Shivansh - 1 in Hindi Spiritual Stories by Rahul Rhythm books and stories PDF | शिवांश - भाग 1

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शिवांश - भाग 1

अध्याय 1 — राख की उत्पत्ति

हिमालय के पायों में लिपटा एक छोटा-सा गाँव था — *कैलापुरा*।
वहाँ हवा में घुला हर श्वास शिव के नाम से उठता था।
लोग सवेरे नदी से स्नान करके मंदिर की घंटियाँ बजाते,
भस्म लगाते, और “हर हर महादेव” की गूँज से पूरा घाट भर जाता।
लेकिन उस पवित्र ध्वनि के बीच एक घर था जो हमेशा मौन रहता।

उस घर में रहती थी *मृणालिनी* —
एक विधवा स्त्री, जिसके माथे की बिंदी सालों पहले लोप हो चुकी थी।
उसकी गोद खाली थी, और आँखें सूखी हुई झील की तरह ठहरी हुईं।
वो हर पूर्णिमा पर शिवलिंग के सामने दीप जलाकर एक ही प्रार्थना करती —

 “भोलेनाथ, मुझे एक पुत्र दो, जो तुम्हारा ही अंश हो।
 न वो किसी का हो, न किसी का बने — बस तुम्हारा रहे।”

लोग उसका मज़ाक उड़ाते —
“शिव से पुत्र माँगती है? ये तो तपस्या नहीं, पागलपन है।”
पर मृणालिनी ने कभी जवाब नहीं दिया।
उसका मौन ही उसकी प्रार्थना था।

एक अमावस की रात, जब बादल फट पड़े और बिजली आसमान चीर रही थी,
उसके आँगन में एक चमक उठी।
धरती काँपी, आकाश में ओम का नाद गूँजा,
और जब सब शांत हुआ —
मृणालिनी ने देखा कि उसके दरवाज़े पर राख की ढेरी के भीतर
एक बालक पड़ा है।

उसके शरीर पर राख लिपटी थी, पर आँखें दीपक-सी जल रही थीं।
वो काँपते हुए बोली —

 “कौन है तू?”

बालक मुस्कुराया —

 “माँ, मैं वही राख हूँ, जिसमें शिव खेलते हैं।”

उसने उसे गले से लगाया, और उसी क्षण से वह उसका सब कुछ बन गया।
नाम रखा गया — **राख**।

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अध्याय 2 — अपवित्र बालक**

राख बड़ा होने लगा।
पर उसके भीतर कुछ ऐसा था जो सामान्य नहीं था।
वो न खेलता, न दोस्तों से मिलता।
दिनभर वो नदी किनारे बैठकर मिट्टी में उँगलियाँ चलाता रहता,
और मिट्टी में “ॐ नमः शिवाय” उकेरता रहता।

गाँव के लोग डरने लगे।
कोई कहता — “ये पिशाच है।”
कोई कहता — “भूत का वंश है।”
क्योंकि जब वो हँसता, तो उसके चेहरे पर चिता की राख की गंध आती।

मंदिर के पुजारी *दत्ताचार्य* ने मृणालिनी से कहा —

 “इस बच्चे को मंदिर मत लाओ।
 ये अपवित्र है, ये भगवान का नहीं, किसी तांत्रिक का वरदान है।”

मृणालिनी के हृदय पर ये शब्द बाण की तरह लगे,
पर राख मुस्कुराया।
उसने कहा —

 “माँ, मंदिर क्या है?
 अगर भगवान सिर्फ मंदिर में हैं, तो श्मशान में कौन रहता है?”

दत्ताचार्य ने क्रोध में कहा —

 “श्मशान में तो मृत रहते हैं!”

राख ने धीरे से उत्तर दिया —

 “और मृत के साथ शिव भी तो रहते हैं।”

उस दिन के बाद राख मंदिर नहीं गया।
उसने गाँव छोड़ दिया और श्मशान घाट पर अपनी छोटी सी कुटिया बना ली।
दिन में वो शवों की चिता से राख इकट्ठा करता,
रात को उसे अपने शरीर पर मलता और कहता —

 “राख से आया हूँ, राख में मिलूँगा, बीच का सफ़र सिर्फ महादेव का है।”

अध्याय 3 — श्मशान का देव**

बरस बीतते गए।
राख अब एक जवान साधक बन चुका था।
उसकी आँखों में तप की ज्वाला थी, और उसके स्वर में नाद।
कभी वो रातभर “रुद्राष्टकम” गाता,
कभी घंटों तक निःशब्द बैठा रहता — जैसे समय थम गया हो।

लोग उसे ‘श्मशानवासी’ कहने लगे।
गाँववाले जब भयभीत होते, तो उसके पास आते।
वो उन्हें एक मुट्ठी भस्म देता और कहता —

 “भय वही है जो तुमने भगवान से अलग कर दिया है।”

धीरे-धीरे, उसके चमत्कार फैलने लगे।
किसी की बीमार माँ भस्म लगाते ही ठीक हो जाती,
किसी के घर में शांति लौट आती।
लोग अब डरने के बजाय उसकी पूजा करने लगे।

पर राख को इससे कोई आनंद नहीं था।
वो कहता —

 “मुझे चमत्कार नहीं चाहिए।
   मुझे वो क्षण चाहिए जब शिव मेरे भीतर श्वास बन जाएँ।”

अध्याय 4 — भक्ति की परीक्षा**

एक रात गाँव में भयानक सूखा पड़ा।
आकाश से बादल गायब, धरती फटी हुई।
लोग भूख से मरने लगे।
गाँव के मुखिया ने राख से कहा —

 “तू तो शिव का भक्त है, बारिश मंगा न।”

राख ने शांति से कहा —

 “भक्ति सौदे की भाषा नहीं बोलती।”

लेकिन जब उसने देखा कि बच्चे तड़प रहे हैं,
वो श्मशान की ओर चला गया और शिवलिंग के सामने बैठ गया।

वचन लिया —

 “जब तक एक बूँद वर्षा न गिरे, मैं श्वास नहीं लूँगा।”

तीन दिन, चार दिन, पाँच दिन —
राख स्थिर बैठा रहा।
उसका शरीर सूखने लगा, होंठ फट गए, आँखें अंदर धँस गईं।
पर वो अडिग रहा।

छठे दिन आकाश गड़गड़ाया।
पहली बूँद धरती पर गिरी — और उसी क्षण राख ने मुस्कुराया।
पर जब लोग भागे-भागे पहुँचे,
तो वो निष्प्राण पड़ा था।

उसकी देह शांत थी, पर चेहरा चमक रहा था।
और मंदिर का शिवलिंग — वह दो टुकड़ों में बँट चुका था।
लोगों ने देखा — राख की देह से हल्की लौ उठी,
जो जाकर शिवलिंग के भीतर समा गई।

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अध्याय 5 — देवदर्शन 

रात को दत्ताचार्य को स्वप्न आया।
स्वप्न में महादेव प्रकट हुए —
जटाजूट, गले में सर्प, और नेत्रों में करुणा की अग्नि।
उन्होंने कहा —

 “जिसे तुमने अपवित्र कहा,
  वही मेरा सर्वाधिक पवित्र अंश था।
  तुमने मुझे मंदिर में बाँध दिया,
  और उसने मुझे अपने भीतर खोज लिया।”

सुबह जब पुजारी ने मंदिर का द्वार खोला,
तो देखा कि शिवलिंग पर हल्की राख की परत जमी थी —
और उसके नीचे लिखा था:

 **"मैं राख था, पर शिव ने मुझे जलाया नहीं — अपनाया।"**

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अध्याय 6 — भक्ति का रहस्य

वर्षों बाद कैलापुरा एक तीर्थ बन गया।
लोग कहते हैं, हर महाशिवरात्रि पर
श्मशान से हल्की धुंध उठती है,
और अगर कोई वहाँ “ॐ नमः शिवाय” बोले,
तो हवा में किसी की आवाज़ आती है —

 “शिव पाने के लिए मंदिर नहीं,
  आत्मा चाहिए।”

लोगों ने राख की स्मृति में एक मंदिर बनाया।
पर उस मंदिर में कोई मूर्ति नहीं थी,
सिर्फ एक गोल पत्थर — जिस पर भस्म की परत थी।

गाँव का बच्चा जब भी वहाँ जाता,
उसे ऐसा लगता जैसे कोई उसके सिर पर हाथ रख रहा हो।
कोई कहता — “ये राख की आत्मा है।”
पर सच्चे भक्त जानते थे —
वो *राख नहीं*, स्वयं *महादेव* थे।

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अध्याय 7 — माँ का विरह

मृणालिनी वृद्ध हो चुकी थी।
हर रोज़ वो मंदिर जाती, और पत्थर को निहारती।
कभी-कभी वो कहती —

 “राख, तू गया नहीं, बस बदल गया।”

एक दिन वो उसी पत्थर के पास बैठी थी।
संध्या का समय था, दीपक की लौ काँप रही थी।
उसने धीरे से कहा —

 “मुझे भी अपने पास बुला ले, भोले।”

धीरे-धीरे उसका शरीर झुक गया,
और जब सुबह लोग पहुँचे,
वो उसी पत्थर के पास मृत पड़ी थी —
पर उसके होंठों पर मुस्कान थी।

मंदिर की दीवार पर लिखा गया —

 “माँ और पुत्र अब भक्ति के दो छोर नहीं,
  एक ही ज्योति के दो आयाम हैं।”

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अध्याय 8 — हजार साल बाद

सदियाँ बीत गईं।
कैलापुरा अब पहाड़ों में खो गया।
पर हर युग में एक ऐसा साधक जन्म लेता,
जो भस्म से प्रेम करता है,
जो मौन में शिव को सुनता है।

कहते हैं वो *राख का अंश* होता है।
उसकी आँखों में वही चमक, वही विरक्ति, वही प्रेम —
और जब वो बोलता है,
तो हवा में वही वाक्य तैरता है:

 “मैं राख नहीं, शिव का अधूरा अंश हूँ।”

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**अंतिम संदेश:**

 भक्ति सिर्फ सिर झुकाना नहीं,
 अपने “अहंकार” को राख बना देना है।
 जब तू राख बन जाएगा,
 शिव तुझमें समा जाएँगे।

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