Waah Sahab - 2 in Hindi Fiction Stories by Yogesh patil books and stories PDF | वाह साहब ! - 2

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वाह साहब ! - 2

अगले दिन :

सुबह करीब 10 बजे की धूप परदे की दरारों से अंदर झांक रही थी, तभी विशालका फोन बजा और उसकी नींद टूटी। उसने आधी बंद आंखों से फोन उठाया….

“हां मयूर … मेरे आज के सारे प्लांस कैंसल करो, आज थोड़ा लेट आऊंगा। मनु को एयरपोर्ट छोड़ना है, वो अपने मम्मी-पापा से मिलने जा रही है। अच्छा ठीक है, ब बाय…”

 इतना कहकर उसने फोन रख दिया।

पास ही मनु अब भी चादर में लिपटी बच्चे की तरह मुस्कुरा रही थी। विशाल उसकी तरफ झुका और बोला….

 “मैडम, अब उठ जाइए… वरना फ्लाइट निकल जाएगी।”

मनु ने आंखें खोलीं और शरारती लहजे में बोली… 

“पहले गुड मॉर्निंग तो कहो…”

विशाल हंस पड़ा और उसे हल्के से चूम लिया।

थोड़ी देर बाद दोनों उठे और बाथरूम की ओर गए।
जैसे ही शावर चला ठंडे पानी की बौछारों ने दोनों को एक पल में जगा दिया। मनु खिलखिलाकर हंसी,

 “अब तो पूरा नशा उतर गया।”

विशाल ने मुस्कुराते हुए उसका हाथ पकड़ा और बोला,

 “अगर हर सुबह ऐसी हो, तो मैं कभी ऑफिस न जाऊं।”

शावर के नीचे दोनों फिर से एक-दूसरे में खो गए… हंसी, शरारत और पास आने के छोटे-छोटे पल उनके बीच फिर वही बीती रात की गर्माहट को लौटा रहे थे। पानी की बूंदों के बीच खिलखिलाती मनु और मुस्कुराता विशालमानो सुबह भी उनके प्यार की साक्षी बन गई हो।

सुबह के बाथरूमी खेल के बाद दोनों हँसते-मुस्कुराते जल्दी-जल्दी तैयार हुए। विशालने मनु का सूटकेस उठाया और कार में रखा, फिर दोनों एयरपोर्ट के लिए निकल पड़े।

 रास्ते में गाड़ी के अंदर हल्की-सी महक और पिछले पलों की मुस्कान अब भी बाकी थी। गाड़ी एयरपोर्ट की ओर बढ़ रही थी, खिड़की से आती ठंडी हवा में दोनों के बीच एक प्यारी-सी ख़ामोशी घुली हुई थी। मनु ने हल्की मुस्कान के साथ कहा,

“मैंने कमली को बोल दिया है, वो रोज़ शाम को आकर खाना बना देगी… रोज़ बाहर का मत खाना, तबीयत फिर खराब हो जाएगी।”

विशाल ने साइड में देखते हुए कहा,

“जब तुम नहीं रहोगी, तो खाने का मन ही नहीं करेगा… बस कॉफी और तुम्हारी याद चलेगी।”

मनु मुस्कुराई, “झूठे, सात दिन में ही याद आएगी?”

विशाल ने धीमे से कहा, “सात दिन अगर तुम्हारे बिना रह गया, तो समझो तपस्या पूरी हो गई…”

फिर उसके हाथ पर अपनी उंगलियाँ फेरते हुए बोला,

“सात दिन बाद तुम वापस आओगी, तो ये उंगलियाँ फिर से तुम्हारे बालों में उलझना चाहेंगी।”

मनु ने शरमाकर कहा, “अब बस भी करो, ड्राइव कर रहे हो।”

विशाल मुस्कुराया, “बस… वहीं तो नहीं होता।”

गाड़ी एयरपोर्ट के गेट के पास रुकी। विशाल ने ट्रॉली निकाली, मनु का सूटकेस रखा और झुककर उसके कानों में कहा,

“जल्दी लौट आना… नहीं तो ये शहर मुझे अकेला लगने लगेगा।”

मनु ने उसकी आंखों में झांककर फुसफुसाया,
“हा बाबा… वापस आकर अधूरी रात पूरी करूँगी।”

विशाल मुस्कुराया और उसकी आंखों में वही पुमनु चमक लौट आई। वह उसे गले लगा।

“बाय , टेक केयर ।”

“तुम भी अपना ध्यान रखना “  

मनु यह बोलकर गेट की ओर बढ़ गई, पीछे मुड़कर हाथ हिलाया… और विशालबस उसके चेहरे की आख़िरी झलक देखता रहा मुस्कुराते हुए, खोए हुए।

उसी वक़्त विशालका फोन बजा, स्क्रीन पर नाम चमक रहा था, मयूर । विशालने धीरे से रिसीव किया, अब भी एयरपोर्ट की तरफ़ देखता हुआ बोला,

“हाँ मयूर , बोलो। 

वह गाड़ी में बैठ गया.

“मैडम को एयरपोर्ट छोड़ने आया था… अब निकल रहा हूँ ऑफिस के लिए।”

फोन कट हुआ, उसने एक गहरी सांस ली ,जैसे मनु की खुशबू अब भी उसी सीट पर बसी हो। गाड़ी स्टार्ट हुई और रास्ते में बहती ठंडी हवा में भी उसकी परछाईं साथ चल रही थी।

ऑफिस पहुँचते ही सबने एक साथ कहा — “Good afternoon, Sir!” विशालने सिर हिलाया और बोला, 

“मयूर को मेरे केबिन में भेजो।”

काँच के उस पार बैठी रीना, हल्के झुके सिर से भी उसकी हर हरकत पर नज़र रख रही थी। जब विशाल केबिन में दाखिल हुआ, तो उसकी नज़रों में जैसे कोई अनकही चमक तैर गई।
उसने मयूर से धीमे स्वर में पूछा, 

 “सर आज लेट क्यों आए?”

मयूर मुस्कराया, “ उनकी वाइफ को एयरपोर्ट छोड़ने गए थे… हफ्ते भर के लिए मायके गई शायद।”

यह बात सुनते ही रीना के होंठों पर एक रहस्यमयी मुस्कान तैर गई, वो सोच में डूब गई। शाम तक उसकी आँखें बार-बार उसी के 
केबिन की ओर उठती रहीं, हर बार वो खुद को कहती  

 “बस एक मौका चाहिए बात करने का…”

शाम के करीब साढ़े पांच बज रहे थे। ऑफिस की खिड़कियों से सुनहरी धूप की आख़िरी किरणें विशाल के केबिन में पड़ रही थीं।
वो अब भी कुछ फाइलों में डूबा था, लेकिन उसकी आंखों के नीचे सुबह की थकान साफ झलक रही थी। ज्यादातर स्टाफ जा चुका था, बस कुछ कंप्यूटरों की हल्की सी लाइटें बाकी थीं। विशाल अपनी फाइलें समेटते हुए उठ खड़ा हुआ, चेहरे पर थकान और मन में कहीं मनु की यादें तैर रही थीं। वो अपनी कार की चाबियाँ उठाकर बाहर निकला।

रीना, जो कब से उसकी ओर देखती रही थी, आखिर साहस जुटाकर उसके पास आई ,

“सर… अगर आप बुरा न मानें तो एक बात कहनी थी…”

विशाल ने एक पल को रुककर उसकी तरफ देखा,
 मगर फिर मुस्कुरा कर बोला,

“रीना, कल बात करते हैं… अभी ज़रा में थका हुआ हूँ।”

उसने सिर झुकाकर धीरे से “ओके सर” कहा,
पर उसकी आंखों में वो अनकही बातें अब भी ठहरी रहीं।


विशाल बिना पीछे देखे तेज़ क़दमों से बाहर निकल गया,
लॉबी की शीशे की दीवार से झरती पीली रोशनी में बस उसकी परछाईं बाकी रह गई, और रीना उसे जाते हुए एक लंबी नज़र से देखती रह गई… चेहरे पर हल्की मुस्कान, पर आंखों में जैसे कोई सवाल अधूरा रह गया हो।

            विशाल की गाड़ी घर के पोर्च में रुकी, गार्ड ने फौरन गेट खोल दिया। गाड़ी पार्क करके वो थके कदमों से अंदर आया और बैग टेबल पर रख दिया। फिर सीधे वॉशरूम में जाकर चेहरा धोया, दिनभर की थकान जैसे पानी के साथ बह गई। घड़ी में रात के आठ बज रहे थे, वो मोबाइल उठाने ही वाला था कि अचानक डोरबेल बजी। वो हल्की सी भौंहें चढ़ाकर दरवाज़े की ओर बढा.

“इस वक्त कौन आया होगा?”

जैसे ही विशालने दरवाज़ा खोला, सामने साड़ी में खड़ी कमली को देखकर वो एकदम ठिठक गया। कुछ पल वो उसे देखता ही रह गया. कमली ने हल्के स्वर में कहा,

“मनु दीदी ने कहा था, रोज़ आकर खाना बना दिया करूं…”

विशालको तुरंत सुबह की मनु की बात याद आई। उसने धीरे से सिर हिलाते हुए कहा, 

 “हाँ… ठीक है, अंदर आ जाओ।”

कमली सीधे किचन की ओर बढ़ गई। विशाल सोफे पर बैठा, मगर उसकी नज़रें बार-बार किचन की खिड़की से कमली पर टिक रही थीं। उसकी आंखों में एक अनजानी चमक और भीतर कहीं दबी हुई भूख झलक रही थी, जैसे उसकी नज़रें अब सिर्फ देख नहीं रही थीं, महसूस कर रही थीं। किचन में काम करती कमली के हर हावभाव पर विशाल की नज़रें ठहर गईं जैसे उसकी आंखें खुद बेकाबू हो चुकी हों। कुछ देर बाद कमली किचन से बाहर आई और बोली, 

 “साहब, हॉल में झाड़ू लगा दूं?”

विशाल ने बस हल्के से सिर हिलाया, मगर उसकी निगाहें उसके चलने के अंदाज़ पर अटक गईं। जब कमली झुककर झाड़ू लगाने लगी, उसकी कमर की मृदुल लहरों ने विशालकी सांसें थमा दीं।
वो खुद को संभालने की कोशिश कर रहा था, मगर अंदर कुछ अनजाना उबाल अब जाग चुका था। झाड़ू खत्म करके कमली ने हाथ धोए और बोली, 

“साहब, खाना बन गया है… अब मैं चलूं?”

विशाल ने सिसकते हुए पुछा, “ओके, कल कब आओगी ?”

कमली ने सहमी आंखें झुकाईं और कहा,   

“आज आठ बजे आ गई वैसे आ जाऊंगी।” 

विवे कबस उसे जाते हुए देखता रहा, दरवाज़े तक उसकी नज़रें उसका पीछा करती रहीं। दरवाज़ा बंद हुआ, लेकिन विशाल के मन में उसकी साड़ी की सरसराहट अब भी गूंज रही थी।

विशाल खाना खाने ही वाला था कि तभी डोरबेल बजी।
दरवाज़ा खोला तो सामने हस्ती हुई और थोड़ा डरी हुई रीना थी, उसे देखकर वो थोड़ा हैरान हुआ। रीना बोली,

“हाय सर, घर पर बहुत अकेलापन लग रहा था, सोचा आपसे मिल लूँ, आप भी अकेलही हैं आज”

विशाल मुस्कुराया, “अच्छा किया, अंदर आओ,”

वे अंदर आई,

“तुमने खाना खाया?” विशालने उससे हंसते हुए पुछा,जिसका उसने ना में सिर हिलाकर जवाब दिया।

विशाल ने खाना परोसा, दोनों आमने-सामने बैठे थे। माहौल में अजीब सी खामोशी थी, पर उस खामोशी में भी कुछ कहानियाँ छिपी थीं। रीना हर बात पर मुस्कुरा रही थी, कभी उसकी आँखों में झाँकती, तो कभी जानबूझकर बालों को कानों के पीछे सरकाती।

               विशाल हल्के-हल्के उसकी बातों का जवाब दे रहा था, मगर नज़रें बार-बार उसकी मुस्कान पर ठहर जा रही थीं। खाने के बीच हल्के मज़ाक, हल्की छेड़छाड़ और मीठे इशारे माहौल को और भी नर्म बनाते गए। रीना के हँसने की अदाएँ अब शब्दों से ज़्यादा बोलने लगी थीं जैसे हर मुस्कान में कोई दबी हुई बात कह रही हो। विशाल का दिल अब उसके बस में नहीं रहा, उसकी नज़रों में चाहत और उलझन दोनों झलक रही थीं।        

उस पल में समय जैसे ठहर गया था, बस महक और वो दोनों थे। विशाल ने एकदम से रीना से एक सवाल किया,

” सच्ची बताओ,तुम यह क्यों आई हो?”

“अरे ,” चहकते हुए रीना जवाब देने लगी, “बोला तो मैने, आपका अकेला पन दूर करने के लिए, क्यों कुछ प्रॉब्लेम हैं?”

विशाल ने ना में सिर हिलाया और उसकी तरफ देखता ही रह गया।
“ तो फिर?” ऐसा बोलकर रीना ने भी उसके आंखों में लगातार देखना शुरू किया।

             विशाल की साँसें भारी होने लगीं उसने अचानक अपनी कुर्सी पीछे खिसकाई और बिना कुछ कहे रीना की ओर बढ़ा। पलभर में उसने उसके दोनों होंठ अपने होंठों से मिला लिए, जैसे लंबे समय से रुका हुआ सैलाब फूट पड़ा हो। रीना ने पहले तो पलभर को आँखें बंद कीं, फिर धीरे-धीरे वही एहसास लौटाने लगी अब वो भी उस पल में खो चुकी थी।

                                   टेबल पर रखा खाना ठंडा हो चुका था, मगर कमरे की गर्माहट बढ़ती जा रही थी। दोनों जैसे किसी खिंचाव में बंधे, धीरे-धीरे उठे और एक-दूसरे के हाथ थामे बेडरूम की ओर बढ़ गए।

            जैसे ही दोनों बेड के पास पहुँचे, कमरे में हल्की रोशनी और धीमी हवा का संगीत घुलने लगा। रीना की साँसें तेज़ थीं, विशाल की आँखों में अब कोई हिचक नहीं थी। दोनों कुछ पल बस एक-दूसरे को देख रहे थे , जैसे समय ठहर गया हो। उनके बीच की दूरी धीरे-धीरे मिटने लगी और पास आने के साथ उनके बीच की कपड़े की दीवारें भी। बाहर शहर की आवाज़ें कहीं खो चुकी थीं, बस कमरे में उनकी साँसों की लय बाकी थी विशाल ने उसका चेहरा अपने पास खींचा, और वह पल जैसे किसी अनकही चाहत का जवाब बन गया। उस एक स्पर्श में अधूरी कहानियों की गर्मी थी, और उन दोनों की आँखों में एक साथ सुकून और तूफ़ान। रात बढ़ती रही, और उनके बीच के शब्द हवा में घुलकर सिर्फ़ एहसास बन गए। उस कमरे में बस ख़ामोशी थी, पर वो ख़ामोशी बोल रही थी, सब कुछ।
  
कमरे की खामोशी अब उनकी सांसों की लय पर थिरक रही थी।
मद्धम रोशनी में परदे हल्के-हल्के हिल रहे थे, मानो हवा भी उनके करीब आने से झिझक रही हो। विशाल की उंगलियाँ रीना की हथेलियों से गुज़रीं, एक धीमी सिहरन ने दोनों को छू लिया।
उनकी निगाहें एक पल को मिलीं और वक्त जैसे थम-सा गया।
हर धड़कन, हर हलचल में एक अनकही बात थी, न कोई वादा, न कोई खता, बस एक पल की बेखुदी। धीरे-धीरे उनके अंदर की सादगी ओर बढ़ने लगी और कमरे की रोशनी और भी धुंधली हो चली। बाहर की दुनिया मौन थी, बस भीतर की धड़कनों की सरगम थी जो रात को सुकून दे रही थी। उनकी रूहें जैसे एक-दूसरे में उतरती चली गईं,कोई जल्दबाज़ी नहीं, सिर्फ एहसास की गहराई।

    उन दोनों का सिलसिला थमने का नाम ही नहीं ले रहा था।
हर साँस के साथ उनके बीच की दूरी और भी मिटती जा रही थी।
उनकी आवारगी के निशान अब एक-दूसरे के जिस्म पर अपनी कहानी लिख चुके थे, जैसे रात ने ख़ुद उनके इश्क़ को गवाह बनाकर अमर कर दिया हो। 

        दोनों की चाहत जो देर रात तक चल रही थी वो अब धीमे धीमे शांत होने लगी थी। सांसों की गर्म सिसकारियां अब नम सी हो रही थी। वे दोनों भी शांत होकर एक दूसरे के सीने को लिपट चुके थे, जिसके कारण वह दोनों एक दूसरे की धड़कती हुई धड़कनों को महसूस कर पा रहे थे।

   और जब सब शांत हुआ, तो बस उनकी सांसें रह गईं… जो रात के सन्नाटे में भी एक-दूसरे का नाम पुकार रही थीं। उन दोनों की आवारगी के निशान अब एक-दूसरे पर रह गए थे, कभी बालों में उलझे उँगलियों के स्पर्श, तो कभी गर्दन पर ठहरती गर्म साँसों की याद। हर छुअन, हर सिसकी अब उनके बदन पर अधूरी कहानी बन चुकी थी। रात बीत चुकी थी, मगर उसकी गरमाहट अब भी कमरे की हवा में तैर रही थी।

कमरा अब ठंडा था, पर उनकी धड़कनों की गूंज अभी भी हवा में बाकी थी। कुछ देर बाद बस सुकून रह गया और दो थके हुए जिस्म, जो अब खामोशी में लिपटे नींद को गले लगा चुके थे।