तुझ संग प्रीत लगायी .... in Hindi Women Focused by Sunita Roy books and stories PDF | तुझ संग प्रीत लगायी ....

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तुझ संग प्रीत लगायी ....

क्या  हो जब  प्रेम  प्रताड़ना  बन  जाय  और  जीने  का  सबब  भी...


मैं  वैभव  ....  

आज  दो साल  बाद  कैलिफ़ोर्निया  से  वापस लौट  रहा  हूँ ....  तीन  साल  पहले  भी  मैं  यहां  आया था । पर  तब  में  सिर्फ वैभव  था  पर  आज  ..... आज  मैं  विभा  का  वैभव  हूँ । तब  भी  विभा  का  नाम  मेरे  वजूद  से  जुड़ा  था  । वह बात  अलग थी कि  मैने  उसे अपने  मन  में  स्वीकारा  नहीं  था । मैं  उस  किस्म  का  इंसान  हूँ  ना ... जो  बस  मानते नही  है । जानते  सब  है,समझते  सब  है , बस  स्वीकारते  नहीं  है । ऐसा  नहीं  है  कि  वे  स्वीकारना  नहीं  चाहते ...!! बेशक  चाहते  पर  बस  स्वीकारते  नहीं  है । पर  आज  मैं  स्वीकारना  चाहता  हूँ । 

इन  दो सालो  में  मेरी  विभा  से  कोई  बात  नहीं  हुई । न  फ़ोन  .. न  मैसेज ... न कोई  चैट ..  ना  कोई  कॉल ... कुछ  भी  नहीं .. पहले भी  हमारी  बाते  कहाँ  होती  थी ....!! पर  तब  लगता  था  जैसे  हमे शब्दों  की  जरुरत  ही  नहीं । मेरा  मौन  जाने  कैसे वह समझ  जाती ... और  मैं ... मैं  तो  उसकी  आँखों  की  पुतलियों को  भी  देख  कर  समझ  जाया  करता  था । बशर्ते ... मोहतरमा  वह  भी  मुझसे छुपा  न  ले ... !!

इसलिए  तो याद  भी  नहीं  किया मैने इन्हें कैसे करता...?? व्यस्तता  इतनी  थी  कि  कर  ही  नहीं  पाया ... पर  क्या  भूल  भी  पाया  इन्हें ...!! वह तो  सोते  जागते  उठते  बैठते  काम  में  आराम  हर  पल  मुझ पर  काबिज  थी । बिना  किसी  अतिरिक्त  परिश्रम  के ... जैसे  सांसे  होती  है न ... इंसान  ज़िंदा  रहे  तो  आती  जाती  रहती  है  बिना  किसी  परिश्रम  के ... बस  उसी  तरह  कुछ ...!!  

पर  वह .... !!उसे  क्या  मैं  एक  बार  भी  याद  न  आया ..?? कम  से  कम  एक  बार  झगड़  ही  लेती  मुझसे ... पर  मैं  भी  कौन  सी   खुली  आँखों  से सपने  देख रहा  था । जिनके शब्द  ही  दुर्लभ  हो  वह  झगड़े  भी  कैसे ...?? वह  भी  मुझसे ... जिसके  सामने खासकर  मौन  व्रत  रक्खा  जाता  था .. और  मैं  कॉल  की  उमींद  कर  रहा  था । जब  भी  सोचता  हूँ  जी  जल  जाता  है  मेरा ....  क्या  वह  नहीं जानती  थी ... ऐसा  ही  हूँ  मैं ...!! नही  आती  है  मुझे  वह  कला  जिसमे लोग अपनी  भावनाओं  को  शब्दों  में  पिरो  देते  है  ...... पर  वह  क्या  इतना  भी  मुझे  न  समझी  थी ...?? 

और  मैं .... मैं  क्या  कर  रहा  हूँ ....??इतनी  उपेक्षा  के  बाद  कैलिफ़ोर्निया  से  लौटकर   मुझे  अपने  घर दिल्ली लौटना  चाहिए  ...  पर  मैं  जा  रहा  हूँ अपनी विभा  के  घर ।

मोबाइल  पर  कैब  ड्राइवर  का  कॉल  आया । और  अब  मुझे  अपनी  यादो   के  गलियारे  को  मुक्त  करना  पड़ा । उसका  घर  आजमगढ़  में  है । मैं  बनारस  स्टेशन  पर  ही  उतर  गया । वहाँ  से  कैब  बुक  कर  ली  थी । मुझे  अब  जल्द  से  जल्द  उसे  देखना  था । ये  दो  साल  जाने  कैसे  सब्र  कर  बिता  दिए  थे  मैने ..  पर  अब ये  दो  चार  घंटे  मुश्किल  पड़  रहे  थे । समझ  नहीं  आ  रहा था  उससे  मिलूंगा  तो  पहले  उसे  प्यार  से  निहारूँगा  या  फिर ... गुस्से  में  झिड़कूंगा ...!! गुस्सा ... हां  गुस्सा  तो  हूँ  मैं  उससे ... चाहे  जो  कुछ  भी  हो  उसकी  हिम्मत  कैसे  हुयी  मुझे  डाइवोर्स  पेपर्स  भेजने  की ..!! मेरे  वापस  लौटने  का  इंतज़ार  भी  नहीं  किया ...  दो  साल  की  ट्रेनिंग  के  लिए  कैलिफ़ोर्निया  गया  था ...  ऐसी  भी  क्या  आफत  आ  गयी  थी ...??  जिद्दी  मगरूर  घमंडी  जैसे  भी  हूँ ....  वापस   आता  न ...  मैं  आखिर ......!! प्यार  जताया  नहीं  तो  क्या  प्यार  नहीं  करता  मैं ... !!


कैब  में  बैठा  तो  वही  जाने  पहचाने  रास्ते  दिल  दिमाग  में  दस्तक  देने  लगे ..... आंखे  खुद  ब खुद  अतीत  के  गलियारों  की  टोह   में  बंद  हो  गयी । कैब  की सीट  से अपनी  पुश्त  टिकाए  मैने  भी  उन  यादो   के  लिए  अपने  मन  के  झरोखों  को  खोल  दिया ....







सुनिये ......

उफ़ ... !! मोहतरमा  का  वही  एक  टुकड़ा  जुमला ... उससे  तो  आगे  ये  कहेंगी  नहीं ...  बल्कि  खड़े  खड़े  इंतज़ार  में  दस  मिनट  ही  क्यों  ना  बिता  दे । पिछले  सात  महिनो  में  तो  ये  बात  अब  मैं  भी  समझ  चुका  हूँ ।  

आखिर  मैने  अपनी  क्लांत  आंखे ,  जिसमे  कुछ  गुस्सा    जो विगत  दिनों  का  था .. , विभा  की  तरफ  कर  ही  दी । और  वह  हमेशा  की  तरह  आज  भी  वैसे  ही  शांत  सी  दिखी । समुन्दर सी  आंखे .. जिनमे क्रोध , ख़ुशी , गम  , चुलबुलाहट  जाने  क्या  कुछ  होगा ।  पर  सब  अंदर  दफ़्न   ...!!   जैसे  समुन्दर  अपने  अथाह  तल   में  जाने  क्या  कुछ  समेटे  रहता  है  । बिलकुल  वैसे  ही ... ये  भी  अपनी  आँखों  में  जाने  क्या  कुछ  समेटे  रहती  है  जो  मजाल  भी  है  किसी  को  दिख  जाय ...मुझे  भी 
कभी  पता  ही  नहीं  चल   पाया । तो  मोहतरमा  मेरी  तिलस्मी  सी  ....!! पर  खूबसूरत  तिलस्म .. जो  अभी  रूठी  हुयी  भी  है ... और  ये  शिकायत  करने  से  रहीं । दूसरे  पति  मरे  जाते  है  बीवियों  की  शिकायतो  से  और  एक  मैं  हूँ  जो  चाहता  हूँ  मोहतरमा  शिकायत  तो  करे  कम  से  कम ... पर  कहाँ ....?!  


और  इनकी  विरक्ति इसके  तो  क्या  ही  कहने  ..अपने  बारे  में  मैं जब  भी जितना  भी  हवाई  किले  बनाता  हूँ  इन   देवीजी  के  पास  आकर  सब  धराशायी  हो  जाती  है । कोई  और  होती  तो   मेरे  चेहरे  मुहरे  पर  ही  आसक्त  हो  जाती  ।  मेरी  इतनी  ऊँची  पोस्ट,  इनकम  और  इंसेंटिव  तो  दूर  की  बात  थी ।  पर  ये  मोहतरमा  तो  मुझ जैसे  ऑयऑयटियन  को हमेशा  आम  ही  बनाये    रहने  पर  तुली  रहती  है । मुझपर तो  खुद  इतराती  नहीं उल्टे मेरा  खुदपर इतराना  भी  जाया  हो  जाता  है ।



विभा  ने  मेरे  सामने  चाय  नाश्ता  का  प्लेट  रख  दिया और  खुद  एक  कोने  में  खड़ी  हो  गयी ।  मैने  उसे  नजर  भर  कर  देखा  तो  जाने  क्यों  एक  तसल्ली  सी  मिली ।  पिछले  दो  घंटे  जो  धुल  मिटटी  में  कच्ची  सड़क  पर  चलकर  बिताये  थे,  वह  थकावट  थोड़ी  कम   होती  महसूस  हुयी ।  पर  वो  मजाल  था  मेरी  तरफ  आँख  उठाकर  देख  ले ।और  मैने  भी  भला  अपनी 
आतुरता  की  कहाँ  भनक  लगने  दी ? वो  शायद  डरती  हो  मुझसे !!  उम्र  में  भी  तो  हमारे  छह  साल  का  अंतर  था । और   फिर  मैने  भी   कभी  कोशिश  ही  नहीं  की  उसकी  हिचक  कम  करूँ । आखिर  उसे  भी  तो  पता चले  मैं  कितना  व्यस्त  रहता  हूँ । और  उसके  सामने  तो  कुछ  ज्यादा  ही ... पर  आश्चर्य  है  मोहतरमा  ने  शिकायत  तो  दूर  मेरी  व्यस्तता  में  कभी  खलल  तक  नहीं  डाली । और  मैं  भी  क्या  करता  अब तो  खुद ही  अपने  स्वांग  से  खुन्नस  सी  आती  है ।


मैने  चाय  की  एक  घूंट  ली  और  अपनी  टाई  की  क्नॉट  को  ढीला  करने  लगा । उसने  तुरंत  ही  कूलर  ऑन  कर  दिया । ठंढी  हवा  पाकर  मैने  राहत  की  सांस  ली । मैने   कूलर  को   देखा  बिलकुल  नया  लग  रहा  था  । ये  जानती  थी  । बिना  ऐसी  के  मेरा  गुजारा  नहीं । तभी  मेरी   सहूलियत  के  लिया  लाया  गया  होगा  । ये ख्याल  आते  ही  मेरे  चेहरे  पर  मुस्कराहट  आ  गयी । आखिर  दामाद  हूँ । और  पहली  बार  आया  हूँ  तो  इतनी  आवभगत  तो  बनती  ही  है । 

जी ... आप  फ्रेश  हो  जाये ... जरुरत  का  सारा  सामान  वहीं है ।


फिर  वही  इनके  टुकड़े  टुकड़े  जुमले .... कुछ  और  भी  कह  सकती  थी ... मसलन  मैं  कैसा  हूँ .. ?सफर  कैसा  रहा ... ? घर  में  सभी  कैसे है ? 

हहह ....पर  मैं  भी  क्या  सोच रहां  हूँ ।  घर  में  तो  इनकी सबसे कम  बाते  अगर  किसी  से  होती  है  तो  वह  मैं  ही हूँ ।अगर  औपचारिकता    जैसे ... चाय  ,  कॉफ़ी , डिनर , तोलिया , कपड़े ... वैगरह  वैगरह  की  आवश्यकता ना  होती , तो  शायद  मोहतरमा  और  मेरे  बीच  में  कोई  बात  भी  नहीं  होती ।  तो  फिर  ये  मुझसे  घर  के  हाल  चाल  पूछे ... ये  तो  खुली  आँखों  से  सपने  देखने  जैसी  बात   होगी । इनफैक्ट   अगर  मैं  ये  कहूं  जो  घर  में  सभी को  पता  चल  जाता  है  वह  सबसे  अंत  में  मुझे  पता  चलता  है,   तो  भी  कोई  अतिश्योक्ति  नहीं  होगी । इनके  लिये  तो  घर  का  सबसे  उपेक्षित  प्राणी   मैं  ही  हूँ ... यू  क्नोव  सवर्णो  के  बीच कायस्थ  जैसा  .... मुझसे  तो  शब्द  भी  इतने  नपे  तुले  बोले  जाते  है इनके  द्वारा । जैसे  आइंस्टीन  का  कोई  फार्मूला  बोल  रहीं  हो  .... एक  भी  शब्द   अपनी  यथा  स्थिति  से  इधर  उधर  हो  गये  तो  नंबर  कट  हो  जायेंगे ...



चाय  का  कप  रख  दिया  मैने .... इतनी  झुँझलहट  आयी  कि  क्या  ही  कहूँ ....!!  हां  तो  मैं  भी  कौन  सा  मरा  जा  रहा  हूँ  इनसे  बात  किये   बिना .... !!  इनका पहला   करवा  चौथ  और  माँ  की जिद  ना  होती  तो  मैं इस  गांव  में  कभी  कदम  तक  ना  रखता  .... अरे  ये  गांव  देहात   मेरी  प्रतिष्ठा  को  भला  जंचता  ही  कहाँ  है ...?!  पर  अपनी  अम्मा  का  क्या  ही  करूं ??   जो  हर  वक्त ... विभा ... विभा ... विभा की   ही  रट  लगाए  रहती  है .... जाने  कौन  सा  जादू  टोना  कर  रक्खा  है ...  बैग  से  कपड़े  निकालने  गया , तो  ये  एक  जोड़ी  कपड़े  हाथों  में  लिये  ही  खड़ी  थी ।  इंकार  भी  ना  कर   पाया ।  कपड़े  बिलकुल  वैसे  ही  थे  जैसे  मैं  पहनता   हूँ । आखिर  मै उन्हे  लिये  गुसलखाने  की  तरफ  बढ़  ही  गया । शायद  मेरी  अनुपस्थिति  में  विभा  ने  भी  चैन  की  सांस  ली  होगी ।


उसके  एक्सप्रेशन  देखने  के  लिये  तो  मैंनै   कितनी  ही  बार  अपना  तौलिया  तो  कभी  अपनी  टाई  तो  कभी  अपनी  जुराबे   जानबूझकर  छुपाई थी ... हां  कभी  कभी   अपने  शर्ट में  सिलवटे भी खुद  ही  डाल  दिया  करता था  । हां  जानता  हूँ  मुझ  जैसे  ऑयऑयटियन  को  बच्चो  जैसे  ये  हरकते   शोभा नहीं  देती  थी ....पर  करता  भी  क्या .. जिस पति  की पत्नी  विभा  जैसी हो  उन्हे  तो  अपनी  तरफ  उनका  रुख  करने  के  लिये  ऐसी  हरकते  तो  करनी  ही  पड़ती  है ।  वरना   ये  तो  कभी  मुझे  सवर्णो  के वर्ग मे आने  ही  ना  दे । यानी  मोहतरना  कभी    मुझ  जैसे   गोरे   चिट्टे   दबंग  डैशिंग  को  कायस्थ  की  श्रेणी  से  कभी  ऊपर  उठने  ही  ना  दे ... अरे  .. कहने  का  मतलब  है  मैडमजी  मुझ  पर  अपनी  नजरे  इनायत  ही  कहाँ  करती  थी  ।  तो  क्या  करता  बहाने  तो  ढूंढने  ही  पड़ते  है थे ना ... मेरी  एक   ही  तो  पत्नी  थी ... वैसे  ज्यादतरों  की  तो  एक  ही  होती  है ... पर  मैं  नव  विवाहित  होकर  थोड़ा  एडवांटेज  तो  ले  ही  सकता  था... और  मेरी हालत  ऐसी  ही थी   कि  मोहतरमा  पर  आसक्त  भी था  ... पर  पहले  दिन  से  जो  अपनी  दम्भी  गरिमा  बनायी  थी मुझे  उसे  बरकरार  भी  तो रखना था  .. तो  फिर  बहाने  ही  सही ..कौन  सा  मैडमजी  समझ  पाती  होगीं ..

मैं  पैर   पटक  पटक  कर  बड़बड़ाता  था तो  ये  मेरी  छुपाई  चींजों  को मिशन  मंगल  की  तरह  ढूंढती थी ।  और  इस  दौरान  मैं  अपने  तंज  भरे  जुमलों से  उसे  परेशान  करने  में  कोई  कसर नहीं  छोड़ता  था और  जब  वह   मेरी  चींजों  को  ढूंढकर  मेरे  सामने  रखती थी  ...उसका  वह  पसीने  से  तर  बतर  चेहरा ... चढ़ती  उतरती  फूलती  सांसे  और  डर  से  गुलाबी  हो  आया  मुखमण्डल  मुझे  इतना  प्यारा  लगता  है  कि उस  वक्त  दिल  चाहता था  कि उसे  कस  के  अपने  सीने  से  लगा  लूँ । और  उसके  गुलाबी  गालों  को  अपने  होठों  के  स्पर्श  से  और  भी  गहरा  शरबती  कर  दूँ  और  उसकी  नीची  झुकी  पलकों  को  अपने  पलकों  से  ऊपर  उठा  दू । जाने  कब  वो  दिन  आयेगा  ... और  जाने  तब   क्या  ही  आलम  होगा ... 

वाकई  ये  मेरे  जैसे  छह  फुटिया  आदमी  के किसी  तरह    गले  तक  पहुँचती  पाँचफुटिया   लड़की  जो  मेरे  वामांग  के  आधे  हिस्से  को  भी  ना   ढक  पाये  किस  कदर  मुझे अपने  नियंत्रण  में  लेती  जा  रही  थी ।और मेरा  आलम  यह  था  कि  मैं  तो  कभी  कभी  बिन   पिये   ही  नशे  में  झूम  जाता  था । पर  मजाल  है  जो  मै अपनी  इस  दिल  की  बदहाली  का  उसे   भनक  भी  लगने  दिया  हूँ ।


सच  पूछा  जाय  तो  मुझे  उसे  पैनिक  करना  बहुत  अच्छा  लगता था । बड़ी  सुकून  वाली   फीलिंग  आती  थी । बेड के   क्राउन  पर  सिर  टिकाये  गोद  में  लैपटॉप  लिये ,  अधलेटे  हुये  मौन आँखों  से  जब उसका  पीछा  करो  तो  वह  हंड्रेड  परसेंट   टेरर   और  डिप्रेशन   में आकर हिस्टेरिकल एक्टिविटी  करती  थी  । और  सच  में  ये  काफी  एन्जॉयबल होता  था ।  चेहरे  पर  गुस्से  की  गर्द  लपेटे  अंदर  से  दिल  खिखिला  उठता  था मेरा।


अभी बक़ाया है इक क़िस्त मुस्कुराहट की
अभी ग़मों का बराबर हिसाब कैसे हुआ..?

तुझ  संग  प्रीत  लगायी ....