Dil ka Kirayedar - Part 5 in Hindi Love Stories by Sagar Joshi books and stories PDF | Dil ka Kirayedar - Part 5

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Dil ka Kirayedar - Part 5

कुछ हादसे शरीर तोड़ते हैं, पर असल में वो आत्मा को चीर जाते हैं।”)

सुबह का वक्त था।
स्कूल की घंटी बज चुकी थी,
पर आर्यन की बेंच आज खाली थी।

विवेक ने सोचा, शायद बीमार होगा।
लेकिन जब लगातार तीन दिन बीत गए,
और आर्यन स्कूल नहीं आया,
तो उसे बेचैनी होने लगी।

वो बच्चा कभी बिन बताए छुट्टी नहीं करता था।
और अब — कोई खबर नहीं।

चौथे दिन, छुट्टी के बाद,
विवेक सीधा उनके घर चला गया।
वो वही पुराना रास्ता था, वही मोड़, वही घर —
बस दरवाज़ा बंद था।

पास के पड़ोसी ने दरवाज़े से झाँककर कहा,
“अरे सर… आप आरतीजी को ढूंढ रहे हैं?”

विवेक ने सिर हिलाया — “हाँ, वो और आर्यन नहीं दिखे कई दिन से।”

पड़ोसी की आँखें झुक गईं।
“कल रात टीवी पर खबर चली थी…
बाजार से लौटते वक्त एक्सीडेंट हो गया उनका।”

विवेक का चेहरा सफेद पड़ गया।
“क्या?”

“हाँ… दोनों ICU में हैं। हालत गंभीर है।”

बस इतना सुनना था।
वो बिना कुछ कहे निकल पड़ा —
सीधे अस्पताल की तरफ।


अस्पताल का गेट, भीड़, एम्बुलेंस की आवाज़ें —
सब कुछ धुंधला लग रहा था।
उसने रिसेप्शन पर नाम लिया — “आरती वर्मा।”

नर्स ने रजिस्टर देखा, फिर बोली —
“ICU — तीसरी मंज़िल, कमरा 7।”

विवेक दौड़ पड़ा।
सीढ़ियाँ, गलियारे, सब जैसे किसी धुंध के भीतर से गुजर रहे हों।
जब उसने ICU के शीशे से झाँका —
तो वो ठिठक गया।

आरती वहाँ थी।
ऑक्सीजन मास्क लगा था, माथे पर पट्टी,
और चेहरा — इतना शांत, जैसे दर्द भी हार मान गया हो।

बगल में उसका पति था,
वो भी अधमरी हालत में,
डॉक्टर मशीनों के बीच भाग-दौड़ कर रहे थे।

विवेक ने शीशे पर हाथ रखा —
“आरती…”
बस इतना ही बोला,
और उसकी आवाज़ वहीं घुट गई।


डॉक्टर बाहर आया,
“आप रिश्तेदार हैं?”

विवेक चुप रहा।
फिर बोला, “दोनों कैसे हैं?”

“क्रिटिकल हैं। किसी एक को भी होश नहीं आया।
अगले 24 घंटे बहुत अहम हैं।”

विवेक ने गहरी साँस ली।
उसने पास की कुर्सी पर जाकर बैठ गया।
उसकी आँखें बंद थीं,
पर दिमाग़ में बस एक ही तस्वीर घूम रही थी —
वो खत जो उसने लिखा था…
वो जवाब जो उसे मिला था…
और अब वही इंसान,
जिंदगी और मौत के बीच लटक रही थी।


रात हो गई।
अस्पताल की लाइट्स धीमी थीं।
कभी मशीन की बीप सुनाई देती,
कभी बाहर से नर्सों की भागदौड़।

विवेक ICU के बाहर बैठा था,
हाथों में वही पुराना खत।
कितनी बार पढ़ चुका था वो —
पर आज हर शब्द उसे चुभ रहा था।

> “अगर कभी दिल में खाली जगह बचे…”

अब वो जगह सिर्फ़ खाली नहीं थी —
वो टूट चुकी थी।



उसने सिर दीवार से टिकाया,
और आँखों से आँसू बहने दिए।
वो नहीं जानता था कि सुबह क्या लाएगी —
ज़िंदगी, या सिर्फ़ एक और याद।


सुबह चार बजे डॉक्टर बाहर आया।
विवेक झटके से उठा —
“कैसी है?”

डॉक्टर ने कुछ पल चुप रहकर कहा,
“हम कोशिश कर रहे हैं…
वो रिस्पॉन्ड कर रही है, बहुत धीमी साँसे हैं।”

विवेक ने सिर झुकाया,
और वहीं ज़मीन पर बैठ गया।
आँखें बंद करके बस इतना कहा —
“तुम लौट आओ आरती…
एक बार, बस एक बार।”




सुबह की पहली किरण ICU के शीशे से भीतर घुस रही थी।
मशीन की बीप पहले जैसी ही थी — धीमी, टूटी हुई।
विवेक अब भी बाहर उसी कुर्सी पर बैठा था।
आँखें लाल, चेहरा थका हुआ, लेकिन उम्मीद ज़िंदा थी।

वो रात उसने वहीं गुज़ारी थी।
कभी डॉक्टर से पूछा, कभी खुद से बात की।
“बस जाग जाओ, आरती…
इतना तो हक़ है न मेरा, एक बार तुम्हारी आँखें देखने का।”


---

सुबह आठ बजे के करीब,
ICU के भीतर की नर्स ने अचानक डॉक्टर को बुलाया —
“सर, पेशेंट की उँगलियाँ हल्की मूवमेंट दिखा रही हैं।”

डॉक्टर भागकर अंदर पहुँचा।
विवेक खड़ा हो गया।
दिल की धड़कन जैसे कानों में बजने लगी।
उसने शीशे से देखा —
आरती का हाथ धीरे-धीरे हिल रहा था।

मॉनिटर पर हल्की बीप बढ़ गई।
डॉक्टर ने कहा —
“She’s responding.”

विवेक के होंठों से एक धीमी आवाज़ निकली,
“भगवान…”
और उसकी आँखों में पहली बार आँसू नहीं —
एक हल्की सी मुस्कान आई।




थोड़ी देर बाद डॉक्टर बाहर आया,
“हमें उम्मीद है। वो होश में आने की कोशिश कर रही है।
लेकिन कोई झटका नहीं देना, उसे शांति चाहिए।”

विवेक ने बस सिर हिलाया।
वो शीशे के सामने जाकर खड़ा रहा।
घंटों तक वहीं।

फिर दोपहर में —
वो पल आया।

आरती की पलके काँपीं।
धीरे-धीरे खुलीं।
आँखें धुंधली थीं।
कुछ सेकंड के लिए वो समझ नहीं पाई कि कहाँ है।
फिर नज़र घूमी —
और शीशे के उस पार,
वो चेहरा दिखा —
विवेक का।

वो वहीं खड़ा था,
एकदम चुप,
बस आँखों में वो सब था
जो कभी कहा नहीं गया।

आरती की आँखों से आँसू निकल आए।
वो बोलना चाहती थी —
पर मुँह पर मास्क था।
सिर्फ़ होंठ हिले —
“विवेक…”

वो आवाज़ नहीं सुन सका,
पर समझ गया।
उसने सिर झुका लिया,
हाथ शीशे पर रखा —
वो भी वही करती है।
बीच में सिर्फ़ एक शीशा,
पर एहसास एकदम सीधा — दिल तक।

कुछ मिनट बीते।
विवेक वहीं खड़ा रहा,
और आरती उसे देखती रही।
दोनों की आँखों में एक लंबी बातचीत चल रही थी —
जो किसी शब्द की मोहताज नहीं थी।

डॉक्टर धीरे से आया,
“अब उन्हें आराम करने दीजिए।”

विवेक पीछे हटा,
पर जाते-जाते एक नज़र और डाली।
वो मुस्कुरा रही थी —
थोड़ी कमज़ोर, लेकिन सच्ची।



उस रात पहली बार
विवेक ने आसमान की ओर देखा और कहा —
“धन्यवाद।”
वो जानता था —
वो जो अब तक खो गया था,
वो आज लौट आया है — साँस बनकर।


सुबह के करीब ग्यारह बजे थे।
अस्पताल के गलियारे में भागते डॉक्टर, बीप करती मशीनें, और थकी नर्सें —
वो माहौल जिसमें आवाज़ें बहुत होती हैं,
पर फिर भी हर कोई खामोश होता है।

ICU के दरवाज़े के सामने विवेक खड़ा था,
पलकें सूखी, पर दिल में तूफ़ान।

अचानक, दरवाज़ा खुला —
डॉक्टर बाहर आया।
विवेक झटके से उठ खड़ा हुआ।

“डॉक्टर… आरती कैसी है?”

डॉक्टर ने मास्क हटाया, गहरी साँस ली,
“वो अब खतरे से बाहर हैं।
होश में नहीं आईं अभी, लेकिन उनकी साँसें स्थिर हैं।”

विवेक की आँखों में थोड़ी राहत आई,
पर डॉक्टर की निगाहें झुक गईं।
वो धीमे से बोला —
“लेकिन…”

विवेक का गला सूख गया,
“लेकिन क्या?”

डॉक्टर ने कहा,
“हम उनके पति को नहीं बचा पाए।”


---

वो एक वाक्य…
बस वही एक वाक्य,
जैसे किसी ने वक्त को रोक दिया हो।

विवेक की साँस अटक गई।
कुछ सेकंड तक वो कुछ समझ ही नहीं पाया।
धीरे से पीछे दीवार से टिक गया।
हाथ काँप रहे थे, आँखें कहीं खो गई थीं।

डॉक्टर ने कहा,
“हमें खेद है… बहुत कोशिश की।
लेकिन अंदरुनी चोटें बहुत गहरी थीं।”

विवेक ने सिर झुका लिया।
कुछ नहीं बोला।
बस सामने फर्श को देखता रहा।


---

उसके कानों में अब कोई आवाज़ नहीं थी —
न मशीनों की, न लोगों की।
बस एक अजीब सी गूँज थी,
जो दिल के अंदर चल रही थी।

उसने सोचा —
वो बच गई है… पर क्या सच में बची है?

क्योंकि उसे पता था,
जिस औरत ने ज़िंदगी भर सब सहा,
वो अब फिर एक बार टूटी है —
इस बार पूरी तरह से।


---

शाम तक आरती को जनरल वार्ड में शिफ्ट कर दिया गया।
वो अब भी बेहोश थी।
चेहरे पर पट्टियाँ, हाथ पर ड्रिप,
और कमरे में हल्की दवाईयों की गंध।

विवेक खिड़की के पास बैठा था,
एक शब्द भी नहीं बोला।
बस उसकी साँसों की आवाज़ सुनता रहा —
हर साँस में उसे यकीन होता कि वो अब भी यहाँ है।

कभी-कभी वो उसके हाथ को देखता,
कभी उसके माथे पर बंधी पट्टी को।
और सोचता —
“किसी की जान चली गई,
किसी की ज़िंदगी वहीं अटक गई।”


---

रात गहराने लगी।
अस्पताल की लाइटें धीमी हो गईं।
डॉक्टरों की आवाज़ें अब दूर से आती थीं।

विवेक ने धीरे से अपने बैग से एक छोटा कागज़ निकाला —
वो उनके बीच का आखिरी खत था।
उसने उसे देखा,
और धीरे से कहा —
“अब ये कहानी फिर वहीं लौट आई है जहाँ से शुरू हुई थी,
बस इस बार दर्द ज़रा ज़्यादा है।”

उसने खत आरती के सिरहाने रख दिया,
धीरे से खड़ा हुआ,
और बाहर चला गया।


सुबह की हल्की धूप खिड़की के शीशे से भीतर आ रही थी।
दवा की गंध, मशीनों की बीप, और सफेद दीवारों के बीच — आरती ने धीरे-धीरे आँखें खोलीं।
थोड़ी देर तक उसे समझ नहीं आया कि वो कहाँ है, किस हाल में है।

नर्स ने झुककर कहा, “आपको होश आ गया… बहुत अच्छा।”
लेकिन आरती के पहले ही सवाल ने कमरे को फिर से भारी कर दिया —
“वो… मेरे पति कहाँ हैं?”

कुछ पल की चुप्पी।
नर्स ने नज़र झुका ली।
धीरे से बोली, “आप आराम कीजिए… डॉक्टर आते हैं।”
पर आरती सब समझ चुकी थी।
दिल ने पहले ही जवाब दे दिया था — वही जवाब जो ज़ुबान सुनने से डर रही थी।

उसकी आँखों से आँसू नहीं निकले,
बस चेहरे पर एक थकान उतर आई —
जैसे शरीर अब भी जिंदा हो,
पर भीतर की ज़िंदगी कहीं चुपचाप मर गई हो।


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अगले कुछ दिन धुंधले से बीते।
दवाएँ, इलाज, खामोशी — सब कुछ एक जैसा।
कभी-कभी नर्स उसे खिड़की के पास बैठा देती,
वो बाहर झाँकती और देखती —
लोग अपने अपने कामों में व्यस्त हैं,
जैसे किसी को भी किसी का ग़म महसूस करने की फुर्सत नहीं।

जब डॉक्टर ने कहा, “आप अब घर जा सकती हैं,”
तो उसे लगा जैसे उसे आज़ादी नहीं, सज़ा मिली हो।


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घर पहुँची तो दरवाज़ा खोलते ही एक अजीब सन्नाटा था।
वो घर, जहाँ कभी हँसी की हल्की गूंज होती थी,
अब हर चीज़ जैसे मौन खड़ी थी —
दीवारें, कुर्सियाँ, यहाँ तक कि हवा तक।

सामने वही चौकी, जहाँ कभी वो और उसके पति साथ बैठकर चाय पीते थे,
अब वहाँ बस खाली कप रखे थे,
जिन्हें किसी ने छुआ तक नहीं।

वो अंदर गई, धीरे से अपने साड़ी का आँचल ठीक किया,
और देखा —
उसके पति की घड़ी अब भी टेबल पर रखी थी,
सुइयाँ वहीं रुकी थीं जहाँ वक्त ने रुकना चुना था।


---

उसका भाई अब उसके साथ था।
उसे भी शायद समझ नहीं आता था कि कैसे बात करे,
क्या कहे।
बस चुपचाप उसका साथ देता,
कभी खाना रख देता, कभी पानी दे देता।

आरती अब अक्सर खिड़की के पास बैठी रहती।
बाहर लोग गुज़रते, बच्चे खेलते,
और वो सोचती —
कभी मैं भी किसी के साथ इस भीड़ में थी,
अब बस देख रही हूँ, जैसे सब कुछ किसी और की ज़िंदगी हो।


---

रात को जब सब सो जाते,
वो चुपचाप अपने कमरे की अलमारी खोलती,
और पुराने खत निकालती —
वही, जो कभी विवेक ने लिखे थे।
उनमें स्याही थोड़ी फीकी पड़ चुकी थी,
पर हर शब्द आज भी उतना ही ज़िंदा था।

कभी वो एक खत को हाथ में लेकर देर तक देखती रहती,
फिर धीरे से खुद से कहती —
“शायद ज़िंदगी मुझसे किसी वादे का बदला ले रही है।”


---

दिन गुज़रने लगे,
पर वक्त अब भी उसके लिए रुका हुआ था।
लोग कहते — “समय सब ठीक कर देता है।”
पर आरती जानती थी,
समय बस आदत दिला देता है, ठीक नहीं करता।

दिन धीरे-धीरे फिर से पुराने ढर्रे पर लौटने लगे थे —
कम से कम बाहर से तो ऐसा ही लगता था।
अंदर, दोनों के भीतर कुछ अब भी अधूरा था।

आर्यन ने फिर से स्कूल आना शुरू किया।
वो पहले जैसा चुप नहीं था, लेकिन उसकी आँखों में वो चमक अब भी गायब थी।
विवेक हर दिन उसे देखता —
कभी-कभी मुस्कराने की कोशिश करता,
पर वो मुस्कान आधी ही रह जाती।

शाम को जब स्कूल खाली हो जाता,
वो अकेले क्लासरूम में बैठता,
कागज़ पर कुछ लिखता, फिर फाड़ देता।
कई दिनों तक खुद से लड़ने के बाद
आखिर उसने फिर से हिम्मत जुटाई —
आरती को एक और ख़त लिखा।


---

"आरती,
मुझे नहीं पता तुम्हें ये पढ़ने की फुर्सत या हिम्मत होगी या नहीं,
पर मैं बस ये कहना चाहता हूँ कि कुछ रिश्ते शायद किस्मत के लिए अधूरे ही लिखे जाते हैं।
मैं तुम्हारे लिए अब भी वही सम्मान रखता हूँ जो तब था… बस अब शब्दों में नहीं, चुप्पी में।"

उसने ख़त मोड़ा, लिफ़ाफे में रखा,
और आर्यन के हाथ दे दिया —
“बेटा, ये अपनी माँ को दे देना।”

आर्यन ने बस सिर हिलाया।
पर उस ख़त का कोई जवाब कभी नहीं आया।


---

दिन हफ्तों में बदले।
हर बार विवेक  बैग में नज़र डालता,
हर बार उम्मीद करता — शायद आज कोई जवाब होगा।
पर लिफ़ाफे खाली रहे,
और उसकी उंगलियाँ सिर्फ हवा में पुरानी यादें पकड़ती रहीं।

फिर एक दिन उसने खुद से कहा —
“शायद अब बात कहने की नहीं,
समझने की उम्र आ गई है।”


---

एक शाम वो चल पड़ा —
आरती के घर की ओर।
दिल में सैकड़ों सवाल,
और एक डर — कहीं ये आखिरी बार न हो।

दरवाज़े पर पहुंचा तो देखा —
आर्यन आँगन में खेल रहा था,
आरती भीतर थी, दीया जलाते हुए।
वो अंदर गई, फिर जैसे जड़ हो गई।

विवेक दरवाज़े पर खड़ा था।
आँखों में वही अपनापन, वही खोया हुआ सुकून।
आरती ने देखा,
पर आवाज़ नहीं निकली।

उसके हाथ काँपे,
दिल जैसे कुछ कहने की कोशिश कर रहा था,
पर शब्द गले में ही अटक गए।

दोनों बस देख रहे थे —
एक-दूसरे को,
अपनी पुरानी ज़िंदगियों को,
अपने गुज़रे वक्त को।

कितनी बातें थीं जो कहनी थीं —
“क्यों नहीं लिखा तुमने?”
“क्यों नहीं लौटे पहले?”
“क्या अब भी वही महसूस करते हो?”

पर किसी ने कुछ नहीं कहा।

विवेक ने बस हल्का सा सिर झुकाया,
धीरे से कहा — “मुझे बस देखना था…”
और मुड़ गया।

आरती दरवाज़े पर खड़ी रह गई,
जब तक उसकी परछाई गली के मोड़ से गायब नहीं हो गई।


---

उसके बाद ना कोई ख़त आया,
ना कोई जवाब गया।
बस ज़िंदगी चलती रही —
दो अजनबियों की तरह,
जो एक-दूसरे के दिल में अब भी रहते हैं,
पर ज़ुबान पर कभी नहीं आते।




बरसात का मौसम था।
आसमान में बादल तैर रहे थे — जैसे वक़्त ने खुद को धुंध में लपेट लिया हो।
स्कूल के बच्चों की भीड़ छँट चुकी थी।
विवेक क्लासरूम में अकेला बैठा था,
ब्लैकबोर्ड पर कुछ अधूरी लाइनों के बीच उसकी नज़र कहीं दूर खोई हुई थी।

तभी आर्यन अंदर आया —
कंधे पर वही पुराना नीला बैग, जो अब थोड़ा फट चुका था।
वो थोड़ा हिचकिचाया, फिर बोला,
“सर, मेरा बैग आप रख लीजिए, मुझे नया मिला है।”

विवेक ने मुस्कराकर कहा,
“ठीक है, लेकिन इसमें तो तुम्हारी कॉपी-पेंसिल है ना?”

आर्यन ने सिर हिलाया,
“नहीं सर, सब निकाल लिया। बस एक काग़ज़ रह गया था… पता नहीं किसका है।”

उसने बैग वहीं टेबल पर रख दिया और चला गया।
दरवाज़े के बाहर बारिश की बूँदें तेज़ हो चुकी थीं।
विवेक ने बैग उठाया, खोला —
अंदर एक मुड़ा हुआ लिफ़ाफ़ा रखा था।

लिफ़ाफ़े पर स्याही के फीके अक्षर —
“विवेक के नाम।”

उसका दिल थम-सा गया।
हाथ काँप रहे थे।
वो धीरे-धीरे कुर्सी पर बैठा,
लिफ़ाफ़ा खोला —
भीतर आरती की लिखावट थी।


---

आरती का ख़त

"विवेक,
शायद ये ख़त तुम्हें कभी न मिले — या शायद बहुत देर से मिले।
लेकिन ज़िंदगी की कुछ बातें देर से समझ आती हैं।
मैंने सोचा था कि जो बीत गया, वो अब मेरे लिए मर गया है…
पर हर बार जब आर्यन तुम्हारे बारे में बात करता था,
मुझे लगता था — कुछ अब भी ज़िंदा है।

शायद वो एहसास,
शायद वो अधूरापन,
या शायद वो सुकून जो सिर्फ़ तुम्हारे आस-पास मिलता था।

मैंने बहुत वक्त तक खुद को समझाया कि हमें अब बात नहीं करनी चाहिए,
कि ज़िंदगी ने जो रास्ते बाँटे हैं, उन्हें वैसे ही रहने देना चाहिए…
पर अब थक गई हूँ, विवेक।
अब और नहीं निभाना चाहती वो फ़र्ज़ जो दिल के ख़िलाफ़ हो।

अगर कभी तुम्हारे दिल में अब भी थोड़ी सी जगह बाकी हो —
तो एक बार मिल लेना।
क्योंकि इस बार मैं किसी ‘समाज’ से नहीं,
सिर्फ़ अपने दिल से जवाब दूँगी।

– आरती"


---

ख़त पढ़ते हुए विवेक की आँखें धुँधली हो गईं।
बारिश अब तेज़ थी, लेकिन उसे कुछ सुनाई नहीं दे रहा था।
हर शब्द जैसे भीतर तक उतरता चला गया।
वो उठा, बैग को सीने से लगाया,
और सीधा बाहर निकल पड़ा —
बिना छतरी, बिना सोचे,
बस भीगता हुआ उसी रास्ते पर, जो कभी आरती के घर तक जाता था।


---

वो घर अब थोड़ा बदला हुआ था।
दीवारें नई थीं, दरवाज़े पर दूसरी नेमप्लेट,
पर वही पीपल का पेड़ बाहर खड़ा था —
जैसे हर वक्त सब कुछ देखता रहा हो।

दरवाज़े पर दस्तक दी।
अंदर से आवाज़ आई —
“कौन है?”

वो आवाज़ सुनते ही दिल रुक-सा गया।
वही नर्मी, वही ठहराव।

दरवाज़ा खुला।
आरती सामने थी।
सादी सूती साड़ी, बाल हल्के खुले हुए,
चेहरे पर वक्त की लकीरें, पर आँखों में वही रोशनी।

वो कुछ पल उसे देखती रही।
फिर धीरे से बोली,
“मिला ख़त?”

विवेक ने बस सिर हिलाया।
“मिला।”

दोनों के बीच कुछ सेकंड की चुप्पी थी —
लेकिन उस चुप्पी में हज़ार बातें थीं।

आर्यन अंदर से आया

आर्यन ने मासूमियत से पूछा,
“आप हमारे साथ चलेंगे?”

दोनों वक़्त भर के लिए कुछ नहीं बोले।
फिर आरती ने विवेक की ओर देखा,
और बस इतना कहा,
“चलो… कहीं दूर।
जहाँ कोई हमें पहचानता न हो।
जहाँ फिर से जीने की जगह हो।”




अगली सुबह।
तीनों स्टेशन पर थे।
छोटी-सी ट्रॉली, कुछ कपड़े, कुछ किताबें।
ट्रेन की सीटी बजी।
आरती ने एक आख़िरी बार उस शहर की तरफ देखा,
जहाँ उसने सब खोया था — और अब सब छोड़ रही थी।

विवेक ने उसका हाथ थाम लिया —
बिना किसी डर, बिना किसी झिझक के।
आर्यन खिड़की से बाहर झाँकते हुए बोला,
“माँ, देखो… सूरज निकल आया।”

आरती मुस्कराई।
“हाँ बेटा, बहुत देर से ही सही… लेकिन निकल आया।”


---

ट्रेन धीरे-धीरे आगे बढ़ी।
स्टेशन पीछे छूट गया,
लोग छोटे होते गए,
और उनके पीछे की सारी अधूरी बातें भी।

कहीं दूर, समंदर के किनारे —
एक छोटी-सी झोपड़ी थी।
तीनों वहीं पहुँच गए।
हवा में नमकीन खुशबू थी,
लहरों की आवाज़ में सुकून।

आरती ने बालों को हवा से बचाते हुए कहा,
“यहीं रहेंगे?”

विवेक ने मुस्कराकर कहा,
“हाँ… अब यहीं से शुरू करेंगे।”

आर्यन भागकर लहरों की तरफ गया,
चिल्लाया —
“देखो माँ, लहरें बार-बार लौटती हैं!”

आरती ने पीछे से कहा,
“हाँ बेटा, क्योंकि कुछ चीज़ें लौटकर ही पूरी होती हैं।”


---

लहरें उनके पैरों को छू रही थीं,
सूरज धीरे-धीरे डूब रहा था,
और आसमान पर बस एक ही रंग था —
सुकून का।

कहानी वहीं खत्म होती है,
जहाँ दोनों की ज़िंदगियाँ फिर से शुरू होती हैं।


                           THE END