अवनीश हमेशा से बहुत अच्छा लड़का था —
हर किसी की मदद करता, सबको खुश रखता, किसी को “ना” नहीं कहता।
अगर किसी को नोट्स चाहिए होते, तो वो देता।
अगर किसी का प्रोजेक्ट अधूरा होता, तो वो रातभर जगकर पूरा कर देता।
शुरुआत में सब उसे पसंद करते थे, “यार, अवनीश बहुत अच्छा है,”
लेकिन धीरे-धीरे वो सबके लिए बस एक सहूलियत बन गया —
एक ऐसा इंसान जो हर वक्त उपलब्ध है, लेकिन जिसकी अहमियत कोई नहीं समझता।
उसे हमेशा लगता था कि अच्छा बनने से लोग उसके अपने बनेंगे।
लेकिन हुआ उल्टा — जितना वो झुकता गया, लोग उतना उसे हल्के में लेने लगे।
क्लास में किसी का नाम लेते वक्त कोई उसका ज़िक्र नहीं करता।
दोस्त तब तक दोस्त रहते, जब तक उन्हें कोई काम होता।
और जब उसे ज़रूरत होती, तो सब व्यस्त हो जाते।
एक दिन कैंटीन में सब बैठे थे।
रोहित, उसका सबसे करीबी दोस्त, हँसते हुए बोला,
“भाई, तू तो कॉलेज का ‘help center’ है! किसी को assignment चाहिए, तू दे देता है, किसी को money चाहिए, तू दे देता है — खुद तेरे पास क्या बचता है?”
सभी दोस्त हँसने लगे।
अवनीश भी हँसा, लेकिन उसके अंदर कुछ चुभ गया।
वो चुपचाप वहाँ से उठ गया और अकेला मैदान की बेंच पर जाकर बैठ गया।
थोड़ी देर बाद उसने देखा — कुछ बच्चे क्रिकेट खेल रहे थे।
एक बच्चा बार-बार दूसरों के कहने पर बॉल उठा लाता, फील्डिंग करता, पानी देता, पर उसे कभी खेलने नहीं दिया जा रहा था।
बच्चा कुछ नहीं बोला, बस मुस्कुरा कर वही काम करता रहा।
अवनीश के अंदर जैसे कोई आईना टूट गया —
वो बच्चा असल में वही था।
वो भी दूसरों के खेल का हिस्सा था, लेकिन खिलाड़ी नहीं, खिलौना बन गया था।
उस रात वो देर तक सोचता रहा —
क्या अच्छा होना मतलब खुद को मिटा देना होता है?
क्या दूसरों की खुशी में अपनी पहचान खो देना सही है?
अगले दिन से उसने तय कर लिया कि अब वो अपने जीवन का खिलाड़ी बनेगा, किसी और के खेल का खिलौना नहीं।
अब वो अपनी सीमाएँ तय करेगा।
किसी को “ना” कहना अब उसे बुरा नहीं लगेगा।
अगर कोई बस फायदा उठाने के लिए आता, तो वो मुस्कुरा कर कहता —
“भाई, अब मुझे भी अपनी बैटिंग करनी है, हर बार फील्डिंग मैं नहीं करूँगा।”
धीरे-धीरे सबको फर्क महसूस हुआ।
जो लोग पहले उसे granted लेते थे, अब उसकी इज़्ज़त करने लगे।
जो पहले उसकी चुप्पी को कमजोरी समझते थे, अब उसकी बातों में आत्मविश्वास देखते थे।
वो पहले जैसा “सबका अवनीश” नहीं रहा, लेकिन अब वो “अपना खुद का अवनीश” बन गया था।
कुछ महीनों बाद कॉलेज में एक debate competition हुआ।
विषय था — “Be a player, not a toy.”
अवनीश ने उसी पल भाग लेने का फैसला किया।
स्टेज पर जब वो पहुँचा, तो उसके चेहरे पर शांति थी — डर नहीं, आत्मविश्वास था।
उसने कहा,
“कभी-कभी हम ज़िंदगी में इतने व्यस्त हो जाते हैं सबको खुश करने में, कि खुद से मिलना ही भूल जाते हैं।
हम दूसरों के expectation पूरे करने की कोशिश करते हैं, लेकिन खुद के सपनों को अधूरा छोड़ देते हैं।
और जब सब अपना खेल खेल लेते हैं, तब हमें एहसास होता है —
हम खुद कभी खिलाड़ी बने ही नहीं, बस उनका खिलौना बनकर रह गए।”
सारा हॉल एकदम शांत था।
हर शब्द सीधा दिल में उतर रहा था।
उसने आगे कहा,
“मैंने सीखा है कि दूसरों के लिए अच्छा होना गलत नहीं,
लेकिन खुद के लिए सच्चा होना ज़रूरी है।
अगर तुम खुद की कद्र नहीं करोगे, तो कोई और भी नहीं करेगा।
ज़िंदगी का मैदान तभी जीत सकते हो, जब तुम अपने खेल के नियम खुद तय करो।”
जब उसने बोलना खत्म किया, पूरा ऑडिटोरियम तालियों से गूंज उठा।
उस दिन अवनीश ने सिर्फ प्रतियोगिता नहीं जीती, उसने खुद को भी जीत लिया।
अब वो वही काम करता था, लेकिन अपनी शर्तों पर।
वो दूसरों की मदद भी करता था, लेकिन तब जब वो खुद तैयार होता।
वो मुस्कुराता था, लेकिन अब उस मुस्कान के पीछे मजबूरी नहीं, संतुलन था।
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🌟 अंत की पंक्तियाँ:
> “ज़िंदगी के खेल में सबको खुश करने मत निकलो,
वरना खुद ही हार जाओगे।
खिलाड़ी बनो — क्योंकि खिलौने हमेशा
किसी और के हाथों से चलते हैं।”