Incomplete love is another sin in Hindi Moral Stories by archana books and stories PDF | अधूरा इश्क़ एक और गुनाह

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अधूरा इश्क़ एक और गुनाह


🌸 एपिसोड – “निधि की नन्ही उम्मीद”

(श्रृंखला: निधि – मौन प्रेम की कहानी)

सुधांशु की अनुपस्थिति में जब निधि ने बेटी को जन्म दिया, तब पहली बार उसके चेहरे पर शांति की झलक आई थी।
वो मुस्कुरा रही थी — जैसे किसी ने उसके घावों पर मरहम रख दिया हो।
पर ये सुकून ज़्यादा देर टिक नहीं पाया।

नर्स ने मुस्कुराते हुए कहा –
“बधाई हो, लड़की हुई है!”
पर उसी क्षण, निधि की सास के चेहरे पर शिकनें गहरी हो गईं।
“फिर लड़की?”
उन्होंने जैसे हिकारत से कहा,
“ये घर तो अभागन है! लड़का नहीं हो सकता इसे!”

बाहर से नंद की आवाज़ आई —
“दीदी, फिर लड़की हुई?
अरे भगवान भी जानता है, इस घर की किस्मत में बेटे नहीं लिखे!”

निधि ने अपनी नवजात को सीने से लगाया।
उसकी आँखों से आँसू गिरे — पर वो आँसू दुख के नहीं थे, ममता के थे।
वो जानती थी, यही बच्ची उसकी असली ताक़त बनेगी।


---

अगले दिन, निधि की माँ ने फोन किया।
आवाज़ में चिंता थी –
“बेटा, मैंने तेरी सास से कहा है कि मैं किसी को भेज देती हूँ मदद के लिए।
तू कमजोर है, और बच्ची को भी देखभाल चाहिए।”

पर उधर से सास का जवाब आया –
“अब क्या फायदा?
अगर लड़का हुआ होता तो कोई ले जाते मदद करने,
पर लड़की के लिए क्या मदद?
खुद कर लूंगी मैं अपना घर का!”

माँ चुप रह गईं।
उनके शब्द जैसे गले में अटक गए।


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जब निधि बच्ची को लेकर घर आई,
तो घर का वातावरण पहले जैसा नहीं था।
दीवारों पर शांति नहीं, ताने गूँज रहे थे।
सास का चेहरा देख कर लगता था जैसे आसमान में बादल नहीं,
बल्कि आग ठहर गई हो।

“अरे लड़की आई है — किस्मत फूट गई!
लड़का होता तो कम से कम नाम रोशन करता!”
वो हर दिन कहतीं।
“मोहल्ले में सब बधाइयाँ दे रहे थे,
पर जब सुना लड़की हुई है, तो सबकी मुस्कान गायब!
अरे तुम्हारी बेटी ने तो अपनी नातिन ला दी!
पहले खुद लड़की थी, अब बेटी भी लड़की — घर पर बस लड़कियाँ ही लड़कियाँ!”

निधि चुप रहती।
कभी पलटकर नहीं बोली।
बस अपनी बिटिया को गोद में लेकर धीरे-धीरे झुलाती रहती —
जैसे वो बच्ची ही उसकी ढाल हो।


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सास घर का कोई काम नहीं करती थी।
“खुद कर ले, अपनी बेटी की देखभाल भी तू ही कर।
हम तो बेटे की उम्मीद में बैठे थे!”
वो रोज़ नए ताने गढ़तीं।

यहाँ तक कि बच्ची को गोद में लेने से भी कतरातीं।
कभी देखा भी नहीं ठीक से।
निधि के मन में एक दर्द बैठ गया था —
जिसे वो किसी से कह नहीं सकती थी।

सबसे बुरा तब होता,
जब सास रोज़ अपने कमरे से कहतीं —
“इस पर तो सरस्वती माँ दिन भर में एक बार बैठी है,
वरना कोई इतना दुर्भाग्यशाली कैसे हो सकता है?”
और फिर हँस पड़तीं —
“तेरी बेटियाँ तुझे मारेंगी, मरवा देंगी तुझे एक दिन।”

निधि के भीतर ये शब्द तीर बनकर उतरते।
वो याद करती थी —
कैसे 9 महीने तक उसने उस बच्ची को अपने गर्भ में रखा था,
हर दर्द, हर उलझन सहकर।
वो सोचती थी —
“क्या माँ बनना पाप है, अगर बच्ची हो जाए?”

कभी-कभी वो बच्ची को देखती और मन ही मन बोलती —
“तू मेरी शक्ति है, मेरी पहचान है।
जो मुझे तोड़ना चाहते हैं,
एक दिन तू ही मुझे पूरा करेगी।”


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रात को जब सब सो जाते,
निधि चुपचाप अपनी बेटी को सीने से लगाकर रोती।
वो बच्ची धीरे-धीरे मुस्कुराती,
जैसे माँ के आँसू पोंछने आई हो।

और निधि समझ जाती —
भगवान ने सुधांशु नहीं भेजा,
पर उसकी ममता ज़रूर भेज दी है —
एक बेटी के रूप में।