सोने का पिंजरा – अगला अध्याय: कबीर की असली पहचान
रात की नमी अभी भी शहर की सडकों पर बसी हुई थी. बाहर लोग सोए थे, मगर तहखाने की गहराई में एक जागता हुआ सच अपनी सांसें तेज कर रहा था.
कबीर ने शीशे के सामने खडे होकर अपने चेहरे से भिखारी का रूप उतारा. झुर्रियों और धूल के पीछे से निकला असली कबीर—तेज नयन- नक्श वाला, ऊँचे खानदान की शान उसके पूरे हाव- भाव में झलक रही थी. उसने गहरी सांस ली और धीमे स्वर में खुद से कहा—
कबीर( मन ही मन)
काफी समय हो गया इस खेल को निभाते- निभाते. अब वो पल आ रहा है जब सोने का पिंजरा टूटेगा. और हर किसी को असली चेहरा दिखेगा.
उसने अलमारी से एक पुराना बक्सा निकाला. उसमें रखी थी—विराज खानदान की ताजपोशी की तलवार, कुछ पुरानी चिट्ठियाँ और एक सीलबंद फाइल. कबीर ने फाइल पर हाथ फेरा—उस पर सुनहरी लिखावट में उभरा था:
राज- ए- पिंजरा”
दृश्य एक: तहखाने का सच
नूरा तहखाने में पहुँची. उसे देखकर कबीर ने फाइल छुपाई, लेकिन उसकी आँखें सब बयां कर चुकी थीं.
नूरा( सख्त स्वर में)
कबीर, अब मुझे और छुपाओ मत. तुम भिखारी नहीं हो, तुम इस साम्राज्य के असली वारिस हो. सवाल ये है कि तुमने अपनी असलियत छुपाई क्यों?
कबीर ने हल्की मुस्कान दी.
कबीर:
क्योंकि कभी- कभी सच को जीने के लिए झूठ पहनना पडता है, नूरा. जो दुश्मन हमारे अपने बीच हैं, वो मुझे तब तक कमजोर समझते रहे, जब तक मैंने उन्हें खेलने दिया. लेकिन अब. अब वक्त है कि असली कबीर सामने आए.
दृश्य दो: महल में हलचल
इसी बीच, महल के हॉल में वेरिका और सारा के बीच गरमा- गरमी थी.
वेरिका:
अगर कबीर सचमुच वही है जो हम सोच रहे हैं, तो उसने हमसे इतना बडा सच छुपाया क्यों? क्या हमें उस पर यकीन करना चाहिए?
सारा( थकी हुई आवाज में)
वेरिका, अगर कबीर न होता तो हम अब तक जिंदा भी न रहते. उसका भिखारी बनना, छुपकर खेल खेलना—ये सब एक वजह से है. सवाल ये नहीं कि उसने क्यों छुपाया. सवाल ये है कि अब वो हमें कितनी दूर तक ले जाएगा.
दृश्य तीन: अरमान का संदेश
तभी महल की स्क्रीन पर एक नया वीडियो चला. इस बार अरमान खुद दिखाई दिया—पर लाइव नहीं, रिकॉर्डिंग थी.
अरमान( वीडियो में)
कबीर, अब खेल हाथ से निकल चुका है. पिंजरे की असली तिजोरी तुम्हारे ही तहखाने में है. जो फाइल तुम्हारे पास है—वही सबका फैसला करेगी. लेकिन याद रखो, उस फाइल का असली मालिक तुम्हारे अपने खून में से कोई है. सावधान रहना.
वीडियो बंद हुआ. पूरे हॉल में सन्नाटा छा गया.
वेरिका ने कबीर को देखा—उसकी आँखों में शक और डर दोनों थे.
वेरिका:
क्या सचमुच ये फाइल तुम्हारे पास है?
कबीर चुप रहा. उसकी चुप्पी ही सबकुछ कह गई.
दृश्य चार: छुपी हुई डायरी
रात में कबीर अकेले बैठा था. उसने फाइल खोली. अंदर एक पुरानी डायरी थी—विराज खानदान के मुखिया की लिखी हुई.
पहला पन्ना पढते ही उसके दिल की धडकन तेज हो गई:
पिंजरे का वारिस वही होगा जो खुद को खोकर फिर से पाएगा. लेकिन गद्दार वही निकलेगा जिस पर सबसे ज्यादा भरोसा किया जाएगा.
कबीर की आँखों में एक डर उभरा—किस पर भरोसा करे और Kiss पर नहीं?
दृश्य पाँच: रहस्यमयी मुलाकात
उसी पल तहखाने की दीवार के पीछे से आवाज आई. कबीर ने तलवार उठाई. दीवार खुली और वहाँ खडा था—अरहान.
अरहान का चेहरा गंभीर था.
अरहान:
भाई, अब और छुपाना मत. सच्चाई का सामना करो. सोने का पिंजरा सिर्फ एक खजाना नहीं. ये हमारी किस्मत है. और गद्दार वही है. जिस पर तुम अभी भी यकीन कर रहे हो.
कबीर ने चौककर उसकी ओर देखा.
कबीर:
मतलब.
अरहान की आँखों में गहरी परछाईं थी.
अरहान( धीमे स्वर में)
मतलब गद्दार हमारे अपने खून का है.
क्लिफहैंगर
कैमरा धीरे- धीरे कबीर और अरहान के चेहरों पर जूम करता है. बाहर तूफान गरजता है.
कबीर की आँखें लाल हो चुकी हैं, जैसे अब सबकुछ तोडकर रख देगा.
स्क्रीन काली होती है.
सफेद अक्षरों में उभरता है:
सोने का पिंजरा — अगला अध्याय: खून का गद्दार”
महल जैसे बडे बंगले की सुबह उस दिन कुछ अलग थी. सूरज की हल्की किरणें सफेद संगमरमर की दीवारों पर सुनहरी रेखाएँ खींच रही थीं. बंगले का आँगन, जो अक्सर शांत और ठंडा रहता था, आज हँसी और बच्चों की शोरगुल से गूंज रहा था.
कबीर ने कमरे की खिडकी से झाँका. नीचे लॉन में बच्चे भाग- दौड कर रहे थे. कोई कंचे खेल रहा था, कोई बैडमिंटन. दूर रसोई से पराठों और देसी घी की महक आ रही थी.
उसने आँखें मलते हुए गहरी साँस ली.
ये घर कब से इतना जिंदा हो गया? वह खुद से बुदबुदाया.
दरवाजे पर अचानक दस्तक हुई. बिना इंतजार किए समर — उसका कजिन भाई — कमरे में घुस आया.
भाई! अभी तक सो रहे हो? नीचे सब तुम्हारा इंतजार कर रहे हैं।
कबीर मुस्कुराया, अरे, तू भी सुबह- सुबह ऐसे धमाका मचाता है जैसे बम फोड रहा हो।
समर हँसते हुए बोला, आ, नीचे चल. आंटी ने खास तेरे लिए आलू के पराठे बनाए हैं. अगर देर की तो सब छीन- झपट में खत्म कर देंगे।
कबीर जल्दी से तैयार हुआ और नीचे आ गया.
आँगन का मेला
सीढियों से उतरते ही उसने जो दृश्य देखा, उसकी आँखें चमक उठीं.
लिविंग हॉल एकदम गाँव के चौपाल जैसा बना हुआ था.
रिद्धि और पारुल( कबीर की कजिन बहनें) सोफे पर बैठी गुनगुना रही थीं.
बच्चे फर्श पर फैले हुए कैरम खेल रहे थे.
आंटी रसोई से गरमा- गरम पराठे और अचार लेकर आ रही थीं.
जैसे ही सबने कबीर को देखा, शोर और बढ गया.
भाई आ गया! मीरा — सबसे छोटी कजिन बहन — दौडती हुई आई और कबीर की टाँगों से लिपट गई.
अरे पगली, धीरे! गिरा देगी क्या? कबीर ने उसे गोद में उठा लिया.
आंटी पास आकर बोलीं, देखा, सबको तेरे ही इंतजार था. चल, पहले नाश्ता कर।
नाश्ते की महफिल
बडे डाइनिंग टेबल पर सभी इकट्ठा हुए. स्टील की प्लेटों में पराठे, मक्खन, दही और अचार परोसे गए.
रिद्धि बोली, भाई, अब तो तू बिल्कुल शहर वाला लगने लगा है. शर्ट- पैंट, घडी, सब कुछ देखकर लगता है जैसे कोई बडा बिजनेसमैन बैठा हो।
पारुल ने चुटकी ली, हाँ, लेकिन खाने का ढंग अभी भी गाँव वाला ही है. देखो कैसे तीन- तीन पराठे खा रहा है।
सब हँस पडे. कबीर भी मुस्कुराया और बोला, अरे, तुम्हारी आंटी का बनाया खाना है. इसमें कोई कैसे रुक सकता है?
आंटी ने प्यार से कहा, बेटा, शहर की दौलत अपनी जगह, लेकिन असली सुख तो यही है. साथ बैठकर खाना खाना, हँसना- बोलना. यही असली अमीरी है।
कबीर चुपचाप सिर हिलाता रहा. उसे भीतर से सच में सुकून मिल रहा था.
खेल और शरारतें
नाश्ते के बाद बच्चे कबीर को खींचते हुए लॉन में ले गए.
भाई, आज क्रिकेट खेलना है।
कबीर ने हँसते हुए बल्ला थाम लिया.
चलो, देखते हैं किसमें कितना दम है।
मैच शुरू हुआ. बच्चे शोर मचाते, आउट की जिद करते, और कबीर हर बार मुस्कुराकर उनकी बात मान जाता.
मीरा ने गेंद फेंकी और कबीर सच में बोल्ड हो गया.
आउट! आउट! सब चिल्लाने लगे.
कबीर ने नाटकीय अंदाज में बल्ला फेंक दिया, ये तो धोखाधडी है।
बच्चों की हँसी की गूंज दूर- दूर तक फैल गई.
बालकनी से आंटी और बाकी बडे लोग देख रहे थे. आंटी की आँखों में नमी थी. उन्होंने धीरे से बगल वाली औरत से कहा,
कबीर जब छोटा था न, तो भी ऐसा ही सबको हँसाता था. आज इतने सालों बाद वही चमक फिर से लौट आई है।
गाँव की बातें
दोपहर को सब लोग आँगन में दरी बिछाकर बैठ गए. ठंडी लस्सी और आम का अचार परोसा गया. बातें शुरू हुईं तो गाँव की यादें सामने आने लगीं.
समर बोला, भाई, याद है जब तू गाँव में हमारे साथ तालाब में कूद गया था? तैरना आता भी नहीं था और सीधे डूबने लगा था।
रिद्धि हँसते हुए बोली, और फिर आंटी ने तुझे पीट- पीटकर आधा मरा दिया था।
सब ठहाकों से हँस पडे. कबीर ने सिर पकड लिया.
तुम लोग अभी तक उस हादसे को नहीं भूले?
पारुल ने चुटकी ली, भाई, वो हादसा नहीं, कॉमेडी थी।
हवा में हँसी का शोर घुल गया. कबीर को लगा जैसे वह फिर से बचपन में लौट आया हो.
रिश्तों की गर्माहट
शाम को आंटी ने सबको अपने हाथ से बने पकोडे खिलाए. हल्की बारिश हो रही थी. बंगले की छत से बारिश की बूंदें गिरतीं और नीचे बैठे सब लोग गरम चाय की चुस्की लेते.
आंटी ने कबीर से कहा,
बेटा, हमें बडा अच्छा लग रहा है कि हम यहाँ आए. गाँव में सब तुझे याद करते हैं. तेरा नाम वहाँ की शान है. लेकिन हमें ये देखकर सबसे ज्यादा खुशी है कि तू अब भी वही कबीर है, जो घरवालों से जुडा हुआ है।
कबीर ने आंटी का हाथ थाम लिया और बोला,
आंटी, आप सब आए, यही मेरे लिए सबसे बडा तोहफा है।
रात का समा
रात को घर में और भी रौनक थी.
पारुल ने पियानो बजाया.
रिद्धि ने गाना गाया.
समर ने मजाकिया किस्से सुनाए.
सब हँसते- गाते रहे. कबीर बीच में बैठा था, और उसके चेहरे पर वो मुस्कान थी जो शायद सालों से गायब थी.
मीरा उसकी गोद में सो गई. कबीर ने उसे धीरे से उठाकर कमरे तक पहुँचाया. उसे देखते हुए उसके दिल में एक अनकही तसल्ली थी — जैसे वो अकेला नहीं है.
अगली सुबह
सुबह- सुबह कबीर आँगन में निकला. बच्चे फिर से खेल रहे थे. आंटी तुलसी के पास दीपक जला रही थीं. रिद्धि और पारुल फूल तोडकर सजावट कर रही थीं.
पूरा घर जिंदा था.
कबीर ने आँखें मूँदकर महसूस किया — यही असली दौलत है, यही असली जिंदगी.
लेकिन उसके दिल के कोने में एक सवाल भी उठ रहा था.
ये खुशियाँ कब तक रहेंगी?
क्या ये रौनक हमेशा उसके घर में बस पाएगी, या फिर हालात की आँधियाँ इन्हें छीन ले जाएँगी?
कबीर के महल जैसे घर में उस दिन कुछ अलग ही चमक थी. बरसों बाद इतना शोर- शराबा, इतनी हँसी, और इतने लोग इकट्ठा हुए थे. बडी- बडी खिडकियों से आती धूप संगमरमर की फर्श पर सुनहरी आकृतियाँ बना रही थी, और बीच- बीच में बच्चों के पैरों की धमक उन्हें तोड देती.
सीढियों से उतरते हुए कबीर ने देखा कि नीचे का हॉल किसी मेले से कम नहीं था.
गाँव से आए उसके कजिन्स और रिश्तेदारों ने घर को जैसे नया जीवन दे दिया था.
रिद्धि और पारुल — उसकी दोनों कजिन बहनें — सोफे पर बैठी गुडियों के कपडे बदलने में बच्चों की मदद कर रही थीं. वहीं समर, उसका कजिन भाई, मोबाइल में गाने बजा- बजाकर सबको गाने पर मजबूर कर रहा था.
भाई! मीरा — सबसे छोटी कजिन बहन — कबीर को देखते ही चिल्लाई और दौडकर उसकी टाँगों से लिपट गई.
कबीर मुस्कुराया, अरे मीरा! तूने तो मेरा जीना मुश्किल कर दिया. इतना बडा बंगला है, और तू सबको छोडकर सिर्फ मेरे पास भागती है।
मीरा ने हँसते हुए कहा, क्योंकि तू ही सबसे अच्छा है।
आंटी रसोई से निकलकर आईं. हाथ में पराठों की थाली थी. उनका चेहरा थकान के बावजूद चमक रहा था.
कबीर बेटा, तुझे देखकर आँखों को सुकून मिल गया. आ, बैठ, नाश्ता कर।
कबीर ने झुककर उनके पैर छुए. आंटी, आप आईं, यही मेरे लिए सबसे बडी खुशी है।
नाश्ते की महफिल
बडी डाइनिंग टेबल पर सब लोग जमा हो गए. पराठों, मक्खन, अचार और दही की खुशबू से पूरा हॉल भर गया.
समर ने चुटकी ली, भाई, अब तो तू बडा आदमी हो गया है, लेकिन पराठे देखते ही तेरी आँखें वैसी ही चमक उठती हैं।
कबीर ने हँसते हुए जवाब दिया, अरे, पराठों का कोई मुकाबला है? शहर की पिज्जा- बर्गर सब फीके पड जाते हैं।
पारुल ने हँसते हुए कहा, देख लेना, अभी पाँच खा जाएगा।
आंटी ने बीच में टोका, अरे बच्चों, उसे तंग मत करो. कबीर, जितना चाहे खा।
कबीर सचमुच पाँच पराठे खा गया. सब हँसी से लोटपोट हो गए.
खेल और शरारत
नाश्ते के बाद बच्चों ने कबीर को घसीट लिया. लॉन में बडा- सा बैडमिंटन कोर्ट बनाया गया था. समर ने कबीर के हाथ में रैकेट थमा दिया.
चल भाई, देखते हैं शहर में रहकर तू कितना खेलना भूल गया है।
मैच शुरू हुआ. बच्चे तालियाँ बजाते रहे. कबीर बीच- बीच में जान- बूझकर शॉट Miss करता ताकि बच्चे जीत जाएँ.
मीरा ने जीतते ही चिल्लाकर कहा, भाई हार गया!
कबीर ने उसे गोद में उठाया और बोला, हाँ, तू तो मेरी चैंपियन है।
पीछे से रिद्धि बोली, भाई, गाँव में जब तू हमारे साथ पतंग उडाता था, तब भी ऐसे ही हार जाता था।
कबीर हँसते- हँसते बोला, अरे वो हारना नहीं, तुम्हें खुश करना था।
दोपहर की बातें
दोपहर को सब आँगन में दरी बिछाकर बैठ गए.
ठंडी लस्सी और आम के टुकडे परोसे गए. बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ.
समर बोला, भाई, गाँव अब भी तुझे याद करता है. तेरे किस्से आज भी चलते हैं — कैसे तू तालाब में कूद गया था, कैसे खेत में बैलगाडी चला ली थी।
रिद्धि ने हँसते हुए कहा, और कैसे कीचड में फिसलकर पूरा भीग गया था।
सब ठहाके मारकर हँस पडे.
कबीर ने सिर पकड लिया, तुम लोग वही पुरानी बातें निकालते रहोगे।
आंटी ने मुस्कुराकर कहा, बेटा, पुरानी बातें ही तो रिश्तों को जोडे रखती हैं. नया सबकुछ मिल सकता है, लेकिन बीते लम्हे नहीं।
कबीर गंभीर हो गया. उनकी बात दिल में उतर गई.
हल्की सी परछाईं
शाम का वक्त हुआ. बारिश की हल्की फुहारें पड रही थीं. बच्चे लॉन में कागज की नावें बहा रहे थे.
कबीर बालकनी पर खडा था. अचानक उसकी नजर गेट पर पडी.
कोई अजनबी आदमी कुछ देर तक बंगले को घूरता रहा और फिर भीड में गुम हो गया.
कबीर की भौंहें सिकुड गईं.
ये कौन था? उसने मन ही मन सोचा.
लेकिन पीछे से मीरा की आवाज आई, भाई, नाव देखो, कितनी दूर चली गई!
कबीर ने मुस्कान ओढ ली, मगर दिल में सवाल रह गया.
शाम का समा
शाम को घर के अंदर ढोलक निकाली गई. पारुल ने गाना शुरू किया, और सब लोग ताली बजाने लगे.
मीरा बीच में नाचने लगी.
कबीर ने भी तालियाँ बजाकर साथ दिया.
आंटी ने कहा, देखा बेटा, यही तो असली रौनक है. दौलत के महल में भी अकेलापन लगता है, लेकिन परिवार हो तो मिट्टी का घर भी महल बन जाता है।
कबीर ने उनकी ओर देखा. उसके दिल में कृतज्ञता भर गई.
रात की हलचल
रात को सबने साथ में खाना खाया. रिद्धि ने कबीर की प्लेट में जबरदस्ती चावल डाले.
भाई, इतनी ताकत कहाँ से आएगी अगर तू ठीक से खाएगा नहीं?
समर ने मजाक किया, हमें लगता है भाई अब शादी की सोच रहा है. तभी इतना चुप है।
सब हँस पडे. कबीर ने हँसकर टाल दिया.
अरे, अभी तो मुझे तुम्हारे साथ बचपन फिर से जीना है।
रात देर तक सब बातें करते रहे. बच्चों ने कबीर को कहानियाँ सुनाने की जिद की. उसने सबको चारपाई पर बिठाकर बचपन की शरारतों के किस्से सुनाए.
अगली सुबह
सुबह की ठंडी हवा में आंटी तुलसी के पास दीपक जला रही थीं. बच्चे फिर से क्रिकेट खेल रहे थे.
कबीर चाय लेकर लॉन में बैठा.
सबको देखता रहा —
रिद्धि फूल तोड रही थी, पारुल मीरा को बालों में चोटी बाँध रही थी, समर अखबार पढ रहा था.
घर पूरी तरह जिंदा था.
लेकिन कबीर के दिल में एक सवाल उठ रहा था —
क्या ये रौनक हमेशा रहेगी?
या फिर हालात की आंधियाँ इसे छीन लेंगी?
गेट की ओर देखते हुए उसे वही परछाईं फिर याद आई.
कहानी( नया सीन – घर की रौनक)
महल जैसे उस बडे घर के आँगन में सुबह से ही अलग ही चहल- पहल थी. सूरज की हल्की किरणें झरोखों से छनकर भीतर आ रही थीं और संग- संग रिश्तेदारों की हँसी- ठिठोली पूरे माहौल को जीवंत बना रही थी.
कबीर ने सीढियों से उतरते हुए नीचे देखा—सामने उसके चचेरे भाई- बहन दौडते हुए आँगन में कबड्डी खेल रहे थे. कोई एक- दूसरे को धक्का देता, तो कोई पकडकर हँसी में लोटपोट हो जाता. उनके कपडों पर धूल लग जाती, लेकिन मजाल है कि किसी को परवाह हो. चारों ओर बच्चों की खिलखिलाहट गूँज रही थी.
रसोईघर से मसालों की खुशबू आ रही थी. कबीर की आंटी, जिनका नाम सुनीता था, गाँव से खास तौर पर आई थीं. वह सबके लिए पराठे सेंक रही थीं और साथ- साथ बच्चों को डाँट भी रही थीं—
अरे ओ मंटू, जरा ढंग से खेल! ये जो तेरा नया कुरता है, अभी फटा तो देख लेना मुझसे!
मंटू, जो कबीर का चचेरा भाई था, हँसते हुए बोला—
आंटी, आप भी न. कपडे के लिए खेलना बंद कर दूँ क्या? कल को कहेंगी कि साँस भी धीरे लो, नहीं तो फेफडा फट जाएगा।
सारी मंडली हँस पडी. कबीर भी अनचाहे मुस्कुरा दिया.
उसे ये घरेलू रौनक बहुत सुकून देती थी. इतने लंबे समय से उसने घर को यूँ भरा- पूरा नहीं देखा था. ज्यादातर तो घर में सन्नाटा रहता—बस नौकर- चाकर और उनकी खटपट. लेकिन आज तो जैसे हवेली ने नया जीवन पा लिया था.
कजिन बहनों का ग्रुप कमरे के कोने में बैठा था. वे सब मिलकर कबीर की खिंचाई कर रही थीं.
अरे देखो- देखो, हमारे शहर वाले बडे भैया आ गए!
इतनी बडी- बडी बातें करते हैं, लेकिन अभी तक शादी का नाम नहीं लिया।
हाँ दीदी, और सुनो, ये तो कहते हैं कि अभी मुझे आजादी चाहिए।
सबके हँसने पर कबीर ने झूठ- मूठ की सख्त शक्ल बनाई और बोला—
शादी- विवाह की इतनी जल्दी तुम्हें क्यों है? पहले खुद का ब्याह कर लो, फिर मेरा सोचना।
हाय- हाय! सुनो- सुनो, कैसे मुँह तोड जवाब दे रहे हैं! एक बहन ने शरारत से ताली बजाई.
इसी बीच कबीर की आंटी सुनीता ने उसे पास बुलाया.
कबीर बेटा, जरा ये सब्जियाँ छीलने में हाथ बँटा दे. तुम्हें देखकर अच्छा लगता है, वरना आजकल लडके तो मोबाइल से बाहर निकलना ही नहीं चाहते।
कबीर हँसते हुए उनके पास बैठ गया. उसने आलू उठाया और छीलने लगा. आंटी बोलीं—
बडा अच्छा लग रहा है तुझे ऐसे देखते. शहर में रहकर भी तू घमंडी नहीं बना।
कबीर ने हल्की मुस्कान दी, लेकिन दिल के भीतर कहीं कुछ भारी था. आंटी की बात ने उसे अंदर तक छू लिया.
वो सोच रहा था—क्या सच में वह उतना सादा है, जितना लोग मानते हैं? या फिर उसके पीछे की हकीकत, उसकी छिपी हुई दुनिया, एक दिन इन मासूम रिश्तों से उसे दूर कर देगी?
इतने में बच्चों ने शोर मचाया—
छुपन- छुपाई! छुपन- छुपाई!
पूरा आँगन बच्चों की भागदौड से गूंज उठा. कजिन बहनों ने भी मजे के लिए खेल में हिस्सा लिया. सब लोग हँसते- खिलखिलाते दौड रहे थे. किसी का दुपट्टा इधर उलझा, किसी की चोटी उधर खिंच गई. घर का हर कोना जैसे जीवंत हो उठा.
कबीर की नजर अचानक खिडकी से बाहर चली गई. दूर बगीचे की ओर एक अनजाना आदमी खडा दिखाई दिया. वह बस कुछ पल के लिए ही नजर आया, लेकिन उसकी आँखें सीधे घर की ओर थीं. कबीर का दिल धक से रह गया. उसने ध्यान से देखने की कोशिश की, पर अगली ही क्षण वो साया गायब हो गया.
उसने सिर झटका और खुद को सामान्य करने की कोशिश की.
शायद मेरा वहम है. वह बुदबुदाया.
आंटी ने उसकी ओर देखा—
क्या हुआ बेटा, सब ठीक तो है?
हाँ आंटी. कुछ नहीं।
वह मुस्कुराने की कोशिश करता रहा, लेकिन भीतर एक हल्की बेचैनी घर कर चुकी थी.
शाम को घर की रौनक और बढ गई. लाइटें जल उठीं, आँगन में चारपाइयाँ डाल दी गईं. सब लोग एक साथ बैठकर किस्से- कहानियाँ सुनाने लगे. कोई गाँव की बात करता, तो कोई पुराने दिनों की.
कजिन भाई ने कबीर से पूछा—
भैया, शहर में तो बहुत मजा आता होगा, है न? बडी- बडी गाडियाँ, चमचमाती सडकें, होटल. वहाँ तो हमारी तरह बोरियत नहीं होती होगी।
कबीर ने थोडी देर चुप रहकर जवाब दिया—
मजा. हाँ, दिखने में मजा लगता है. लेकिन असली मजा तो यही है—ये घर, ये चहल- पहल. वहाँ बहुत कुछ है, लेकिन अपनापन नहीं।
सब कुछ देर के लिए चुप हो गए. फिर आंटी ने हँसते हुए कहा—
सही कहता है ये. शहर सोना- चाँदी है, लेकिन गाँव मिट्टी की खुशबू है. असली जीवन तो मिट्टी में ही है।
सबने सहमति में सिर हिला दिया.
रात को खाने की मेज पर रौनक और बढ गई. हर किसी की प्लेट में गरमागरम पराठे, सब्जियाँ और मिठाइयाँ रखी गईं. सब लोग मजाक करते, खिलाते और खिलखिलाते रहे. कबीर को लंबे समय बाद ये एहसास हुआ कि परिवार के साथ बैठकर खाना खाने का स्वाद ही कुछ और होता है.
लेकिन उस सबके बीच, उसकी नजरें बार- बार दरवाजे की ओर चली जातीं. जैसे कोई बाहर अँधेरे में छुपा खडा हो. उसका दिल कह रहा था—कुछ गडबड है.
और सच भी यही था. हवेली के बाहर, घुप अँधेरे में, वही साया खडा था. उसकी आँखें घर के भीतर चमकती लाइटों पर टिकी थीं.
हवेली का बडा आँगन सुबह की धूप से नहा रहा था. नीम के पेड की छाँव में चारपाइयाँ डली थीं और बच्चों की हँसी चारों ओर गूँज रही थी. गाँव से आए कबीर के कजिन्स पूरे घर को सिर पर उठाए हुए थे. कोई गिल्ली- डंडा खेल रहा था, कोई पतंग उडाने की जिद पकडे था, तो कोई सीधे रसोईघर में घुसकर गरम पूडियों के पीछे पडा था.
कबीर सीढियों पर खडा ये सब देख रहा था. उसकी आँखों में अनजाना सुकून था. इतने दिनों से उसका घर सन्नाटे में डूबा रहता था, पर अब हर कोना जिंदा हो उठा था.
उसकी आंटी सुनीता रसोईघर से बाहर आईं. हाथ में बेलन था और माथे पर पसीने की बूंदें चमक रही थीं.
अरे कबीर बेटा! तुम सीढियों पर क्या खडे हो? नीचे आओ, देखो तुम्हारे छोटे भाई- बहन कैसे धमा- चौकडी मचा रहे हैं।
कबीर मुस्कराता हुआ नीचे उतरा. तभी उसकी बहन जैसी चचेरी सुमी ने पीछे से आकर उसकी कमीज खींची—
भैया, आओ न! पकडा- पकडी खेलते हैं. तुम हमें पकड नहीं पाओगे।
कबीर ने झूठ- मूठ की सख्त शक्ल बनाई.
अरे मैं तुम्हें पकड नहीं पाऊँगा? अब देखना.
और वह बच्चों के पीछे भाग पडा. आँगन में चीख- पुकार और हँसी का शोर गूँज उठा. कोई गिर पडा, कोई दौडते- दौडते फिसल गया. सबके कपडे धूल से भर गए, लेकिन किसी को परवाह नहीं थी.
इसी बीच कबीर का चचेरा भाई मंटू बोला—
भैया, हमें भी तुम्हारी बडी- सी गाडी में घुमाओ न! सुना है उसमें बटन दबाते ही गाना बजता है।
बाकी बच्चे भी शोर मचाने लगे.
हाँ- हाँ, हमें भी ले चलो!
हम भी शहर देखना चाहते हैं।
कबीर ने हँसते हुए सबको शांत किया.
अरे धीरज रखो, सबको ले जाऊँगा. अभी तो आँगन में ही मेरी जान अटकी है।
और फिर एक बार सबकी हँसी फूट पडी.
भाग दो( दूसरे पाँच सौ शब्द)
दोपहर तक घर पूरी तरह चहल- पहल से भर गया था. औरतें रसोई में जुटीं थीं, बच्चे खेलों में, और बडे- बुजुर्ग दालान में बैठे पुराने किस्से सुना रहे थे. सुनीता आंटी कभी किसी को डाँटतीं, कभी किसी को थपकी देतीं.
अरे बिट्टू! कितनी बार कहा, मिट्टी में मत लोटा कर. तेरी माँ देख लेगी तो मुझे ही सुनाएगी।
बिट्टू, जो पाँच बरस का था, हँसते हुए बोला—
आंटी, आप तो सबको डराती रहती हो।
कबीर ने आंटी की मदद करने का सोचा. उसने सब्जियाँ काटनी शुरू कर दीं. सुनीता ने उसे देख मुस्कराकर कहा—
वाह बेटा, बडे घरों के लडके तो हाथ भी नहीं लगाते. तू तो एकदम हमारा गाँव वाला ही है।
कबीर के चेहरे पर हल्की मुस्कान आई, लेकिन भीतर कहीं गहरी सोच थी. क्या वो वाकई इस सरल जीवन से जुडा रह पाएगा? उसकी असली दुनिया तो कहीं और थी—जहाँ ताकत, साजिश और रहस्य छिपे थे.
इसी दौरान बाहर आँगन से बच्चों का जोरदार शोर सुनाई दिया. सब मिलकर पतंग उडाने में लग गए थे. नीले आसमान में रंग- बिरंगी पतंगें झूल रही थीं. कोई चिल्ला रहा था—“ वो काटो! काटो! तो कोई कटी हुई पतंग के पीछे भाग रहा था.
कबीर ने ऊपर आसमान देखा और गहरी सांस ली. उसे लगा जैसे ये पतंगें ही उसकी जिंदगी हैं—एक पल आसमान में ऊँची, दूसरे ही पल किसी और की Door से कटकर गिरती हुई.
अचानक उसकी नजर गेट की तरफ गई. वहाँ किसी अनजान साये की हल्की सी झलक दिखी. कोई खडा था. चुपचाप. कबीर की साँस थम गई. पर जब उसने पलटकर देखा, तो वहाँ कोई नहीं था.
क्या ये मेरा वहम है? उसने खुद से पूछा.
पर दिल के किसी कोने में बेचैनी गहरी हो चली थी.
शाम ढलते ही हवेली की रौनक और बढ गई. आँगन में दीये जलाए गए, पेड की डाल पर झालर बाँधी गई. सब लोग चारपाइयों पर बैठ गए. बच्चों ने गीत गाने शुरू कर दिए, औरतें ताली बजातीं, बुजुर्ग कहकहे लगाते.
सुनीता आंटी ने कबीर को पुकारा—
बेटा, जरा हारमोनियम निकाल ला. तुम्हारा छोटा भाई गाना सुनाएगा।
कबीर हारमोनियम लाया. छोटा भाई सुर मिलाने लगा और सब तालियाँ बजाने लगे. माहौल एक मेले जैसा हो गया.
इसी बीच सुमी बहन ने कबीर को चिढाया—
भैया, आप भी गाओ न!
कबीर ने हँसते हुए टाल दिया.
नहीं- नहीं, मेरी आवाज से सब भाग जाएँगे।
पर सब लोग जिद करने लगे. कबीर ने झुककर थोडा- सा गुनगुनाया. उसकी आवाज में एक दर्द छिपा था. सब लोग चुपचाप सुनते रहे.
आंटी ने धीरे से कहा—
बेटा, तेरे सुर में सच्चाई है. तेरा दिल साफ है।
कबीर चुप हो गया. उसे लगा जैसे ये बातें उसके दिल को चीर रही हों.
इतने में अचानक आँगन के बाहर कुत्तों के भौंकने की आवाज आई. सब लोग चौंके. कोई देखने बाहर गया, लेकिन अंधेरे में कुछ भी नजर नहीं आया. कबीर के मन की बेचैनी और गहरी हो गई.
उसने मन ही मन सोचा—“ कोई तो है. जो हमें देख रहा है।
रात का खाना शुरू हुआ. बडी- बडी थालियों में पराठे, सब्जियाँ, खीर और पकौडे रखे गए. सब लोग एक साथ खाने बैठे. बच्चों की नोक- झोंक, आंटी की डाँट- फटकार, और बुजुर्गों की हँसी—सब मिलकर खाने का स्वाद और बढा रहे थे.
कबीर ने देखा कि उसकी कजिन बहनें एक- दूसरे के मुँह में मिठाई ठूँस रही थीं. मंटू भाई कबीर की प्लेट से आलू की सब्जी चुरा रहा था. सब इतने खुले दिल से जी रहे थे कि कबीर के मन में कसक उठी—काश जिंदगी हमेशा ऐसी ही रहती.
लेकिन तभी खिडकी के बाहर से हल्की- सी सरसराहट सुनाई दी. कबीर का ध्यान उधर गया. उसने देखा—जैसे कोई झाडी हिली हो. वह उठकर बाहर जाना चाहता था, पर आंटी ने रोक लिया.
अरे, खाने के बीच में कहाँ जा रहा है?
कबीर ने मुस्कराकर कहा—“ कुछ नहीं आंटी. बस हवा खाने।
पर उसके मन में सवाल घूम रहा था—क्या वाकई कोई बाहर छुपा है?
खाने के बाद सब लोग आँगन में बैठकर देर रात तक बातें करते रहे. बच्चे सो गए, बुजुर्ग नींद में ऊँघने लगे. सिर्फ कबीर की आँखें जाग रही थीं.
वह छत पर चला गया. हवा ठंडी थी. नीचे पूरे आँगन में रिश्तेदारों की मौजूदगी ने घर को मंदिर- सा पवित्र बना दिया था. पर उसकी नजर दीवार के उस पार टिकी रही.
और तभी—उसे साफ- साफ दिखा.
अँधेरे में वही साया खडा था. इस बार वह झलक नहीं, पूरा इंसान था. चेहरा छुपा हुआ, लेकिन नजरें सीधी हवेली पर जमीं थीं.
कबीर का दिल तेजी से धडकने लगा.
उसने खुद से कहा—
ये जो भी है, इसके इरादे अच्छे नहीं लगते।
नीचे आँगन में उसके कजिन्स हँसी- ठिठोली में मग्न थे. किसी को भनक तक नहीं थी कि घर के बाहर एक अनजानी आँखें उनके सुख- सपनों को देख रही हैं.
कबीर की मुट्ठियाँ कस गईं.
अगर ये खेल है. तो अब मुझे भी तैयार होना पडेगा।
कबीर छत की रेलिंग पर झुका खडा था. हवेली के नीचे रिश्तेदारों की धीमी हँसी और बच्चों की खर्राटों भरी नींद का माहौल फैला हुआ था. लेकिन उसका ध्यान सिर्फ उस साये पर था, जो अँधेरे में चुपचाप खडा होकर हवेली को ताक रहा था.
चाँद की हल्की रोशनी उस साये के इर्द- गिर्द पड रही थी, मगर चेहरे को छू नहीं पा रही थी. कबीर ने आँखें मिचमिचाकर देखने की कोशिश की. उसके कानों में सिर्फ हवा का शोर था, लेकिन दिल की धडकनें बहुत तेज हो चुकी थीं.
ये कौन है? उसने मन ही मन सोचा.
उसने नीचे आँगन में देखा. उसकी आंटी सुनीता बच्चों पर चादर डाल रही थीं. बुजुर्ग आधे सोए, आधे जागे थे. सब कुछ सामान्य लग रहा था. पर कबीर जानता था कि जो सामान्य दिखता है, वही कभी- कभी सबसे बडा खतरा छुपाता है.
उसने धीरे से सीढियों की ओर कदम बढाए. कदम दबाकर, ताकि किसी को पता न चले. उसके पैरों की आहट इतनी धीमी थी कि दीवार पर बैठी चिडिया तक न हिली.
जैसे ही वो आँगन में पहुँचा, उसे मंटू भाई की आवाज सुनाई दी.
भैया, इतनी रात गए कहाँ जा रहे हो?
कबीर ने झट से मुस्कान ओढ ली.
कुछ नहीं. बस नींद नहीं आ रही थी. सोचा थोडा बाहर घूम आऊँ।
मंटू ने आलस से करवट बदली और बडबडाया—
भैया भी न. आपको चैन कहाँ आता है।
कबीर ने उसकी बात अनसुनी की और धीरे से बाहर के दरवाजे की ओर बढा. हवेली का बडा गेट आधा खुला हुआ था, जैसे किसी ने जान- बूझकर पूरा बंद न किया हो. उसने गेट को धक्का देकर बाहर कदम रखा.
हवा में ठंडक थी, और चारों ओर सन्नाटा. पेडों की डालियाँ आपस में टकरा रही थीं, जैसे कोई फुसफुसा रहा हो. कबीर की आँखें अँधेरे में खोज रही थीं. और तभी—
वही साया कुछ दूर खडा था. अब वो और साफ दिख रहा था. लम्बा, चौडे कंधे वाला, लेकिन चेहरा अभी भी छुपा हुआ.
कबीर ने आवाज लगाई—
कौन हो तुम? और यहाँ क्या कर रहे हो?
कोई जवाब नहीं.
साया बस खडा रहा. फिर धीरे- धीरे उसने कदम पीछे खींचे, जैसे अँधेरे में और गहराई में समा जाना चाहता हो.
कबीर के भीतर बेचैनी बढ गई. उसने सोचा कि पीछा करे, लेकिन उसी वक्त पीछे से आंटी की आवाज आई—
कबीर! बेटा, कहाँ हो?
वह ठिठक गया. अगर वह अब आगे बढता, तो घरवालों को शक हो जाता. और अगर पीछे लौटता, तो ये साया गायब हो जाता.
उसके सामने दो रास्ते थे—
घर की रौनक और मासूम रिश्तेदारों की हिफाजत.
या इस अजनबी साये का पीछा करके सच जान लेना.
कबीर की मुट्ठियाँ कस गईं. उसके दिल में सवाल गूँज रहा था—
क्या इस घर की खुशियों पर कोई साया मंडरा रहा है?
कबीर छत से नीचे उतर आया. आँगन सुना था पर रिश्तेदारों की हँसी अभी भी कहीं गूँज रही थी. उसने गेट पर झाँका — कोई नहीं. फिर दरवाजे के पास मिट्टी पर ताजा पैर के निशान देखे. निशानों की दिशा गाँव की ओर जाती दिखी. क्या कोई लौट आया था? क्या खतरा निकट था? कबीर खामोशी में खडा रह गया, सवालों के साथ. और उसने चुपचाप ताबीज निकाला.
हवेली की गलियों में देर रात सन्नाटा पसरा था.
कबीर खिडकी से बाहर झाँक रहा था.
आगे सुनिए.