सविता के शब्द अब भी हवेली की दीवारों में अटके हुए थे —
“देवयानी वहीं अब भी साँस ले रही है…”
अर्जुन मेहरा तहख़ाने से ऊपर आया, लेकिन उसके कदम भारी थे।
जैसे सच उसके जूतों से चिपक कर ऊपर आया हो।
बाहर का आसमान काला था।
और हवेली के बरामदे में सिर्फ़ दो चीज़ें बची थीं —
सन्नाटा और किसी अदृश्य औरत की परछाई।
अर्जुन और सावंत ने कार की तरफ बढ़ना शुरू ही किया था कि अचानक—
ट्रिंग… ट्रिंग…
अर्जुन का फ़ोन बजा।
रात के 3:12 AM थे।
इस वक़्त किसी का कॉल आना अच्छा इशारा नहीं था।
> अर्जुन: “हेलो?”
कॉलर (घबराई हुई आवाज़): “सर… सविता मैडम की बेटी आशा… उसके साथ something happened…”
अर्जुन रुक गया।
हवा एक पल के लिए ठंडी हो गई।
> अर्जुन: “क्या हुआ आशा को?”
कॉलर: “…वो मृत मिली है, सर।”
सावंत की सांस अटक गई।
“दूसरी मौत…”
अर्जुन ने धीमे से कहा —
“नहीं… ये दूसरी नहीं। यह चेतावनी है।”
देशमुख बंगला — 3:32 AM
कमरा खुला था।
अंदर रोशनी टिमटिमा रही थी।
आशा की लाश फर्श पर पड़ी थी —
चेहरा सफेद, आँखें खुली, जैसे किसी को आखिरी पल देख लिया हो
या किसी अंधेरे से टकराई हो।
उसके बाल फैलकर आधा चेहरा ढक रहे थे,
और उसके हाथ में कुछ कसकर पकड़ा था।
सविता दरवाज़े से चिल्लाई,
“मेरी बच्ची… मेरी आशा… किसी ने उसे मार दिया!”
लेकिन अर्जुन को कुछ और दिख रहा था।
आशा के गले के बाईं तरफ़
तीन हल्के दाग़ थे।
वही तीन निशान, जो देवयानी की डायरी में लिखे थे।
वही तीन निशान, जो रघुनाथ के पुराने फोटो वाले आदमी पर थे।
और वही निशान जो तहख़ाने की दीवारों पर थे।
सावंत ने काँपती आवाज़ में कहा:
“सर… ये इत्तेफ़ाक़ तो नहीं हो सकता।”
अर्जुन घुटनों के बल बैठा और आशा की मुट्ठी खोली।
अंदर एक काँच का टुकड़ा था —
नीला, पारदर्शी
और वही इत्र की महक —
देवयानी।
कमरे में बिजली की रोशनी अचानक झपकी।
और खिड़की के शीशे पर किसी लड़की की परछाई उभरी —
लंबे बाल, आधा चेहरा, और होंठों पर वही रहस्यमय मुस्कान।
सविता चीखी,
“वो फिर आ गई! वो मेरी बेटी को लेने आई थी!”
अर्जुन ने खिड़की की ओर देखा —
पर वहाँ सिर्फ़ हवा थी।
और खिड़की पर धुँध में उकेरा हुआ एक शब्द:
“ASHAA”
जैसे किसी ने उंगली से लिखा हो।
जैसे किसी ने जल्दी में चेतावनी दी हो।
पोस्टमॉर्टम रूम — सुबह 5:10 AM
अर्जुन मेहरा टेबल के पास खड़ा था।
आशा का चेहरा शांत था —
पर उसकी गर्दन के तीन निशान साफ़ उभर आए थे।
डॉक्टर ने धीमी आवाज़ में कहा —
“सर, उसकी साँस रुकने के कारण की पुष्टि नहीं हो रही।
दिल धड़कना बंद हुआ, घाव नहीं, ज़हर नहीं…
कुछ भी ठोस नहीं।”
> अर्जुन: “मतलब… मौत का कोई कारण नहीं?”
> डॉक्टर: “सिर्फ़ एक चीज़…
उसकी पुतलियाँ आख़िरी सेकंड में इतनी फैल गईं
जैसे उसने… कुछ ऐसा देखा हो जिससे इंसान का दिमाग़ जवाब दे दे।”
अर्जुन चुप रहा।
सिर्फ़ एक बार फिर काँच का टुकड़ा सूंघा।
वही परफ्यूम।
वही महक।
वही हवेली का साया।
घर पहुँचकर सविता जमीन पर बैठ गई।
“ये वही कर रही है… देवयानी… वो लौट आई है…”
अर्जुन ने तीखे स्वर में कहा —
“आशा की मौत इंसानी है — या इंसान की नहीं?”
सविता धीरे-धीरे बोली —
“देवयानी ने मरने से पहले कहा था…
कि वो मेरी हर चीज़ छीन लेगी।”
आँखें लाल हो गईं।
“पहले मेरे पति… फिर मेरा बेटा…
अब मेरी बेटी…”
अर्जुन बोला —
“आप फिर कह रही हैं — वो ‘बोल’ रही थी?
यानी आपको देवयानी से संपर्क था?”
सविता ने सिर झुका लिया।
“हाँ…
पर वो देवयानी नहीं थी अब…”
अर्जुन ने नज़दीक झुककर पूछा,
“तो कौन थी?”
सविता की आवाज़ काँप गई—
“वो एक औरत नहीं… वो बदला है।”
अर्जुन कमरे से बाहर निकला।
आशा की चीज़ें टेबल पर रखी थीं।
उसके मोबाइल में आखिरी रिकॉर्डिंग चल रही थी।
रिकॉर्डिंग ऑन हुई —
भीतर किसी के कदमों की आवाज़ थी…
धीमी…
लगातार…
और फिर आशा की टूटती आवाज़:
> “कौन…?
कौन है वहाँ…?
माँ…?”
फिर चुप्पी।
और उसी चुप्पी में एक औरत की फुसफुसाहट—
“तुम्हारी माँ ने जो छुपाया…
उसका समय पूरा हुआ।”
रिकॉर्डिंग यहीं कट गई।
अर्जुन मेहरा के हाथ ठंडे हो गए।
दूसरी मौत हो चुकी थी।
और जो आवाज़ रिकॉर्डिंग में थी…
वो इंसान की नहीं लगती थी।