bansho mujhe achchi laganr lagi in Hindi Adventure Stories by राजनारायण बोहरे books and stories PDF | बंशो मुझे अच्छी लगने लगी

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बंशो मुझे अच्छी लगने लगी

कहानी बंशो मुझे अच्छी लगने लगी

राजनारायण बोहरे

प्रिय सुरेश,

ये क्षेत्र छत्तीसगढ़ कहलाता है । छत्तीसगढ़ का मतलब बहुत से लोग कहते हैं कि इधर 36 वर्ष रहने के बाद ही आदमी इधर के लोगों को जानता है, कुछ लोग कहते हैं यहां के लोग जब तक छत्तीस गाँव न बदलें उन्हें चैन नहीं मिलता। मैंने अनुभव किया कि छत्तीसगढ़ मस्त है , अपनी दुनिया में मस्त, अपनी संस्कृति में जीते सीधे-सादे मस्त कलंदर आदिवासी है । न जिन्हे कल की चिंता है न आज का पछतावा । दूर तक फैले पहाड़ । आंखों के आगे नचते झूमते लाखों पेड़ । लगह जगह लगते मेले ठेले, हाट बजार और उनमें बिकती बनोपज, छोटे मोटे सौदे और वस्तुविनियम का साकार होता आदिम सौदा । मेरे अल्प प्रवास में मुझे यहां के लोग भले और भोले लगे । तुम्हें पूरी कहानी मैं सुनाना भी नहीं चाहता था क्योंकि खामख्वाह तुम बोर हो जाओगे, पर तुम मेरे मित्र हो तुम्हे बिना मुझे चैन भी न आयेगा ।

पहले में तुम्हें इस क्षैत्र की भौगोलिक जानकारी दे दूँ , इस क्षेत्र में ईब नदी अपने चौड़े पाट में मंथर गति से बहती है । समीप ही एक रेस्ट हाउस है- लवाकेरा रैस्ट हाऊस । रेस्ट हाऊस से 5 किलोमीटर दूर बिहार और तीन किलोमीटर दूर से उड़ीसा की सीमा लग जाती है । ईब नदी को लोग स्वर्ण नदी भी कहते हैं क्योंकि इसमें सोने का पाउडर बहता है । इधर के लोग इसकी रेत को लकड़ी की कठौती में डालकर हिलाते हुये (सकोरते हुये) सोना निकालते है । मजदूरी के बाद दूसरा रोजगार इधर के मजदूर यही करते हैं । बंशो भी यही करती थी ।

बंशो यहीं की एक काली कलूटी बदसूरत सी औरत है, लेकिन आजकल मुझे वह संसार की सबसे खूबसूरत औरत लगने लगी है । तुम इसकी शिक्षा पूछोगे तो आश्चर्य करोगे कि उसे काला अक्षर भैंस बराबर है फिर भी उसने तुम्हारे इस बिनल को अपने जादू में बांध लिया है । तुम्हें याद होगा कि मैं अपने जमाने में कालेज का बेस्ट डिचेटर एण्ड स्पीकर था लड़कियाँ मुझपर जान छिड़कती थी और मै किसी को घास न डालता था । पर इसने मुझ पर जादू कर दिया है । मैं अभी तक पहेलियाँ ही बुझा रहा हूँ सुना कुछ भी नहीं रहा तो सुनो विस्तार से - मै जब इधर उपयंत्री नियुक्त होकर आया था तो मुझे यह क्षेत्र बड़ा सुखद लगा था । मैं पहले दिन जब साईट कार्यक्षेत्र पर गया तभी मैं समझ गया था कि वहां केवल मूक-दर्शक बनकर ही जिया जा सकता है क्योंकि ठेकेदार इस क्षेत्र का पैसे वाला आदमी था । उसके एक इशारे पर किसी को भी तबाह किया जा सकता था । इसलिये मुझसे पूर्व के लोग ठेकेदार के काले सफेद को मौन होकर देखते रहे । परिणाम तुमने समाचार पत्रों में पढ़ा होगा कि इधर के सारे जलाशय वर्षो से अधूरे पड़े थे और जो बन गये थे उनमें पानी भरते ही रिसन होना शुरू हो गई थी । मैंने पहले ही दिन ठेकेदार व्दारा उपयोग किया जा रहा सीमेंट और अन्य मटेरियल को चैक किया तो चौक गया, ठेकेदार बेहद रद्दी माल वापर रहा था सो काम रूकवा दिया मैने। ठेकेदार का आदमी वहीं मोजूद था, उसे बुरा लगा और उसने मुझसे ठन्डे शब्दों में कहा था ‘‘साहब अभी नये आये हो, काहे को ठेकेदार को छेड़ रहे! हमारे ठेकेदार ने सैकड़ों इंजीनियर निकाल दिये, आप तो अभी जूनियर हो, छोटा औहदा है, फालतू में नुक्सान करा बैठोगे ! कोई फायदा नही , काम रूकवाने से । आपको आपका हिस्सा मिलता रहेगा काम शुरू रहने दो ।’’

मैं न माना , उस दिन काम बंद रहने का ही आदेश दिया और लौट आया था । उसी दिन शाम को ठेकेदार आया था जो बिला वजह बूड़े घोड़े की तरह हिनहिनाटा रहा । उसने मेरे सामने नोटों की एक सिट रख दी थी और बोला था ‘‘क्षमा करना साहब, मुझे आने में देर हो गई । ये आपका हिस्सा चोखा है ।’’

मैंने सिट उठाकर वापस उसकी जेब में ठूंसते हुऐ कहा ‘‘ठेकेदार साहब, जरूरी नहीं है कि हर आदमी रिश्वतखोर हो । आप इन नोटों को ले जाईये और अपने आदमियों से कहिये कि सीमेन्ट आने तक काम रोके रहें । इतना कहकर मै अन्दर चला गया था । ठेकेदार को उठकर गुस्से में जाते हुये मैने खिड़की से देखा था।

उसी शाम सर कुछ भारी सा था इसलिये मै नदी किनारे - टहलने चला गया । देखा एक औरत घुटनों तक पानी में खड़ी होकर साड़ी के कठोते में रेत (हिला) झकोर रही हैं । बाद में पता लगा कि वह बंशो-थी , जो ईव नदी में रेत के नीचे बहते शुद्ध सोने के काले रंग के पावडर को अपने अथक परिश्रम से रेत में से निकालने में जुटी थी ।जिसे सरर्कार ने गैर कानूनी करार दे रखा था ।

मैं कौतूहल से देखता रहा वह तल्लीनता से अपने काम में लगी थी । काफी देर बाद उसके हाथ रूके ओैर वह किनारे की ओर लौटी । मुझे अचानक वहां पाकर वह कुछ अचकचा गई सहमते हुये इतना ही बोली- अरे बड़े साहब तुम यहाँ काहे आये रहे ?

मैं कुछ चौका । वह मुझे जानती थी । मैंने पू़छा तो अटकते -अटकते बताने लगी । ...यह कि उसके भाई ओैर भाभी गोदी में एक बच्चा और बच्ची छोड़ कर सुरलोक सिधार गये । ..यह कि मेरी साईट पर ही मजदूरी करती है । ...यह कि अगर आज कुछ न किया जाता तो उसके भतीजे-भतीजियां भूखे रहते ।

लगातार बिना रूके उसे बोलते देख में समझ गया कि काली कलूटी से दिखने बाली वह बंशो हृदय से एक दम साफ स्वच्छ है । चंचल हिरनी सी रास्ते को छलागंती ओैर बात बात पर चमेली जैसे श्वेत दांतों को निकालकर हंसती हुई वह मुझे छोड़ने रेस्ट हाउस तक आई ।

जाते जाते उसने मुझे वह स्वर्ण पावडर बताया । काला सा पावडर था वह । मुश्किल एक चुटकी भर । मेरे पूछने पर उसने बताया था कि एक धान भर पावडर के बदले 7रू. 50 पै. मिलेंगे । जिससे राशन आवेगा उसके घर का ।

अनजाने ही मुझसे एक पाप हो गया । यह सोचकर मेरा दिल मुझे धिक्कारने लगा । जब तक काम बन्द रहेगा । बंशो जैसे कितने परिवार कुछ दिनों तक भूखे रहेंगें या फिर गैर कानूनी काम करने को विवश होंगें । मेरी बुद्धि ने तर्क दिया कि यदि गलत निर्माण हुआ तब तो जाने कितने मासूमों का बलिदान ही हो जायेगा । नये जलाशय परिवार समेत हजारों मासूमों को लील लेंगे । तुम कहोगे मै बहकने लगा इसलिये संक्षेप में सुनाता हूँ ।

मुझे शून्य में घूरते देख मेरी ऑखों के आगे हाथ नचाती तो बंशों ने मुझे टोका था ‘‘बड़े साहब कहां खो गये ?’’

मैंने हड़बड़ाकर उसकी ओैर देखा वह निश्छल मुक्त हंसी हंस रही थी ।

मेंने सभ्ंालकर उसे अपने घर काम करने का पूछा तो उसने हामी भर दी थी । मात्र 100 रू. महीना वेतन मैंने बताया था । उसने सोदेबाजी नही की ।

दूसरे दिन पहाड़ी की ओर टहलने गया और उधर से लौट रहा था कि रास्ते में एक बित्ते भर का सांप अचानक झाड़ी में से उछलकर मुझ पर आ गिरा। मै अचकचाकर पीछे लौटा तब तक सॉप अपना काम कर चुका था । बायें हाथ में कलाई के निकट ऐसा लगा जैसे किसी ने दहकता हुआ अंगारा रख दिया हो ।

सारे शरीर में झुरझुरी फ़ैल गई । मैं लस्त-व्यस्त घर लौटा । घर पर बंशो मिली । मेरी हालत खराब देख बंशो सकते मे आ गई । मैंने अस्फुट से स्वरों में घटना बताई तो जैसे उसमें बिजली चमकी । आव देखा न ताव लपक कर मेरा हाथ पकड़ा और कलाई पर सॅाप के दंश के घाव पर अपना मुंह रख दिया । वह घाव में से खून खींच रही थी । पिच्च से एक कुल्ला उसने थूका और फिर से खींचने लगी । मूर्छित होते मैंने देखा बंशो की आँखें भी मुंदने लगी थी । बाद में ज्ञात हुआ कि मुझको खतरे से बाहर करके बंशो खुद भी मेरे ऊपर अचेत होकर गिर गयी थी । चेत होने पर दोनों खतरे से बाहर थे । मेरे मन में कुछ झटका सा लगा था । बंशो द्वारा किया गया अचानक मेरा उपचार स्नेह की किस श्रेणी में आता है ? मुझे रह-रह कर यही प्रश्न कुरेद रहा था । बंशों का काला कलूटा चेहरा मेरा प्राण रक्षक होने के कारण मुझे अच्छा लगने लगा था । जब मैने साँप की जाति बतायी तो बंशों उछल पड़ी बोली - बड़े साहब ऐसे साँप उड़ते नहीं कोई आपका बैरी आपका बुरा चाहता था उसने जानबूझकर आप पर साँप फेंक दिया था । स्वाभाविक मेरा शक ठेकेदार पर गया ।

अगले दो दिन मैने पूर्णतया विश्राम किया । इन्हीं दो दिनों में बंशो अपना घरबार भूल गयी । दिनरात जाग कर उसने मेरी सेवा की । मै उसके अहसानों तले दब गया । भला मेरा उसका क्या रिश्ता था ? मुझे इस क्षेत्र के लोगों के प्रति बनी अपनी धारणा झुठलानी पड़ी क्यों कि बंशो ने मुझसे अपनी सेवा के बदले कुछ भी बांछना नहीं की ।

तीसरे दिन ठेकेदार अपनी गाड़ी लेकर आया । औपचारिकता में मेरे स्वास्थ्य के बारे में पूछकर सीधे सपाट स्वर में साईट पर काम शरू कराने की अनुमति चाही । मैंने इन्कार कर दिया जिसे सुनकर ठेकेदार आग बबूला हो गया मुझे धमकी भी दे गया । जाते जाते बोला आसियर बाबू तोहे देख लेह । हम तो सोचा की तुम बीमार हो काम धन्धा होयगा तो कुछ सहायता मिलेगा । तुम्हारे दिमाग आसमान पे हैं । मै ऊपर से आदेश लेकर काम शुरू कराऊँगा ।

दो दिन बाद वह ऊपर से आदेश लेकर लौटा लेकिन वह आदेश था मेरे ट्रांसफर का ।

मुझे पच्चीस मील दूर ट्रांसफर कर दिया गया था । अपनी ईमानदारी के बदले इस पुरस्कार को देखकर मेरे मुख पर एक तिक्त मुस्कान आ गयी ।

मैं स्वस्थ होते ही ज्वाइन करने चला गया । मेरे स्थान पर आये नये उपयंत्री ने चार्ज संभाला। मुझे ज्ञात नहीं कि नया सीमेंट आया या नहीं और मटेरियल भी बदला या नहीं अलबत्ता काम शुरू हो गया । बंशो को मैंने काम पर भेज दिया । शाम तक लौटने का कह कर वह चली गयी । मैं आराम से सो गया ।

दोपहर को बंशो ने मुझे जगाया मैं हैरान था कि क्या काम फिर बन्द हो गया लेकिन बंशों ने मुझे कुछ और ही बताया उसने बताया कि साईट पर वही पुराना मटेरियल काम में लाया जा रहा था । बंशो ने इसका विरोध किया तो ठेकेदार ने काम से चले जाने को कहा । इतना सुनकर बंशों बिफर उठी । उसने चीखते हुये आरोप लगाया कि ठेकेदार पुराने साहब को मरवाना चाहता है । बंशों की ऐसी बातें सुनकर ठेकेदार की महिला मेट बंशों से भिड़ गयी । पीट-पीट कर बंशो को काम से भगा दिया गया । उसकी पिटाई के चिन्ह अब भी बंशों के शरीर पर थे । मैंने बंशो को आश्वासन दिया कि मैं उसे अपने साथ साईट पर ले जाऊंगा। समझा बुझाकर बंशों को मैने उसके घर पहुंचाया ।

अगले दिन बंशों लौटी तो उसकी हालत चिंतनीय थी । सारे बदन से पसीना बह रहा था । आँखें मुदी-मुदी जा रही थीं मेरे पूछने पर उसने बताया कि उसे कुछ करतब कर दिया है ।

मैं तो मन्त्र-तन्त्र पर विश्वास नहीं करता पर बंशो इन बातों पर अधिक विश्वास रखती थी । अच्छे डाक्टर के इलाज के उपरान्त भी बंशो ठीक नही हुई, तब उसके जोर देने पर मैंने एक तान्त्रिक से मुलाकात की । बंशो की ही जाति का वह व्यक्ति आश्चर्य मंे पड़ गया मुझसे बोला ‘‘साहब बंशो तो चुड़ैल है किसी मर्द को हाथ नही रखने देती तुमने इसे कैसे मना लिया ।’’

सत्य मानना सुरेश, मैं एक बारगी सन्तुलन खो बैठा मैने उस ओझा पर भरपूर हाथ छोड़ दिया । बशो तो ठीक नहीं हुई मेरी बदनामी आसपास के सारे एरिया में फैल गयी । बंशो के ही आग्रह पर ही मैं वहां से पांच मील दूर बंशो को एक दूसरे तान्त्रिक के पास ले गया अमावस्या की काली रात में आदिवासियों के मरघट के बीच दीये की थरथराती लौ के प्रकाश मे मैं और बंशो बैठे तब ओझा ने मन्त्र पढ़ना शुरू किया । रात भर की पूजा के बाद मैं आश्चर्यचकित रह गया बंशो एकदम ठीक हो गयी थी । हम घर लौट आये ।

बंशो मेरे जीवन का अंग बन गयी थी । जिस दिन मुझे वह नहीं दिखती मुझे वह दिन अधूरा लगता था ।

जब बंशो स्वस्थ हो गई और में अपनी साईट पर नियमित जाने लगा तब एक दिन की बात है मैं अपने घर लौट रहा था रास्ते मैं बंशो मिली । बोली ‘‘बड़े साहब हमको काम मिल गया है हम कल से आपके घर काम पर नहीं आयेंगे ।’’

ठेकेदार ने बंशो को आसपास के गांवों में काम दिलवाना बंद कर दिया था । मुझे बडा आश्चर्य हुआ कि उसे काम कैसे मिल गया ? मैने उसे पूछा - कहाँ मिला ?

मिशनरी में !

मिशनरी में ! मुझे बड़ा धक्का लगा क्यों कि मैं धार्मिक भीरू तो कभी नहीं रहा लेकिन मैने हमेशा ऐसे कामों की आलोचना ही की है । क्योंकि रोटी के बदले धर्म बेचने बाली इन संस्थाओं को मैं अच्छा नहीं समझता था । मैंने आगे पूछा और क्या शर्त रखी है उन्होंने ?

उनकी शर्त है हम उनके धर्म में चले जाये तो हमें जिदंगी भर की नौकरी दे देगें ।

बंशो अगर मैं तुमसे इस नौकरी की ना कर दूँ तो ?

नहीं बड़े साहब आपके इतने एहसान ही बहुत हैं । हमको भूखा ही मारना है क्या ? हम आपके और एहसान नहीं लेना चाहते । मजदूरी हमें मिलना नहीं है हम चर्च में न जायें तो क्या करें ?

मैं चुप था और वह बोले जा रही थी ‘‘और साहब इस धर्म की खतिर हमको क्या मिला ? पेट भर रोटी सो भी नही मिलती । मिशनरी हमको, हमारे घर वालो को जिदंगी भर खाने को देगी । आपके धर्म में है कोई संस्था ? आपके धर्म में है कोई व्यवस्था , जो हमारी जिम्मेदारी ले । आपके कानून के पास है हमारे लिये काम जिससे हम पल सकें ।’’

मेरे पास कोई जबाब नहीं था मैं चुप रह गया ।

एक दिन बंशो अपने परिवार सहित गाँव से चली गयी मिशनरी में बसने के लिये आजकल वह नहीं है ? वह अब बंशो नहीं मिस बेटिटकन है वह अंग्रेजी बोलना सीख रही है । अंग्रेजी ढंग से रहना शुरू कर रही है ।

गाँव समाज और धर्म के लोग उसे बुरी मानते हैं, जबकि वह मुझे बुरी नहीं लगी । अच्छी लगी केवल अच्छी ।

२७ नवम्बर १९८०

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