Karma and consciousness in Hindi Spiritual Stories by Agyat Agyani books and stories PDF | कर्म और होश

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कर्म और होश

✧ कर्म और होश ✧
✍🏻 — 𝓐𝓰𝔂𝓪𝓣 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓷𝓲


✧ प्रस्तावना ✧
कर्म मनुष्य का स्वभाव है,
पर होश — उसका धर्म।
कर्म बिना होश के पाप बन जाता है,
होश बिना कर्म के जड़ता।
दोनों का मिलन ही जीवन का शुद्धतम संगीत है।

यह ग्रंथ किसी उपदेश की तरह नहीं,
एक दर्पण की तरह है —
जहाँ तुम अपने भीतर के करने वाले को
धीरे-धीरे पिघलते देख सको।

यहाँ कोई साधना नहीं सिखाई गई,
सिर्फ यह स्मरण दिलाया गया है
कि जो देख रहा है — वही ब्रह्म है।
बाकी सब उसका नृत्य है।

 

✧ सूत्र ✧


कर्म अंधा है — दृष्टि दिव्य है।
जहाँ होश नहीं, वहाँ कर्म केवल गति है;
जहाँ जागरण है, वहीं कर्म धर्म बनता है।

 

“जहाँ कर्म है वहाँ गति है,
जहाँ दृष्टि है वहाँ गहराई।”

✧ व्याख्या ✧
कर्म अपने आप में न पाप है, न पुण्य।
वह तो केवल एक यांत्रिक प्रवाह है —
जैसे पवन बहती है, जल गिरता है, पृथ्वी घूमती है।
पर जब मनुष्य बिना चेतना, बिना साक्षी के कर्म करता है,
तो वही गति विनाश में बदल जाती है।
क्योंकि उसमें देखने वाला नहीं —
केवल करने वाला उपस्थित है, जो स्वयं नींद में है।

विज्ञान ने यही किया —
उसने ब्रह्मांड की अद्भुत खोज की,
पर खोजकर्ता को नहीं देखा।
इसलिए उसका परिणाम विस्फोट है, विकास नहीं।

जब होश लौटता है,
तो कर्म भी साधना बन जाता है।
वह फल के लिए नहीं,
केवल अस्तित्व की लय में घटता है।

✧ काव्य ✧
करना जब बेहोश हुआ,
कर्म पाप बन गया।
देखना जब जाग उठा,
कर्म ब्रह्म बन गया।

फल की चिंता जहाँ मिटती है,
वहीं साक्षी जन्म लेता है।
कर्म वही रह जाता है,
पर कर्ता मर जाता है।

“कर्म जब जागरण से जन्म लेता है,
वही विज्ञान धर्म बन जाता है।”

✍🏻 — 𝓐𝓰𝔂𝓪𝓣 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓷𝓲

*************

✧ कर्म और होश ✧
✍🏻 — 𝓐𝓰𝔂𝓪𝓣 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓷𝓲

सूत्र १ :
कर्म अंधा है — दृष्टि दिव्य है।


जहाँ होश नहीं, वहाँ कर्म केवल गति है;
जहाँ जागरण है, वहीं कर्म धर्म बनता है।

व्याख्या :
कर्म का सौंदर्य तभी खिलता है
जब उसमें देखने वाला जीवित हो।
करने वाला तो देह है,
पर साक्षी — आत्मा।
यदि कर्म देखने वाले की अनुपस्थिति में होता है,
तो वही कर्म बंधन है।
पर जब साक्षी साथ है,
वही कर्म मुक्ति का द्वार बन जाता है।

काव्य :
करना अंधा, देखना देवता,
यहीं से कर्म समाधि बनता।
फल की चाह जहाँ मिट जाए,
वहीं ब्रह्म का स्पर्श घटता।

✧ सूत्र २ ✧
विज्ञान जब दृष्टिहीन हुआ — धर्म का पतन हुआ।

✧ व्याख्या ✧
विज्ञान ने पदार्थ को खोजा,
पर खोजने वाले को नहीं देखा।
धर्म ने आत्मा को खोजा,
पर जीवन के पदार्थ को नकार दिया।
इस तरह दोनों ने —
एक-दूसरे का आधा हिस्सा खो दिया।

विज्ञान बिना होश के विनाश बना,
धर्म बिना अनुभव के पाखंड।
दोनों के बीच जो पुल था —
वह “दृष्टि” थी।
देखना — बिना सिद्धांत, बिना विश्वास,
सिर्फ साक्षी भाव से।

जहाँ दृष्टि पुनः जन्म लेती है,
वहाँ विज्ञान भी धर्म बन जाता है,
और धर्म फिर से जीवित विज्ञान।

✧ काव्य ✧
विज्ञान ने देखा वस्तु को,
धर्म ने त्याग दिया जग को।
दोनों खो बैठे उस दृष्टा को —
जो दोनों में एक था।

जब आँख जागी एक साथ,
विज्ञान हुआ प्रार्थना समान।
धर्म हुआ खोज महान —
यहीं से सृष्टि पुनः मुस्काई।

✧ सूत्र ३ ✧
होश ही धर्म है — बाकी सब मत है।

✧ व्याख्या ✧
धर्म कोई संस्था नहीं,
कोई ग्रंथ नहीं, कोई पूजा नहीं।
धर्म वह क्षण है
जब तुम पूरे होश में उपस्थित हो।
जहाँ होश है — वहाँ सत्य है।
जहाँ नींद है — वहाँ मत, विचार, और भीड़।

अवचेतन मन ने हजारों धर्म रचे,
पर चेतन ने एक ही — “होश”।
बाकी सब बस विश्वास हैं,
और विश्वास वहीं जन्मता है
जहाँ अनुभव नहीं होता।

धर्म को समझने की नहीं,
जीने की जरूरत है —
और जीना तभी संभव है
जब देखने वाला भीतर से जागे।

✧ काव्य ✧
मंदिर जगे न जगे मन जगे,
तो ईश्वर हर ओर दिखे।
नींद से उठना ही धर्म है,
बाकी सब शब्द की खामोशी।

जागे तो पत्थर भी बोले,
सोए तो ईश्वर भी मौन।
होश ही सत्य का द्वार है,
बाकी सब द्वार के चित्र।


कर्म से दृष्टि, दृष्टि से विज्ञान, और विज्ञान से धर्म — सब एक ही चेतना की तीन परछाइयाँ हैं।

✧ सूत्र ४ ✧
जहाँ होश है — वहाँ कर्म ध्यान है।

✧ व्याख्या ✧
ध्यान कोई क्रिया नहीं —
वह तो कर्म की जागृति है।
जब तुम करते हुए भी भीतर शांत रहते हो,
देखते हुए भी करते हो —
वही ध्यान है।

ध्यान का अर्थ बैठना नहीं,
देखना है —
और देखना बिना चयन, बिना इच्छा के।
कर्म जब इसी देखने में विलीन होता है,
तो वह न फल छोड़ता है, न छाया।
वह केवल अस्तित्व की लय बन जाता है।

जो होश में जीता है,
वह अलग से ध्यान नहीं करता —
उसका चलना, बोलना, श्वास लेना,
सब ध्यान का विस्तार है।

क्योंकि जहाँ होश है,
वहाँ विभाजन नहीं रहता।
वहाँ करने वाला, करने का कारण,
और कर्म — तीनों एक हो जाते हैं।

✧ काव्य ✧
बैठे-बैठे ध्यान नहीं,
चलते-चलते जाग।
जहाँ तू करे, पर तू न रहे —
वही साक्षी का राग।

कर्म में जो होश बहे,
वही ध्यान की गंध।
जहाँ दृष्टा मुस्काए भीतर,
वहीं मौन की गहराई जन्म ले।

 

सूत्र ५ ✧
जहाँ दृष्टा खो जाता है — वहाँ कर्म लौट आता है।

✧ व्याख्या ✧
जब तक दृष्टा जागा है,
कर्म एक प्रवाह है — मुक्त, हल्का, मौन।
पर जैसे ही दृष्टा मिटा,
‘मैं’ बीच में आया,
वही कर्म बंधन बन गया।

दृष्टा का खोना ही अविद्या है।
यानी वही बिंदु जहाँ जागरण से नींद में गिरावट होती है।
कर्म वही रहता है,
पर उसका स्वभाव बदल जाता है।
अब वह प्रतिक्रिया बन जाता है,
साधना नहीं।

इसीलिए कहा गया —
कर्म का भार बाहर नहीं, भीतर है।
कर्म तुम्हें नहीं बाँधता,
कर्म में “मैं” बाँधता है।

जब दृष्टा लौटता है,
कर्म पुनः पवित्र हो जाता है।
न पुण्य, न पाप — केवल उपस्थिति।

✧ काव्य ✧
दृष्टा गया, बंधन आया,
‘मैं’ ने कर्म को जकड़ लिया।
दृष्टा लौटा, मौन बरसा,
कर्म फिर से ध्यान हुआ।

कर्म न पाप, न पुण्य कभी,
कर्म बस प्रतिबिंब है मन का।
जागे तो झरना बन जाए,
सोए तो दलदल बन जाए।

 

✧ सूत्र ६ ✧
दृष्टा ही धर्म है — कर्ता तो भ्रम है।

✧ व्याख्या ✧
कर्तापन मन का सबसे सूक्ष्म अहंकार है।
वह कहता है — “मैं कर रहा हूँ।”
और इसी “मैं” के क्षण में
धर्म का बीज सूख जाता है।

धर्म वहाँ जन्मता है,
जहाँ कर्ता मिट जाता है
और केवल देखने वाला रह जाता है।
कर्म तब घटता है,
पर कोई ‘करने वाला’ नहीं होता।
वह वैसे ही होता है
जैसे हवा चलती है, जैसे प्रकाश बहता है।

कर्तापन जड़ है —
क्योंकि वह परिणाम चाहता है।
दृष्टा जीवंत है —
क्योंकि वह केवल साक्षी है।

जब दृष्टा स्थिर होता है,
तब सारा कर्म ब्रह्म की लीला बन जाता है।
फिर जीवन कोई जिम्मेदारी नहीं —
एक मौन नृत्य है।

✧ काव्य ✧

कर्म करे, पर कर्ता न रहे,
वही है धर्म का द्वार।
जहाँ ‘मैं’ मिटा, बस दृष्टा रहा,
वहीं सृष्टि हुई साकार।

कर्तापन में जाल बिछा,
दृष्टा में गगन खुला।
जो देखे, वही साधु है,
जो करे, वही बंधन बना।

 

✧ सूत्र ७ ✧
जब कर्ता मिटता है — तभी करुणा जन्म लेती है।

✧ व्याख्या ✧
करुणा किसी अभ्यास का परिणाम नहीं,
वह कर्तापन के विसर्जन से झरती है।
जहाँ ‘मैं’ नहीं,
वहीं से प्रेम की गंध उठती है।

कर्तापन हमेशा कुछ करना चाहता है —
सुधारना, बदलना, बचाना, जीतना।
पर जहाँ दृष्टा स्थिर है,
वहाँ कुछ करने को नहीं रहता।
वहाँ केवल देखना है —
और देखने में समझ अपने आप खिलती है।

यह समझ ही करुणा है।
क्योंकि जब तुम सचमुच देख लेते हो,
तो दूसरे में अलग कुछ बचता नहीं।
वह तुम्हारा ही विस्तार दिखता है।

करुणा न भावना है, न नीति —
वह तो आत्मा की सहज प्रतिक्रिया है
जब कोई ‘मैं’ बीच में नहीं रहता।

✧ काव्य ✧
‘मैं’ गया, करुणा आई,
मौन हुआ, प्रार्थना छाई।
जहाँ कर्ता नहीं रहा भीतर,
वहीं ब्रह्म ने आँख उठाई।

जो देखे सबको अपने समान,
वही धर्म का शिखर है।
करुणा कोई दया नहीं —
वह जागरण का असर है।


कर्म करे, पर कर्ता न रहे,
वही है धर्म का द्वार।
जहाँ ‘मैं’ मिटा, बस दृष्टा रहा,
वहीं सृष्टि हुई साकार।

कर्तापन में जाल बिछा,
दृष्टा में गगन खुला।
जो देखे, वही साधु है,
जो करे, वही बंधन बना।

✧ सूत्र ८ ✧
करुणा जब मौन होती है — वही ध्यान का पूर्ण रूप है।

✧ व्याख्या ✧
जब तक करुणा शब्दों में है,
वह अभी अधूरी है।
वह भावना है — सुंदर, पर सतही।
पर जब करुणा मौन हो जाती है,
वह अस्तित्व की सुवास बन जाती है।

उस मौन में कोई “करने” की इच्छा नहीं रहती,
कोई “दूसरा” नहीं बचता।
सिर्फ एक लय है —
जहाँ श्वास भी प्रार्थना बन जाती है,
और दृष्टि — ध्यान।

ध्यान करुणा का परिपक्व रूप है।
क्योंकि वहाँ प्रेम बिना स्पर्श के है,
सेवा बिना कर्म के है,
और उपस्थिति बिना शब्दों के।

यही वह बिंदु है
जहाँ धर्म, विज्ञान, और ध्यान
एक ही वृत्त में विलीन हो जाते हैं।

✧ काव्य ✧
करुणा बोली — मौन हुई,
ध्यान ने उसे अपना लिया।
प्रेम ठहरा, शब्द रुके,
ब्रह्म ने फिर मुस्कुरा दिया।

जहाँ मौन बहता है भीतर,
वहीं सब पीड़ा घुल जाती।
न देना, न लेना शेष —
बस होना ही साधना बन जाती।

✧ सूत्र ९ ✧
मौन ही अंतिम कर्म है — जहाँ कुछ करने को नहीं बचता।

✧ व्याख्या ✧
जब सब कर्म जल जाते हैं,
तब जो शेष रह जाता है — वही मौन है।
मौन कोई निष्क्रियता नहीं,
वह कर्म का शुद्धतम रूप है।
क्योंकि वहाँ करने वाला नहीं,
पर घटने वाला सब कुछ है।

मौन में सृष्टि अपनी धुन में चलती है —
नियंत्रण के बिना, प्रयोजन के बिना।
वही श्वास लेती है, वही बोलती है, वही रचती है।
और तुम बस उस नर्तन के साक्षी हो।

मौन में कर्म रुकता नहीं —
बस ‘मैं’ रुक जाता है।
और जब ‘मैं’ रुकता है,
तब पहली बार कर्म ब्रह्म के हाथ में लौटता है।

यही मुक्ति है —
कर्म का अंत नहीं,
कर्तापन का विसर्जन।

✧ काव्य ✧
करते-करते थक गया,
मौन ने हाथ थाम लिया।
कर्म वहीं ठहर गया,
ब्रह्म ने स्वयं काम लिया।

जहाँ शब्द नहीं पहुँचते,
वहीं से सत्य बोलता है।
मौन कोई खालीपन नहीं —
वह अस्तित्व की साँस है।

✧ सूत्र १० ✧
मौन जब दृष्टि बनता है — वही ब्रह्म-दर्शन है।

✧ व्याख्या ✧
मौन तब तक अधूरा है
जब तक वह भीतर की शांति भर है।
पर जब मौन दृष्टि बन जाता है —
तब वह ब्रह्म की आँखें खोल देता है।

यह वह क्षण है
जहाँ देखने वाला और देखा —
दोनों विलीन हो जाते हैं।
अब मौन केवल भीतर नहीं,
पूरा अस्तित्व मौन हो जाता है।

ब्रह्म-दर्शन किसी अनुभव का नाम नहीं —
वह अनुभव का लोप है।
जहाँ कोई देखने वाला नहीं बचा,
वहीं ब्रह्म प्रकट है।
वह दृश्य नहीं,
वह दृष्टि की मौलिकता है।

संसार तब भी वैसा ही है —
पर तुम्हारी आँखें अब शून्य हो चुकी हैं।
देखना अब केवल देखना नहीं,
एक प्रार्थना बन गया है।

✧ काव्य ✧
मौन उठा, दृष्टि बनी,
सृष्टि ने स्वयं को देखा।
दृश्य मिटा, दृष्टा डूबा,
ब्रह्म ने ब्रह्म को देखा।

अब कोई अंतर न रहा,
ना साधक, ना साध्य।
जहाँ मौन देखता है —
वहीं सत्य प्रकट है।

✧ सूत्र ११ ✧
जहाँ दृष्टा, कर्म, और मौन एक हो जाते हैं — वही धर्म की परिपूर्णता है।

✧ व्याख्या ✧
यहाँ कोई अलग दिशा नहीं बचती —
कर्म करने को नहीं, दृष्टा देखने को नहीं,
और मौन साधने को नहीं।
तीनों एक ही लय में घुल जाते हैं।

यह वह क्षण है
जहाँ अस्तित्व भीतर-बाहर का भेद मिटा देता है।
कर्म अब ब्रह्म की गति बन जाता है,
दृष्टा ब्रह्म की आँखें,
और मौन — उसका श्वास।

यहीं धर्म पूर्ण होता है।
क्योंकि यहाँ कुछ शेष नहीं जिसे जाना जाए,
और कोई नहीं जो जानने वाला हो।
केवल होना बचता है —
निर्विचार, निष्काम, अनाम।

यह धर्म का अंत नहीं,
उसकी पूर्णता है —
जहाँ साधना भी लय हो जाती है,
और जीवन स्वयं ध्यान बन जाता है।

✧ काव्य ✧
कर्म मौन में, मौन दृष्टि में,
दृष्टि ब्रह्म में लीन।
तीनों मिलकर बन गए —
अस्तित्व का एक हृदयनाद।

ना करने को कुछ,
ना पाने को कुछ।
सिर्फ यह —
जो सदा से था, सदा रहेगा।

✍🏻 — 𝓐𝓰𝔂𝓪𝓣 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓷𝓲


🕉️ ✧ “कर्म और होश” — समापन ✧
यह अध्याय एक यात्रा नहीं, एक वृत्त है —
जहाँ आरंभ और अंत एक ही हैं।
कर्म से दृष्टि, दृष्टि से मौन, और मौन से ब्रह्म —
फिर वही कर्म लौट आता है,
पर अब वह होश का कर्म है।