कवि
वासुदेव गोस्वामी और उनका साहित्य-गीता गोस्वामी पाण्डेय
समीक्षा
आलोचना निकष पर दमकते गोस्वामीजी
"वासुदेव गोस्वामी हिंदी साहित्य में ऐसा नाम है जिसे ब्रजभाषा के गंभीर अध्ययन और उसके सर्जनात्मक आस्वादन के लिए सदैव कृतज्ञ पूर्वक स्मरण किया जाएगा। हरिराम व्यास, बक्शी हंसराज, राजा मर्दन सिंह जैसे अछूते कवियों और स्वतंत्रता सेनानियों पर उन्होंने प्रामाणिक ग्रंथ लिखे। गीता ने अपनी पुस्तक 'वासुदेव गोस्वामी और उनका साहित्य' जैसा गंभीर आलोचनात्मक ग्रंथ लिखकर उत्तम कार्य किया है" (पृष्ठ 9) डॉक्टर विद्या निवास मिश्र का यह कथन डॉ. गीता पांडेय की किताब को देखकर सर्वदा सत्य प्रतीत होता है। उल्लेखनीय है कि वासुदेव गोस्वामी एक बहु आयामी प्रतिभा के धनी व्यक्ति थे।वे साहित्यकार थे,गणितज्ञ थे, होम्योपैथी के बड़े जानकार चिकित्सक थे और नौकरी कुर्बान कर देने वाले स्वतंत्रता सेनानी भी थे। हिंदी के काव्य जगत में उन्हें हास्य आचार्य की उपाधि प्राप्त थी। बात-बात में हास्य निकालना और उस हास्य में से गहरा व्यंग कर देना उनकी समृद्ध भाषा का कौशल्य था। उन्होंने सर्वथा नए विषयों पर रचनाएं लिखी । दतिया की पहचान आचार्य वासुदेव गोस्वामी के नाम से की जाती है।
कविता लिखने के साथ उनमें और भी कई हुनर थे। वे एक बहुत बड़े गणितज्ञ थे। उन्होंने दतिया रियासत में अकाउंट्स विभाग में जब नौकरी आरंभ की तो डिप्टी अकाउंटेंट जनरल बन गए थे। बाद में देश की आजादी के बाद अकाउंट ऑफिसर, ट्रेजरी ऑफिसर के पद पर भी वे कार्यरत रहे,इनकम टैक्स गणना पत्रक बनाया। कैलकुलेटर और इंटरेस्टोमीटर यानी ब्याज गणना की मशीन तैयार करने के लिए भी उन्होंने अनुसंधान किया। जिसे भारतीय भौतिक शास्त्र प्रयोगशाला के विद्वानों ने देखा और उसकी मंजूरी दे दी गई थी।
गीता पाण्डेय इस किताब में पहला अध्याय दतिया के साहित्य इतिहास पर है, जिसका नाम दतिया जिले की साहित्य परंपरा और पृष्ठभूमि नाम दिया गया है । इसमें दतिया जिले में साहित्य की अक्षरा अन्य और अन्य विद्वानों से आरंभ हिंदी साहित्य की परंपरा को गहरे रूप से वर्तमान तक रेखांकित किया गया है । दूसरे अध्याय में वासुदेव गोस्वामी जी के जीवन के विभिन्न पक्ष सामने आते हैं- इसका नाम है पंडित वासुदेव गोस्वामी का व्यक्तित्व। तीसरा अध्याय पंडित वासुदेव गोस्वामी के समग्र साहित्य का वर्गीकरण एवं विश्लेषण के नाम से है। चौथा अध्याय पंडित वासुदेव गोस्वामी के काव्य का भाव संसार एवं रस दृष्टि है। पांचवा अध्याय हास्य एवं व्यंग्य के अनुच्छेद आयाम और उनके अखंड काव्य पजामा का विशिष्ट अनुशीलन रखा गया है। छठवां अध्याय पंडित वासुदेव गोस्वामी के काव्य में काव्य शास्त्रीय दृष्टि तो सातवें अध्याय में हिंदी की हास्य एवं व्यंग्य परंपरा में पंडित वासुदेव गोस्वामी के काव्य सृजन का योगदान एवं वैशिष्टय है। आठवां अध्याय पंडित वासुदेव गोस्वामी के गद्य साहित्य का विश्लेषण एवं विवेचन है, तो नवॉ उपसंहार आता है।
प्रथम अध्याय में लेखिका लिखती हैं 'बुंदेलखंड नरेश मधुकर शाह स्वयं कवि थे और अनेक कवियों के आश्रय डाता भी रहे। xxx मधुकर सहायक के पौत्र भगवान राव के लिए बुंदेलखंड का एक क्षेत्र दतिया राज्य के रूप में निर्धारित किया गया था ।xxx भगवान राव के पुत्र शुभकरण तथा पौत्र दलपत राव के कवि जोगीदास भट्ट का जो सम्मान किया गया वह असाधारण था।xxx दलपत राव के आश्रय में राय शिवदास रहे उन्होंने 'लोक उक्ति रस उक्ति' तथा नायिका भेद विषयक 'सरस रस ' नामक दो पदयात्मक ग्रंथ प्रस्तुत किए दलपत राव के पुत्र पृथ्वी सिंह उत्कृष्ट कवि थे। इसी क्षेत्र में और ओरछा से आकर संत अक्षर अनन्य भी साधनारत हुए। विक्रम की 18 वयि शताब्दी के प्रारंभ में ही यह वर्तमान थे।( प्रश्ठ 9) तृतीय अध्याय में पंडित वासुदेव गोस्वामी के व्यक्तित्व के बारे में लिखते हुए उल्लेख किया गया है कि वैशाख कृष्ण अष्टमी संवत 1971 विक्रमी तदानुसार 18 अप्रैल 1914 ई. को गोस्वामी मुकुंद लाल जी के घर वासुदेव गोस्वामी का जन्म हुआ।( पृष्ठ 13) वासुदेव गोस्वामी के पूर्वजों में हरिराम व्यास बड़े उज्जवल नक्षत्र थे और वासुदेव जी के पिता मुकुंद लाल जी भी साहित्य प्रेमी थे,वहीं उनकी मां कुंज कुँअरि भी साहित्य की अध्येता थी। वासुदेव जी ने दतिया राज्य की पाठशालाओं में हिंदी की प्रारंभिक परीक्षा दी और लॉर्ड रीडिंग हाई स्कूल में एडमिशन लिया। एकाउंटेंसी विषय का अध्ययन उन्होंने किया तथा 1936 ईस्वी में लंदन चेंबर ऑफ कॉमर्स द्वारा संचालित परीक्षा में विशेष योग्यता के साथ उत्तीर्ण की। बचपन से वे प्राचीन कविताओं में ही अपने पंक्तियां जोड़ने लगे थे, इसका उदाहरण वह पँक्ति थी जिसे प्रायः मोहल्ले के लोग उनसे सुना करते थे औऱ वे बड़े चाव से सुनाते थे-
जय जय हनुमान जय गोसाई, कृपा करो गुरुदेव की नाई।
जाको मतलब जो के गुर की डिगरिया दे हो कै नाई। (पृ.15)
गोस्वामी वासुदेव जी ने महाकवि पद्माकर के प्रपौत्र दतिया निवासी कवींद्र गौरी शंकर भट्ट के घर जाकर काव्यशास्त्र का अध्ययन किया। दतिया के उर्दू मुशायरा में लगातार शायरी सुनी तो उर्दू का भी उन्हें गहन अध्ययन हो गया इतना अध्ययन कि वह हिंदी में कविता लिखने के साथ उर्दू में भी गजल और नज़्म कहने लगे थे। मैथिली शरण गुप्त नई दिल्ली में राज्यसभा के सांसद थे, वासुदेव गोस्वामी जी अपने इंटरेस्टोमीटर मशीन के निर्माण के सिलसिले में कई बार दिल्ली बुलाए जाते थे। मार्च 1959 के प्रथम सप्ताह में वे राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जी से मिले। वहां गोस्वामी जी ने उन्हें अपनी 'कराधान नीति' शीर्षक से रचित व्यंग्य की एक चतुष्पति सुनाई-
मिस्सी तो है मुक्त मगर मंजन पर कर है ।
सुरमा पर कुछ नहीं नेत्र अंजन पर कर है।
खुश दिल बनने से पहले यह सोच समझ लो,
मनहूसियत मुआफ़ मनोरंजन पर कर है( प्रश्ठ 35)।
लेखिका ने इस अध्याय में अनेक प्रसंग दिए हैं। कवि शंभू दयाल श्रीवास्तव बृजेश की दाढ़ी से संबंधित कविता का उल्लेख है , तो सरदार फौजदार पर्वत सिंह के बारे में भी उनका एक प्रसंग बताया गया है । रीवा में अपनी नौकरी के दौरान वे डॉक्टर विद्या निवास मिश्र के संपर्क में आए और फिर वे रीवा के तमाम अधिकारियों और साहित्य प्रेमी व्यक्तियों की मजलिस में नियमित बैठने लगे ।
वासुदेव गोस्वामी जी को उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान सहित मध्य प्रदेश के गठन के बाद के मध्य प्रदेश संस्कृति विभाग के अनेक पुरस्कार प्राप्त हुए। वासुदेव गोस्वामी जी के पद्य आध्यात्मिक साहित्य और गद्यात्मक साहित्य दोनों तरह के साहित्य पाए जाते हैं। गोस्वामी जी की पदयात्मक साहित्य की पांच प्रकाशित में तथा तेरह अब प्रकाशित पुस्तकें है। संपादित पुस्तकों में दो प्रकाशित है और तीन अप्रकाशित हैं।
गद्यात्मक साहित्य- गोस्वामी जी की गद्य लेखन की आठ प्रकाशित पुस्तक हैं तथा 16 अप्रकाशित। गद्य के संपादित ग्रन्थों में एक प्रकाशित है व दो अप्रकाशित( पृष्ठ 49)
गोस्वामी जी ने ब्रजभाषा की छह पुस्तक लिखी, तो खड़ी बोली की 11 पुस्तक लिखी! यह सब उनका काव्य साहित्य था। गद्य में खड़ी बोली में गोस्वामी जी की 11 पद्य साहित्य व कुल 30 पुस्तक गद्य में लिखी गई । बुंदेली में उनकी एक ही रचना है 'बोली बोली आम की डार '! अंग्रेजी में भी उन्होंने दो पुस्तक लिखी 1 डेसिमल वैज़ेज़ रैकोनर और स्टैंडर्ड इंटरेस्ट कैलकुलेटर।
उर्दू शैली की रचना में उनकी किताब 'बहारे बादे सवा' है तो उनकी तमाम पुस्तकों का अनुवाद विदेशी भाषा में हुआ और अंग्रेजी हिंदी गद्य तथा संस्कृत से हिंदी पद में अनेक पुस्तक उन्होंने अनुवाद की है। जिसमें केनोपनिषद का हिंदी पद्यांनुवाद महत्वपूर्ण है। गोस्वामी जी हर जगह मौलिक थे,उन्होंने सरस्वती वंदना में भी अपनी मौलिकता दी है, देखिए उनकी सरस्वती वंदना-
माल में मंगल मंत्र मनोगत ब्रह्म के लोग को नाकत आ गई।
पुस्तक में 'वसुदेव ' की छाप लगाए के छन्द को टांकत आ गई ।
भक्त समूह उपस्थित जान कृपा भरी दृष्टि से झाकत आ गई।
वंदना पूरी नहीं कर पाए सरस्वती हंस को हाँकत आ गई।(पृ.60)
इसमें हंस को हांकने की सर्वथा नई शैली है, नई युक्ति है, जो वासुदेव गोस्वामी जी के व्यंग्यों की शैली के साथ-साथ माता सरस्वती के मानवीकरण की भी प्रतीक है। महात्मा गांधी के प्रति लिखे एक बड़े छन्द का यह अंश देखिए-
बापू हमने तो तुम ही में शिवि नरेश के दर्शन पाए ।
तुमने अपनी देहदान कर कितने करोड़ कपोत बचाए ।(पृष्ठ 68) दतिया की जन्मभूमि के लिए गोस्वामी जी का मस्तक सदा झुका रहता था, उन्होंने दतिया के भौगोलिक परिवेश पर एक शानदार कविता लिखी-
जाके पग पायलें परी हैं रत्नाकर की बंग गुजरात कल कोंकण करतिया।
विंध्याचल जासू करधनी अति नौनी लसे वासुदेव मुकुट हिमालय धरतिया।
सारी जरतारी बनी-बनक बनारस की गंगा सी किनारी धारी छोर सरबतिया।
दिल्ली दिपे बेंदी जाकी कश्मीर शीश फूल, वृंदावन बेसर गरे को हार दतिया।(पृष्ठ74)
गले का हार दतिया लिखने के पीछे कवि का यह भी उद्देश्य रहा की जन सामान्य में यह कहावत प्रचलित थी कि "
झांसी गले की फांसी दतिया गले को हार।
ललितपुर तब तक ना छोड़िए जब तक मिले उधार।
इन चारों स्थान के चार प्रसंग पर फिर कभी बात की जाएगी ।
दतिया के टेढ़े से नक्शे के बारे में भी कवि ने लिखा है -
जग की आकृति का बोध कराने को जैसे नारंगी ।
यह दतिया का मानचित्र है मत समझो सारंगी।
दतिया मंडल का यह नक्शा जो तुम देख रहे हो ।
सीमाओं की रेखाओं से सारंगी लेख रहे हो।
उस पर सिंधु नदी का अंकन तार सदृश लगता है ।
मधुर कल्पना के स्वभाव से भाव यही जगता है।
और सुखद संयोग की जिसके पल से यह सज धज है।
बनी रेलवे रेखा जैसे कलाकार का गज है।( पृष्ठ 73)
सारंगी की गज को बहुत ही अद्भुत ढंग से उन्होंने प्रयोग किया है। जन्मभूमि के अंचल बुन्देलखण्ड की विशेषताओं को भी उन्होंने अनेक छन्द में लिखा। एक महत्वपूर्ण अध्याय में वासुदेव गोस्वामी जी की कविताओं में काव्य शास्त्रीय दृष्टि का विश्लेषण करते समय लेखिका ने रसों की मीमांसा करते हुए जब श्रृंगार रस की बात की तो यह कविता बहुत प्रभावी रचना के रूप में सामने आती है -
कंध भुज बंद दएं तरु लतिका से लसे दोउ जन आनंद सो दोउन की गोद में।
वासुदेव दोउ जन दोउन रिझावे रीझे हँसि हुलसावे सुख पावे मनमोद में ।
कुंजन की गलिन अलिन की नलिन बनी मिलत खिलत बतरावत विनोद में ।
राधा घनश्याम काम वाम को लाजत जात, दामिनी सुहात जिम पावस पयोद में। (प्रश्ठ 99)
करूंण रस ही कविता और कवि की परीक्षा का रस है। करुण रस पर कवि ने एक छन्द लिखा-
घायल खग पृथ्वी पर तड़पा पीड़ा से चिल्लाया।
दौड़ पड़े सिद्धार्थ उठाकर उसको हृदय लगाया।
तीर खींच कर रुधिर घाव का स्वच्छ बसन से पौंछा।
कर औषधि उपचार हंस का सारा अंग अगोछा (पृष्ठ 101)
वीर रस भी कवि का प्रमुख रस था। एक छन्द देखिए-
वासुदेव किसकी उम्र अब पूरी हुई। मौत के ही मुख में छलांग मेरी जिसने ।।
कौन मूढ़ शेर के सपूत ललकारता है ।
भारतीय सीमा पर उठाई आंख किसने।(102)
वीभत्स रस की उनकी रचना देखिए-
अकड़ अश्व असवार होत असि बार करत कर ।
छोड़ रुंण्ड हरि मुंड गिरत तब आन अवनि पर।
किलकत काली पियत खून खप्पर मह भर भर ,चिर जीवहु यह देत असीसही धन्य वीर वर। (103)
अद्भुत रस की रचना उन्होंने बालकृष्ण को गोवर्धन पर्वत उठाने की घटना को लेकर की है, लिखते हैं
त्राता जय श्री कृष्ण की बज ने करी पुकार ।
गोवर्धन गिरि ता समय नक्खर कर लिए धार ।
नकखर कर लिए धार गिरवर भारज्जनहित ।
जय जय चकित पयाेधर थकित भये अति सकुचित ।
मधवा बूझि न गति कछु सूझि न मती करी बाता।
मान मरद्दन गर्व मरद्दन देवन त्राता। (103)
शांत रस तो लघु प्रबंध काव्यर बुद्धदेव में उन्होंने अनेक जगह प्रयोग किया है। क्योंकि बुद्ध तो शांति का ही प्रतीक है।कवि लिखते हैं-
मन की उसे परमावस्था को मोक्ष कहा करते हैं ।
जिसमें आने पर दुख के लवलेश नहीं रहते हैं।
इंद्रिय निग्रह और आत्म संयम से वह मिलती है ।
ध्यान सत्य में रहे हृदय की कली तभी खिलती है।( प्रश्ठ 10) वात्सल्य रस की रचना को खोजें तो हम देखते हैं कि वे एक बड़ी सशक्त रचना लिखते हैं ।इसका अंश देखिये-
शैल वन बागन में अति अनुराग भरे खेलत गजानन फिरज पुचकारी डेत।
मूषक विदूषक से चढ़ा नाग राजन पै बिहंस बिलोकत फलांग फटकारी देत।
सूंड सो समेटि भेंटि सिंघहि खिलावे पुनि मुदित मयूर पै फणीन्द्र फुसकारी देत।
देत कर तारी महतारी भारी मोद भरि गिरिजा की गोद में गणेश किलकारी देत।(पृष्ठ 104)
चांद की दृष्टि से वासुदेव गोस्वामी जी का साहित्य विविध वर्णी पुष्पों का गुलदस्ता कहा जा सकता है। गीता पाण्डेय लिखती हैं 'घनाक्षरी छन्द की रचना एक दीर्घकालीन अभ्यास की अपेक्षा रखती है। गोस्वामी जी ने यह साधना की है, जिससे वह उत्तम कोटि के कवित्त दे सकने में सफल हुए हैं । उन्होंने कवित्त, दोहा, चौपाई , रोला, बर्बे, छप्पय, कुंडलिया, अमृत ध्वनि,किर बान, वीर छन्द, सार छन्द, नग स्वरूपिणी, भ्रमर गीत, हरिगीतिका आदि अनेक छंदों में रचनायें की हैं। (पृष्ठ 106)
अलंकार की दृष्टि से जब वासुदेव गोस्वामी की रचनाओं का अवलोकन किया जाए, तो वे सभी अलङ्कार का सहज प्रयोग करते दिखते हैं।उनकी यमक अलंकार की एक रचना देखिए -
सुजस अमन्दिनी को स्वर वंदिनी को मुख,
चंद हूं ते नीको वृषभान नंदनी को है ।
श्लेष अलंकार भी उनके यहां सहज रूप से आता है वह लिखते हैं -
ज्ञान मार्तंड की मरीचन ते ताही समें,
प्रेम सिंधु बीच घनश्याम फिरिवे लगे
यहां घनश्याम पद का प्रयोग श्रेष्ठ है। एक अर्थ में वह मेघ का पर्याय है और दूसरे में श्री कृष्ण का।
उपमा अलंकार, उत्प्रेक्षा अलंकार, मालोपमा, अनन्वय अलंकार, प्रतीप अलंकार, उल्लेख अलंकार, परिकर अलंकार, लोकोक्ति, जैसे अलंकार सहज भाव से उनकी कविता में देखने को मिलते हैं ।
ध्वनि की दृष्टि से अगर उनके काव्य का अध्ययन किया जाए तो हम पाते हैं कि गोस्वामी जी इसमें भी सिद्ध हस्त हैं। गोस्वामी जी ने काव्य रचना में ध्वनि का बहुत कलात्मक सहारा लिया है। इसीलिए उनकी रचनाओं में काव्यात्मकता उभरी है। रचनाकार के भाव श्रोता के मन में रहकर आनंद आते जाते रहते हैं।
भारत सरकार की कराधीन नीति पर व्यंग्य करते हुए वह कहते हैं 'मिस्सी तो है मुक्त मगर मंजन पर कर है, सुरमा पर कुछ नहीं नेत्र अनजान पर कर है (प्रष्ठ 114) संस्कृत में औचित्य अनोचित्य के नजरिये से साहित्य की समीक्षा की जाती है। इस आधार पर जब गोस्वामी जी का साहित्य कसा जाता है तो अचरज होता है। गोस्वामी जी ने अपनी कविता में जिन शब्दों के प्रयोग किए हैं वे अपने स्थान पर इतने सटीक औचित्यपूर्ण हैं कि उन्हें बदलना कठिन है ।अलंकारों के प्रयोग भी सहज और अनुरूप हैं।इसी प्रकार उनके विषय वस्तु की दृष्टि से उचित छंदों का निर्धारण भी हुआ है ।
एक छन्द में उन्होंने कृष्ण को ब्रजचंद तो राधा को चकोरनी, कृष्ण को घनश्याम तो राधा को नाम नहीं कहा है देखिए
'ब्रजचंद की चारु चकोरनी सी, घनश्याम के अंक में दामिनी हौ ।
तुम कीति सुता जसुदा सुत वे उनके अनुकूल ही भामिनी हौ ।
ब्रज गोकुल की कमनीयता वे तुम रावल की अभिरामिनी हौ ।
मन मंदिर सुन्दर आसन पै वह स्वामो सदा तुम स्वामिनी हो ।'
(116 / बासुदेव गोस्वामी और उनका साहित्य)
ध्वनि के अतिरिक्त गोस्वामी जी ने काव्य की अमिधा शक्ति, लक्षण शक्ति और व्यंजना शक्ति से भरी रचनाएं लिखी हैं। उनके काव्य में माधुराय,ओज व प्रसाद गुण आए हैं , एक रचनामें प्रसाद देखिए-
बामन भेष धर्यो हरि ने बलि जाचन हेतु चले मग माँही ।
जा मख-भूमि जबै पहुंचे, पग तीन तबै वसुधा लही तांही ।
हवै के प्रसन्न कहयौ हरि ने 'नृप मांगिलै वस्तु सबै मनचाही ।
सो सुनके बलि बोल्यों अहो ! अब मांगने सों हम मांगत नाँही ।।
( पृष्ठ 118 / वासुदेव गोस्वामी और उनका साहित्य)
बिंब विधान की दृष्टि से भी वासुदेव गोस्वामी जी की कविता उत्कृष्ट कोटि की है। उनकी कविताओं में लोक मंगल भी प्रतिबिंबित होता है। उल्लू में उन्होंने कई तरह के बिम्ब देख लिए। कविता पढ़े -
कै तम तोम कौ रूप विलोकन सूरज-चंद छिपे छवि छाजे ।
कैधौं कुबेर के बाहन के रथ के पहिया अति सुन्दर साजे ।।
के सुर बालक कैरम की जुग गोटिका छांड़ि के बीच ही भाजे ।
के बर गोभी के फूल पै गोमती चक्र है आसन बांधि बिराजे ।
(पृष्ठ 119)
काव्य रचना और काव्य की कसौटी के लिए प्रतीक एक महत्वपूर्ण निकस होता है। अगर प्रतीक की दृष्टि से देखा जाए तो गोस्वामी जी की सारी रचनाएं प्रतीक या चिन्ह की दृष्टि से बहुत ही उत्कृष्ट कोटि की है ।उनके प्रतीक से संबंधित एक छन्द पढ़िए-
वैभव को सब छोड़ छाड़कर केवल भरत विषाद चला।
राम नाम के जप लेने को प्रेम पूर्ण प्रहलाद चला ॥
आज जाति गंगा के आगे भव्य भगीरथ भूप चला ।
आज कुरीति मिटाने के हित स्वयं न्याय का रूप चला ।।
अन्धकार के हर लेने को ब्रह्मकाल का अर्क चला।
बौद्धवाद का खंडन करने यति शंकर का तर्क चला ॥
(120 / वासुदेव गोस्वामी और उनका साहित्य)
भाषा शैली की दृष्टि से उनकी रचनाएं ब्रजभाषा, खड़ी बोली और बुंदेली बोली की उत्कृष्ट शैली की रचनाएं हैं । सवैया,घनाक्षरी, दोहा,छप्पय, कुंडलिया , आदि छंदों में उन्होंने अपनी भावनाओं को विस्तार दिया है।
हिंदी हास्य व्यंग्य की परंपरा में जब हम वासुदेव गोस्वामी के साहित्य का अवलोकन करते हैं तो पाते हैं कि वे हिंदी की हास्य व्यंग्य परंपरा में उत्कृष्ट स्थान पर विराजमान है। लेखिका लिखा है
साहित्य दर्पणकार के अनुसार 'वागादि वैकृतैश्चेतोविकासो हास इष्यते' अर्थात वाणी, वेष, भूषणादि की विपरीतता से जो चित्त्र का विकास होता है, वह हास कहलाता है ।
हास्य को उत्पत्ति के कोरण वस्तुमात्न में देखी हुई विकृति अथवा विप-रोतता, व्यंग्य दर्शन, परचेष्टा अनुकरण, असम्बद्ध प्रलाप आदि हैं। हास्य का कारण दूसरे की या अपनी विचित्र वेषभूषा, चेष्टा, कार्यकलाप आदि भी होते हैं। हास्य से मनुष्य का चित्त सदैव प्रसन्न रहता है। जिस समय मनुष्य हास्य का अनुभव करता है, अपने सब दुखों को भूल जाता है ।
हिन्दी साहित्य में हास्य रस की परम्परा वीरगाथा काल से हो पाई जाती है। हास्य के आलम्बनो के विषय परिवर्तन भी आदिकाल से ही होते रहे हैं।
वीरगाथा काल में कायर, भक्ति काल में आडंबरी साधु, धर्म ध्वजी नेता, भक्तों के आराध्य, सूर के उद्धव , तुलसी के नारद परशुराम, रीतिकाल में विद्या खटमल दंभी सुम और आरसिक रहे हैं। आधुनिक युग तक आते-आते सरकार के खुशामदी, भ्रष्ट नेता व स्वार्थी अधिकारी, फैशन के गुलाम, टैक्स, अकाल महामारी आदि में हंसने की सामग्री मिलने लगी (पृष्ठ 127)
हास्य रचने और व्यंग में उनका कोई जवाब नहीं था। उल्लू की आंखों पर फिर बात करते हैं-
ब्रह्मा ज सृष्टि रचना में व्यस्त हैं और उलूक पक्षी का निर्माण कर रहे हैं। उसके अंगों गोल बनाते बनाते उनकी बुद्धि भी गोल हो जाती है-
गोल हो गोल संवारत पंजन, पंखन के पर गोल उमानी । गोल शरीर में गोल ही आनन, तामहँ गोल कपोल लुभानी ।। लोचन गोल, विलोचन गोल, सुधारत चंचु में गोल सुबानी । गोल ही गोल बनावत में चतुरानन की बर बुद्धि गुलानी ॥(पृष्ठ 134)
दुनिया की पहली मिठाई क्या है इस पर कवि की पंक्ति देखिए-
सबसे पहले कौन बनाई गई मिठाई?
इस पर अनुसंधान किया है मैंने भाई ।
मेरे मत से हलुवा पहले पहल बना था,
क्योंकि बनाने वाला कहलाया हलवाई। (पृष्ठ 135)
दतिया शहर गामा का शहर का जाता है। विश्व विजयी पहलवान गामा तो पहलवानों में एक उपमा की तरह है, एक मिथक की तरह है। इसकी उपमा पहलवान से दी जाती है, आज उस शहर दतिया के बच्चे जब बारात के साथ नृत्य करते हुए चलते हैं, तो कवि हास्य कविता में लिखते है -
विश्व विजयी गामा पहलवान की जन्म भूमि दतिया नगरी है। इस आलोक में यहाँ की नई पीढ़ी को देखकर गोस्वामी जी कहते हैं-
पटयाले में पटका जिसने पहिलवान जयविस्को ।
विश्व विजय का गौरवपद सम्मान मिला है जिस्को,
उस गामा की जन्मभूमि दतिया के युग निर्माता,
बारातों के आगे पथ में नाच रहे हैं डिस्को ।( पृष्ठ 136 )
वासुदेव गोस्वामी जी के गद्य साहित्य का विश्लेषण करते हुए लेखिका आलोचक ने उनकी पुस्तक हरि त्रयी ( जिसमें हित हरिवंश, हरिदास स्वामी तथा गोस्वामी राम विकास के बारे में लिखा गया है) का विश्लेषण किया है,कवि के गद्यात्मक निबंध में विद्रोही बानपुर तथा उठो वीर संतान हैं ।तो जातक कहानियां में संग्रहित 12 कथाओं में गोस्वामी जी ने पांच कथाएं बच्चों हेतु लिखी हैं। वर्णनात्मक निबंध में उन्होंने विस्तार से विभिन्न जगहों की लोक संस्कृति और संस्कृति का अध्ययन किया है। गोस्वामी जी के कुछ हास्य व्यंग्य निबंध महत्वपूर्ण है जिनके नाम इस तरह है
1 एक कवि सम्मेलन करना भी एक मुसीबत है
2 वरना क्या बात कर नहीं आती 3कुछ बात और है जो चुप हूं मात्रा अफसर के सामने
4 लीला ही निराली है अफ़सर की 5उनका इलाज नहीं उधार मांगने वालों का
6 भर पाए आगा बनकर
उपसंहार शीर्षक में इस पुस्तक की लेखिका आलोचक ने विभिन्न अध्यायों के आधार पर और विभिन्न रस अलंकार छंद शैली और भाव के आधार पर अपने इस पुस्तक में वासुदेव गोस्वामी के साहित्य का गहन परीक्षण कर निष्कर्ष दिया है वह महत्वपूर्ण है ,वह कहती हैं कि
वासुदेव गोस्वामी जी का जो स्थान हिंदी साहित्य में स्थित किया गया है वह अद्वितीय है और अविश्मरणीय है।
हास्य व्यंग्य के रचनाकारों को साहित्य सर्जकों की पंक्ति में सम्मानित स्थान बनाने वाले बहुमुखी प्रतिभा के धनी राष्ट्रभाषा हिंदी की सेवा के लिए समर्पित वासुदेव गोस्वामी के व्यक्तित्व और कृतित्व का यह सीमित परिचय उनके साहित्य की उपादेयता को तो प्रकट करता ही है, साथ ही वह शोधक के लिए कितने ही विषयों के द्वार खोलता है ।(पृष्ठ 170)
लेखिका हिंदी और संस्कृत में स्नातकोत्तर डिग्री लिए हैं।वे जब आलोचना की इस किताब को लिखने बैठी तब उनके सामने कोई पूर्वाग्रह न था । उन्होंने हिंदी साहित्य, भाषा विज्ञान और आलोचना शास्त्र के विभिन्न निकष सामने रख उन पर कवि वासुदेव गोस्वामी की रचनाओं को कसा और जो निष्कर्ष निकलते रहे वे अध्याय वाइज अध्याय लिखती रही। इस तरह लेखिका का यह काम हिंदी साहित्य के लिए भी परोपकारी है, तो शोधकर्ताओं के लिए भी महत्वपूर्ण है।
यह पुस्तक सचमुच एक बड़े लेखक को साहित्य निकष में कसने के बाद प्रस्तुत विमर्श का छोटा सा प्रयास ही है। जिसमें डॉ गीता गोस्वामी या गीता पांडेय पूर्वतः सफल हुई है।
पुस्तक-वासुदेव गोस्वामी और उनका साहित्य
लेखिका-डॉ श्रीमती गीता पाण्डेय
प्रकाशक-आराधना प्रकाशनगोविंद नगर कानपुर 208006