भारत की रचना / धारावाहिक
इक्कीसवां भाग
फिर भोजन खाने इत्यादि से निवृत होने के पश्चात, जेलर ने जब फिर से अपनी बात दोहराई और रचना से आग्रह किया, तो रचना ने भी उसको सब-कुछ बता दिया. उसने जेलर से, क्रम से एक-एक बात स्पष्ट कर दी. उसने उसको बताया कि, कैसे वह किसी की नाजायज़ सन्तान होने का कलंक अपने माथे पर लिए फिरती है. किस प्रकार उसका बचपन श्रीमती राय के कंधों का बोझ बनकर पला था. किस तरह से वह जवान हुई. किन-किन परिस्थितियों में वह मां-बाप के के प्यार के लिए सदा तरसती रही. कब बचपन में उसका पालन करनेवाली मां श्रीमती राय का सहारा छूत गया और क्यों वह अनाथालय की शरण में जा पहुंची. कब उसकी शिक्षा आरम्भ हुई. किसने उसका भार उठाया और अब जबकि, वह अपना बोझ स्वयं उठाने के लायक हुई भी थी, तो उसकी कक्षा के सहपाठी रामकुमार वर्मा ने उसे कितना ज़बरदस्त धोखा दिया था? उसने किस जालसाजी से अपना ब्रीफकेस उसे थमा दिया था. वह कैसे गिरफ्तार हुई थी? गिरफ्तार होने के पश्चात किस निर्दयता से उसको हॉस्टल, कॉलेज और अनाथालय की शरण से निकाल दिया गया. फिर किस प्रकार मुकद्दमें में रामकुमार वर्मा ने सरासर झूठ बोलकर स्वयं को बचा लिया और अबूतों के अभाव में किस तरह से उसको जेल हो गई. वह क्यों यहाँ जेल के सींखचों में बंद अपनी किस्मत पर आंसू बहा रही है?
इतना सब-कुछ कहते-कहते रचना की बड़ी-बड़ी गोल आँखों से आंसू स्वत: ही किसी श्रृंखला की कड़ियों के समान टूट-टूटकर बिखरने लगे. जेलर ने रचना के फिर से आंसू देखे, तो एक बार को उसका भी दिल पसीज़ गया. उसने तब सोचा, 'इतना दुःख, ऐसा छल, कितनी जटिल और आफत-भरी परिस्थितियों में जीने को विवश हो गई है रचना? अपने यहाँ का समाज, एक निर्दोष को कितनी बेदर्दी से कुचलना जानता है? कानून को सबूत चाहिए होते हैं. पैसों की झनकारों के आगे वर्मा ने तो सबूतों के ढेर लगवा दिए होंगे. और रचना...? सोचकर ही जेलर का सारा दिमाग ही भनभना गया.
उसने रचना को ढांढस बंधाते हुए कहा कि,
'रचना ! मैं तुम्हारा दुःख समझ रही हूँ, महसूस भी करती हूँ, लेकिन, कोई बात नहीं, तुम चिंता मत करो. मैं, सरकार से या तो तुम्हारी सज़ा मॉफ या फिर कम करवाने के लिए अर्ज़ करूंगी. यदि, इसमें कुछ भी नहीं हुआ तो मैं तुम्हारा केस फिर से निकलवाऊँगी. मुझे विशवास है कि, तुम्हारी निर्दोषिता को सामने पाकर कोई नहीं, तो कम-से-कम तुम्हारा ईश्वर, जिस पर तुम विश्वास करती हो, अवश्य ही मदद करेंगे.'
-खामोशी.
रचना केवल खामोश ही रही. आंसू उसके चहरे पर सरकते हुए, लकीर बनकर अब सूख चले थे. वह कहही क्या सकती थी? कुछ कहने लायक ही वह कब रही थी? उसकी जुबान तो उसी समय कट गई थी, जबकि कॉलेज से जाते समय रामकुमार वर्मा ने उसके साथ छल करके अपना मादक वस्तुओं का ब्रीफकेस उसके हाथों में थमा दिया था. इसलिए ज़िन्दगी के इस मोड़ पर आकर अब उसकी राहों में आंसुओं के सिवा और बचा ही क्या था? जीवन के दिन-रात बहते हुए इन आंसुओं की आप-बीती ही शायद उसकी किस्मत बन चुकी थी? ऐसे में जब भी उसके दिल का दर्द उसकी मानसिक परिस्थितियों का दामन थामकर उस पर हावी हो जाता था, तो आंसू, सदैव ही उसके जीवन के हमराज बनकर उदित हो जाते थे. यूँ, वैसे भी कभी-कभी मानव-जीवन के बनते-बिगड़ते आयाम, इस प्रकार से अपना रूप प्रगट करते हैं कि, जहां पर उलझकर मनुष्य सुलझने की चेष्टा में उलझ-उलझकर स्वयं में मात्र एक गुत्थी ही बनकर रह जाता है.
रचना की भी उलझन परिस्थितियों और समस्याओं से समझौता करके उसके जीवन की वह गांठ बन गई थी, कि जिसको खोलने के लिए भरपूर समय की आवश्यकता थी- और समय की प्रतीक्षा में आस लगाये हुए रचना थी- उसकी हमदर्द जेलर थी- तथा , इसके अतिरिक्त कोई और भी था- भारत- उसका भारत.
भात प्रतीक्षा की घड़ियाँ अपनी अँगुलियों पर रोजाना गिन-गिनकर वह अब तक शंकित भी हो चुका था. कॉलेज में वह प्रतिदिन ही रचना की बात जोहता था. हर पल उसकी आँखें कॉलेज के चप्पे-चप्पे में रचना की खुशबू को महसूस तो करती थीं, पर उसकी एक झलक देखने को तरसकर ही रह जाती थीं. रचना की यूँ अचानक से गुमशुदा पलायनता के कारण वह तो परेशान था ही, साथ ही उसके दिल के अंदर बसी हुई प्यार की भावनाएँ, भी जैसे उससे अनेकों-अनेक प्रश्न भी करने लगी थीं.
शनिवार का दिन था.
दिन के दो बज रहे थे. कक्षाएं लगी हुई थीं. सारे कॉलेज में खामोशी, एक अनजाने व्यक्ति के समान अपने पैर पसारकर सो गई थी. चारों ओर शान्ति थी. कॉलेज की विशाल लाइब्रेरी में स्थान-स्थान पर विद्दयार्थी बैठे हुए अपने अध्ययन में लीन थे. कुछेक, जैसे अपना खाली पीरियड का समय व्यतीत करनो को चले आये थे, तो कुछ मात्र जैसे लाइब्रेरी में बस चले ही आये थे. लाइब्रेरी की कोनेवाली सीटों पर कुछेक चंचल छात्राएं बैठी हुई आपस में चुहलबाजी करती हुई धीमें-धीमें बातें कर लेती थीं. जब कभी भी उनकी बातों की ध्वनि कुछ आवश्यकता से अधिक तीव्र हो जाती थी, तो कुछेक वहां अध्ययनरत बैठे हुए विद्द्यार्थियों के कान स्वत: ही सतर्क हो जाते थे.
भारत भी आज अपनी कक्षा छोड़कर लाइब्रेरी में आ गया था और दैनिक न्यूज़ पेपर खोले हुए बैठा था- बेमन से ही. कक्षा में उसका मन नहीं लग सका था तो वह यहाँ आकर बैठ गया था. लाइब्रेरी की सबसे अलग और अकेली सीट पर बैठा हुआ वह जब कभी खबरों से सने हुए अक्षरों पर अपनी दृष्टि केन्द्रित कर देता था. यूँ, वैसे भी उसका मन नहीं लगता था. मुक्तेश्वर के इस पूरे इलाके में, उसे कोई भी अपना नज़र नहीं आता था. अपने पिता के निधन के कारण वह कुछ सीमा तक वह वैसे भी टूट चुकास था. उसके पिता के अतिरिक्त इस भरे संसार में उसका कोई भी दूसरा अपना नहीं था. उसकी मासं, बचपन में ही उसको छोड़कर चल बसी थी. फिर, ऐसी स्थिति में वह कहाँ जाता? किधर भागता? किसे देखता? वह किसकी आस करता? सब-के-सब उसे जीवन पथ के इस सूने संसार में, नितांत अकेला छोड़कर जा चुके थे. मुक्तेश्वर के इस छोटे-से गाँव धानपुरा में, उसका अपना पुश्तैनी हवेलीनुमा मकान था. अपना घर था. उसके पिता की छोड़ी हुई ज़मीन और जायदाद थी, जिसे वह अभी लगभग दूसरे की जिम्मेदारी पर छोड़ आया था. उसके घर का एक बहुत ही विश्वसनीय नौकर भी था- कालू. वह वर्षों से उसके पिता की सेवा करता आया था. भारत को उसी पर विश्वास भी था. इसी कारण वह कालू पर अपने घर और खतों का सारा भार छोड़कर यहाँ अपनी शिक्षा पूरी करने चला आया था. यही सोचकर कि, कभी-कभी वह छुट्टियों आदि में धानपुरा जाकर अपने घर देखभाल कर आया करेगा. अपने खेतों आदि को देख लिया करेगा. लेकिन, जब से वह अपने गाँव से आया था, तब से उसका अब घर लौटने का मन ही नहीं करता था.
धानपुरा की स्मृति मात्र से ही उसके दिल का दर्द पहले से और भी अधिक बढ़ जाता था. जब भी कभी उसने अपने घर जाने का विचार किया, तो सोचने ही भर से उसकी आँखें भर आई थीं. दिल में उसके दर्द था- तकलीफ थी- एक बे-सुर बे-आवाज़ का शोर भरा हुआ था. उसके अतीत की अनकही घटना का कोई ज़िक्र था, जिसे वह जानता था और उसका दिल. भारत, ये भी जानता था कि, एक दिन उसके दिल का ये दुःख, उसके दर्दभरे अतीत का सहारा लेकर उसके रिश्ते हुए ज़ख्मों का नासूर बन जाएगा. कभी-न-कभी तो ऐसा होगा ही, क्योंकि जब किसी चीज़ का कोई इलाज नहीं, तो फिर समय ही उसका इलाज किया करता है. परन्तु जब तक ऐसा हो पाता है, तब तक बहुत कुछ परिवर्तित हो जाया करता है- बदल जाता है- मनुष्य- मनुष्य का दिल और उसके भविष्य के तमाम इरादे भी.
लाईब्रेरी में बैठे-बैठे, भारत का मन उचाट हो गया. अखबार में उसका मन नहीं लग सका और पीरियड समाप्त होने को आया, तो उसने अखबार को एक ओर मेज पर छोड़ दिया और उठकर बे-मन से पुस्तकों की अलमारी की तरफ बढ़ गया. वहां पर खड़े होकर वह पुस्तकों के शीर्षकों को ही पढ़ने लगा. फिर, चलता हुआ वह शीर्षकों को एक निगाह से पढ़ता हुआ, बिलकुल अंत तक पहुँच गया. पहुँच गया तो उसने और भी कई-एक पुस्तकों को देखा, फिर एक नज़र सारी लाईब्रेरी को निहारा. खिड़की से बाहर की ओर झांककर, सारे कॉलेज के प्रांगण पर एक उचटती हुई दृष्टि डाली. दूर, हरे-भरे खेतों के साथ, हरियाली किसी दुल्हन के समान सजी हुई सारे वातावरण का जैसे स्वागत कर रही थी.
भारत का जब वहां पर भी मन नहीं लग सका, तो उसने वापस लौटना ही उचित समझा. ऐसा, सोचकर वह वहां से चलने को ही हुआ था कि, अलमारी में रखे हुए पुराने अखबारों को देखकर वह अचानक ही ठिठक गया. वहां पज्र एक अखबार नीचे की ओर लटक रहा था- आधा गिरा हुआ-सा- उस अखबार के सहारे एक मकड़ी बार-बार नीचे की तरफ गिरती थी तथा फिर तीव्रता से ऊपर उठकर चली भी जाती थी. मकड़ी के द्वारा अपना घर बनाने की ललक देखकर, वहां भारत का मन लग गया तो वह बहुत अच्छी तरह से उसे ध्यान से देखने लगा. देखते हुए फिर कुछेक क्षण यूँ ही व्यतीत हो गये. इतने में मकड़ी ने जाने के कई-एक चक्कर पूर्ण कर लिए थे. भारत उसको अभी निहार ही रहा था, कि अचानक ही उसकी नज़र उन्हेदं अखबारों में से एक अन्य अखबार के शीर्षक को पढ़कर चौंक गई. उसने शीघ्र ही, बगैर कुछ भी सोचे-समझे उस अखबार को पकडकर खींच लिया. अखबार के प्रथम पृष्ठ पर ही मोटे-मोटे अक्षरों में लिखा हुआ था-, 'राजकीय कॉलेज मुक्तेश्वर की स्नातक छात्रा का मादक वस्तुओं का तस्करी काण्ड.'
उपरोक्त शीर्षक पढ़कर ही, भारत की उत्सुकता और भी अधिक बढ़ गई. फिर, जैसे ही उसने छात्रा का फोटो देखा तो शीघ्र ही उसे पसीना आ गया. अखबार पर फोटो किसी अन्य की नहीं, उस रचना की थी, जिसको वह हर रोज़ अपने प्यार का उपहार थामें हुए, उसके आने का रास्ता देख रहा था. ये फोटो, उसके हृदय की वह 'रचना' थी, कि जिसकी मात्र एक हल्की-सी परछाईं बनाकर, वह चली भी गई थी- जिसके प्यार के अंकुर उसके दिल के चमन में उगे तो थे, परन्तु ज़माने की आँधियों की बजह से स्थिर नहीं हो पा रहे थे.
-क्रमश