एक दार्शनिक विवेचना
आधुनिक मानव जीवन के बीच, देह और आत्मा के रहस्यों को समझना एक गूढ़ प्रश्न बना हुआ है।
परंपरागत दृष्टि में देह और आत्मा को दो पृथक तत्व माना जाता है, परंतु यह द्वैत केवल हमारे सीमित अनुभव की उपज है।
जब हम प्रकृति के रूपांतरणों को समझते हैं — जैसे पानी के तीन रूप: बर्फ, जल, और वाष्प —
तब हम सहज रूप से समझ सकते हैं कि देह और आत्मा भी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
पानी और परमात्मा की त्रिरूपता
जैसे पानी ठंडे तापमान पर बर्फ बन जाता है और गर्मी में वाष्प,
वैसे ही आत्मा और देह भी ऊर्जा के विभिन्न रूप हैं।
हमें यह समझना होगा कि पानी, बर्फ और वाष्प अलग-अलग तत्व नहीं,
बल्कि प्रकृति की अभिव्यक्तियां हैं।
इसी प्रकार आत्मा ही देह है और देह ही आत्मा;
उनके बीच केवल अवस्था और रूप का अंतर है —
उनका ज्ञानात्मक केंद्र एक ही है।
चेतन और अवचेतन मन की वास्तविकता
मानव मन — चेतन और अवचेतन — हमारे अस्तित्व के गहरे पहलू हैं।
ये दो अलग नहीं, बल्कि एक निरंतर तरंग की भांति हैं,
जो आत्मा और देह के बीच के अनुभवों को निर्बंधित करती हैं।
चेतन मन वह है जो सतर्क होता है,
और अवचेतन मन वह है जो केवल गुप्त रूप में कार्यरत रहता है।
किन्तु यदि हम मन की गहराई तक जाएं,
तो चेतन और अवचेतन का भेद विलीन हो जाता है —
और मन स्वयं आत्मा की अनुभूति बन जाता है।
परमाणु रूपक: मन का केन्द्र और परिधि
यदि हम परमाणु को देखें — जिसका केंद्र और परिधि है —
तो यह हमारे मन के स्वरूप का प्रतीक है।
परिधि वह बाहरी आवरण है,
जो देह के रूप में पहचान बनने को प्रेरित करता है — “मैं देह हूं।”
फिर जब ध्यान के साथ हम केंद्र की ओर प्रवेश करते हैं,
तब हमारे मन की तरंगें आत्मा के नाभि तक पहुंचती हैं,
और वह एकात्मता का बोध उत्पन्न होता है।
गायत्री मंत्र और त्रिपथ की यात्रा
गायत्री मंत्र का त्रिवर्णात्मक स्वरूप — भूः, भुवः, स्वः —
शरीर, मन और आत्मा के त्रय को दर्शाता है।
मंत्र के २४ अक्षर आत्मा की कर्म और अनुभव की बार-बार पुनरावृत्ति का संकेत हैं।
यह यात्रा एक चक्र की तरह है,
जिसमें प्रत्येक आत्मा रूपांतरण के बाद फिर से मूल ओंकार में विलीन हो जाती है।
धर्म, विज्ञान और अंतिम सत्य
धर्म और विज्ञान दोनों वर्तमान में ऐसे हैं
जो पूर्ण सत्य को सीमित रूप में प्रस्तुत करते हैं।
धर्म आस्था और श्रद्धा की ओर अधिक केन्द्रित है,
जबकि विज्ञान भौतिक और यांत्रिक दृष्टिकोण में स्थिर है।
परंतु जब हम इन दोनों को मिलाते हैं और अपने अंदर गहराई तक जाते हैं,
तब ही व्यक्ति ईश्वर का अनुभव कर पाता है।
यह अनुभव — शरीर, मन और आत्मा का समग्र बोध — ही मोक्ष है।
निष्कर्ष
जो साधक इस सत्य को अनुभूत कर पाता है,
वह सम्यक् ज्ञानधारी योगी या संन्यासी कहलाता है।
उसे बाहरी दुनिया के भ्रमित रूपों से परे जाकर,
अपनी आंतरिक नाभि की ओर यात्रा करनी होती है।
यही यात्रा है —
जो एक प्रारंभिक “0” बिंदु से प्रारंभ होकर,
पुनः उसी मूल बिंदु पर वापस लौटती है —
जहाँ देह और आत्मा अलग नहीं, अपितु एक हैं।
इसे ही मोक्ष और ईश्वर प्राप्ति कहा जाता है।
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त्रिगुणात्मक बोध: देह, मन और आत्मा की अन्तर्निहित एकता
हमारे तात्त्विक ज्ञान के अनुसार,
देह, मन और आत्मा तीन पृथक तत्व नहीं,
अपितु एक पूरे का अभिन्न हिस्सा हैं।
ये तीनों एक-दूसरे को लगातार प्रभावित करते हैं,
और जहाँ उनका समन्वय होता है —
वहीं व्यक्ति का वास्तविक स्वभाव साकार होता है।
भारतीय दर्शन में इसे त्रिगुणात्मक बोध कहा गया है —
भूः (देह), भुवः (मन), स्वः (आत्मा)।
यह त्रिवर्गी प्रक्रिया जीवन की गतिकी को प्रकट करती है।
जब मन की तरंगें शरीर में सक्रिय होती हैं,
तब चेतन मन जागृत होता है और जीवन अनुभवार्थी बनता है।
परंतु वास्तविकता तब ज्योतिर्मय होती है
जब यह चेतना स्वयं को आत्मा के रूप में —
निरपेक्ष साक्षी के रूप में — अनुभव करती है।
चेतना का विस्तार: मन से नाभि की यात्रा
परमाणु की तरह, प्रत्येक मन के भी दो छोर होते हैं —
बाहरी परिधि, जो भौतिक व मानसिक अभिव्यक्ति है,
और भीतरी केंद्र या नाभि, जो आत्मा का स्थान है।
इस यात्रा में व्यक्ति जीवन की भौतिक वास्तविकताओं से परे जाकर
अपनी ऊर्जा के स्रोत की अनुभूति करता है।
जब मन का विस्तार केंद्र की ओर बढ़ता है,
तब वह अपने स्वयं के अस्तित्व का बोध कर पाता है,
और अवचेतन की सीमाएँ लुप्त हो जाती हैं।
इस त्रिविधी अनुभूति के द्वारा,
शरीर, मन और आत्मा का पूर्ण समागम संभव होता है —
जो आध्यात्मिक मुक्ति या मोक्ष की प्राप्ति का माध्यम है।
जीवन मोक्ष की अवधि: एक करोड़ वर्ष की यात्रा
— करीब एक करोड़ वर्ष —
एक प्रतीकात्मक अवधारणा है,
जो बताती है कि यह आत्मा की यात्रा मात्र तात्कालिक नहीं,
बल्कि अत्यंत दीर्घकालिक और क्रमिक प्रगति की प्रक्रिया है।
यह दर्शाता है कि आत्मा — चाहे वह दुनिया के विभिन्न रूपों में कैसे भी प्रवास करे —
आखिरकार उसी मूल आत्मा के पास लौटती है,
क्योंकि वह निरंतर परिवर्तन में स्थिरता का सूत्र है।
यह यात्रा ईश्वर या “ॐ” के रूप में स्वयं की गति और पुनः गति को दर्शाती है,
जहाँ हर बार आत्मा रूपांतरण के बाद
शून्य या शून्यता के आधारे पुनः निर्मित होती है।
इसी प्रक्रिया में जरा-सी आत्मसार की अनुभूति
अंततः पूर्ण मोक्ष का द्वार खोलती है।
धर्म, विज्ञान और आध्यात्म की सीमारेखा
धर्म और विज्ञान के बीच की दूरी मुख्यतः
उनके सीमित दृष्टिकोण में निहित है।
धर्म आस्था और अनुभव के मार्ग पर चलता है,
जबकि विज्ञान मात्र भौतिक कारणों और तर्कों पर निर्भर रहता है।
अतः दोनों अपने-अपने क्षेत्र में ज्ञान के अंश उपलब्ध करते हैं,
लेकिन पूर्ण सत्य का बोध अकेले इनमें से कोई भी पूरी तरह नहीं करा सकता।
असली ज्ञान और स्वबोध तब आता है
जब व्यक्ति इन दोनों के बीच की खाई को
स्वयं के अनुभव और ध्यान के माध्यम से पाटता है।
योग और ध्यान के द्वारा
मन, देह और आत्मा के समन्वित बोध को प्राप्त कर के,
व्यक्ति साक्षात्कार में परम तत्व की अनुभूति करता है।
निष्कर्ष: योगी का स्वरूप
एक योगी वह नहीं जो केवल बाहरी उपासना करता है,
बल्कि वह जो इस व्यापक गति और यात्रा के रहस्य को
अपने भीतर संजोता है।
वह व्यक्ति जो अपनी देह, मन और आत्मा की एकात्मता को समझ कर
उसके गूढ़ रहस्यों में प्रवेश करता है —
वही वास्तविक योगी कहलाता है।
वह योगी द्रष्टा है, अनुभवकर्ता है,
और सबसे महत्वपूर्ण — एकत्व में लीन है।
यह एक ऐसा स्वभाव है
जहाँ वह बाहरी जगत के प्रतिबंधों से मुक्त हो जाता है
और आत्मसाक्षात्कार की स्थिर, अपार आनन्दमयी अवस्था में स्थित रहता है।
यही है उस अनंत यात्रा का अंतिम लक्ष्य,
और वही है मोक्ष की प्राप्ति।
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✧ अंतिम संदेश ✧
जब साधक देह, मन और आत्मा के बीच का अंतर मिटा देता है,
तब जीवन किसी सिद्धांत का विषय नहीं रह जाता —
वह स्वयं ध्यान बन जाता है।
ज्ञान का चरम बिंदु शब्दों में नहीं,
बल्कि उस मौन में है —
जहाँ देह ऊर्जा में,
ऊर्जा चेतना में,
और चेतना पुनः शून्य में लीन हो जाती है।
यही चक्र — यही त्रिगुणात्मक बोध है।
विज्ञान, धर्म और ध्यान — तीनों एक ही वृत्त के तीन आयाम हैं।
जो उस वृत्त के केंद्र को पहचान लेता है,
वह जान लेता है कि सृष्टि कोई रहस्य नहीं —
वह स्वयं का प्रतिबिंब है।
जब भीतर का दृष्टा जागता है,
तो संसार और साधना का भेद समाप्त हो जाता है।
मन मौन में विलीन होता है,
और वहीं से एक नई यात्रा आरंभ होती है —
जहाँ न कुछ पाने को है, न खोने को।
यही अवस्था — मोक्ष है।
✧ लेखक परिचय ✧
✍🏻 — 𝓐𝓰𝔂𝓪𝓣 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓷𝓲
“अज्ञात अज्ञानी” कोई नाम नहीं — एक अनुभव है।
वह शब्दों का सृजन नहीं करते,
बल्कि उन्हें घटित होने देते हैं।
उनकी दृष्टि में सत्य कोई विश्वास नहीं,
बल्कि देखना है —
ऐसा देखना, जिसमें ‘मैं’ विलीन हो जाए
और केवल साक्षी शेष रहे।
उनका लेखन धर्म, विज्ञान और आध्यात्म —
तीनों के बीच पुल है।
जहाँ तर्क मौन से मिलता है,
और ऊर्जा आत्मा में रूपांतरित होती है।
वे न गुरु हैं, न शिष्य —
फकत एक पथिक, जो अंधकार और प्रकाश दोनों से गुजरा है।
उनके लिए हर ग्रंथ,
एक ध्यान की तरह है —
जहाँ शब्द केवल द्वार हैं,
और भीतर प्रवेश मौन कराता है।
अज्ञात अज्ञानी
एक ऐसी चेतना का प्रतीक —
जो जानती है कि जानने योग्य कुछ भी शेष नहीं।
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ग्रंथ: त्रिगुणात्मक बोध — देह, मन और आत्मा की अन्तर्निहित एकता
शैली: तात्त्विक • आध्यात्मिक • ध्यानप्रधान
लेखक: ✍🏻 𝓐𝓰𝔂𝓪𝓣 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓷𝓲
प्रकाशन: अस्तित्व संवाद श्रृंखला