Dil ka Kirayedar - Part 2 in Hindi Love Stories by Sagar Joshi books and stories PDF | Dil ka Kirayedar - Part 2

Featured Books
Categories
Share

Dil ka Kirayedar - Part 2



धीरे-धीरे ज़िंदगी में एक नई लय आने लगी थी।
विवेक अब हर शाम नीचे आता, और अमित को पढ़ाने बैठता। आरती रसोई में होती, लेकिन कान हमेशा उस कमरे की ओर लगे रहते। जब विवेक किसी बात पर अमित से कहता —
“डर लग रहा है? तो वही सवाल दो बार करो, डर खुद भाग जाएगा,”
तो आरती के होंठों पर अनजाने में मुस्कान आ जाती। उसे ये सुनकर लगता, जैसे ये बात सिर्फ पढ़ाई के लिए नहीं, उसके पूरे जीवन के लिए कही गई हो।

बारिश के मौसम की एक शाम थी। बिजली चली गई थी, हवा में मिट्टी की खुशबू थी। आरती ने दीपक जलाया और कमरे के एक कोने में जाकर बैठ गई। विवेक ने किताब खोली, लेकिन उसकी नज़र हर थोड़ी देर में आरती की तरफ चली जाती।
वो चुपचाप सुन रही थी, पर उसकी आँखों में कुछ था — जैसे वो सवालों से ज़्यादा जवाब खोज रही हो।

विवेक ने अचानक कहा, “तुम भी पढ़ती थीं कभी?”
आरती चौंकी, “कैसे पता?”
वो मुस्कुराया, “तुम्हारे सुनने का तरीका बता रहा है। जैसे किसी ने अपना अधूरा सपना अब भी दिल के किसी कोने में संभालकर रखा हो।”

आरती थोड़ी देर चुप रही। फिर बोली, “बारहवीं तक पढ़ी थी। पापा नहीं रहे तो सब छोड़ना पड़ा। अब बस जिम्मेदारी बची है।”
विवेक ने सिर झुका लिया। “कभी-कभी जिम्मेदारी भी पढ़ाई जैसी होती है,” उसने कहा, “जितनी निभाओ, उतनी सिखाती जाती है।”

उसने देखा, आरती की आँखों में हल्का सा पानी तैर आया था, लेकिन उसने मुस्कुरा कर कहा, “तुम भी बातें बहुत सिखाने वाली करते हो।”

वक़्त गुजरने लगा। आरती अब सिर्फ सुनती नहीं थी, सवाल पूछने लगी थी।
कभी अमित का नोटबुक उसके हाथ से छूट जाता तो दोनों साथ में उठाने झुकते, और एक पल के लिए हाथ छू जाते।
आरती तुरंत पीछे हटती, जैसे कुछ गलती हो गई हो।
विवेक कुछ नहीं कहता, बस मुस्कुरा देता — वही मुस्कान जो ज़्यादा कुछ कह देती थी, और ज़्यादा देर टिकती भी नहीं थी।

एक दिन आरती ने पूछा, “तुम्हें अपने घर की याद नहीं आती?”
विवेक ने किताब बंद कर दी। “घर?” उसने कहा, “घर तो हर जगह मिल जाता है… बस कोई ऐसा हो जो उसमें सुकून दे।”
आरती कुछ नहीं बोली, लेकिन उसकी आँखों में एक अनजाना सुकून उतर गया।

अब आरती में कुछ बदलने लगा था। वो सुबह जल्दी उठकर घर का काम करने के बाद अमित के साथ बैठ जाती। कभी खुद से सवाल हल करने लगती, कभी नोट्स बनाती।
विवेक ने एक दिन नोटबुक में लिखा — “आरती, solve this.”
आरती ने पूरा हल किया, थोड़ी गलती हुई, लेकिन कोशिश पूरी थी।
जब विवेक ने देखा, तो बस इतना कहा, “तुम्हारे जवाबों में सच्चाई है। यही सबसे बड़ी समझ है।”

उस रात आरती देर तक छत पर बैठी रही। हवा में ठंडक थी, लेकिन उसे भीतर से गर्मी सी महसूस हो रही थी। उसे पहली बार लगा कि शायद ज़िंदगी अब सिर्फ जिम्मेदारी नहीं, कोई नई शुरुआत भी बन सकती है।

एक शाम अमित खेलते-खेलते बाहर चला गया। विवेक नीचे आया और बोला,
“आज क्लास नहीं, बस चाय पिएंगे।”
आरती ने मुस्कुराकर कहा, “दूध नहीं है, सिर्फ काली चाय बनेगी।”
विवेक हँसा, “अच्छा है, मीठे शब्द तो वैसे भी तुमसे ज़्यादा आते हैं।”
आरती झेंप गई, पर उसकी आँखों में एक चमक थी जो उसने छिपाने की कोशिश भी नहीं की।

उसके बाद शामें बदलने लगीं।
वो अब विवेक से हिचक के बजाय सुकून महसूस करने लगी थी। उसकी बातें, उसका अंदाज़ — सब उसे समझ में आने लगा था। कभी-कभी जब विवेक बोलते-बोलते किसी गहरी बात पर रुकता, तो आरती खुद आगे बढ़कर उसे पूरा कर देती।
उनके बीच कोई “तुम” या “मैं” नहीं रह गया था — बस एक हल्का-सा रिश्ता, जो बिना नाम के भी बहुत सच्चा था।

एक रात जब अमित सो चुका था, आरती ने धीमी आवाज़ में कहा,
“कभी-कभी लगता है, मैं फिर से जीना सीख रही हूँ।”
विवेक ने उसकी तरफ देखा, उसकी आवाज़ और भी धीमी थी,
“और मुझे लगता है, मैं पहली बार किसी को समझ रहा हूँ।”

आरती ने कुछ नहीं कहा, लेकिन उसके चेहरे पर वही मुस्कान थी — जो ज़रा-सी शर्मीली थी, ज़रा-सी डरी हुई, और पूरी तरह सच्ची थी।

अब उस घर में सिर्फ जिम्मेदारी की गंध नहीं थी। वहाँ अब चाय की खुशबू, किताबों की सरसराहट और दो दिलों की धीमी-धीमी आहट भी थी।
आरती को अब हर शाम का इंतज़ार रहने लगा था, और विवेक को हर सुबह उस घर की सीढ़ियाँ उतरने का।

कभी दोनों ने कुछ कहा नहीं, पर हर नज़र, हर मुस्कान, हर खामोशी कहती थी —
कुछ तो है, जो धीरे-धीरे जन्म ले रहा है।


दिन वैसे ही गुजर रहे थे — सुबह काम, शाम को पढ़ाई, और उन दोनों के बीच धीरे-धीरे बढ़ता एक अनकहा अपनापन।
अब विवेक के कदमों की आवाज़ सुनकर ही आरती पहचान जाती थी कि वो सीढ़ियाँ उतर रहा है।
माँ ने भी गौर किया था कि आरती अब ज़्यादा मुस्कुराने लगी है। बस पूछती नहीं थीं — शायद समझ गई थीं, या शायद डरती थीं कि कुछ पूछ लिया तो वो मुस्कान कहीं गायब न हो जाए।

मोहल्ले में सबकी नज़रें तेज़ थीं, ज़ुबानें उससे भी तेज़।
शुरू में किसी ने ध्यान नहीं दिया, लेकिन जब हर शाम विवेक को उस घर आते-जाते देखा गया, तो बातों का बाज़ार लगने लगा।

"अरे, वो किरायेदार नीचे की लड़की के घर रोज़ जाता है..."
"सुना है साथ में चाय भी पीते हैं..."
"लड़की तो सीधी-सादी लगती थी, पर कौन जाने..."

ऐसी बातें दीवारों से होकर कानों तक पहुँचने लगीं।
आरती पहले तो अनसुना करती रही, लेकिन एक दिन जब उसकी पड़ोसन ने सामने से कहा —
"आरती, ज़्यादा मेल-जोल अच्छा नहीं होता किरायेदारों से… लोग बातें बनाते हैं,"
तो उसका चेहरा उतर गया।

उस शाम जब विवेक पढ़ाने आया, आरती चुप थी।
अमित सवाल पूछता रहा, पर उसने जवाब नहीं दिया।
क्लास खत्म हुई, तो विवेक ने कहा,
“आज तुम बहुत शांत हो। सब ठीक है?”

आरती ने बस इतना कहा,
“अब तुम्हें रोज़ आने की ज़रूरत नहीं। अमित अब खुद पढ़ सकता है।”

विवेक समझ गया, बात पढ़ाई की नहीं है।
उसने कुछ पल उसे देखा, फिर धीरे से बोला,
“किसी ने कुछ कहा?”

आरती ने नज़रें झुका लीं।
“लोग बस बातें बना रहे हैं। माँ भी सुनेंगी तो दुख होगा। मैं नहीं चाहती कि मेरे कारण घर की इज़्ज़त पर उंगली उठे।”

विवेक कुछ देर चुप रहा, फिर शांत आवाज़ में बोला,
“आरती, लोग बातें तो तब भी बनाते हैं जब तुम कुछ गलत नहीं करतीं। फर्क इतना है कि अब तुम्हारे डर से उनके झूठ सच लगने लगेंगे।”

आरती की आँखों में पानी भर आया।
“तुम नहीं समझोगे… औरत को हर दिन सफाई देनी पड़ती है — अपने इरादों की, अपनी चुप्पियों की भी।”

विवेक आगे बढ़ा, उसके शब्द सधे हुए थे —
“नहीं आरती, मैं सब समझता हूँ। मैं देखता हूँ कि तुमने अपने घर, अपने भाई, अपनी माँ के लिए कितना छोड़ा है। और अब लोग उन्हीं त्यागों को शक की निगाह से देख रहे हैं। लेकिन अगर तुम चाहो, तो मैं ये सब बदल सकता हूँ।”

आरती ने उसकी तरफ देखा।
“कैसे?” उसने फुसफुसाया।

विवेक की आवाज़ में दृढ़ता थी —
“मैं इस घर से सिर्फ किरायेदार बनकर नहीं जाना चाहता। नौकरी लगते ही, मैं लौटकर तुम्हारा हाथ माँगूंगा — साफ़-साफ़, सबके सामने।”

आरती के चेहरे पर सन्नाटा फैल गया।
कुछ पल के लिए उसे समझ नहीं आया कि क्या कहे।
फिर बस धीरे से बोली,
“तुम्हें नहीं लगता ये सब जल्दी है?”

विवेक ने मुस्कुराकर कहा,
“जब किसी इंसान में यकीन हो, तो वक्त का हिसाब नहीं रखा जाता।”

आरती ने कुछ नहीं कहा, लेकिन उसकी आँखों में अब डर नहीं था — बस एक गहरा सुकून था, जो हिम्मत से मिला था।

अगले कुछ दिनों में विवेक ने कम आना शुरू कर दिया। शायद दोनों को थोड़ी दूरी चाहिए थी — या शायद ज़िंदगी ने उन्हें थोड़ा ठहरने को कहा था।
लेकिन हर शाम जब हवा चलती, तो आरती को ऊपर वाले कमरे से अब भी वही पुरानी कलम की सरसराहट सुनाई देती — जैसे कोई अब भी उसके नाम से नोट्स लिख रहा हो।

रात को वो दीपक जलाती और सोचती —
"लोग चाहे जितनी बातें करें, पर कुछ रिश्ते ऐसे होते हैं जिन्हें समझने के लिए बोलना नहीं, महसूस करना पड़ता है।"

और वहीं, उसी खामोशी में, उनके बीच का रिश्ता अपने सबसे सच्चे रूप में था —
न नाम, न वादा, बस एक भरोसा जो किसी शादी या दस्तख़त से बड़ा था।

(“जब वक्त बीच में आ जाए, तो यादें ही रिश्ता बन जाती हैं…”)

विवेक चला गया था।
कहा था — “सागर में पोस्टिंग मिली है, वहाँ से पढ़ाई खत्म करूँगा।”
वो जाते वक्त कुछ नहीं बोला, बस इतना कहा, “आरती, अबकी बार लौटूंगा तो कुछ अधूरा नहीं रहेगा।”

आरती बस मुस्कुराई थी, लेकिन उस मुस्कान के पीछे जितना डर था, उतनी ही उम्मीद भी।
वो उसे स्टेशन तक छोड़ने नहीं गई। सिर्फ दरवाज़े पर खड़ी रही, जब तक उसकी परछाई गली के मोड़ से गायब नहीं हो गई।

उसके बाद घर में सब वैसा ही रहा — पर कुछ भी पहले जैसा नहीं रहा।


---

दिन गुजरते गए।
विवेक के कमरे में अब दूसरा किरायेदार आ गया था। वही कमरा, वही खिड़की, लेकिन अब वहाँ किसी की किताबों की खुशबू नहीं थी।
आरती रोज़ सफाई करती, पर कभी-कभी रुक जाती — जैसे उसे लगता हो कि उस टेबल पर अब भी विवेक की कलम पड़ी है।

कभी-कभी रात को जब हवा चलती, तो ऊपर की खिड़की से हल्की आवाज़ आती —
जैसे कोई पन्ना पलटा हो।
वो जानती थी, वो आवाज़ अब सिर्फ उसकी कल्पना है।
फिर भी, हर बार सुनकर उसका दिल धड़क उठता।


---

वक़्त अपनी चाल चलता रहा।
अमित अब कॉलेज में था। माँ की तबियत अब और कमजोर हो गई थी। और आरती…
वो अब उन्नीस से पच्चीस की हो चुकी थी, लेकिन उसे लगता था जैसे बीच के सारे साल किसी धुंध में खो गए हों।

अब उसके दिन कामों में गुजर जाते, लेकिन रातें अब भी वैसी थीं —
लंबी, खामोश और यादों से भरी।

वो कभी-कभी पुरानी कॉपी खोलती, जिसमें विवेक की लिखावट अब भी थी —
"डर लग रहा है? तो वही सवाल दो बार करो, डर खुद भाग जाएगा।"
हर बार वो पंक्ति पढ़ते हुए उसकी आँखों में कुछ पिघल जाता।


---

माँ को अब उसकी शादी की चिंता सताने लगी थी।
“आरती,” माँ बोलीं एक दिन, “तेरी उम्र निकल रही है। अमित तो अब संभल गया है, अब मुझे तेरी चिंता है।
तेरे लिए अच्छा रिश्ता आया है, सरकारी नौकरी वाला लड़का है।”

आरती बस चुप रही।
उसे नहीं पता था कि क्या कहे।
उसके मन में कुछ बोल नहीं रहा था, बस एक तस्वीर थी — विवेक की, जब वो जाने से पहले दरवाज़े के पास खड़ा था।
वो तस्वीर अब भी साफ़ थी, और शायद उसी साफ़ तस्वीर की वजह से वो किसी और को धुंधला ही देख पाती थी।

माँ ने कहा, “बेटा, ज़िंदगी रुकती नहीं है। जो चला गया, उसे भगवान भला रखे। अब तू अपने लिए सोच।”

आरती की आँखें भर आईं। उसने धीरे से कहा,
“माँ, मैं उसके लिए नहीं रुकी। बस मुझे अब किसी और में वो सुकून नहीं दिखता।”

माँ कुछ कह नहीं पाईं। बस लंबी साँस लेकर चुप हो गईं।


---

उस रात आरती बहुत देर तक छत पर बैठी रही।
आसमान में बादल नहीं थे, पर उसके भीतर मौसम बहुत भारी था।
उसने पहली बार खुद से पूछा — “क्या वाकई वो लौटेगा?”
और तुरंत एक जवाब आया — “शायद नहीं।”

लेकिन फिर मन के किसी कोने से आवाज़ आई —
"फिर भी वो है… कहीं न कहीं, उसी सागर के किनारे, जहाँ मैं नहीं हूँ, लेकिन उसकी याद अब भी पहुँचती है।”

उसने आसमान की ओर देखा।
हवा में ठंडक थी, और किसी दूर जहाज़ के हॉर्न की आवाज़ आई —
जैसे कोई किसी को बहुत दूर से पुकार रहा हो।

वो आँखें बंद करके मुस्कुराई।
“अगर लौटे तो कुछ कहूँगी नहीं,” उसने मन ही मन कहा,
“बस चुप रहूँगी… ताकि वो समझ जाए — मैंने इंतज़ार नहीं किया, मैंने उसे याद रखा।”


---

वक़्त चलता गया।
लोग सोचते रहे कि आरती की ज़िंदगी बस चल रही है।
लेकिन सच्चाई ये थी — वो अब भी उसी मोड़ पर खड़ी थी जहाँ विवेक ने कहा था, “अबकी बार लौटूंगा, तो कुछ अधूरा नहीं रहेगा।”

उसके लिए वो वादा अब कोई उम्मीद नहीं था —
वो अब उसकी ज़िंदगी का हिस्सा बन चुका था।
बिना शोर, बिना तकरार…
बस एक नाम, जो उसके हर साँस के साथ जी रहा था।



(“कभी-कभी मेहनत ज़िंदगी से नहीं, उस एक वादे से होती है जिसे दिल निभाना चाहता है…”)

सागर शहर, समंदर के किनारे बसा हुआ, भीड़ से भरा लेकिन हर किसी के अंदर थोड़ा-थोड़ा अकेलापन लिए हुए।
विवेक भी उनमें से एक था।
दिन में कॉलेज की क्लास, रात में लाइब्रेरी, और बाकी का वक़्त – अपने आप से लड़ने में जाता।

हर सुबह जब वो शीशे में खुद को देखता, तो लगता जैसे चेहरा वही है, लेकिन आँखों में कुछ बदल गया है।
शायद अब वहाँ सिर्फ अर्थशास्त्र या मैकेनिकल फार्मूले नहीं, बल्कि आरती का चेहरा लिखा था — वो चेहरा जो उसे अब भी हर वक़्त साथ महसूस होता था।


---

कभी-कभी वो हॉस्टल की छत पर बैठकर अपनी कॉपी में कुछ लिखता था —
नोट्स के बीच में, अचानक एक पंक्ति आती —

> “वो भी किसी खिड़की से आसमान देखती होगी क्या?”



उसे खुद पर हँसी भी आती, पर उसी हँसी में थोड़ा दर्द भी छुपा होता।
किताबों में अब भी वही मेहनत थी, लेकिन ध्यान हर बार किसी याद पर अटक जाता।

वो जानता था —
आरती उसकी कोई “कहानी की लड़की” नहीं है।
वो उसका मकसद है।
वो वजह जिसके लिए वो हर दिन खुद को सँभालता है, गिरता है, और फिर उठता है।


---

लेकिन ज़िंदगी इतनी सीधी कहाँ होती है।
कॉलेज के आखिरी साल में जब सबके पास कोई न कोई नौकरी की खबर आई, विवेक के हाथ खाली रह गए।
एक इंटरव्यू में कहा गया, “आपमें मेहनत है, पर अनुभव नहीं।”
दूसरे में कहा, “आपको कुछ साल और लगेंगे।”
तीसरे में बस मुस्कान मिली — और चुप्पी।

वो लौटा तो था, लेकिन कमरे में नहीं, अपने भीतर।
उसने सोचा — “शायद मैं ठीक नहीं हूँ। शायद वो किसी और के लायक होगी।”
पर अगले ही पल याद आया —
वो वादा, जो उसने खुद से किया था।
“जब लौटूँगा, तो कुछ अधूरा नहीं रहेगा।”


---

रातें अब लंबी लगने लगीं।
वो समंदर किनारे बैठ जाता — पानी की लहरें उसके पैरों को छूतीं, और उसे लगता जैसे कोई कह रहा हो, “थोड़ा और रुको।”

वो आँखें बंद करता और आरती की आवाज़ सुनाई देती —
“विवेक, हारना मत।”
उसके बाद सब कुछ थोड़ा आसान लगने लगता।


---

वो अब भी कोशिश कर रहा था —
छोटे-छोटे प्रोजेक्ट्स, पार्ट टाइम ट्यूशन, और कभी-कभी खाने के लिए बस दो रोटियाँ।
पर उसके अंदर एक अजीब सी आग थी।
वो जानता था, वो किसी दिन लौटेगा,
आरती के घर के उस पुराने दरवाज़े पर खड़ा होगा —
और कहेगा, “अब कुछ अधूरा नहीं रहा।”


---

लेकिन सच ये था —
वो दिन कब आएगा, ये किसी को नहीं पता था।
बस हर सुबह वो अपने कमरे की दीवार पर टंगे कैलेंडर को देखता,
और एक तारीख़ पर उँगली रखकर धीरे से कहता —

> “शायद इसी दिन मैं लौटूँगा…”



फिर मुस्कुराता, जैसे खुद को दिलासा दे रहा हो।
क्योंकि उसे अब भी यक़ीन था —
कभी न कभी, उसकी मेहनत और आरती का इंतज़ार एक ही वक्त पर सच होंगे।