक मस्ती भरा, हल्का-फुल्का गीत है, जो अमिताभ बच्चन की ऊर्जा और स्क्रीन प्रेज़ेंस को उजागर करता है। "मंजिलें अपनी जगह हैं" जिंदगी के संघर्ष का गूढ़ संदेश देता है। वहीं "मुझे नौलखा मंगा दे रे" फिल्म का सबसे चंचल और लोकप्रिय गीत बन गया था। इन सभी गानों में केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि कहानी की आगे बढ़ती परतें भी छिपी हैं। संगीत और कहानी का यह मेल “शराबी” को और भी मजबूत बनाता है।
अभिनय की बात की जाए तो फिल्म वास्तव में अमिताभ बच्चन की है। उन्होंने शराब के नशे में डूबे व्यक्ति की पीड़ा, उसकी मासूमियत, उसकी अच्छाई और उसकी टूटन को बहुत सूक्ष्मता से चित्रित किया है। कई दृश्यों में उनका अभिनय इतना प्रभावी है कि दर्शक हंसते-हंसते रो भी पड़ता है। उनकी टाइमिंग, संवाद, भाव-भंगिमाएँ और नियंत्रित अभिनय काबिल-ए-तारीफ है। जया प्रदा ने भी बेहद संजीदा प्रदर्शन किया है। उनकी आंखें बोलती हैं। बिना जोर-शोर के, बिना नाटकीयता के, केवल भावों से उन्होंने दर्शकों को बांध लिया। ओम प्रकाश भी फिल्म का मजबूत स्तंभ हैं—उनके संवाद, उनका क्रोध, उनका अहं और अंत में उनका पश्चाताप—सब वास्तविक लगता है।
निर्देशक प्रकाश मेहरा का दृष्टिकोण बेहद संतुलित और संवेदनशील रहा। उन्होंने एक शराबी बेटे की कहानी को किसी सस्ती मेलोड्रामा में नहीं बदला, बल्कि उसे गहराई, आदमियत और भावनात्मक ईमानदारी दी। फिल्म की गति, दृश्यांकन, संवाद और चरित्र निर्माण सब उच्च स्तर का है। यह फिल्म मनोरंजन देती है, लेकिन साथ-साथ सोचने पर मजबूर भी करती है। समाज में धन के बीच भावनाओं की कमी और रिश्तों की दूरी को जिस तरह दिखाया गया है, वह आज भी उतना ही प्रासंगिक है।
जहाँ तक बॉक्स ऑफिस की बात है, “शराबी” 1984 की सबसे बड़ी हिट फिल्मों में शामिल रही। यह अपने समय की टॉप ग्रॉसर साबित हुई। दर्शकों ने अमिताभ बच्चन को खुले दिल से स्वीकार किया। आलोचकों ने भी फिल्म को सराहा। आज भी टीवी पर जब यह फिल्म आती है, तो दर्शक इसे बड़े आनंद से देखते हैं। इसका संगीत रेडियो पर आज भी बजता है, और “इंतहा हो गई इंतज़ार की” सुनते ही एक पुरानी भावनात्मक लहर मन में उठ जाती है।
कुल मिलाकर “शराबी” हिंदी सिनेमा की एक अमर कृति है। इसमें मनोरंजन है, संगीत है, अभिनय की ताकत है, भावनाओं की गहराई है और कहानी का दम भी। यह सिर्फ एक शराब पीने वाले व्यक्ति की कहानी नहीं है, बल्कि यह रिश्तों की कीमत, प्यार की आवश्यकता और मानवीय संवेदनाओं की कहानी है। यह फिल्म दिखाती है कि पैसा सब कुछ नहीं होता, इंसान को प्यार, अपनापन और समझ की जरूरत होती है।
अगर आप क्लासिक फिल्में पसंद करते हैं, अगर आप अमिताभ बच्चन के प्रशंसक हैं, या अशराबी गर आपको ऐसी फिल्में पसंद हैं जो दिल को छू जाएं और दिमाग में उतर जाएं—तो “शराबी” अवश्य देखें। यह फिल्म आपको हंसाएगी भी, रुलाएगी भी, और अंत में एक गहरी सीख भी दे जाएगी।